Dear Guys,
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इन्तजार
वो आज बहुत खुश नजर आ रही है, मगर क्यूँ? क्योंकि उसे पता है कि जब मुंडेर पर बैठा कौआ बोलता है, तो उसका मतलब क्या होता है? वो जानती है कि पशु-पक्षी इंसानों की तरह नहीं होते, वे कभी झूठ नहीं बोलते और फिर सुबह से ही चूल्हे की जो आग भडक रही है, वह भी तो इसी बात का इशारा है कि कोई आ रहा है। मगर कौन? इस बात को लेकर उसके मन में तनिक भी संदेह नहीं है। वो जानती है कि उसके नैहर से तो कोई आने से रहा, तीज और खिचडी के समय कोई चला आता है, वही बहुत है। शायद पिताजी नहीं रहते तो वो भी न आता। फिर ऐसे में उसके पति को छोडकर और कौन हो सकता है, जो आ रहा है। सगे-संबंधी तो केवल गिने-चुने अवसरों पर ही आते हैं। हाँ एक ननदोई जी हैं जो अक्सर हाल-चाल लेने चले आते हैं, मगर तब ही जब ननद यहाँ होती है, और फिलहाल ननद यहाँ नहीं है।
वह जल्दी-जल्दी सारे काम निपटाना चाहती है ताकि उनके आने से पहले इन सब चीजों से मुक्त रहे। पूरे तीन महीने हो चुके हैं, उसे अपने पति को देखे हुए। अभी कुछ ही दिनों पहले तो उसका टेलीफोन आया था, गाँव की बहुत याद आती है, छुट्टी मिलते ही जरूर आऊँगा। साफ-साफ कैसे कहता? मेरी बहुत याद आती है, आखिर लाज शरम भी कोई चीज है कि नहीं। जल्दबाजी में उसके दाएँ हाथ का अंगूठा जल गया, बाएं हाथ की एक अंगुली भी सब्जी काटने में कट गई थी, खून भी गिरा था, मगर दर्द जरा भी नहीं। वह पहले की तरह अभी भी खुश है।
सुबह से अब तक, पानी गिरने का तो ठिकाना ही नहीं था, लेकिन वो जानती है पानी गिरना तो स्वाभाविक है, इतनी गर्मी पड रही है, प्यास तो उन्हें लगी ही होगी। माँ कहा करती है, जब कोई अपना प्यासा होता है, तभी इस तरह से पानी गिरता है।
अब दोपहर हो चली है, सूरज की तीखी किरणें चमडी छेदकर अंदर जाने पर आमादा हैं। वो अपना सारा काम समेटकर लेटी हुई है। अम्मा रामायण का पाठ सुनने गई है, यहीं पास ही में तो हो रहा है, माइक की अस्पष्ट आवाज उसके कानों तक भी पहुंच रही है। बडी दूर के पंडित जी आये हुए हैं। मगर बाबूजी, उन्हें तो इन सब चीजों से कुछ मतलब ही नहीं रहता। अम्मा कहती भी हैं भक्ति भाव किसी उमर से नहीं बल्कि पूर्व जन्म के कर्मो से मन में जागता है। बैठे होंगे कहीं अपनी पंचायत लगाकर।
खैर ये सब तो हुई अम्मा और बाबूजी की बातें। लेकिन वो खुद क्या करे? कहीं निकल भी तो नहीं सकती। चुपचाप लेटी है, हाथ-पैर फैलाए बिस्तर पर। ध्यान बार-बार पति पर ही जा अटकता है।
उसके पिता को एक कमाऊ लडका चाहिए था। किसी अच्छे घराने में शादी करने की औकात थी नहीं। मजबूरन उसकी शादी यहाँ कर दी गई। पति फैक्ट्री में काम करता है, तीन चार महीने पर भी बडी मुश्किल से छुट्टी मिल पाती है। यदि गाँव पर उसका थोडा सा भी खेत होता तो वह उसे दोबारा काम पर कभी न जाने देती। मगर क्या करे? यहाँ रहकर किसी की बनिहारी-चरवाही करने से तो उसका काम पर जाना ही बेहतर है। कम से कम शान तो है-पति बाहर कमाता है। और फिर उसने वादा भी तो किया है, कि कुछ पैसा जमा होते ही, वह उसे अपने साथ शहर ले जाएगा। अम्मा और बाबूजी भी चलना चाहें तो चल सकते हैं।
उसका पति जिसकी राह वह आज सुबह से ही देख रही है, अभी तक नहीं आया है, जबकि शाम अब रात में तब्दील हो चुकी है, अम्मा और बाबूजी दोनों खाकर सो गये हैं, मगर उसे भूख नहीं है, और नींद भी नहीं आ रही है।
शाम को कितनी आत्मीयता से उसने कहा था-
अम्मा लगता है आज वो आने वाले हैं।
और कितनी बेरुखी भरा उत्तर था-
अरे आने वाला है तो आ जाएगा, हमने कहाँ रोक रखा है उसे?
