Author Topic: Folk Songs & Dance Of Uttarakhand - उत्तराखण्ड के लोक नृत्य एवं लोक गीत  (Read 71902 times)

Risky Pathak

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गीत और संगीत उत्तराखंड संस्कृति का अनादिकाल से महत्वपूर्ण अंग रहा है| हर मौको पर गीत गाए जाते है| यहा तक की जब पर्वतीय महिलाए घास काटने जंगलो मे जाती है, वहा भी ये गीत गुनगुनाए जाते है| कुछ लोक गीतों का विवरण इस प्रकार है:

मांगल: यह शुभ कार्यो व शादी के मौको मे गाए जाते है|

जागर: जागर देवताओ के गीत होते है| जागर गीत गाकर देवताओ को नचाया जाता है तथा उन्हें प्रसन करके उनसे आशीर्वाद लिया जाता है|

पवांडे: यह गीत गदवाली लोक साहित्य के मौलिक महाकाव्य तथा खंड काव्य है| इन गीतों मे ठाकुरी राजाओ के वीर गाथाओ को गाया जाता है|

चौफुला: यह नृत्य चांदनी रात मे गोल दायरे मे घूमकर पुरूष व महिलाए मिलकर गाते है| इसमे प्रकृति  तथा उत्सवों के गीत  गाए जाते है|

खुदेड़: इन गीतों मे माँ-बाप भाई, बहिन, सखी, नदी, पशु-पक्षी, फल-फूलों तक की स्मृति ताजा हो जाती है|

चौमासा: वर्षा ऋतु मे हिमालय की गोद मे बसे उत्तराखंड का सौंदर्य निराला होता है| इस ऋतु के दिनों मे अक्सर परदेश मे गए साथी की याद आ जाती  है| 

थदया: यह नृत्य बसंत पंचमी से लेकर बिखुती तक अनेक सामाजिक व देवताओ के नृत्य गीतों के साथ खुले मैदान मे गोलाकार होकत स्त्रियों द्वारा गाए जाते है|

   

पंकज सिंह महर

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उत्तरांचल के हिमालयी क्षेत्रों में ढोल वादन की बहुत पुरानी और समृद्ध परंपरा रही है लेकिन समय के साथ ढोल का शास्त्र और इसे बजानेवाले कलाकार हाशिये पर जाने लगे थे. ऐसे में कुछ संस्कृतिकर्मियों और लोककलाकारों ने ढोल और सोलह ठेठ पहाड़ी साज़ों को मिलाकर अनूठा ऑर्केस्ट्रा तैयार किया है. अब तक इन साज़ों को अलग-अलग ही बजाया जाता था या ज़्यादा से ज़्यादा दो या तीन साज की जुगलबंदी होती थी. लेकिन पहली बार एक दर्जन से अधिक लोकवाद्यों को एक साथ एक जगह रख दिया गया है.
       अब ढोल, दमाऊ, हुड़का, मुर्छुंद, थाली, करनाल, मशकबीन, अलगोजा, डाँर, दांया और बांया नगाड़ा, पकोरे, रणसींगा तथा स्कॉटिश बैगपाइप की संगत कराई गई है. स्कॉटिश बैगपाइप तो अंग्रेजों के जमाने में सेना के जरिये यहां पंहुचा फिर यहीं के वाद्य परिवार में शामिल हो गया. इस ऑर्केस्ट्रा से लुप्त हो रहे कई साजों और धुनों को एक नया जीवन मिल गया है.
        मशहूर लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी कहते हैं, "हमारी कोशिश इन वाद्यों और इन्हें बजानेवालों को पेशेवर रूप देकर इन्हें मान्यता दिलाने की है. ढोल नाद के जरिये कलाकारों को सम्मान और पैसा मिल जाए और लोककला की सुंदरता भी बरकरार रहे."
      पहाड़ में ढोल के महत्व का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां न केवल ढोल बजाने की कई अलग-अलग शैलियाँ हैं बल्कि सैकड़ों ताल प्रचलित हैं.

