Author Topic: Dhad Orgnization Uttarakhand-धाद संस्था उत्तराखण्ड  (Read 16055 times)

पंकज सिंह महर

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गढ़वाली भाषा में कबीर की परम्परा के जानकार कवि चिन्मय सायर के मुक्तकों और दोहों का संग्रह तिमळा फूल का भी प्रकाशन धाद द्वारा किया गया है।


पंकज सिंह महर

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लगभग ३५० पृष्ठों के इस ग्रन्थ में उत्तराखण्ड को देखा-समझा जा सकता है, यह ग्रन्थ उत्तराखण्ड का एक ऐतिहासिक ग्रन्थ कहा जा सकता है। इसे १९९४ में प्रकाशित किया गया और इससे उत्तराखण्ड आन्दोलन को एक वैचारिक गति भी मिली। इसी पुस्तक को १९८७ से १९९७ के बीच प्रकाशित सर्वश्रेष्ठ पुस्तक का सम्मान इण्डिया टुडे के सर्वे में किया गया।


पंकज सिंह महर

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शादी-ब्याह और शुभ कार्यों में गाये जाने वाले मांगल गीतों का संकलन श्री तोताराम ढौंढियाल जी ने किया है और इसे पुस्तक रुप में धाद द्वारा प्रकाशित किया गया है। विलुप्त होती जा रही परम्पराओं को संरक्षित करने का धाद का कार्य सराहनीय है।


पंकज सिंह महर

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धाद संस्था की पहल को स्थानीय समाचार पत्रों ने गंभीरता से लिया था।
 
उत्सवों के शोर में गुम हुए लोक कलाकार संस्कृति विभाग को नहीं कला के असली वारिसों की खबर
देहरादून
हाल में सांस्कृतिक व साहित्यक संस्था धाद ने ऐसे कलाकारों की सूची संस्कृति विभाग को सौंपी है, जो सत्तर की उम्र पार कर चुके हैं तथा इनमें से कई अपनी-अपनी विधा के अकेले कलाकार या अकेले उस्ताद हैं। यदि इन वयोवृद्ध कलाकारों की मृत्यु हो जाती है तो पितरों की विरासत से आई कई दुर्लभ कलाएं पूर्णतः विलुप्त हो जाएंगी। संस्था ने वि ाग पर यह आरोप ी लगाया है कि वह समय-समय पर हो रहे मंचीय उत्सवों तक ही सिमटकर रह गई है। मंचीय कला नगरीय चरित्र की होने से वास्तविक ग्रामीण कलाकार या तो इन तक पहुंच नहीं पाता या आना नहीं चाहता। तहसील से राजधानी स्तर तक होने वाले शरदोत्सव, वसंतोत्सव आदि पर विभाग करोड़ों खर्च कर देता है, बल्कि यह पैसा जिन संस्थाओं पर खर्चा जाता है, उनका लोक कलाओं से गहरा सरोकार नहीं है। एनजीओ नुमा ये चालू कल्चरल ट्रुप एण्ड के अनुरूप अपने मुखौटे बदल देते हैं। यदि संस्कृति में पैसा है तो संस्कृति और यदि एड्स जागरूकता कार्यक्रम में हो तो उसका चोला। अधिकांश संस्थाएं नौकरशाहों व नेताओं की करीबी हैं, और इनको प्रोग्राम अलॉट होने के मामले में कमीशन का धंधा भी जुड़ा है।
धाद के तन्मय ममगांई कहते हैं जिन उपेक्षित कलाकारों की सूची विभाग को दी गई है वे सभी अत्यंत निर्धन है,बावजूद उनके पास बीपीएल कार्ड नहीं हैं। विभाग से संस्कृतिकर्मियों को मिलने वाली 1000 रुपए की पेंशन भी उन्हें नहीं मिलती।
कलाकार सुदूर क्षेत्रों में रहते हैं, उन्हें किसी सरकारी योजना की जानकारी नहीं हो पाती। ममगांई कहते हैं असल बात उन्हें पेंशन या बीपीएल कार्ड देने का मामला उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना उस कला को संरक्षित करना जिसके वे अनूठे वारिस हैं। उत्तर प्रदेश के समय में लोक कलाकारों को पूछने वाला कोई नहीं था, लेकिन राज्य बनने के नौ साल बाद भी उनकी हालत वैसी ही बनी रहेगी, ऐसी किसी ने अपेक्षा नहीं की थी। राज्य का निर्माण सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की तलाश का एक परिणाम थी। हमारे गांवों में कलाकारों ने विविध गीत, संगीत व वाद्य यंत्र संजो रखे हैं। इस विरासत को विष्य की पीढ़ियों को देने के लिए इसका डॉक्टूमेंटेशन होना चाहिए। संस्कृति विभाग व राज्य के प्रमुख विश्वविद्यालयों को इस काम में लगाया जा सकता है। राज्य बना था तो कुछ लोगों ने यह परिकल्पना भी की थी कि केएमवीएन व जीएमवीएन के अतिथि गृहों में स्थान मिलेगा। जहां वे पर्यटकों को स्थानीय संस्कृति से रूबरू कराएंगे। इससे रोजगार व संस्कृति संरक्षण दोनों सं व होगा। 400 करोड़ के कुंभ में हेमा मालिनी व कैलाश खेर जैसे कलाकार तो बुलाए लाखों पे कर बुलाए गए, लेकिन अपने ही कलाकार बिसरा दिए गए। सीएम मुख्यमंत्री खुद संस्कृति मंत्री हैं तथा खुद को कवि-लेखक भी बताते हैं, लेकिन बुजुर्ग कलाकारों को सम्मान देने की सुध नहीं आई।

