Author Topic: Unknown Folk Singers Of Uttarakhand - उत्तराखंड के बेनाम लोक गायक  (Read 34685 times)

rbrbist

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Vidya D. Joshi

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 Dear friends,
This is a Interview with folk singer " Jhusia Damai " which was taken bY Dr. Dipendra Uprety some time ago.

भडों गायेकी का संबंध कत्यूरी परंपरा से है !
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(पिथौरागढ़ और नेपाल के महाकाली अंचल मे वषौं से सांस्कृतिक अदानप्रदान चला आ रहा है ! यही वजह है कि महाकाली अंचल और पिथौरागढ़ जनपद की अधिकांश पारम्परिक मान्यताओं में एरूपता है ! नेपाल और कुमाऊं मे लोकगाथा गायन की तमाम बारीकियों को समझने परखने वाले ९० बर्षीय श्री झुसिया दमाई के बारे में लोगों को खास जानकारी नहीं है ! जीवन के आखिरी पडा़व में पहुंच चुके इस लोक कलाकर की तरफ यद्यपि अब संस्कृति प्रेमियों का भी ध्यान जा रहा है, लेकिन लोक गायकी की इस पारम्परिक अनुशासन को भविष्य में बनाये रखने तथा इस परम्परा को आगे बढा़ने वाले लोगों की अब भी सर्वत्र कमी है ! झुसिया दमाई को अपने सम्मान से ज्यादा खुशी नहीं है वरन  वह इस बात से चिन्तित है कि इस परम्परा का बाहक अब आगे कौन बनेगा- झुसिया दमाई से ईन्हीं बिन्दुओं पर अविरल बातचित हुई जिसके कुछ अशं यहां है !)

आप का जन्म कब और कहां हुआ ?
आज से ९० साल पहले नेपाल के बैतडी़ बसकोट मे रनुवा दमाई के घर में मेरा जन्म हुआ था ! उसके बाद बाल्यकाल में ही शादी हो गई ! तिन पत्नियां मर गई, दो अभी जिन्दा है ! पिछ्ले ३० साल से हम लोग धरचुला तहसील के ग्राम ढुंगातोली में रहते है !

आप ने लोकगाथा गायकी को कैसे सीखा और इसकी प्रेरणा कहां से मिली ?
जब में २० साल का था तभी से अपने पिताजी के साथ गायन शुरु कर दिया था ! दरअसल नेपाल(बैतडी़) और धरचुला के इलाकों में अपने इष्टकुल के लिए वर्षों से हमारा एक ऐसा "कर" है कि हम चैत्र आश्विन और कर्तिक में उन देवताओं का स्तुति गान करें ! इनमें भगवती, जगन्नाथ, पांडवगाथा, नेपाल (बैतडी़) की त्रिपुरासुंदरी के मंदिर में आज भी हम लोग विधिवत उक्त महिनों में गाथा के लिए जाते है ! यह प्रेरणा नहीं वल्की इष्टकुल का "कर" चुकाने के लिए आवश्यक अनुष्ठान है !

आप विशेष रुप से भडौं गायकी जानते है- यह बताएंगे कि इस अंचल में किन वीरों की गाथाएं खास तौर पर प्रचलित है ?
भडौं कुमाऊं और नेपाल के "पकौ" यानी वीरों की गाथा है ! इसे बारातों में भी गाया जाता है ! इस अंचल में २२ भडौं (बीरों) खास तौर पर प्रसिद्ध है, जिसमे छुराखाती, भीम कठायत, संग्राम कार्की, सौन रौत, रन रौत, लाल सौन, सौन माहरा, कालू भनारी, उदई छपलिया, नर सिंह धौनी आदी सामिल है ! एसा कहा जाता है कि उस समय कत्यूर में विरमौद्यौ का राज था और २२ भडौं इस राजा के खिलाफ वीरता पुर्वक लड़े थे !

इसके अलवा कितने वीरों की गाथाएं यहां विशेष रुप से प्रचलित है ?
इसके अलावा इस अंचल में महाभारत गाथा, जागर गाथा, विक्रम चन्द,त्रिमल चन्द, मालुशाही,खर्कशाही, पैक, सौन. भणारी, कठायत १२ ठगुरी पैक, कलिका देवता, ३३ कोटि देवताओं की गाथाएं यहां पर गाई जती है ! ध्वज केदार, थल केदार, शिवनाथ, छ्पलाकेदार, लटपापू, नन पापू, ठगुरी चन्द,  गुंसाई गाथा, अलाइ मल्ल, छुर मल्ल, भागी मल्ल, गांगनाथ की गाथाओं भूतात्माओं के जागर भी गाए जाता है !

