Author Topic: प्रसिद्ध उत्तराखंडी महिलाये एवम उनकी उपलब्धिया !!! FAMOUS UTTARAKHANDI WOMEN !!!  (Read 64847 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Housewife Sumati Negi has turned into a master baker
« Reply #40 on: January 03, 2009, 01:57:20 PM »

Bake it like Sumati
Divya Semwal
Tribune News service
 
Housewife Sumati Negi has turned into a master baker. It was the zeal to do something constructive that turned her into a successful entrepreneur. It was eight years ago after her children started college that Sumati began to feel bored in the confines of her home.

She came in contact with the Himalayan Environment Studies and Conservation Organization that encouraged her to learn bakery. She was taught some basics and sent to the Central Food Technology Reaserach Institute in Mysore to learn the latest techniques in bakery.

Initially, Sumati tried her hands at biscuits and cookies. “I was given an oven and i tried making biscuits and cookies at home. I took my products to a few shops and people started taking interest in these,” she said.

In 2005, she expanded business by saving money and starting her own bakery from home. “I expanded my bakery and started making rusk, patties, sweet buns, cream rolls and a variety of biscuits,” said Sumati Negi.



She specialises in making biscuits from traditional grains like the mandwa, chaulai, soyabean, and jangora . “Mostly people know about biscuits prepared from wheat flour, but I wanted them to know of the Uttarakhand specialty and by using traditional nutritious grains, I was able to popularise these products,” said Sumati.

In 2007, as part of the Alps-Himalayas exchange programme, she visited the Angden valley in Switzerland, home to world-class bakery products and cakes. Taught by master bakers of Switzerland, she returned to add more value to her products. Her nut and plum cakes are liked the most.

“I’m getting many orders for mandwa biscuits that are nutritious besides order for cakes, she Sumati.

Her products are being sold in several confectionary shops, schools and colleges. She is a regular at fairs and exhibitions held in and around Dehradun throughout the year.

Starting with a loan of Rs 80,000, Sumati bought equipment for bakery three years ago and has repaid her loan. “I have now applied for loan worth Rs 10 lakh to buy the latest equipment for my bakery,” she said.

Not content with being a mere housewife, Sumati has become a role model for other women. “When I started, I was a little hesitant but I always wanted to work and earn money. Fortunately, I have been lucky in having a family which supported me through thick and thin.

“My husband manages the accounts in the bakery. I supervise the workers,” said Sumati Negi. Her Negis’ Bakery is steadily getting popular in the valley.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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ऐपण में जानकी को मिला पहला पुरस्कारJan 14, 10:03 pm

अल्मोड़ा। नगर के मोहल्ला खोल्टा निवासी जानकी जोशी को देहरादून में आयोजित एक कार्यक्रम में परम्परागत ऐपण के लिए प्रथम पुरस्कार से नवाजा गया है। यह जानकारी देते हुए जिला उद्योग के महाप्रबंधक ने बताया कि देहरादून में मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी ने जानकी जोशी को पुरस्कार स्वरूप 15 हजार रुपये की धनराशि, प्रमाण पत्र व शाल प्रदान कर सम्मानित किया। उनके इस ऐपण को राष्ट्रीय पुरस्कार की संस्तुति के लिए भेजा गया है।


हेम पन्त

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Information provided by Pankaj Mahar ji

मल्ला कसून, अल्मोड़ा निवासी डेनियल पंत ने १८७१ में ईसाई धर्म अपना लिया था, लेकिन अपना मूल नाम "पंत" नहीं छोड़ा। उनकी ही पुत्री थीं, श्रीमती आइरिन पंत, जिनका जन्म अल्मोड़ा में १९०५ में हुआ, इनकी शिक्षा नैनीताल तथा लखनऊ में हुई। इनका विवाह मुजफ्फरनगर निवासी लियाकल अली खान से १६ अप्रैल, १९३३ को हुआ। विभाजन के समय श्री खान सपरिवार पाकिस्तान चले गये और शादी के बाद आइरिन पंत रानी बेगम हो गईं। लियाकल अली खान को पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री बने, १९५१ में उनकी हत्या के बाद भी श्रीमती आइरिन पंत सक्रिय रहीं और १९५४ में नीदरलैंड में पाकिस्तान की राजदूत नियुक्त हुई। इसके अलावा वे इटली और ट्यूनेदिया में भी पाकिस्तान की राजदूत रहीं। इन्होंने पाकिस्तानी महिलाओं के उद्धार के लिये "आल पाकिस्तान वीमेन्स एसोसियेशन" की स्थापना भी की। इनके सराहनीय कार्यों ही वजह से १९६५ में इन्हें "मदर आफ पाकिस्तान" तथा "वूमेन आफ द वर्ल्ड" और संयुक्त राष्ट्र संघ के "मानवाधिकार पुरस्कार" से सम्मानित किया गया। १३ जून, १९९० को आइरिन पंत उर्फ राना बेगम की मृत्यु हो गई।