कलाकार जो लगभग अंतिम वारिस हैं

1-मोलूदास ढोल वादक हैं ग्राम फंलासी, पोस्ट जाखनी, जिला रुद्रप्रयाग के रहने वाले मोलू की माली हालत ठीक नहीं है साथ ही वह एक पैर से लगंडाते हैं।
2-ग्राम थाला पोस्ट मोहनखाल, जिला रुद्रप्रयाग के जतरू लाल ढोल वादक हैं। अत्यंत निर्धनता में जीवन जी रहे हैं।
3 हिम्मती लाल का गांव चमोली के तपोवन क्षेत्र का लाटा गांव है। वह नंदा जागर गाते हैं साथ ही मुखौटा नृत्य करते हैं। घर की हालत ठीक नहीं है।
4- जोशीमठ के निकट सुण गांव के थान सिंह नेगी पारंपरिक रामायण व नंदा जागर गाते हैं। वह क्षेत्र में रामायण गाने वाले अकेले गायक बचे हैं।
5-सोहण लाल बाण पातर व महाभारत नृत्य करते हैं। वह अपनी तरह के तीन कलाकारों में से एक हैं, जो इस दुर्लभ कला को जीवित रखे हुए हैं। सोहण लाल नंद प्रयाग के नौंणा गांव में रहते हैं।
6- पूरण लाल  गोपेश्वर के कुजोमैकोट गांव में रहते हैं। पातर  डांस करते हैं। आर्थिक हालत दयनीय है।
7- नैण परंपरा के नृत्य के अकेले कलाकार हैं घणानंद उर्फ खंटू। वयोवृद्ध कलाकार के रुखसत होने से यह कला समाप्त हो जाएगी। वे हस्कोट गांव नारायण बगड़ में रहते हैं।
8-द्वाराहाट निवासी भुवन चन्द्र लाहिड़ी कुमांऊनी लोक नृत्यों में महारत रखते हैं। उनकी कई अदाएं उनके साथ ही विदा हो सकती हैं।
9- भुवन राम का गांव जागेश्वर में है। वयोवृद्ध कलाकार अब पेशे के लिए नहीं बजाते, बीमारी ने उन्हें जकड़ रखा है। वह ढोल के मास्टर हैं।
10- नौटी गांव चमोली के जगदीश सती भैरव की जागर गाते हैं। वह भी अपनी पीढ़ी के अंतिम कलाकारों में से हैं।
11- नंदाजागर व मांगल को मूल रूप से गाने वाले कुछ ही कलाकार रह गए हैं। गांव क्वीली, जिला रुद्रप्रयाग की स्वर्णी देवी, जानकी देवी, रामचन्द्री देवी ऐसे ही कुछ गायिकाओं  में हैं।
12- बेड़ा गायन उत्तराखंड की एक अलग पहचान है। प्रेम व विरह गीत वाले बेड़ा गायन में कितने कलाकार हैं, इसकी भी गणना नहीं हुई। ग्राम तिलवाड़ा, रुद्रप्रयाग के मोहन लाल व चकोरी देवी व दोनी, टिहरी के कविराज  ने इसे आज भी संजो रखा है।
13-त्रिजुगी नारायण की जागर गाने वाले कलाकार भी बहुत थोड़े हैं। यह भी आशंका है कि बुजुर्ग पीढ़ी के साथ ही यह जागर लुप्त हो जाएगी। त्रिजुगी नारायण, रुद्रप्रयाग के 80 वर्षीय बचन लाल व उनके सहयोगी शिवन लाल इसके उस्ताद माने जाते हैं।
14- अखोड़ी गांव , टिहरी के मिजाजी व शिवजनी , जाकीजगर गांव के ओमकार दास , वेदशाला देवप्रयाग के भास्करानंद ढोल वादन में बड़े उस्ताद माने जाते हैं। यह संभव है कि ये कलाकार केशव  अनुरागी (ढोल सागर के रचयिता)  के बराबर का ज्ञान रखते हों लेकिन अनुरागी की तरह वे चुपचाप विदा न हो जाएं इसके लिए समय से कलाकारों की सुध लेनी होगी।
15-चकराता की पहचान महासू देवता हैं। महासू कुछ समय यमुना पर हिमाचल चले जाते हैं तो कुछ समय उत्तराखंड आ जाते हैं। पशु चारकों के देवता महासू के इर्द-गिर्द स्थानीय जीवन की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति प्रकट हुई है। समय के साथ महासू की स्तुति गान करने वाले कलाकार नाम मात्र के रह गए हैं। हालांकि भीड़ को देखकर नेताओं, ठेकेदारों ने मेले पर अपना रंग जरूर चढ़ा रखा है। ऐसा प्रतीत होता है कि महासू का स्तुति गान ऋज्वेद में मौजूद पशुचारकों के आदि शक्ति के आह्वान की जैसी कल्पना है। महासू गायने के सबसे सिद्धहस्त कलाकार बागी गांव निवासी चरणदास व त्यूनि निवासी मदनदास फिल्हाल जीवित हैं।

