संस्कृति : क्यों बेपरवाह है सरकार साहित्य और संस्कृति के विकास को लेकर ?
nainital samaachaar.
गणेश रावत on July 19, 2010
विडम्बना ही कहा जाएगा कि जिस राज्य का मुख्यमंत्री खुद को कवि, साहित्यकार और पत्रकार कहलाने में गौरवान्वित होता हो, उसी राज्य में कला, साहित्य व संस्कृति को संरक्षण देने का काम हाशिए पर है। इसका जीता-जागता सबूत प्रदेश में साहित्य, कला और संस्कृति परिषद का अब तक गठन न हो पाना है। 6 साल पहले तिवारी सरकार ने अपने कार्यकाल में राज्य में साहित्य-संस्कृति-कला परिषद का गठन किया था। हालाँकि नौकरशाही के दबाव में वह परिषद भी एक झुनझुना ही साबित हुई थी, मगर इस बार पहले बी.सी. खंडूरी और फिर निशंक की सरकार ने तो उस परिषद को भी ठण्डे बस्ते में डाल दिया है। इस बीच तमाम परिषदों और निगमों का गठन हुआ और सरकार ने दर्जनों दायित्वधारियों की नियुक्तियाँ कीं, मगर साहित्य-कला-संस्कृति परिषद को कोई तवज्जो नहीं मिल पायी। जिस राज्य गठन के आंदोलन में कलाकारों, साहित्यकारों व संस्कृतिकर्मियों ने सक्रिय योगदान देकर असीम ऊर्जा का संचार किया था, वहाँ राज्य निर्माण के बाद इस मोर्चे पर निराशा ही हाथ लगी है। राज्य गठन के दस साल बाद भी उत्तराखंड में साहित्य, संस्कृति व लोक विधाओं के संरक्षण को लेकर किसी ठोस नीति का ऐलान नहीं हुआ है।
गौरतलब है कि उत्तराखंड को अपनी सांस्कृतिक विरासत के नजरिये से धनी कहा जा सकता है। राज्य के मेले, तीज-त्यौहार, गीत-संगीत और परंपराएँ पहाड़ों के प्राकृतिक सौंदर्य की तरह ही अनुपम हैं। मगर राज्य निर्माण के बाद अपनी सांस्कृतिक पहचान और लोक विधाओं का संरक्षण सरकार की प्राथमिकताओं में नहीं रहा। एक दौर में एन.डी. तिवारी ने 22 लोगों की एक परिषद का गठन ‘साहित्य-संस्कृति-कला परिषद’ के नाम से किया, जिसके वे खुद अध्यक्ष थे। परिषद के उपाध्यक्ष को राज्यमंत्री का दर्जा भी प्राप्त था। तीन वर्ष के कार्यकाल में परिषद कुछ खास उपलब्धि हासिल नहीं कर सकी, जबकि इसमें राज्य के कई नामचीन व भारी भरकम लोग शामिल थे। तीन साल में परिषद में लीलाधर जगूड़ी, यशोधर मठपाल व जहूर आलम के रूप में तीन उपाध्यक्ष रहे। परिषद ने अंतिम दौर में कुछ काम भी किया, मगर शुरूआत से ही यह परिषद नेताओं की इच्छाशक्ति की कमी और नौकरशाहों के साथ शीतयुद्ध में जूझती रही। जिसके चलते परिषद का न ही स्थायी ढाँचा तैयार हो पाया और न ही इसके लिए फण्ड बजट या दूसरे स्थायी संसाधनों की व्यवस्था हो सकी। मामला बैठकों, टी.ए. डी.ए. खपाने और प्रस्तावों को पास करने तक ही सीमित रहा। और अब भाजपा सरकार ने तो इस महत्वपूर्ण मुद्दे से एकदम किनारा ही कर लिया है। उसने तीन साल के कार्यकाल में न तो नई परिषद का गठन किया और न ही पुरानी परिषद के बारे में कोई निर्णय लिया। इससे राज्य के संस्कृतिकर्मी मायूस हैं।
देश के करीब हरेक राज्य में संगीत नाटक अकादमी या साहित्य-संस्कृति या कला की परिषदें हैं, जिनका राज्य सरकार के संरक्षण में कामकाज चलता है। मगर उत्तराखंड की भाजपा सरकार फिलहाल साहित्य-संस्कृति-कला परिषद के वजूद को अहम नहीं मान रही।