Author Topic: Folk Songs & Dance Of Uttarakhand - उत्तराखण्ड के लोक नृत्य एवं लोक गीत  (Read 71628 times)

पंकज सिंह महर

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सामाजिक नृत्य: इस प्रकार के नृत्यों में मुद्राओं, नर्तन, अभिनय एवं रस का पूर्ण परिपाक मिलता है। ऐसे नृत्यों में गीतों का महत्व अधिक होता है। इन नृत्यों में प्राचीन भारतीय नृत्यों, मध्यकालीन भारतीय नृत्यों एवं आधुनिक भारतीय नृत्यों का सम्मिश्रण दिखाई पड़ता है। कुछ नृत्य इस प्रकार है :


थड्या नृत्य- बसन्त पंचमी से लेकर विशुवत संक्रान्ति तक अनेक समाजिक व देवताओं के नृत्य गीतों के साथ खुले मैदान में गोलाकार होकर स्त्रियों द्वारा किए गए लास्य कोटि के नृत्य हैं।
चौफुला नृत्य- थड्या की भॉति चौफुला नृत्य भी है, परन्तु इसमें तालियों की गड़गड़ाहट एवं चूड़ियों तथा पाजेबों की झनझनाहट का विशिष्ट स्थान होता है। गुजराती 'गरबा' या 'गरबी' नृत्य की छाप इस पर है।
मयूर नृत्य- पर्वत बेटियों का यह सावन की झड़ी का मनमोहक नृत्य है।
बसन्ती नृत्य- इस नृत्य में प्राचीन परम्परा के मदनोत्सव या बसन्तोत्सव की छाप है।
होली नृत्य- उल्लास एवं रसिकता का नृत्य है। मथुरा, वृन्दावन के रास की छाया इस नृत्य में होती है।
खुदेड़ नृत्य- यह आत्मिक क्षुधा में विह्‌वल, मायके स्मृति में डूबी हुई नायिकाओं का हृदय विदारक गतिमय नृत्य है।
घसियारी नृत्य- पर्वत श्रृखलाओं में घास काटती हुई समवयस्काओं का नृत्य, जो गीतों के स्वरों और दाथी के 'छमणाट' में चलता है।
चांचरी नृत्य- यह गढ़वाल-अल्मोड़ा दोनों क्षेत्रों का समान चहेता नृत्य है। नर्तक एवं नर्तकियों का अर्द्धगोलाकार एवं गोलाकार नृत्य जिसमें हाथ कमर के इर्द-गिर्द होते हैं।
बौछड़ों- पंजाब के भांगड़ा की तरह यह नृत्य शिव भक्ति के रूप में किया जाता है।
बौ-सरेला- देवर भाभी के प्रेम के आधार पर गीतमय नृत्य है।
छोपती नृत्य- लास्य कोटि एवं हिमाचली लावती, बगवाली नृत्य के समान अत्यन्त आकर्षक नृत्य है।
छपेली नृत्य- प्रेम एवं आकर्षण का नृत्य है।
तलवार नृत्य- इस नृत्य को 'चौलिया' नृत्य भी कहते है। ढोल दमाऊँ के स्वरों में तलवार चलाने का स्त्री-पुरूषों का यह नृत्य वीर भावना से ओत-प्रोत है।
केदारा नृत्य- यह ढोल दमाऊँ के कठोर वाद्य स्वरों में विकट तलवार एवं लाठी संचालन का ताण्डव शैली का अद्भुत नृत्य है।
सरांव (सरौ) नृत्य- युद्ध कौशल का अनोखा नृत्य है। पहले ठकुरी राजा दूसरे ठकुरी राजा की पुत्री का अपहरण करने जाते थे। विवाह न होने पर युद्ध हो जाता था। इंडियाकोट का क्षेत्र इस नृत्य के लिए प्रसिद्ध है।
घुघती नृत्य- ममता एवं दुःख विशयक यह नृत्य स्वच्छन्द वातावरण में स्त्रियों के द्वारा किया जाता है।
फौफटी नृत्य- पंजाब के 'कीकी' या 'कीक्ली' नृत्य के समान यह नृत्य गढ़वाली कुमारियों का गीति प्रधान नृत्य है।
बनजारा नृत्य- मध्यकालीन विनोद नृत्य की तरह यह समवयस्का ननद भाभी को चिढ़ाने वाली विनोदी नृत्य है।
जांत्रा नृत्य- पर्व विशेषों पर स्त्रियों द्वारा किया गया यह नृत्य है।, जिसमें किसी पर्व या देवता का वर्णन मुख्य होता है। बंगाल का 'जात्रा' नृत्य इसी के समान है।
झोंडा नृत्य- प्रेमासक्ति का नृत्य है।
बाजूबंद नृत्य- प्रेम संवाद का गीतात्मक नृत्य है।
भैला नृत्य- दीवापली (बग्वाल) की रात में तथा हरिबोधिनी (इगास) की रात में गढ़वाल के गांवों में यह नृत्योत्सव मनाया जाता है।
खुसैड़ा नृत्य- गति से मौज में किया गया यह नृत्य है। वाद्य स्वरो मे कभी भी यह नृत्य किया जाता है।
छोलिया नृत्य- चोलिया नृत्य के साथ कोई भी गीत नहीं गाया जाता है। इसमें नर्तक राजपूत वीरों के लड़ाई के दृष्य हाथ में तलवार एवं ढोल लेकर दर्शाते हैं।

