Author Topic: Share Informative Articles Here - सूचनाप्रद लेख  (Read 136283 times)

Mayank Chand Rajbar

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« Reply #110 on: June 18, 2008, 02:02:33 PM »
Bahut badaya khabar hai pandeyji.

Ab logo ko passport banane ke liye barelly nahi jaana padega

rgds

पासपोर्ट कार्यालय
देहरादून, जागरण ब्यूरो: छह साल तक इंतजार करने के बाद उत्तराखंड को आज आखिरकार अपना पासपोर्ट कार्यालय मिल ही गया। विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने आज इसके दफ्तर का विधिवत लोकार्पण किया। एक होटल में आयोजित कार्यक्रम में विदेश मंत्री श्री मुखर्जी ने उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी व विधानसभा अध्यक्ष हरबंश कपूर के साथ पासपोर्ट दफ्तर के शिलापट का अनावरण किया। इस मौके पर श्री मुखर्जी ने कहा कि वैश्वीकरण के इस दौर में लोगों का व्यवसाय, उच्च शिक्षा व अन्य कार्यो के लिए विदेश आना-जाना लगा रहता है। इसके लिए पासपोर्ट की जरूरत होती है। अभी तक उत्तराखंड के लोगों को पासपोर्ट बरेली दफ्तर से जारी किए जाते थे। आज से यहां दफ्तर ने काम शुरू कर दिया है। सूबे के सभी 13 जनपदों में आवेदन पत्र संग्रह केंद्र भी बना दिए गए हैं। इससे काम तेजी से हो सकेगा। इसका सबसे ज्यादा लाभ सीमांत इलाकों में रह रहे लोगों को होगा। उन्होंने उम्मीद जाहिर की कि यह दफ्तर उत्तराखंड के लोगों की सेवा बेहतर ढंग से कर सकेगा। उनका कहना था कि देशभर में पासपोर्ट बनवाने वालों की संख्या में इजाफा हो रहा है। काम तेजी से पूरा करने के लिए देशभर के सभी 35 पासपोर्ट दफ्तरों को पूरी तरह से कंप्यूटरीकृत किया जा चुका है। मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी ने कहा कि इस पासपोर्ट दफ्तर के लिए उन्होंने 2002 में प्रयास शुरू किए थे। राज्य के लोगों का एक सपना आज पूरा हो गया है। विदेश मंत्रालय के विशेष सचिव शरद सब्बरवाल ने पासपोर्ट जारी करने की व्यवस्था पर और उत्तराखंड में इस दफ्तर की जरूरत के बारे में विस्तार से चर्चा की।

पंकज सिंह महर

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« Reply #111 on: June 18, 2008, 04:46:01 PM »
पासपोर्ट कार्यालय
देहरादून, जागरण ब्यूरो: छह साल तक इंतजार करने के बाद उत्तराखंड को आज आखिरकार अपना पासपोर्ट कार्यालय मिल ही गया। विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने आज इसके दफ्तर का विधिवत लोकार्पण किया। एक होटल में आयोजित कार्यक्रम में विदेश मंत्री श्री मुखर्जी ने उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी व विधानसभा अध्यक्ष हरबंश कपूर के साथ पासपोर्ट दफ्तर के शिलापट का अनावरण किया। इस मौके पर श्री मुखर्जी ने कहा कि वैश्वीकरण के इस दौर में लोगों का व्यवसाय, उच्च शिक्षा व अन्य कार्यो के लिए विदेश आना-जाना लगा रहता है। इसके लिए पासपोर्ट की जरूरत होती है। अभी तक उत्तराखंड के लोगों को पासपोर्ट बरेली दफ्तर से जारी किए जाते थे। आज से यहां दफ्तर ने काम शुरू कर दिया है। सूबे के सभी 13 जनपदों में आवेदन पत्र संग्रह केंद्र भी बना दिए गए हैं। इससे काम तेजी से हो सकेगा। इसका सबसे ज्यादा लाभ सीमांत इलाकों में रह रहे लोगों को होगा। उन्होंने उम्मीद जाहिर की कि यह दफ्तर उत्तराखंड के लोगों की सेवा बेहतर ढंग से कर सकेगा। उनका कहना था कि देशभर में पासपोर्ट बनवाने वालों की संख्या में इजाफा हो रहा है। काम तेजी से पूरा करने के लिए देशभर के सभी 35 पासपोर्ट दफ्तरों को पूरी तरह से कंप्यूटरीकृत किया जा चुका है। मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी ने कहा कि इस पासपोर्ट दफ्तर के लिए उन्होंने 2002 में प्रयास शुरू किए थे। राज्य के लोगों का एक सपना आज पूरा हो गया है। विदेश मंत्रालय के विशेष सचिव शरद सब्बरवाल ने पासपोर्ट जारी करने की व्यवस्था पर और उत्तराखंड में इस दफ्तर की जरूरत के बारे में विस्तार से चर्चा की।


धन्यवाद कैलाश दा, वैसे मैंने इस ख़बर को इससे संबंधित topic पर भी डाला है।
http://www.merapahad.com/forum/index.php/topic,248.0.html

हेम पन्त

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http://www.phayul.com/news/article.aspx?article=The+long+march+to+Tibet&id=21676&t=1&c=4

The long march to Tibet
 
By Tenzin Tsundue

For the last 90 days, 300 Tibetans have been walking through the green fields, valleys, mountains and busy streets of India. Braving the heat, we have covered 1,300 km to walk back to Tibet, our home. Though ours has been a non-violent march, we have spent days in jail. Now we wonder what will happen to us today when we try to enter into Tibet.