वो बात नहीं है अम्मा।
तो क्या बात है?
उसे लगा अब कुछ बोलना ठीक नहीं होगा। चुप रही। मगर आँखों में उमडते सैलाब को रोक न सकी। उसने डबडबाती आँखों से आँसू पोछा और चुपचाप अपने काम में लग गई। लेकिन अम्मा चुप न रह सकीं-अरे जब यही सब करना था तो जाने ही क्यूं दिया उसे? बांध लिया होता अपने पल्लू से बेशरम कहीं की...। और फिर जो कुछ उन्होंने कहा वह किसी कीमत पर भद्दी-भद्दी गालियों से कम नहीं था।
वो जानती है कि अम्मा अपने बेटे से बहुत प्यार करती हैं। मामूली सा बुखार होने पर खबर आई थी तब, और उन्होंने वहाँ जाने के लिए तूफान खडा कर दिया था। फिर सोचती है-कितना अलग होता है, मां की ममता और पत्नी का प्यार। अम्मा सिर्फ इस बात से संतुष्ट हैं कि उनका बेटा जहाँ भी है, कमा खा रहा है, खुश है। मगर मुझे इस बात से जरा भी तसल्ली नहीं है। मैं चाहती हूँ कि मेरा पति खुश रहे, मगर उसकी खुशी में मेरा भी कुछ योगदान हो उसे कुछ समझ नहीं आ रहा-अम्मा जिन्होंने उन्हें जन्म देने से लेकर पालपोष कर बडा किया, चुपचाप इन्तजार कर रही हैं तो मैं इतनी व्याकुल क्यूँ हूँ? अभी डेढ साल भी नहीं हुए होंगे शादी के, और इस दरम्यान कुल मिला कर डेढ महीने से ज्यादा का साथ नहीं रहा होगा, उनका और मेरा। फिर इतने कम समय में एक अजनबी से इतना अपनापन कैसे हो गया? सचमुच कमाल के होते हैं ये रिश्ते-नाते भी।
रात का सन्नाटा अब असह्य हो चला है। तरह-तरह की बुरी आशंकाएं उसे विचलित कर रही हैं। वह अपने आपको विश्वास दिलाना चाहती है वे जरूर आ रहे होंगे, तभी तो कौआ बोल रहा था। हो सकता है स्टेशन पर लेट हो जाने से वहीं रुक गये हों, वैसे भी तो गाडियाँ हमेशा लेट ही चलती हैं। अब जमाना नहीं रहा देर-सबेर चलने का, कल सुबह वे जरूर आ जायेंगे।
जाने कब आँख लगी, मगर जब आंख खुली तो उसकी खुशी का ठिकाना न था। सुबह हो चुकी है, मुर्गे की कुक्डूकूं-इस बात का ऐलान किये जा रही थी। उसे लगा अब उसका इंतजार जल्द ही समाप्त होने वाला है। वो अपना हर काम जल्दी-जल्दी समेटने में लगी हुई है।
जैसे-जैसे आकाश में एक तरफ लालिमा बढती जा रही है उससे कहीं अधिक उसकी व्याकुलता बढती जा रही है। आज फिर उसके मुंडेर पर कौआ बोल रहा है, मगर घिसा-पिटा समाचार सुनने से मन उद्वेलित नहीं होता। वो तो कल ही से जानती है कि उसका पति आ रहा है, कल देर हो गई तो न आ सका, आज सुबह तो उसे आना ही आना है। अब जरा सी आहट भी उसकी नजर दरवाजे की तरफ खींचने में कामयाब है। हर बार उठी नजर के साथ खुशी की लहर दौडती है। हर बार मिली मायूसी के बाद वो सोचती है, मैं भी कितनी बुद्धू हूँ! क्या जरूरत है भला बार-बार झाँकने की! अगर वो होंगे तो अंदर आयेंगे ही। मगर चाह के भी वह अपने आप को रोक नहीं पा रही है, खुशी से उठी नजर का मायूस होके गिरना बदस्तूर जारी है।