भूतात्माओं के जागर के लिए मुख्य बात क्या है जिससे भूत थानवास हो जाए ?
आज के नौसिखिया गायक सिर्फ हुड्के में थाप देकर वीर को नाचना जानते है ! किसी वीर (देवता) का डंगरिया नहीं औतर (प्रकट) रहा हो तब महाभारत में वर्णित उस गाथा को गाते हैं ! जब द्रौपदी का चीरहरण हो रहा होता है और पांडव असाहय से यह दृश्य देखते है ! जगरिया द्वरा यह प्रसंग शुल करते ही भूत से लेकर "देवता"तक औतर जाता है ! जो भी लोक देवता है उनके भारत (बखान) लगाने पड़ते हैं लेकिन जगरिया को उस स्रोत का पूरा ज्ञान जरूर होना चाहिए !



Vidya D. Joshi

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नेपाल और कुमाऊं गढ़वाल के लोक देवता में मूल अन्तर क्या है ?
नेपाल और कुमाऊं गढ़वाल के सभी लोक देवता एक समान प्रवति के है ! उन्हें खुश करने के लिए जिस तरह नेपाल में गाथा गाई जाती है उसी तरह कुमाऊं गढ़वाल में भी गाई जाती हैं ! हां, गायन और बाली में कुछ भेद हो सकते है ! मैं खुद बैतडी़, दारचूला, महेन्द्रनगर,  धनगड़ी, काठमान्डू, बेलौरी से लेकर मुवानी, ढुंगातोली, सोराड़, कालाढुंगा, हल्द्वानी आदि स्थान पर यह गाथा गा चुका हूं ! जब कत्यूरी का पतन हुआ तब गढ़वाल में भी ५२ ठकुरीयों ने अपने छोटे-छोटे राज्य (गढ़) स्थापित कर लिए ! इन राजाओं के कई वीरों "पैकों" की वीर गाथायें गढ़वाल में गायी जाती हैं, जिसे भड़, माल या पंवाडे कहते है ! वहां पर गढ़ सुम्याल, लोदी रिखोला, माधो सिंह भण्डारी, तीलू रौतेली की गाथायें प्रमुख है !

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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You can enjoy this Song of one of the Great Singer from Kumaon area of Uttarakhand. Madan Ram. He had released a few audio Cassette.

Gorkheeya Cheli Bhaguli..

http://www.esnips.com/doc/c2590f09-1caa-4b88-82f1-79476e30b94c/gorkhee-chailee-bhaguli

RANJITGOSAIN

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sir ji acha topic hai . there r so many talent in our pahad but jahan achaee hai wahin kuch burae bhee hai. jin artists ka aapne is topic mein jikar kia hai kya unhone kabhee flash mein aane ka paryas nahi kiya . i think kiya hoga par har field ki tarah is field mein bhee kuch buraee hai. or us buraee mein kuch new or kuch old artist shamil hain jo only paisa dekhte hain i m saying all this bcoz this thing happened with me . main unka naam nahi lunga but they r also verry good singer , musician and recordest.

Devbhoomi,Uttarakhand

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बसंती देवी बनी उत्तरांचल ग्रामीण बैंक की ब्रांड एंबेस्डर



बसंती लोकगायकी की पहचान बनी ,तो उत्तरांचल ग्रामीण बैंक ने अपनी पहचान बनाने के लिए उनका सहारा लिया । बैंक की पहली महिला शाखा का न सिर्फ उनके हाथों उद्घाटन कराया गया ,बल्कि उन्हे अपना ब्रांड एबेंस्डर भी बनाया । बैंक के बाहर बसंती की पहाड़ के पारंपरिक गहनों से लकदक बसंती की बड़ी-बड़ी तस्वीर सभी को आकर्षित करती हैं उन्हें देवभूमि की तीजन कहा जा सकता है । सुर,ताल और लय के साथ उनका बहाव अद्भुत है ।

भले ही वे बड़े फलक पर चमकता सितारा न हों ,लेकिन वह उत्तराखंड लोकगायकी की पारंपरिक पहचान बन चुकी हैं। उन्होंने गायन के ऐसे क्षेत्र में पुरुषों के वर्चस्व को चुनौती दे डाली ,जिसमें महिला स्वर के लिए कभी पहाड़ में कोई जगह नही रही।

 उत्तराखंड में बसंती किसी परिचय की मोहताज नही हैं। पारंपरिक जागर शैली को नए आयाम देकर न सिर्फ उन्होंने एक मुकाम तक पहुंचाया है,बल्कि एक दूरस्थ गांव में जन्मी बसंती आज एक बैक की ब्रंड एबेंसडर हैं और उन्होन अपने आप को गौरा देवी ,बेछेन्द्रीपाल और हिमानी शिवपुरी जैसी शख्सियतों के समकक्ष खड़ा कर दिया है।