पंकज सिंह महर

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हमारे वरिष्ठ सदस्य श्री धनेश कोठारी जी के काव्य संग्रह "ज्यूंदाळ" का प्रकाशन भी धाद संस्था द्वारा किया गया।


पंकज सिंह महर

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धाद की पहल पर एक समाचार-

धाद का ‘हिन्दी सृजन एकांश’

हिमालयी साहित्य, संस्कृति,कला और जन-सरोकारों को लेकर काम कर रही ‘धाद’ संस्था ने अब अपने अभियान को सम्पूर्ण हिन्दी पट्टी तक ले जाने के प्रयोजन से ‘हिन्दी सृजन एकांश’ का गठन किया है।

इस अवसर पर रेसकोर्स स्थित आफीसर्स ट्रांजिट हॉस्टल में एक वृहद कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ कवि पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी ने की, कार्यक्रम के दूसरे सत्र में ‘धाद’ के हिन्दी सृजन एकांश के गठन के उद्देश्यों को बताते हुए लोकेश नवानी ने कहा कि आंचलिक स्तर पर धाद के प्रयासों को तमाम रचनाधर्मियों तक पहुंचाने के लिए एक ऐसे मंच की आवश्यकता लम्बे समय से महसूस की जा रही थी।

उन्होंने कहा कि ‘हिन्दी सृजन एकांश’ धाद का एक ऐसा मंच होगा जिसमें वे सभी रचनाधर्मी शर्मिल हो सकेंगें जिनका सीधा सम्बन्ध पर्वतीय प्रदेश से बेशक न हो परन्तु उनकी चिन्ताओं में हिमालय और यहंा का समाज शामिल रहा हो। ‘धाद’ के तन्मय ममगाई ने ‘हिन्दी सृजन एकांश’ की भावी योजनाओं की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए बताया कि उत्तराखण्ड के पर्वतीय समाज, संस्कृति, समस्याओं और बिडम्बनाओं  को आधार विषय बनाकर अगले छः माह में ‘धाद’ हिन्दी कहानी का एक वृहद वार्षिकांश प्रस्तुत करने जा रहा है। अगले वर्ष का अंक कविता पर केन्द्रित होगा।