दंत कथा-
ढोल के व्याकरण और इसकी उत्पत्ति को लेकर यहां एक मौखिक परंपरा भी रही है जिसे “ढोल सागर” कहते हैं.  दंतकथाओं के अनुसार ढोल की उत्पत्ति शिव के डमरू से हुई है और ढोल सागर को सबसे पहले स्वयं शिव ने पार्वती को सुनाया था. जब वो इसे सुना रहे थे तब वहाँ मौजूद एक गण ने इसे कंठस्थ कर लिया.
तब से ही ये पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से चला आ रहा है. वैसे मूल ग्रंथ संस्कृत और गढ़वाली बोली में है.

       ढोलसागर में प्रकृति, मनुष्य, देवताओं और त्योहारों को समर्पित 300 से ज्यादा ताल हैं. ढोल सागर पर शोध कर रहे गढ़वाल विश्वविद्यालय में प्रो. डी.आर. पुरोहित कहते हैं, “उत्तरांचल की सभी छह घाटियों धौलीगंगा, मंदाकिनी, टिहरी, गंगोत्री, यमुना और जौनसार बाबर के ढोलों में लय और ताल की विभिन्नता देखने लायक है, जैसे मंगल बड़ई का ताल टिहरी में अलग है और पौड़ी में इसका मात्राएँ अलग हैं और इस वैविध्य को देखें तो ढोलसागर के कुल तालों की संख्या लगभग 600 हो जाती हैं.”  ढोल और दमाऊ एक तरह से मध्य हिमालयी यानी उत्तरांचल के पहाड़ी समाज की आत्मा रहे हैं.
        जन्म से लेकर मृत्यु तक, घर से लेकर जंगल तक कहीं कोई संस्कार या सामाजिक गतिविधि नहीं जो ढोल और इन्हें बजानेवाले ‘औजी’ या ढोली के बगैर पूरा होता हो. औजी प्राय: समाज के निम्न वर्ग के लोग होते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी पूरी श्रद्धा और उल्लास से इस दायित्व को निभाते आ रहे हैं.

       पूरा गांव इनका संरक्षक होता है और इन्हें काम के बदले अनाज दिया जाता है लेकिन सदियों से चली आ रही ये व्यवस्था अब तेज़ी से बिखरने लगी है.ढोल ऑर्केस्ट्रा के सदस्य पौड़ी के ढोली सोहनलाल कहते हैं, "हमने तो अपने बाप-दादा से खुशी-खुशी सीखा लेकिन हमारे बच्चे इससे दूर होते जा रहे हैं .अब ढोल वही सीखते हैं जिनकी मजबूरी होती है.लोग भी अब फिल्मी बैंड ही ज्यादा पसंद करने लगे हैं." हांलाकि ढोल ऑर्केस्ट्रा ने सोहनलाल जैसे कलाकारों में उम्मीद भी जगाई है. एक और ढोली जयलाल कहते हैं, “इस ऑर्केस्ट्रा को काफी सराहा जा रहा है और कुछ और उत्साही लोगों ने इसी तर्ज पर ढोल बैंड बनाया है. ऐसे बैंड शादी-ब्याह और मुंडन में खूब बुलाए जाते हैं.”   सरकार ने भी ढोल ऑर्केस्ट्रा को उद्योग का दर्जा देने की मांग स्वीकार कर ली है और अब जल्द ही इससे जुड़े कलाकारों को वित्तीय मदद भी मिलने लगेगी.

साभार- http://www.bbc.co.uk/hindi/










     










       

हेम पन्त

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सराहनीय और साहसिक प्रयास...

अब तो ढोल वालों को शादियों में भी काफी कम लोग बुलाते हैं. क्योंकि फूहड बैण्ड के मुकाबले यह कुछ महंगा लगता है लोगों को. इतने पारंपरिक वाद्ययंत्रों को एक साथ सुनना निस्वय ही एक अद्भुत अनुभव होता होगा.