अब ग्यारह बजने को है, लू के थपेडे शुरू हो चुके हैं। उसने अम्मा और बाबूजी को खिला दिया है और सब पडे काम भी निपटा चुकी है, मगर खुद नहीं खाया। पहले भूख थी सोचती थी उन्हें खिलाकर खाऊँगी, इतनी जल्दी भी क्या है। अब तो भूख ही नहीं है।
बिस्तर पर लेटे-लेटे सोच रही है लगता है वे नहीं आयेंगे, आना होता तो अब तक आ गये होते। स्टेशन से आने में वक्त ही कितना लगता है, घंटे-डेढ घंटे का। अब उसे गुस्सा आ रहा है, ये मुए कौवे भी न, बिना कुछ जाने सुने काँव-काँव करने लगते हैं। कल सुबह से ही मेरा जीना हराम कर रखा है। आज शाम में अगर कुछ बोले तो इनका टेंटुआ दबा दूँगी। फिर लगता है-इन बेचारों की भी क्या गलती? इन्हें तो लगा होगा, तीन महीने से ज्यादा हो गये, गए हुए फोन पर भी आने को कहा था, इसीलिए आ रहे होंगे। इन्हें क्या मालूम कितने पत्थर दिल होते हैं ये मर्द लोग? अब कौवे के प्रति सहानुभूति पति के प्रति गुस्से में तब्दील हो रही थी। ब्याह कर ला दिया है ताकि खटती रहूं जिंदगी भर मुफ्त में, मेरी भावनाओं से उन्हें क्या मतलब? मैं तो कब से ताक रही हूँ अब वो आएं, अब वो आएं, अब वो आएं, मगर वो! उन्हें तो जब आना होगा तब ही आयेंगे। पिछली बार मैंने जिद की थी, दो दिन बाद चले जाइएगा। लेकिन नहीं जिस दिन जाना था उसी दिन गये।
सवाल एक-दो दिन रुकने का नहीं था, सवाल था मर्दो के अहंकार का। अगर मेरे कहने से एक-दो दिन रुक जाते या मेरे चाहने से आज आ जाते तो उनकी शान जो घट जाती। ये सारे मर्द एक से ही होते हैं, जिद्दी और अहंकारी। मैं क्यूं ऐसे आदमी के लिए परेशान हूँ जिसे मेरी जरा भी परवाह नहीं। क्यूं मैंने कल से अब तक खाना नहीं खाया? नहीं, मैं खाना खाऊँगी, भला क्यूं न खाऊं? जब उन्हें मेरी कोई परवाह नहीं तो मैं ही क्यों मरूं। मैं तो जा रही हूँ खाने। वो उठकर गई खाना निकाला और फिर खाने बैठ गई।
अभी मुश्किल से दो-चार निवाला ही निगला होगा कि पति के प्रति मन में बसी सहानुभूति जाग गई। खाना दूभर हो गया। भरी थाली में ही हाथ धो सारा खाना नांद में डाल दिया और फिर से जाकर लेट गई। आंखों में उमडे आंसू तकिए पर उतर आए। उसे पछतावा हो रहा था कि उसने अपने पति को क्या-क्या कहा, जब वो ही उन्हें नहीं समझेगी तो और कौन समझेगा? तभी अम्मा की आवाज आई अरे सुमंत आया है, मीठा पानी लाओगी भी या नहीं? उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। सुमंत उसके पति का नाम है। वो खुशी से उठी, जाकर पति के पैर छुए और मीठा पानी लाने चली गई। अम्मा बैठकर सुमंत से हाल समाचार पूछ रही है, पंखा झल रही है। मगर वो! वो तो सुमंत से लिपट-लिपट कर रोना चाहती है। पर क्या करे बताशा पानी रखकर चली गई, दरवाजे के पीछे से सारी बातें सुन रही है। उसे देख रही है।