जैसे आपने बचपन में देखा है जो परिवार देश से गाँव जाते है, वो वह सब इष्ट देवता, ग्राम देवता, आदि मंदिरों में पूजा करके आते है|
इसी तरह हमारा परिवार भी जब साल में १ बार पहाड़ जाता था तो हम भी सभी मंदिरों में पूजा करके आते थे|
इसी से प्रेरणा लेकर हम बच्चो ने भी गाँव में जाकर घर से थोडी दूर अपना मन्दिर बना दिया| मन्दिर जो था बस गाड़ से पत्थर लाके १ छोटा घर सा बना दिया| उसके पास का एरिया साफ़ करके परिकर्मा के लिए बना दिया| आसपास तुलसी आदि के पेड़ भी उगा दिए| गाड़ से १ बान बना दिया, और उस बान को मन्दिर के साथ १ पन्ह्याव से जोड़ दिया|
इन सब कार्यो करने में बहोत मजा आता था|
पूरा दिन घर से बाहर रहकर हम यही करते थे|
जब १ बार मन्दिर बन गया, उसके बाद हर साल वहा जाके पूजा करते थे| कोई पुजारी बनता था, कोई ढोली, कोई रिस्यार, कोई पौरु| फ़िर घर से दूध, दही, तेल, चावल, आटा इत्यादि सामग्री लेजाकर के वहा पंचामृत , चौख(प्रसाद), पूरी, खीर इत्यादि बनाते थे| और चाव से पूजा करके खाते थे|
मुझे अब भी याद है हमे आग जलाने के लिए बहुत मस्सकत करनी पड़ती थी| छोटे छोटे छिलुख खर से लेजाकर उन्हें आग से जलाना, फ़िर पीरुल डालना ताकि आगा ज्यादा जले और फ़िर लकडियो के क्याड़-म्याड रखना, और अंत में बड़ी लकडिया रखना|
पूजा करके मन्दिर में भेट चढ़आते थे और वह भेट अगले साल मन्दिर के लिए धुप अगर बत्ती खरीदने के काम आटा था|
अब भी मन्दिर के अवशेष बचे हुए है|
घर वालो का बहुत विरोध सहना पड़ता था| सभी कहते थे "क्वे आन-बान ई जाल ऊ मन्दिर में"