The police have been following us, saying they are with us for our security. But the other day they arrested 260 marchers. The rest may soon face a similar fate. Starting from Dharamsala on March 10, the day of the Tibetan National Uprising, we walked down the slopes of Himachal Pradesh and reached the plains of Punjab and Haryana. While passing through Delhi, we paid our respects at the Gandhi Samadhi and then moved towards the Kumaon hills. We passed Didihat and Ascot and from here we see the snow-clad mountains beyond which lies our home.

Many helped us in our journey: we were given food and shelter at gurudwaras, ashrams, schools and villages. When we started, there were 100 Tibetan marchers and eight foreigners. But along the way, more joined us. By the time we reached Delhi, our number had doubled. When we entered Pithoragarh, Uttarakhand, the number was 317. But the district administration pushed us back. Along the way, some had dropped out due to illness and injuries. Today, we are 50-strong.

Five Tibetan NGOs launched the Tibetan Uprising Movement in January. They called for volunteers and asked them to pledge non-violence and discipline. But the Dalai Lama wanted us to stop the march. But we want to do this though we know it won’t be easy. The majority of the marchers are monks and nuns; then there are mothers who have left their children behind, boys and girls and some who escaped from Tibet. Those who couldn’t join, help us with funds. I used to live with my friends in Dharamsala and we sold whatever we had to join this march.

Today, at the border town of Dharchula, there will be two groups trying to enter Tibet. We will be the first to reach there. The other comprises Indians going on the Mansarovar pilgrimage. The Indian police might stop us. But the other group will be welcomed by the Chinese military when they cross into Tibet. This march may be stopped. But that's not the end of our struggle. We have figured out other ways to shape the destiny of our country.
 

हेम पन्त

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तिरुअनंतपुरम। भले ही भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन [इसरो] में इनका काम राकेट के डिजाइन तैयार करना हो, लेकिन विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र के सहायक निदेशक डा. वी. आदिमूर्ति पिछले 20 वर्ष से अपने कार्यालय तक आने-जाने के लिए साइकिल का ही इस्तेमाल करते हैं।

दुनिया जिस समय ईधन की भयंकर कमी से जूझ रही है उससे भी काफी पहले आदिमूर्ति ने परिवहन की इस आम और साधारण साधन के फायदों को देखते हुए यह समझदारी भरा निर्णय लिया था।

प्रख्यात मलयालम कवि और विद्वान प्रो. विष्णु नारायणन नंबूदरी एक अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं जो साइकिल का उपयोग करते हैं। दोनों ने साइकिल को किफायती पर्यावरण अनुकूल, शारीरिक और मानसिक तौर पर लाभदायक बताया है।

आदिमूर्ति और नंबूदिरी उन कुछ लोगों में से हैं जो तेजी से परिवहन के अत्याधुनिक साधनों से कतई प्रभावित नहीं हुए हैं, हालांकि देश में रोज-रोज कई ऊंची कीमतों वाली नई-नई गाडि़यां चलन में आ रही हैं। और तो और उन्हें यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि तिरुअनंतपुरम की ऊंची-नीची और गड्ढे वाली सड़कें उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से सचेत रखती हैं।

घर से कार्यालय के बीच रोजाना 20 किलोमीटर साइकिल की सवारी करने वाले आदिमूर्ति ने बताया कि उन्हें इससे कई फायदे हुए। इसका सबसे बड़ा फायदा शारीरिक और मानसिक तौर पर स्वस्थ रहना है। आदिमूर्ति के विचारों को आगे बढ़ाते हुए नंबूदिरी ने कहा कि साइकिल केवल एक कम खर्चीला परिवहन का साधन ही नहीं है, बल्कि यह पूरी तरह प्रदूषण मुक्त भी है। साइकिल की सवारी कर कोई व्यक्ति न केवल ईधन पर खर्च किए जाने वाली अपनी धनराशि बचा सकता है, बल्कि वह कई तरह से देश को भी फायदा पहुंचाता है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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« Reply #114 on: July 15, 2008, 02:36:27 PM »
There is a site:  www.friendstosupport.org

where one can search for a particular blood group, and get thousand's of donor addresses.
This could be of great help in case of actual emergencies