उत्तरांचल के हिमालयी क्षेत्रों में ढोल वादन की बहुत पुरानी और समृद्ध परंपरा रही है लेकिन समय के साथ ढोल का शास्त्र और इसे बजानेवाले कलाकार हाशिये पर जाने लगे थे. ऐसे में कुछ संस्कृतिकर्मियों और लोककलाकारों ने ढोल और सोलह ठेठ पहाड़ी साज़ों को मिलाकर अनूठा ऑर्केस्ट्रा तैयार किया है. अब तक इन साज़ों को अलग-अलग ही बजाया जाता था या ज़्यादा से ज़्यादा दो या तीन साज की जुगलबंदी होती थी. लेकिन पहली बार एक दर्जन से अधिक लोकवाद्यों को एक साथ एक जगह रख दिया गया है.
       अब ढोल, दमाऊ, हुड़का, मुर्छुंद, थाली, करनाल, मशकबीन, अलगोजा, डाँर, दांया और बांया नगाड़ा, पकोरे, रणसींगा तथा स्कॉटिश बैगपाइप की संगत कराई गई है. स्कॉटिश बैगपाइप तो अंग्रेजों के जमाने में सेना के जरिये यहां पंहुचा फिर यहीं के वाद्य परिवार में शामिल हो गया. इस ऑर्केस्ट्रा से लुप्त हो रहे कई साजों और धुनों को एक नया जीवन मिल गया है.
        मशहूर लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी कहते हैं, "हमारी कोशिश इन वाद्यों और इन्हें बजानेवालों को पेशेवर रूप देकर इन्हें मान्यता दिलाने की है. ढोल नाद के जरिये कलाकारों को सम्मान और पैसा मिल जाए और लोककला की सुंदरता भी बरकरार रहे."
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       ढोलसागर में प्रकृति, मनुष्य, देवताओं और त्योहारों को समर्पित 300 से ज्यादा ताल हैं. ढोल सागर पर शोध कर रहे गढ़वाल विश्वविद्यालय में प्रो. डी.आर. पुरोहित कहते हैं, “उत्तरांचल की सभी छह घाटियों धौलीगंगा, मंदाकिनी, टिहरी, गंगोत्री, यमुना और जौनसार बाबर के ढोलों में लय और ताल की विभिन्नता देखने लायक है, जैसे मंगल बड़ई का ताल टिहरी में अलग है और पौड़ी में इसका मात्राएँ अलग हैं और इस वैविध्य को देखें तो ढोलसागर के कुल तालों की संख्या लगभग 600 हो जाती हैं.”  ढोल और दमाऊ एक तरह से मध्य हिमालयी यानी उत्तरांचल के पहाड़ी समाज की आत्मा रहे हैं.
        जन्म से लेकर मृत्यु तक, घर से लेकर जंगल तक कहीं कोई संस्कार या सामाजिक गतिविधि नहीं जो ढोल और इन्हें बजानेवाले ‘औजी’ या ढोली के बगैर पूरा होता हो. औजी प्राय: समाज के निम्न वर्ग के लोग होते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी पूरी श्रद्धा और उल्लास से इस दायित्व को निभाते आ रहे हैं.

       पूरा गांव इनका संरक्षक होता है और इन्हें काम के बदले अनाज दिया जाता है लेकिन सदियों से चली आ रही ये व्यवस्था अब तेज़ी से बिखरने लगी है.ढोल ऑर्केस्ट्रा के सदस्य पौड़ी के ढोली सोहनलाल कहते हैं, "हमने तो अपने बाप-दादा से खुशी-खुशी सीखा लेकिन हमारे बच्चे इससे दूर होते जा रहे हैं .अब ढोल वही सीखते हैं जिनकी मजबूरी होती है.लोग भी अब फिल्मी बैंड ही ज्यादा पसंद करने लगे हैं." हांलाकि ढोल ऑर्केस्ट्रा ने सोहनलाल जैसे कलाकारों में उम्मीद भी जगाई है. एक और ढोली जयलाल कहते हैं, “इस ऑर्केस्ट्रा को काफी सराहा जा रहा है और कुछ और उत्साही लोगों ने इसी तर्ज पर ढोल बैंड बनाया है. ऐसे बैंड शादी-ब्याह और मुंडन में खूब बुलाए जाते हैं.”   सरकार ने भी ढोल ऑर्केस्ट्रा को उद्योग का दर्जा देने की मांग स्वीकार कर ली है और अब जल्द ही इससे जुड़े कलाकारों को वित्तीय मदद भी मिलने लगेगी.

