Author Topic: Bedu Pako Baro Masa - उत्तराखंड का सदाबहार गीत बेडू पाको बरो मासा  (Read 38632 times)

पंकज सिंह महर

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अपने हेम दा भी किसी साहित्यकार से कम नहीं ठैरे....उनके साथ कापीराइट की भी दिक्कत नहीं होनी वाली ठैरी बल तो पूरी रचना उतार देता हूं, घर की बात हुई  :D

copy from- http://hempantt.blogspot.com/

कहानी अजर-अमर लोकगीत "बैङू पाको बारामासा" की

कहते हैं जीवन में हर क्षण का महत्व है, और एक क्षण में जीवन परिवर्तित करने की क्षमता होती है. इसी तरह एक छोटी सी घटना ने बदला उत्तराखण्ड के संगीत का चेहरा. उत्तराखण्ड लोक संगीत का सबसे लोकप्रिय, कर्णप्रिय गीत "बैङू पाको बारामासा" कैसे रचा गया? आइये जानें "पहाड 9-10" में प्रकाशित श्री ब्रजेन्द्र लाल शाह जी द्वारा लिखित एक संस्मरण के इस अंश के माध्यम से –

याद आ रही है जाखन देवी (अल्मोडा) की एक शाम. वहाँ दुकानों में एक छोटे से झुरमुट में उदेसिंह का रेस्तरां था. जिसे हम लोग उदय शंकर का होटल कहते थे. उस शाम मैं गुजर रहा था उद्दा की दुकान के सामने से. अचानक दुकान की सबेली में खडे मोहन (मोहन उप्रेती) ने आवाज दी.

“कहाँ जा रहा है ब्रजेन्द्र? यहाँ तो आ!”

“क्या है यार? घूमने भी नहीं देता.” मैं खींझ कर उदेसिंह की दुकान में घुस गया. कमरे की बेंच पर हम बैठ गये. उसके सामने ही लगी हुई लकड़ी की खुरदुरी 'रस्टिक' मेज थी. मोहन कुछ उत्तेजित सा लग रहा था. मेज को तबला मानकर वह उसमें खटका लगा कर एक पूर्व प्रचलित कुमाऊंनी गीत को नितान्त नई धुन तथा द्रुतलय में गा रहा था.वह बार-बार एक ही बोल को दुहरा रहा था. उस गीत की यह नई चंचल धुन मुझे भी बहुत अच्छी लगी.
गीत था-


बैङू पाको बारामासा.... हो नरैण काफल पाको चैता मेरी छैला.
रूणा भूणा दिन आयो
हो नरैण पुजा म्यारा मैता मेरी छैला.


मोहन बार-बार यही धुन दुहरा रहा था.
“अरे भाई… आगे तो गा….” मैं बेसब्र होकर बोला.
“यार ब्रजेन्द्र आगे तो मुझे भी नहीं आता....किसी के मुंह से सुना था.तर्ज भूल गया इसी लिए नई धुन बना रहा हूं. इसके आगे कुछ लिख.” पास ही लकडी की फर्श पर 'सीजर' सिगरेट का खाली डिब्बा पडा था. मैने उठाया उखाड़ कर खोला.... उदेसिंह से पेंसिल लेकर उस बोल को आगे बढाने का प्रयास प्रारंभ कर दिया.

गीत की मात्राओं के हिसाब से मुझे स्व. चन्द्रलाल वर्मा (कुमाऊँनी कवि) द्वारा बतलाए गए न्योली गीत के कुछ बोल याद आये और रुचे. मैने न्योली गीतों की कुछ पंक्तियाँ तथा कुछ उसमें अपनी तरफ से जोड कर गीत को पूरा कर दिया और मोहन के प्रयास से यह विश्व विख्यात लोकगीत बन गया.