Abhinav

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विनोद जमलोकी पेशे से एक सफल डॉक्टर थे और एक हंसमुख शख्स के रूप में अपने स्वजन-परिजन के बीच सम्माननीय. लेकिन भूस्खलन के दौरान किसी और की जान बचाने में स्वयं जीवन भर के लिए अपाहिज हो गए और आज वे जरा देर तक भी चल-फिर नहीं सकते. वे अपने जीवन से इतने थक चुके हैं कि सरकार सहित सबसे वे यह प्रार्थना करते है कि उन्हें इच्छा-मृत्यु की अनुमति दे दी जाए. उत्तराखंड के भूस्खलन प्रभावित लोगों की जुबानी पीयूष दईया की कलम से

http://raviwar.com/news/43_uttarakhand-landslides-vinodjamloki-piyushdaiya.shtml

पंकज सिंह महर

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अभिनव जी,
      आपका स्वागत है, मेरा पहाड़ पर।
पीयूष जी के इस लेख को मैंने पड़ा है, यह घटनायें हमारे पहाड़ों में अक्सर हो जाती हैं, जिनका चित्रण पीयूष जी ने जीवन्त रुप से पीडि़त लोगों की ही जुबान में किया है।
    इस लेख की अगली कड़ी में एक अनुसूचित जाति की महिला की व्यथा भी उन्होंने लिखी है, जिसमें उसके पति ने नया मकान बनवाया और वह उसी के साथ भूस्खलन के कारण मर गया। वह अब अपनी सौत के बच्चे के साथ रह रही है। उसकी पीड़ा सुनकर इन दैवीय आपदाओं से निपटने के लिये कुछ भी न कर पाने की विवशता मूझे बहुत सालती है।

Abhinav

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पंकज जी
स्वागत करने के लिए हार्दिक धन्यवाद....
वैसे तो दैवीय आपदाओं पर हमारा नियंत्रण नहीं है.... परंतु यदि हम मिलकर ऐसी आपदाओं के पीडितों की व्यथा सामने लाते हैं और इससे प्रेरित होकर कुछ लोग उनकी मदद करने के लिए सामने आते हैं तो ये हमारे ओर से एक अच्छा पहल होगी... और पियूष दईया जी और रविवार ने ये बातें सामने लाकर इस दिशा में बहुत ही अच्छा प्रयास किया है... इसके लिए उन्हें साधुवाद..
अभिनव जी,
      आपका स्वागत है, मेरा पहाड़ पर।
पीयूष जी के इस लेख को मैंने पड़ा है, यह घटनायें हमारे पहाड़ों में अक्सर हो जाती हैं, जिनका चित्रण पीयूष जी ने जीवन्त रुप से पीडि़त लोगों की ही जुबान में किया है।
    इस लेख की अगली कड़ी में एक अनुसूचित जाति की महिला की व्यथा भी उन्होंने लिखी है, जिसमें उसके पति ने नया मकान बनवाया और वह उसी के साथ भूस्खलन के कारण मर गया। वह अब अपनी सौत के बच्चे के साथ रह रही है। उसकी पीड़ा सुनकर इन दैवीय आपदाओं से निपटने के लिये कुछ भी न कर पाने की विवशता मूझे बहुत सालती है।


Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Abhinav ji aapka swagat hai kripya apna introduction dene ki kripya karen.

पंकज जी
स्वागत करने के लिए हार्दिक धन्यवाद....
वैसे तो दैवीय आपदाओं पर हमारा नियंत्रण नहीं है.... परंतु यदि हम मिलकर ऐसी आपदाओं के पीडितों की व्यथा सामने लाते हैं और इससे प्रेरित होकर कुछ लोग उनकी मदद करने के लिए सामने आते हैं तो ये हमारे ओर से एक अच्छा पहल होगी... और पियूष दईया जी और रविवार ने ये बातें सामने लाकर इस दिशा में बहुत ही अच्छा प्रयास किया है... इसके लिए उन्हें साधुवाद..
अभिनव जी,
      आपका स्वागत है, मेरा पहाड़ पर।
पीयूष जी के इस लेख को मैंने पड़ा है, यह घटनायें हमारे पहाड़ों में अक्सर हो जाती हैं, जिनका चित्रण पीयूष जी ने जीवन्त रुप से पीडि़त लोगों की ही जुबान में किया है।
    इस लेख की अगली कड़ी में एक अनुसूचित जाति की महिला की व्यथा भी उन्होंने लिखी है, जिसमें उसके पति ने नया मकान बनवाया और वह उसी के साथ भूस्खलन के कारण मर गया। वह अब अपनी सौत के बच्चे के साथ रह रही है। उसकी पीड़ा सुनकर इन दैवीय आपदाओं से निपटने के लिये कुछ भी न कर पाने की विवशता मूझे बहुत सालती है।


पंकज सिंह महर

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http://www.merapahad.com/forum/index.php?topic=2.0

कृपय उक्त लिंक पर अपना परिचय देने का कष्ट करें।

 

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