साभार- http://www.bbc.co.uk/hindi/










     










       


पंकज सिंह महर

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यह संस्कृति अब विलुप्ति के कगार पर है, सरकार को समाज क्ल्याण विभाग के माध्यम से इनके उन्नयन का प्रयास करना होगा, नहीं तो आज से ५० साल बाद जागर भी बैंड पर ही लगवानी पड़ेगी।

hem

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Very good information........Thnx.
उत्तरांचल के हिमालयी क्षेत्रों में ढोल वादन की बहुत पुरानी और समृद्ध परंपरा रही है लेकिन समय के साथ ढोल का शास्त्र और इसे बजानेवाले कलाकार हाशिये पर जाने लगे थे. ऐसे में कुछ संस्कृतिकर्मियों और लोककलाकारों ने ढोल और सोलह ठेठ पहाड़ी साज़ों को मिलाकर अनूठा ऑर्केस्ट्रा तैयार किया है. अब तक इन साज़ों को अलग-अलग ही बजाया जाता था या ज़्यादा से ज़्यादा दो या तीन साज की जुगलबंदी होती थी. लेकिन पहली बार एक दर्जन से अधिक लोकवाद्यों को एक साथ एक जगह रख दिया गया है.
       अब ढोल, दमाऊ, हुड़का, मुर्छुंद, थाली, करनाल, मशकबीन, अलगोजा, डाँर, दांया और बांया नगाड़ा, पकोरे, रणसींगा तथा स्कॉटिश बैगपाइप की संगत कराई गई है. स्कॉटिश बैगपाइप तो अंग्रेजों के जमाने में सेना के जरिये यहां पंहुचा फिर यहीं के वाद्य परिवार में शामिल हो गया. इस ऑर्केस्ट्रा से लुप्त हो रहे कई साजों और धुनों को एक नया जीवन मिल गया है.
        मशहूर लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी कहते हैं, "हमारी कोशिश इन वाद्यों और इन्हें बजानेवालों को पेशेवर रूप देकर इन्हें मान्यता दिलाने की है. ढोल नाद के जरिये कलाकारों को सम्मान और पैसा मिल जाए और लोककला की सुंदरता भी बरकरार रहे."
      पहाड़ में ढोल के महत्व का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां न केवल ढोल बजाने की कई अलग-अलग शैलियाँ हैं बल्कि सैकड़ों ताल प्रचलित हैं.

दंत कथा-
ढोल के व्याकरण और इसकी उत्पत्ति को लेकर यहां एक मौखिक परंपरा भी रही है जिसे “ढोल सागर” कहते हैं.  दंतकथाओं के अनुसार ढोल की उत्पत्ति शिव के डमरू से हुई है और ढोल सागर को सबसे पहले स्वयं शिव ने पार्वती को सुनाया था. जब वो इसे सुना रहे थे तब वहाँ मौजूद एक गण ने इसे कंठस्थ कर लिया.
तब से ही ये पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से चला आ रहा है. वैसे मूल ग्रंथ संस्कृत और गढ़वाली बोली में है.

       ढोलसागर में प्रकृति, मनुष्य, देवताओं और त्योहारों को समर्पित 300 से ज्यादा ताल हैं. ढोल सागर पर शोध कर रहे गढ़वाल विश्वविद्यालय में प्रो. डी.आर. पुरोहित कहते हैं, “उत्तरांचल की सभी छह घाटियों धौलीगंगा, मंदाकिनी, टिहरी, गंगोत्री, यमुना और जौनसार बाबर के ढोलों में लय और ताल की विभिन्नता देखने लायक है, जैसे मंगल बड़ई का ताल टिहरी में अलग है और पौड़ी में इसका मात्राएँ अलग हैं और इस वैविध्य को देखें तो ढोलसागर के कुल तालों की संख्या लगभग 600 हो जाती हैं.”  ढोल और दमाऊ एक तरह से मध्य हिमालयी यानी उत्तरांचल के पहाड़ी समाज की आत्मा रहे हैं.
        जन्म से लेकर मृत्यु तक, घर से लेकर जंगल तक कहीं कोई संस्कार या सामाजिक गतिविधि नहीं जो ढोल और इन्हें बजानेवाले ‘औजी’ या ढोली के बगैर पूरा होता हो. औजी प्राय: समाज के निम्न वर्ग के लोग होते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी पूरी श्रद्धा और उल्लास से इस दायित्व को निभाते आ रहे हैं.