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Pankaj Da yeh PAHAD patrika main chhapa lekh hai Hem bhai ne prastut kiya hai :)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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यह उत्तराखंड का सबसे प्रसिद्ध गाना है लेकिन यह ग़लत दंग से प्रचलित हो गया है :

   बेडो ( एक फल)
   पाको ( पकता है)
   बाडो मासा (  साल का सबसे बड़ा महिना जेठ)  ना कि बारो मासा ( यानी सालभर)
   काफल पाको चैता (काफल चैत के महीने मे पकता है )
   मेरी छैला ( अपने किसी प्रिय को याद करना)

तो यह गाना मे लोग समझते है कि बेडो साल भर पकता है जो कि ग़लत है! बेडो सिर्फ़ जेठ के महीना जो कि बाडो मासा (बड़ा महिना) मे पकता है !

पंकज सिंह महर

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यह उत्तराखंड का सबसे प्रसिद्ध गाना है लेकिन यह ग़लत दंग से प्रचलित हो गया है :

   बेडो ( एक फल)
   पाको ( पकता है)
   बाडो मासा (  साल का सबसे बड़ा महिना जेठ)  ना कि बारो मासा ( यानी सालभर)
   काफल पाको चैता (काफल चैत के महीने मे पकता है )
   मेरी छैला ( अपने किसी प्रिय को याद करना)

तो यह गाना मे लोग समझते है कि बेडो साल भर पकता है जो कि ग़लत है! बेडो सिर्फ़ जेठ के महीना जो कि बाडो मासा (बड़ा महिना) मे पकता है !

ओऽऽऽहो,
        मेहता जी, ये किसने कह दिया कि बेडू सिर्फ जेठ के महीने में ही पकता है, बेड़ू एक ऎसा फल है जिसमें बारोमास फल आते हैं और पकते रहते हैं। लेकिन आदमी के खाने लायक पुष्ट फल जेठ में ही पकते हैं, सो जेठ में खाये जाते हैं।
     बुजुर्गवारों का कहना है कि जेठ में ही इंसानों को बेड़ू का फल खाना चाहिये और बाकी समय का चिड़ियाओं के लिये छोड़ देना चाहिये।
     बेड़ू ही नहीं कई अन्य फल-फूल और वनस्पतियां भी बारामास या सदाबहार होती हैं, मेरे घर पर एक कागजी नीबू और मिर्च का पेड़ है, जिसपर बारोमास फल लगते रहते हैं, साथ ही हमारे बाड़ में कई बेड़ू के पेड़ भी हैं, जिनको बारोमास पकते और चिड़ियाओं को खाते मैंने खुद देखा है। साथ ही बड़मास जैसा शब्द मैने तो नहीं सुना.........

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Daju,

Preetam Bharatwaan has told me this and guessed it was to be somewhat correct.

यह उत्तराखंड का सबसे प्रसिद्ध गाना है लेकिन यह ग़लत दंग से प्रचलित हो गया है :

   बेडो ( एक फल)
   पाको ( पकता है)
   बाडो मासा (  साल का सबसे बड़ा महिना जेठ)  ना कि बारो मासा ( यानी सालभर)
   काफल पाको चैता (काफल चैत के महीने मे पकता है )
   मेरी छैला ( अपने किसी प्रिय को याद करना)

तो यह गाना मे लोग समझते है कि बेडो साल भर पकता है जो कि ग़लत है! बेडो सिर्फ़ जेठ के महीना जो कि बाडो मासा (बड़ा महिना) मे पकता है !

ओऽऽऽहो,
        मेहता जी, ये किसने कह दिया कि बेडू सिर्फ जेठ के महीने में ही पकता है, बेड़ू एक ऎसा फल है जिसमें बारोमास फल आते हैं और पकते रहते हैं। लेकिन आदमी के खाने लायक पुष्ट फल जेठ में ही पकते हैं, सो जेठ में खाये जाते हैं।
     बुजुर्गवारों का कहना है कि जेठ में ही इंसानों को बेड़ू का फल खाना चाहिये और बाकी समय का चिड़ियाओं के लिये छोड़ देना चाहिये।
     बेड़ू ही नहीं कई अन्य फल-फूल और वनस्पतियां भी बारामास या सदाबहार होती हैं, मेरे घर पर एक कागजी नीबू और मिर्च का पेड़ है, जिसपर बारोमास फल लगते रहते हैं, साथ ही हमारे बाड़ में कई बेड़ू के पेड़ भी हैं, जिनको बारोमास पकते और चिड़ियाओं को खाते मैंने खुद देखा है। साथ ही बड़मास जैसा शब्द मैने तो नहीं सुना.........