 पारंपरिक गायक शैली का दूसरा नाम 56 वर्षीय बसंती बिष्ट का जन्म चमोली जिले के देवाल ब्लाक के ल्वाणी जैसे पिछड़े गांव में हुआ। यह क्षेत्र गढ़वाल और कुमाऊं को जोड़ता है , इसलिए बसंती को गढ़वाल और कुमाऊं दोनों भाषाओं का ज्ञान है और उन्होंने दोनों ही क्षेत्र की भाषा में पांरपरिक गीत बनाए और गाए हैं बसंती ने पहाड़ की दूसरी कलाओं की तरह जागर और गीत मांगल गान अपनी माता बिरमा देवी पिता आलम सिंह से सीखे ।

 केवल पांचवी कक्षा तक पढी-लिखी बसंती का विवाह पंद्रह साल की उम्र में रणजीत सिंह बिष्ट के साथ हुआ। अस्सी के दशक में पहली बार पहाड़ से निकलकर पति के साथ जालंधर पहुंची । जालंधर में बसंती ने अपनी इस कला को सुर ,ताल ,और लय के साथ आगे बढ़ाने के लिए संगीत की शिक्षा ली,लेकिन पारिवारिक कारणों से संगीत की परीक्षा मे शामिल न हो सकी । इसके बाद उन्हे गांव लौटना पड़ा ।

 नब्बे के दशक में उत्तराखंड आंदोलन उनके जीवन का महत्तवपूर्ण मोड़ था। वह कहती हैं कि आदोंलन के दौरान जनसभाओं ,रैली ,और नुक्कड़ सभाओं में उन्होंने लोगों को एक जुट करने के लिए कई गीत बनाए और गाना शुरु कर दिया । उनके सुर ,ताल और लय को प्रशंसा तो मिली ही तथा कुछ लोगों ने उन्हे आकाशवाणा की स्वर परीक्षा में शामिल होने की सलाह दी ।

 वह कहती हैं कि वह 1996 में मैं स्वर परीक्षा में शामिल हुई और उसमें पास भी हुई आकाशवाणी से उन्हें पारंपरिक लोकगीत और जागर गाने का मौका मिला । इसके बाद गढवाल महासभा में 1998 में पहली बार गढ़वाल महोत्सव में जागर गाने का निमंत्रण दिया । उनकी जागर गायन की शैली से लोग इतने कायल हुए की दूसरे मंच पर भी उनकी मांग बढऩे लगी ।

 इसके बाद तो बसंती ने पीछे मुड़ कर नही देखा ,और आज तो लोककलाओं पर आधारित कोई भी कार्यक्रम उनके बिना अधूरा ही माना जाता हैं । बसंती सिर्फ मंचों तक ही सिमटकर नही रह गई है ,वह गढवाल विश्वविद्यालय से लोककलाओं में डिप्लोमा लेने वाले छात्रों को लेक्चर भी देती हैं।

 हालांकि उनका कहना है कि जब उन्होंने मंच पर जागर गाना शुरु किया तो शुरु में उनका विरोध भी हुआ । बसंती जागर गायन की शैली को केवल पहाड़ और पहाड़ के लोगों के बीच ही नही रखना चाहती ।जागर को पहाड़ से नीचे उतारने के लिए उन्होंने प्रयोग भी शुरु कर दिए हैं ।

पहाड़ के देवी देवताओं के अलावा वह रामायण और महाभारत के प्रसंगों पर भी जागर बनाने लगी हैं । वह कहती है कि पहाड़ के लोगों के बीच जब वह जागर गाती हैं तो पहले रामायण और महाभारत के प्रंसगों की कहानी हिन्दी मे सुनाती हैं । फिर उन्हे जागर की शैली में गाती हैं ।

पंकज सिंह महर

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संस्कृति को बढ़ावा देने का सरकार भले ही दावा कर ले, आज उत्तराखण्ड में सरस्वती देवी जैसे कई लोक कलाकार सरकार की उपेक्षा के कारण गुमनाम और कष्टमय जीवन बिताने को मजबूर हैं। देखिये दैनिक हिन्दुस्तान में आज के अंक में प्रकाशित यह खबर


जीवन भर मालिकों की मंगल कामना के लिए गीत गाए। उनके देवताओं को खुश करने के लिए जागर, भड़ौ, बदरी, केदार नाग सेम राजा की गाथाएं गाईं। चैती गीतों के जरिए नव विवाहिताओं को मायके का संदेश पहुंचाया। ऋतु बदलने पर पहाड़ के कठिन जीवन में उल्लास भरने के लिए जितनी सामथ्र्य थी, नाची। लेकिन आज जब बुढ़ापे और बीमारी ने आ घेरा तो सभी ने मुंह फेर लिया।

