अरुणाचल से लद्दाख तक बिखरे हैं चांचड़ी के रंग
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लोक' ऐसा अनूठा समंदर है, जो तमाम नदियों को अपनाकर फिर ऐसी ही तमाम नदियों को जन्म भी देता है। लोक कभी मरता नहीं, बल्कि वह तो तब तक जीवित रहेगा, जब तक कि धरती पर अंतिम मनुष्य है। लोक के कंठ से जब लय-ताल में सुर फूटे तो वह लोकगीत बन गए। जहां जैसी जमीन मिली, उसी के अनुरूप ढल गए और जब नृत्य इनके साथ जुड़ा तो नृत्यगीत हो गए। उत्तराखंड हिमालय का ऐसा ही प्रचलित नृत्य गीत है 'चांचड़ी', जो अरुणाचल प्रदेश से लेकर लद्दाख तक किसी न किसी रूप में मौजूद है।
असल में चांचड़ी अखिल हिमालयी है, इसलिए हिमालय का हर रंग उसमें समाया हुआ है। आस्था एवं विश्वास से लेकर प्रेम, श्रृंगार, परिस्थिति, नारी व्यथा, खुद, प्रकृति, पर्यावरण, फौजी जीवन जैसे प्रतिबिंबों की प्रतिकृति हैं चांचड़ी नृत्यगीत। यही वजह है कि देवभूमि उत्तराखंड में उल्लास के हर मौके पर चांचड़ी नृत्य होता रहा है। यह जरूर है कि गढ़वाल, कुमाऊं व जौनसार में इसके रंग अलग-अलग हैं, लेकिन हर रंग में चांचड़ी का ही रूप समाया है।
सूबे के अलग-अलग हिस्सों में वहां की प्रकृति एवं परिस्थिति के अनुसार चांचड़ी को चांचरी, झुमैला, दांकुड़ी, थड़्या, ज्वौड़, हाथजोड़ी, न्यौल्या, खेल, ठुलखेल, भ्वैनी, भ्वींन, रासौं, तांदी, छपेली, हारुल, नाटी व झेंता जैसे नामों से जाना जाता है।
इस सबके बावजूद हर क्षेत्र में नृत्य के साथ अनिवार्य रूप से गीत गाने की परंपरा है। चांचड़ी गीतों की रचना किसी गीतकार ने नहीं की, बल्कि घास काटने वाली महिलाओं, गाय-बकरी चुगाने वाले युवाओं, बूढ़े व सयानों, दूर ब्याही बेटियों आदि के सुरों से जो बोल फूटे, वही कालांतर में लोकगीत बन गए। यही चांचड़ी है। यही वजह है कि अरुणाचल प्रदेश से लेकर लद्दाख तक किसी न किसी रूप में चांचड़ी नृत्य की बानगी देखने को मिलती है।
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