       पूरा गांव इनका संरक्षक होता है और इन्हें काम के बदले अनाज दिया जाता है लेकिन सदियों से चली आ रही ये व्यवस्था अब तेज़ी से बिखरने लगी है.ढोल ऑर्केस्ट्रा के सदस्य पौड़ी के ढोली सोहनलाल कहते हैं, "हमने तो अपने बाप-दादा से खुशी-खुशी सीखा लेकिन हमारे बच्चे इससे दूर होते जा रहे हैं .अब ढोल वही सीखते हैं जिनकी मजबूरी होती है.लोग भी अब फिल्मी बैंड ही ज्यादा पसंद करने लगे हैं." हांलाकि ढोल ऑर्केस्ट्रा ने सोहनलाल जैसे कलाकारों में उम्मीद भी जगाई है. एक और ढोली जयलाल कहते हैं, “इस ऑर्केस्ट्रा को काफी सराहा जा रहा है और कुछ और उत्साही लोगों ने इसी तर्ज पर ढोल बैंड बनाया है. ऐसे बैंड शादी-ब्याह और मुंडन में खूब बुलाए जाते हैं.”   सरकार ने भी ढोल ऑर्केस्ट्रा को उद्योग का दर्जा देने की मांग स्वीकार कर ली है और अब जल्द ही इससे जुड़े कलाकारों को वित्तीय मदद भी मिलने लगेगी.

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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गोस्वामी जी का यह गाना सुनकर आप के आखो मे आँसू आ जायंगे !!

बाट लागी बारात चेली
बैठ डोली मा

बाबु की लाडली चेली बैठ डोली
बैटी गे बारात चेली बैठ डोली मा

आंसू पोछी ले मेरी -२
तू छे मेरी कलेजी टुकडा
मेरी धरिये लाज चेली बैठ डोली मा

बाट लागी बारात चेली
बैठ डोली मा.......

खीमसिंह रावत

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Mehta ji
ek geet hamare elake mai (Tall Salt) gaya jata tha kintu ab vah pratha nahi hai/ yah geet Uttaraini se  lagbhag 20 din pahale gaate hai, Utaaraini ke bad nahi gaate hai/ yah geet shandhya ke samay aur rat ke samay gate hai, hamare yaha per ese BOYE nam se janate hai/samuhik geet hote hai esaki ek khasiyat yah hai ki ese sirph mahilaye hi gaati hai/

"utha ja boye" se suru kiya jata hai/

from Khim Singh Rawat
     Village- Nagchual Talla Salt Machhor

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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dhayabaad mahraj, is jaankaari ke liye !!!

Mehta ji
ek geet hamare elake mai (Tall Salt) gaya jata tha kintu ab vah pratha nahi hai/ yah geet Uttaraini se  lagbhag 20 din pahale gaate hai, Utaaraini ke bad nahi gaate hai/ yah geet shandhya ke samay aur rat ke samay gate hai, hamare yaha per ese BOYE nam se janate hai/samuhik geet hote hai esaki ek khasiyat yah hai ki ese sirph mahilaye hi gaati hai/

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पंकज सिंह महर

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उत्तराखण्ड की लोक धुनें भी अन्य प्रदेशों से भिन्न है। यहां के बाद्य यन्त्रों में नगाड़ा, ढोल, दमुआ, रणसिंग, भेरी, हुड़का, बीन, डौंरा, कुरूली, अलगाजा प्रमुख है। यहां के लोक गीतों में न्योली, जोड़, झोड़ा, छपेली, बैर व फाग प्रमुख होते हैं। इन गीतों की रचना आम जनता द्वारा की जाती है। इसलिए इनका कोई एक लेखक नहीं होता है। यहां प्रचलित लोक कथाएं भी स्थानीय परिवेश पर आधारित है। लोक कथाओं में लोक विश्वासों का चित्रण, लोक जीवन के दुःख दर्द का समावेश होता है। भारतीय साहित्य में लोक साहित्य सर्वमान्य है। लोक साहित्य मौखिक साहित्य होता है। इस प्रकार का मौखिक साहित्य उत्तराखण्ड में लोक गाथा के रूप में काफी है। प्राचीन समय में मनोरंजन के साधन नहीं थे। लाकगायक रात भर गांव वालों को लोक गाथाएं सुनाते थे। इसमें मालसाई, रमैल, जागर आदि प्रचलित है। अभी गांवों में रात्रि में लगने वाले जागर में लोक गाथाएं सुनने को मिलती है। यहां के लोक साहित्य में लोकोक्तियां, मुहावरे तथा पहेलियां (आंण) आज भी प्रचलन में है। उत्तराखण्ड का छोलिया नृत्य काफी प्रसिद्ध है। इस नृत्य में नृतक लबी-लम्बी तलवारें व गेंडे की खाल से बनी ढाल लिए युद्ध करते है। यह युद्ध नगाड़े की चोट व रणसिंह के साथ होता है। इससे लगता है यह राजाओं के ऐतिहासिक युद्ध का प्रतीक है। कुछ क्षेत्रों में छोलिया नृत्य ढोल के साथ श्रृंगारिक रूप से होता है। छोलिया नृत्य में पूरूष भागीदारी होती है। कुमायूं तथा गढ़वाल में झुमैला तथा झोड़ा नृत्य होता है। झौड़ा नृत्य में महिलाएं व पूरूष बहुत बड़े समूह में गोल घेरे में हाथ पकड़कर गाते हुए नृत्य करते है। विभिन्न अंचलों में झोड़ें में लय व ताल में अन्तर देखने को मिलता है। नृत्यों में सर्प नृत्य, पांडव नृत्य, जौनसारी, चांचरी भी प्रमुख है।