यह विडम्बना ङोल रही हैं, बेडा परम्परा की लोकगायिका सरस्वती देवी। एक जमाने में जिसके सुर सुनने और नृत्य देखने के लिए गांव के गांव जुट जाते थे, आज वह श्रीनगर के पास डांगचौरा में पीपल के एक पेड़ के नीचे जीवन के बचे हुए दिन गुजार रही है। किसी ने दे दिया तो खा लिया, नहीं तो भूखी ही सो गईं।

72 साल की यह लोकगायिका चैती, मांगल, बदरी, केदार, गंगोत्री माणिकनाथ, सेमनागराजा, गंगामाई एवं भड़ौ जैसी लोकगायिकी की विधाओं की लोकप्रिय गायिका रही है। एक जमाने में टिहरी के राजा इन्हें मेहनताना और ग्रामीण ‘डडवार’ दिया करते थे। लेकिन जमाना बदला और इन लोकगीतों के कद्रदान घटते चले गए। बदले हुए जमाने में इन गीतों और इनके गाने वालों की कोई पूछ नहीं रही। इसलिए सरस्वती देवी जैसे कई गायक रोजी-रोटी के लिए मोहताज हो गए।

राज्य सरकार की ओर से लोग गायकों को दी जाने वाली पेंशन भी सरस्वती देवी को नसीब नहीं हुई। सरस्वती देवी बताती हैं कि, इसके पास न रहने को घर है और न कोई सहारा। बस सड़क किनारे का यह पीपल जब तक आसरा दिए हुए हैं, जी लूंगी। गढ़वाल विवि के लोक कला केंद्र के निदेशक प्रो. डीआर पुरोहित बताते हैं कि सरस्वती देवी बेडा परंपरा के लोक गीतों की सबसे धनी कलाकार रही हैं।

1991 में उन्हें नार्थ जोन कल्चरल सेंटर द्वारा आयोजित सांस्कृतिक उत्सव में भाग लेने का मौका मिला। गढ़वाल विवि के अनेक प्रोजेक्ट में भी वह काम कर चुकी हैं। पुरोहित कहते हैं कि, यदि सरस्वती देवी की मदद के लिए सरकार आगे आए तो अब भी उनके पास बचे पहाड़ की संस्कृति के अनमोल खजाने में से कई बहुमूल्य मोती बचाए जा सकते हैं।

हेम पन्त

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आज के "हिन्दुस्तान" में front page पर मैने भी यह समाचार पढा. यह जानकर दिल को गहरी चोट पहुंची कि हम लोग अपनी समृद्ध संस्कृति के बारे में इतनी ढेरों बातें करते हैं, लेकिन इस संस्कृति के वाहक, सरस्वती देवी जैसे लोग विक्षिप्तों की तरह पेड़ के नीचे रहने को अभिशप्त हैं.. हम पर धिक्कार है

संस्कृति को बढ़ावा देने का सरकार भले ही दावा कर ले, आज उत्तराखण्ड में सरस्वती देवी जैसे कई लोक कलाकार सरकार की उपेक्षा के कारण गुमनाम और कष्टमय जीवन बिताने को मजबूर हैं। देखिये दैनिक हिन्दुस्तान में आज के अंक में प्रकाशित यह खबर


जीवन भर मालिकों की मंगल कामना के लिए गीत गाए। उनके देवताओं को खुश करने के लिए जागर, भड़ौ, बदरी, केदार नाग सेम राजा की गाथाएं गाईं। चैती गीतों के जरिए नव विवाहिताओं को मायके का संदेश पहुंचाया। ऋतु बदलने पर पहाड़ के कठिन जीवन में उल्लास भरने के लिए जितनी सामथ्र्य थी, नाची। लेकिन आज जब बुढ़ापे और बीमारी ने आ घेरा तो सभी ने मुंह फेर लिया।

यह विडम्बना ङोल रही हैं, बेडा परम्परा की लोकगायिका सरस्वती देवी। एक जमाने में जिसके सुर सुनने और नृत्य देखने के लिए गांव के गांव जुट जाते थे, आज वह श्रीनगर के पास डांगचौरा में पीपल के एक पेड़ के नीचे जीवन के बचे हुए दिन गुजार रही है। किसी ने दे दिया तो खा लिया, नहीं तो भूखी ही सो गईं।



सत्यदेव सिंह नेगी

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इस खबर से सच में हमें झकझोर के रख तो दिया है इश्वर की इस देन को सम्मान मिलना चाहिए

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Pratap Singh Bafila

There is famous Singer Pratap Singh Bafila. He had released some good albums. Kumoani Geet Mala Vol-1. The famous Song “O Deepa Chup Heja, Tu Balachhe Kaapna” and oh Badala Ghoomi Eje, Myar Pahad Desh Ma” were from the same Album.

Bus after a few times, he was out of market. He had composed very good songs. Panchi Udi Jaani Ghool Us Rooch etc etc.

 

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