पंकज सिंह महर

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कतिपय विशिष्ट क्षेत्रों के नृत्य: उत्तरी गढ़वाल (अब चमोली जिला) में कुछ मौजी जातियां (भाटिया गढ़वाली) हैं जो हमेशा बर्फीले क्षेत्र में रहती है। अतः उनके नृत्यों में कुछ भौगोलिक एवं सामाजिक कारणों से भिन्नता आ गई है। इनके नृत्य लोक रक्षा, आनन्द, प्रेम तथा मित्रता के द्योतक है। इनके प्रमुख नृत्य - थड़िया, गनगना, पौणा, चंचरी और याक नृत्य है।


गद्दी एवं जाड जातियों के नृत्य: गढ़वाल में ऊँचाइयों पर रहने वाली इन जातियों का जीवन स्वच्छन्द होता है। इनके नृत्यों में भेड-बकरियों का वही स्थान होता है जो मुनष्य का। इनके नृत्य इतने आकर्षक होते हैं जैसे प्रतीत होता है कि अप्सराएँ धरती पर उतर आई हों। भारत सरकार ने 1959 ई0 में इन्हें पुरस्कृत कर सम्मानित किया था। इनके नृत्य हैं - झंझोरी, बणजार, देखणी, फुकन्या तथा बाँसुरिया आदि।

कुमाऊंनी गोठिए (गोष्ठ वाले) के नृत्य: ये लोग जंगलों में गाय, भैसों के साथ ही जंगल में डप्पर डालकर रहते हैं। ये लोग रात में नाच-गाकर अपना समय व्यतीत करते हैं। इनके नृत्यों में सिहवा-विध्वा (कृष्ण के भाई), घटकरण तथा हरूंचामू (गोठियों का देवता) के आख्यान होते हैं, नृत्यों में अभिनय अधिक होता है।

किरात एवं किन्नर जातियों के नृत्य: पुष्प-तोया मालिनी के तटों पर यह जातियाँ निवास करती है जो अब पूर्णतः गढ़वाली जीवन में में ढल चुकी है। फूयोंली, हिलांसी, कफ्फू आदि इनके नृत्य है। उपर्युक्त नृत्यों के अतिरिक्त पशुचारकों, पक्षियों के झांझोटी, प्रेमजी, वणजारा आदि भी नृत्य दर्शकों को आकर्षित करते हैं।

व्यावसायिक नृत्य: औजी, बद्दी, मिरासी, ठक्की एवं हुड़क्या व्यावसायिक जातियां अपने कला का प्रदर्शन करके अपनी आजीविका कमाती है। औली 'ढोल सागर' के ज्ञाता है। बद्दी जातिया नाच-गाकर ही अपना जीवन चलाती है। पहले गढ़वाल के ठकुरी राजाओं का आश्रय प्राप्त था लेकिन आजकल बदहाली की स्थिति में है। इनकी कला में भरत- नाट्यम, कुचिपुड़ी एवं मणिपुरी नृत्य शैलियों के दर्शन होते है। गढ़वाल, कुमाऊँ में ये सभी जातियां उच्चकोटि के शिल्पकार है, इनके मुख्य नृत्य इस प्रकार है। :

थाली नृत्य : बाद्दी ढोलक व सारंगी बजाकर गीत की प्रथम पंक्ति गाता है। उसकी पत्नी थालियों के साथ विभिन्न मुद्रा में नृत्य प्रस्तुत करती है।
सरौं नृत्य : औजियों का यह नृत्य है।
चैती पसारा : चैत के सारे महीने व्यावसायिक जातियों के लोग अपने-अपने ठाकुरों के घरों के आगे गाते तथा नाचते हैं।
कुलाचार : कुल प्रशंसा गाते हुए 'हुड़क्का' स्वयं नृत्य भी करता है।
लांग नृत्य :मध्यकालीन लांग नृत्य के समान है। यह नृत्य वाद्दी करते हैं।
शिव-पार्वती नृत्य : बाद्दी या मिरासी शिव के कथानक को लेकर पार्वती के जन्म से लेकर विवाह, संयोग, वियोग एवं पुत्रोत्पत्ति आदि अवस्थाओं का नृत्य करते है।
नट-नटी नृत्य : जन समाज मनोरंजनार्थ ये लोग नट-नटी का हास्यपूर्ण प्रसंग अपने नृत्यों में रखते हैं। ऐसे नृत्यों का आयोजन मेलों में अधिक होता है।
दीपक नृत्य : प्रारम्भ में यह नृत्य थाली नृत्य के समान ही होता है। अन्त में दीये थाल में सजाकर नर्तकी नृत्य करती है।
सुई नृत्य : अनेक आंगिक अभिनय दिखाने के बाद नर्ककी अपने ओठों से सुई उठाकर अपना कमाल दिखाती हैं।
साँप नृत्य : साँप की तरह रेंगती हुई नर्तकी, साँप पर छंछदर का भावमय नृत्य प्रस्तुत करती है।

