देहरादून में वेलेंटाइन्स डे पर अनोखी पहल
वेलेंटाइन्स-डे पर जहां पूरी दुनिया में महंगे तोहफों, फूलों और रंगबिरंगे कार्डो की बहार है वहीं देहरादून में प्रेम के प्रतीक इस पर्व को प्रकृति से जोड़ने की अनूठी पहल की है एक संस्था ने.
मैती नाम की इस संस्था ने इस मौके पर प्रेमी जोड़ों को पौधे दिए, उनसे पेड़ भी लगवाए और पर्यावरण संरक्षण का वादा लिया.
मैती के कार्यकर्ताओं ने सड़कों, पार्को और जगमगाती दूकानों के आगे स्टॉल लगाकर पौधे बाँटे.
प्रेम करने वालों को भी कुदरत का ये अनोखा तोहफा और उससे जुड़ा उद्देश्य पसंद भी आया.
लंबी उम्र
वेलेंटाइन्स वृक्ष लगाकर वो भी अपने प्रेम को एक लंबी उम्र देना चाहते हैं.
एक स्कूली छात्रा चेतना कहती हैं, “गिफ्ट तो सभी देते हैं और वो कल रहे या न रहे लेकिन हम पेड़ को देखकर कह तो सकते हैं कि हमने साथ एक पेड़ लगाया था. दूसरी बात ये कि पर्यावरण को बचाने के लिए भी ये अच्छा है.”
हमने काफी दिन पहले से इसके लिए तैयारी की थी. स्कूलों कॉलेजों में हमने पर्चे बांटे थे और अखबारों में भी सूचना भेजी थी. आज हमारे यहां आर्चीज़ जैसी भीड़ तो नहीं लेकिन इतना क्या कम है कि लोग हमारे यहां आ रहे हैं, रूकते हैं, देखते हैं, हमारे नारे पढ़ते हैं और उनमें से कुछ पौधे लेकर जा रहे हैं अमित गैरोला, मैती के कार्यकर्ता
उन्हीं की दोस्त कल्पना कहती हैं, “इस दिन को यादगार बनाने के लिए ये एक अच्छी परिकल्पना है.”
अपनी दोस्त के लिए हरसिंगार का पौधा ले जाते इंजीनियरिंग के छात्र अनूप कुमार कहते हैं, “मैं ये तो नहीं कहूंगा कि मैं दूसरा गिफ्ट नहीं दूंगा लेकिन हां, मैं अपनी मित्र को ये पौधा भी ज़रूर दूंगा. और मैं चाहूंगा कि बाकी लोग भी मेरी तरह से पेड़ लगाएं तो आज एक ही दिन में हज़ारों पेड़ लग जाएंगें.”
स्टॉल लगाने वाले मैती कार्यकर्ता भी युवक युवतियों के इस उत्साह को देखकर खुश हैं. उन्हें लगता है कि उनका प्रयास रंग ला सकता है.
एक मैती कार्यकर्ता अमित गैरोला का कहना है कि, “हमने काफी दिन पहले से इसके लिए तैयारी की थी. स्कूलों कॉलेजों में हमने पर्चे बांटे थे और अखबारों में भी सूचना भेजी थी. आज हमारे यहां आर्चीज़ जैसी भीड़ तो नहीं लेकिन इतना क्या कम है कि लोग हमारे यहां आ रहे हैं, रूकते हैं, देखते हैं, हमारे नारे पढ़ते हैं और उनमें से कुछ पौधे लेकर जा रहे हैं.”
मैती और परंपरा
दरअसल मैती संस्था की शुरूआत 1994 में उत्तरांचल के चमोली गढ़वाल के ग्वालदम क्षेत्र से हुई थी.
क्षेत्र के गांवों की कुंवारी लड़कियों को जल जंगल ज़मीन से उनके कुदरती लगाव को पर्यावरण संरक्षण से जोड़ने की मुहिम को मैती नाम दिया गया.
स्थानीय बोली में ‘मैत’ का मतलब मायका और ‘मैती’ मतलब मायके का होता है.
इस तरह लड़कियों के साथ मुहिम शुरू कर इसमें गांव की बुज़ुर्ग महिलाओं, पुरूषों और विवाहित लोगों को भी जोड़ा गया.
विवाह कर ससुराल चली जाने वाली लड़की शादी के समारोह के दौरान एक पौधा अपने घर के पास रोप कर जाती.
इस तरह वो पेड़ के रूप में, विदाई के समय एक मैती की याद भी अपने साथ ले जाती. ये परंपरा, बिखरी हुई पौधशालाओं की तरह अब गढ़वाल और कुमाऊं के कई गांवों तक फैल गई है.
अब ये बहुचर्चित मैती आंदोलन अपने ग्याहरवें साल में वेलेंटाइन-डे के साथ नए रंग रूप में आया है. और मक़सद है शहरी युवा वर्ग को अपनी मिट्टी अपने जंगल और अपनी धरती के प्रति जागरूक करना.
तमाम लोग वेलेंटाइन्स डे का इस या उस बहाने विरोध करते हैं लेकिन मैं कहता हूं कि इसका विरोध न करके इसे रचनात्मक रूप देना चाहिए. प्रेम की याद में अगर कोई कहीं एक पेड़ लगाता है तो ये शायद ये पेड़ उनके वेलेंटाइन-डे की एक बहुत बड़ी अहमियत होगी कल्याण सिंह रावत, संस्थापक, मैती
मैती के संस्थापक कल्याण सिंह रावत कहते हैं, “तमाम लोग वेलेंटाइन्स डे का इस या उस बहाने विरोध करते हैं लेकिन मैं कहता हूं कि इसका विरोध न करके इसे रचनात्मक रूप देना चाहिए. प्रेम की याद में अगर कोई कहीं एक पेड़ लगाता है तो ये शायद ये पेड़ उनके वेलेंटाइन-डे की एक बहुत बड़ी अहमियत होगी. अगर सालों बाद आप उस जगह जाएं जहां वो पौधा रोपा था तो उसे देखकर निश्चित ही आपको खुशी होगी.”
इस बार तो मैती अकेली संस्था है हो सकता है कि अगली बार कुछ और संस्थांएँ कुछ और शहरों में ऐसा कर रही हों.