Risky Pathak

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Maine Bhi Ye suna hai ki Bedu 12 mahine nahi pakta.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Maine Bhi Ye suna hai ki Bedu 12 mahine nahi pakta.

Himansu bhai,

Now i remember when i used to in primary school, there was tree of Bedo en-route. I fully recollect, we used eat it during summer only. However, i would like to clarify it further.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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The under information has been provided by our Senior Member Hem Pant Ji.

स्व. ब्रजेन्द्र लाल शाह उत्तराखण्ड के प्रमुख रंगकर्मी, संगीतकार व गीतकार थे. मोहन उप्रेती जी के साथ मिलकर इन्होंने ही "बेङू पाको बारामास" गाना तैयार किया था. उन्हीं के द्वारा लिखा गया यह नातिणी-बङबाज्यू (नातिनी-दादा) का संवाद बालमन की आकांक्षाओं और वृद्धावस्था की विवशता को बखूबी उजागर करता है. इस सुन्दर रिश्ते को मजबूती देनी वाली भावनाओं को दर्शाने के लिये इससे अच्छा गीत नहीं लिखा जा सकता.

   
नातिणी-बङबाज्यू संवाद

नातिणी
बङबाज्यू

उत्तरैणी कौथिग ऐगो ओ बङबाज्यूI
थर थरानै पूस न्हैगो ओ बङबाज्यूII


होई नातिनी मैं लकी बजार जूँलो
तेल, तमाख, लूंण, गूङ मोल ल्यूँलो


ओ बङबाज्यू! धोति तुमरि बगि रै छो
आग लागौ सुरयाल मांजि नाङो नै छो


ल्या नातिणी मेरि फतोई टाल हालि दे
मेरि कुथई घर-कुटा तमाखुँ हालि दे


लियो बङबाज्यू यो आपुंणी ह्वाक लिजाया
बाट-घांट मे स्यांक्क-स्यांक्क दम लगाया

प्यास लागलि काँठि रिखु चबुनै रैया
भूख लागलि यो भुटिया भट बुकाया


पाँज नातिणी त्यौर सामल काम आलो
मरण बखत यो बुङो आब भट बुकालो


ओ बङबाज्यू! आजि बताओ के के ल्याला?
तुम तो बुबु! भुलि जैं जाँ छाँ यै बुङियांकाला


लाल मुखीया, बानर को पोथो ल्यूँलो
वी दगाङा त्वै खण्यूंणी को ब्या करूँलो


पलि कै जाओ मी तुमूं थैं नी बोलूंलो
जो कौतिकी बाना ल्याला पार चोटयूँलो
 

यह पंक्तियां वार्षिक प्रकाशन "पहाङ" के 12वें अंक में गिरीश "गिर्दा" तिवारी द्वारा ब्रजेन्द्र लाल शाह जी की स्मृति में श्रद्धांजली स्वरूप लिखे गये लेख से साभार ली गई है.

Jagga

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चाँदी बटना दाजू कुर्ती कल्रमा
मेरी मधुली जै राए ब्यूटी पल्रमा
आज कल पहाड़ मैं बहुत है हिट पहाडी गीत

पंकज सिंह महर

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यह गाना आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना कि यह अपने उदभव काल में था, आज भी इस गीत को सुनते हुये पहाड़ याद आ जाता है और आंखे नम हो जाती हैं।
   न जाने हमारे लोकगीतों को किसकी नजर लग गई, ऐसे गीत अब सुनने को कान तरस गये हैं।

 

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