Risky Pathak

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सुनिए 'न्योली': लोक गीत
« Reply #72 on: June 17, 2008, 11:14:00 AM »
बलबीर राणा और आशा नेगी के स्वर मे सुनिए 'न्योली'. जिसे प्रस्तुत किया है हिरदा कैसेटस ने

http://www.esnips.com/doc/80867d6d-1dde-4f51-921a-7fa0baf3d962/Nyoli

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Yaar Himanshu sach main tumhare paas exclusive collection hai :)

बलबीर राणा और आशा नेगी के स्वर मे सुनिए 'न्योली'. जिसे प्रस्तुत किया है हिरदा कैसेटस ने

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Meena Pandey

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बलबीर राणा और आशा नेगी के स्वर मे सुनिए 'न्योली'. जिसे प्रस्तुत किया है हिरदा कैसेटस ने
JAY HO PATHAK JEW TUMARI

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Meena Pandey

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JAY HO LIKHA THERA VO BHI QUOTE HO GAYA THERA.... :)

Risky Pathak

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आजि कि देखो, आय देखला  :P




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Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Besabri se intezaar hai.

आजि कि देखो, आय देखला  :P




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Risky Pathak

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1 bahot purana Chabeli geet......Padm kumauni and sandhya jee ki awaaz mein...

सुनिए इस गीत को और  देखिये कैसे इस गीत के अन्दर पहाड़ के महीनों का उल्लेख किया है|


ऊँचा डाना पहाड़ की हिटो मन मा
भुलनु कसिक वकि म्येर जन्मा

जब लागु फागुन मेहना मैन्सी हव बानी
लै मुसिका बडा बल्दा तेलि तेलि कूनी

जब लागू  जेठ को मेहन ठंडो ठंडो पानी
यस लागू पराणी मे जै हयू बिलो रे जाणि

जब लागो आसाड़ सौनो बरख है जै छ
रोड गद्हेरी पड़ सुसाट हरियाली है जा छ

जब लगो असोज मेहन रिमझिम बरख
पहाड़ घर कै जंगल मे दूब बोठ रू छ   


http://www.esnips.com/doc/c8d27629-7cd1-47a0-9c27-dc18d3b21d46/Uchha-Dana-Pahaad-Ki

हेम पन्त

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नई टिहरी (टिहरी गढ़वाल)। पहाड़ में लोकनृत्य झुमैलो की अपनी सशक्त परंपरा रही है। त्यौहार हो या शुभ कार्य आज भी लोगों की झुमैलो के प्रति दीवानगी कम नहीं हुई है। सीमांत गांव गंगी में दीपावली के समय आज भी झुमैलो ही एकमात्र मनोरंजन का साधन रहता है।

त्यौहारों पर रात के समय गांव के सभी लोग मंदिर के प्रांगण में एकत्र होकर झुमैला गाते हैं। गांव में महिला पुरूषों की जुगलबंदी मन को मोहने लगती है। झुमैलो के जरिए ग्रामीण अपनी व्यथा और खुशी को प्रकट करते हैं। गांव के प्रधान नैन सिंह बताते हैं कि झुमैलो में खेत-खलिहानों से लेकर पशुधन सभी का वर्णन होता है। गांव के आराध्य देव की स्तुति और वर्णन होता है। गंगी की महिला बेलमती कहती है कि गांव में रेडियो और टीवी की सुविधा न होने के कारण आज भी झुमैलो ही मनोरंजन का साधन है। गांव में इस लोकनृत्य के लिए गांव के महिला-पुरूष जब अपनी पारंपरिक पोशाक पहनकर कतारबद्ध हो कर नृत्य करते हैं। इसके साथ ही आज झुमैलो में समय के बदलाव के साथ-साथ समाज में हो रहे बदलावों पर लोक जुड़ाव पर आधारित झुमेलो गीतों की रचना की सख्त जरूरत है ताकि सामाजिक बदलावों के साथ-साथ झुमैलो गीतों का विकास हो सके जिससे झुमैलो हमेशा ही लोगों के बीच जीवित रह सके।

 

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