इस प्रकार प्रति वर्ष ‘धाद’ का हिन्दी सृजन एकांश किसी एक विधा में प्रस्तुत करेगा जो हिमालय के इस अंचल के विश्वास, सुख,दुःख और समग्र परिवेश को उद्घाटित करती है। इस अवसर पर ‘धाद’ ने हिन्दी के कथाकारों का आह्वान किया है कि वे अपनी कहानियां प्रकाशनार्थ प्रेषित कर इस आयोजन में अपनी सहीभागिता सुनिश्चित करें। कहानियां पर्वतीय सरोकारों से सम्बद्व होनी चाहिए। दूसरे सत्र की अध्यक्षता करते हुए ओ0एन0जी0सी0 के प्रबन्धक राजभाषा श्री दिनेश थपलियाल ने कहा कि लोक साहित्य और लोक भाषा के क्षेत्र में ‘धाद’ वर्षो से बेहतर काम करती रही है।अब हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में संस्था का पदार्पण नई उम्मीदें जगाने वाला है।

कवि पद्मश्री लीलाधार जगूड़ी ने कहा कि ‘धाद’ को उन लेखको को भी ढूंढना चाहिए जो उत्तराखण्ड के हिमालयी क्षेत्र में भले न रहे हों लेकिन यहां  के बेहद संवेदनशील रहे है। साथ ही उन रचनाधर्मियों को भी संस्था को तलाशना चाहिए जो कम लिख रहे है लेकिन अच्छा लिख रहे है। युवा साहित्यकार मुकेश नौटियाल ने ‘धाद’ के रचनात्मक प्रयासों की प्रसंशा करते हुए कहा कि दस वर्ष के इस प्रदेश में अभी तक एक ऐसी सृजनशील संस्था की अनिवार्यता बनी हुई है जो यहां की तमाम ऊर्जावान प्रतिभाओं को मंच प्रदान कर सके। धाद इस काम को करती है तो इससे संवेदनाओं से भरा यह पर्वतीय अंचल समृद ही होगा.

गोष्ठी में रमेश धिलड़ियाल,कमला पंत,संतोष डिमरी,पुष्पा विष्ट,शंन्ति प्रकाश,तोता राम ढोढ़ियाल,अमरदत्त बहुगुणा,के0एस0नेगी आदि उपस्थित है। कार्यक्रम का संचालन कवियित्री बीना बेंजवाल ने किया इस अवसर पर निम्न कवियों ने कविता पाठ किया।

1.लीलाधर जगूड़ी
जो ढोकर खाते है वे प्रवाह पा जाते है

2.सविता मोहन
पत्ती तनिक रूठ गई क्या पता था पेड़, तलाक देगा

3. चारूचंद्र चंदोला
सही में नही है कही भी हरियाली,

4. विपित विहारी सुमन
आजकल व्यवहार की नदियों में पानी है कहंा रेत से तट पट गए, पंछी बड़ी मुश्किल में है।

5.दिनेश थपलियाल
अब तलक खेलते आए थे होली रंग से खून से कोई खेल होली तो क्या कीजिए

6.लोकेश नवानी
मैं तब कई बार आसफल हो जाता हूँ जब मुझे सौ फीसदी सफलता का विश्वास रहता है

7. भास्कर उप्रेती
पानी नही रहेगा तो सिर उठाने लगेगा पानी में डूबा घंटाघर

8. रमेश क्षेत्री
केवल फूलो की सुंदरता नही है जीवन फूल और काँटो से ही संवरता है उपवन

9.निर्मल रतूड़ी
दूध के भूखे बच्चो पर गर्व करते है और देश्ज्ञ का झण्डा ऊँचा करते है।

10.बीना बेजवाल
आग जो एक ही चूले में जलकर बँटती थी गांव के घर घर में/चूल्हो को ठंडा छोड़े/सुलगने लगी थी


साभार- www.hillwani.com

Sanjay Pal

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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नाज है, गर्व है धाद संस्था के कार्यकर्ताओ पर! इनका यह प्रयास अनुकरणीय है !

जय भारत जय उत्तराखंड



Bhishma Kukreti

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I have been witness of Dhad 's activities from its inception when Bhai Lokesh Navani shifted from Delhi to Dehradun
Earlier, Delhi was capital of Garhwali literature but after Dhad's activities Dehradun became the central point of activities of Garhwali language literature
History will always remember with high regards to Dhad magazine of this organization which popularize Garhwali literature among new geeration
In Garhwali poetic field, I call it Dhad Andolan era as this organization popularize Garhwali literature specially Garhwali poetry among farmers, rural women and children by organizing Kavi Sameelan in small village.
Dhad also contributed by inspiring new generation for creating Garhwali language literature.
Bhshma kukreti, bckukreti@gmail.com

 

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