खतरे में लोक संगीत: कलाकारों ने पुश्तैनी पेशे से मुंह मोड़ाNov 07, 11:46 pm
हल्द्वानी (नैनीताल)। कुमाऊंनी लोक गीतों के गायक गोपाल बाबू 'गोस्वामी' ने अपनी मधुर आवाज से जो पहचान दिलायी थी वह आज खतरे में पड़ गयी है। पहले पर्वतीय क्षेत्र की फिजा में 'हाय तेरी रुमाल गुलाबी मुखड़ी' जैसे गीत गूंजते थे। आज इनकी जगह फिल्मी तर्ज पर बनने वाले तड़क भड़क व कान फोड़ू गीतों ने ले ली है।
कुमाऊंनी-गढ़वाली भाषा मगर मुंबइया स्टाइल में बनने वाले ये गीत महज फिल्मी गीतों का पहाड़ी अनुवाद से ज्यादा कुछ नहीं। इन गीतों की भाषा कुमाऊंनी तो है लेकिन फिल्मांकन में कुमाऊंनी व गढ़वाली संस्कृति की सुगंध नहीं आती है। फिल्मांकन का अंदाज पूरी तरह से मुंबइया है। इन गीतों को याद रखना तो दूर उनके बोल समझ में नहीं आते हैं। जानकारों का कहना है कि पहले जहां लोक गीतों में कुमाऊंनी व गढ़वाली भाषा के ठेठ शब्दों का इस्तेमाल होता था, वहीं आज इनकी जगह चालू शब्दों ने ली है। इसलिए श्रोताओं की जुबान पर जल्दी नहीं चढ़ पाने वाले इन गीतों की उम्र भी कम हो गयी है। कुमाऊंनी गीतों के नाम पर सांस्कृतिक प्रदूषण फैलने पर संगीत से जुड़ी कई संस्थाएं इसे एक गंभीर समस्या मान रही हैं। हिमालय संगीत शोध समिति के निदेशक डा. पंकज उप्रेती का कहना है कि आज कुमाऊंनी लोक संगीत के नाम पर फूहड़ता परोसी जा रही है। प्रोडक्शन हाउस मूल लोक कलाकारों के स्थान पर डिग्री कालेज के छात्र- छात्राओं से काम ले रहे है। फिल्मांकन की चमक धमक से दर्शक को लुभाने की कोशिश की जा रही है जो कि लोक संस्कृति के लिए खतरा है। आज प्रोडक्शन हाउस जगह-जगह कुकुरमुत्तों की तहर पनप रहे हैं। जिनका मकसद महज अपने व्यवसायिक हित साधने रह गये हैं।