जन्मदिन मुबारक हो मेहता जी.
आप की अभिलाषा को सलाम.
परंमपरा हमारी जीवन शैली की अभिन्न पहचान है,जो परंमपरा पिछे से चली आ रही है उसे आघे तक ले जाना और फिर उसे और आघे ले जाना यह परंमपराऐ इंसान से ही सुरू होती है और इनसानियत पर खत्म होती है। मतलब साफ है अगर इंसान मे इनसानियत बरकरार है तो समझो अभी परमपराऐ भी जीवित है, अगर इंसान मे इनसानियत नही रही यानी इंसान बदल गया तो समझो कि परमपरा भी बदल गई है, श्री राम चंद्र जी ने भाई लक्षमण से यही कहा था कि मुह का मिठा लंगुठी का यार कभी नही बदलता, इसका साफ संदेश यही है कि आज हम मुह के मिठे और लंगुठीया यार नही रहे। यानी आज हमारे बोलने मे भले ही मिठास हो मगर वह निहःस्वार्थ मिठास नही ब्लकि स्वार्थ के लिए बोली गई मिठास है, जो मतलब निकल जाने के बाद कड़वी लगने लगती है, ठिक इसी तरहै हम परमपराओ के साथ भी कर रहे है यानी हम अपने नीजी स्वार्थ के लिए अपनी परमपराओ को भी बदल देते है जो कि हमारी पहचान होती है। अब बात बची लंगुठिया यार कि तो आज हम लंगुठिया यार भी स्वार्थ के लिए ही बनते है, कहने का मतलब है कि वही तक किसी के साथ चलते है जहा तक अपना काम बन जाय, और जब काम बन जाये तो लंगुठी छोड देते है.
तो दोस्तो विश्वास जगाओ इसे बुझाओ मत,वरना विश्वासघात ही हमारी जीवन शैली बन जायेगी।
सुन्दर सिंह नेगी 10/05/2010.