पंकज सिंह महर

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धार्मिक नृत्य:देवी-देवताओं से लेकर अंछरियों (अप्सराओं) और भूत पिशाचों तक की पूजा धार्मिक नृत्यों के अभिनय द्वारा सम्पन्न की जाती है। इन नृत्यों में गीतों एवे वाद्य यंत्रों के स्वरों द्वारा देवता विशेष पर अलौकिक कम्पन के रूप में होता है। कम्पन की चरमसीमा पर वह उठकर या बैठकर नृत्य करने लगता है, इसे देवता आना कहते हैं। जिस पर देवता आता है, वह पस्वा कहलाता है। 'ढोल दभाऊँ' के स्वरों में भी देवताओं का नृत्य किया जाता है, धार्मिक नृत्य की चार अवस्थाएँ है।
(1) विशुद्ध देवी देवताओं के नृत्य: ऐसे नृत्यों में 'जागर' लगते हैं उनमें प्रत्येक देवता का आह्‌वान, पूजन एवं नृत्य होता है। ऐसे नृत्य यहां 40 से ऊपर है, यथा निरंकार (विष्णु), नरसिंह (हौड्या), नागर्जा (नागराजा-कृष्ण), बिनसर (शिव) आदि।
(2) देवता के रूप में पाण्डवों का पण्डौं नृत्य: पाण्डवों की सम्पूर्ण कथा को वातारूप में गाकर विभिन्न शैलियों में नृत्य होता है। सम्पूर्ण उत्तरी पर्वतीय शैलियों में पाण्डव नृत्य किया जाता है। कुछ शैलियां इस प्रकार है - (क) कुन्ती बाजा नृत्य, (ख) युधिष्ठिर बाजा नृत्य, (ग) भीम बाजा नृत्य, (घ) अर्जुन बाजा नृत्य, (ड़.) द्रौपदी बाजा नृत्य (च) सहदेव बाजा नृत्य, (छ) नकुल बाजा नृत्य।
(3) मृत अशान्त आत्मा नृत्य: मृतक की आत्मा को शान्त करने के लिए अत्यन्त कारूणिक गीत 'रांसो' का गायन होता है, और डमरू तथा थाली के स्वरों में नृत्य का बाजा बजाया जाता है। इस प्रकार के छ' नृत्य है - चर्याभूत नृत्य, हन्त्या भूत नृत्य, व्यराल नृत्य, सैद नृत्य, घात नृत्य और दल्या भूत नृत्य।
(4) रणभूत देवता: युद्ध में मरे वीर योद्धा भी देव रूप में पूजे तथा नचाए जाते है। बहुत पहले कैत्यूरों और राणा वीरों का घमासान युद्ध हुआ था। आज भी उन वीरों की अशान्त आत्मा उनके वंशजों के सिर पर आ जाती है। भंडारी जाति पर कैंत्यूर वीर और रावत जाति पर राणारौत वीर आता है। आज भी दोनों जातियों के नृत्य में रणकौशल देखने योग्य होता है। रौतेली, भंजी, पोखिरिगाल, कुमयां भूत और सुरजू कुंवर ऐसे वीर नृत्य धार्मिक नृत्यों में आते हैं।


 

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