पंकज सिंह महर

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देश-दुनिया के लिए आठ मार्च का दिन महिलाओं के संघर्ष को याद करने का दिन है, लेकिन देवभूमि का तो अस्तित्व ही महिलाओं पर टिका है। सामाजिक सरोकारों से जुड़ा शायद ही कोई क्षेत्र होगा, जहां उत्तराखंडी महिलाओं ने प्रतिमान न स्थापित किए हों। पर्वतीय नारी के लिए संघर्ष कोई तमगे हासिल करने का जरिया नहीं है। संघर्ष तो उसके स्वभाव में है और इसी जुझारू प्रवृत्ति ने उसे दुनियाभर में अलग पहचान दी है। पहाड़ का भूगोल जितना जटिल है, अन्य परिस्थितियां भी उसी के अनुरूप जटिल रही हैं। यही वजह है कि यहां ऐतिहासिक घटनाओं की जानकारी लोकगीतों व पंवाड़ों में ही ज्यादा मिलती है। इतिहास में पहले-पहल जिस वीर नारी का उल्लेख मिलता है, वह है रानी कर्णावती, जिसने मुगल बादशाह औरंगजेब की सेना से लोहा लिया। वीरबाला तीलू रौतेली, मालू रौतेली आदि वीरांगनाओं का इतिहास को भी कालांतर में प्रचलित लोक गाथाओं से ही लिपिबद्ध किया गया। वर्ष 1805 से लेकर 1815 तक उत्तराखंड के अधिकांश हिस्से में गोरख्याणी का राज रहा और इसकी सर्वाधिक त्रासदी यहां महिलाओं ने ही झेली। गोरखा आक्रमण में अपनी जान देकर लोगों की जान बचाने वाली कोलिण जगदेई तो आज लोकदेवी के रूप में पूजी जाती हैं। आजादी के आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाली बिशनी देवी शाह को कौन भुला सकता है। यह वह महिला हैं जिन्होंने आजादी के लिए जेल जाने वाली उत्तराखंड की प्रथम महिला बनने का गौरव हासिल किया। चिपको आंदोलन की सूत्रधार रैणी गांव की गौरा देवी का नाम तो पूरी दुनिया में आदर के साथ लिया जाता है। उन्होंने स्वयं स्कूल का मुंह नहीं देखा, लेकिन दुनिया के लिए उनका पूरा जीवन ही एक किताब बन गया।साठ के दशक में गढ़वाल के शराब विरोधी आंदोलन को स्वर देने वाली टिंचरी माई स्वयं में संघर्ष की अनूठी मिसाल हैं। 19 साल की उम्र में विधवा होने पर भी वह टूटी नहीं। टिंचरी माई ने शराब की दुकानें जलाकर इसके खिलाफ संघर्ष का बिगुल फूंका। जेल होने पर भी उन्होंने ऐलान किया मैं यहीं रुकने वाली नहीं हूं। पहाड़ी महिला जानती है कि जल, जंगल, जमीन के बिना मनुष्य का कोई अस्तित्व नहीं है। इसीलिए वह पहाड़ी समाज के घर यानि जल, जंगल और जमीन की लड़ाई में पहली पांत में रही है। नशा नहीं रोजगार दो, टिहरी के विस्थापितों के पुनर्वास का आंदोलन बगैर महिलाओं की भूमिका के शायद ही मुकाम हासिल कर पाते। उत्तराखंड आंदोलन में तमाम घरेलू कार्यो के बावजूद महिलाओं की भागीदारी अविश्र्वसनीय है। सबसे पहले शहीद होने वालों में बेलमती चौहान, हंसा धनाई की बहादुरी भला भुलाई जा सकती है। यह तो सिर्फ बानगी है। पहाड़ी महिला का संघर्ष तो कभी न खत्म होने वाली गाथा है। वह सिर्फ घर-परिवार में ही नहीं जूझती, खेतों में हल भी चलाती है। जंगलों में गुलदार, बाघ, भालू, सूअर जैसे हिंसक जीवों से संघर्ष तो मानो उसकी जीवनचर्या का हिस्सा बन गया है। फिर भी लगता है कि पर्वतीय नारी आज भी वहीं खड़ी है, जहां वह दशकों पहले थी। लड़ के लेंगे, भिड़ के लेंगे, छीन के लेंगे उत्तराखंड का नारा बुलंद करने वाली पहाड़ी महिला का असमानता मुक्त बेहतर समाज का सपना अभी भी दूर है।
 

पंकज सिंह महर

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मृगा सकलानी उत्तराखण्ड की ऎसी पहली शख्सियत है, जो किसी रियलटी शो में इस मुकाम तक पहुंची, हालांकि इससे पहले भी कई लोग पहुंचे, लेकिन वे लोग या तो प्रवासी उत्तराखण्डी थे या उत्तराखण्ड के महानगरों में पले-बढ़े। लेकिन मॄगा ऎसी पहली प्रतिभागी हैं, जो उत्तराखण्ड के गांवों में पली-बढ़ी और अपनी मेहनत के बल पर यह मुकाम हासिल किया। हालांकि वह पहले स्थान पर नहीं आ सकी। लेकिन हमें आशा है कि भविष्य में वे जरुर पुरस्कार जीतेंगी और देश में उत्तराखण्ड का नाम रोशन करेंगी।
मृगा सकलानी, टीवी शो डांसिंग क्वीन में अपने नृत्य के जलवे बिखेरती इस युवती को देख शायद ही कोई अंदाजा लगाए कि वह ऐसी जगह से आई है, जहां न तो सुविधाएं हैं और न ही माडलिंग जैसे करियर को प्रोत्साहन देने वाला कोई साथी। यह मृगा का जुनून ही था, जो उसे रुद्रप्रयाग के चोपता से मुंबई ले गया और पहुंचा दिया डांसिंग क्वीन के टॉप टू तक। भले ही मृगा शो में पहला स्थान प्राप्त न कर पाई हो, लेकिन उसने साबित कर दिया की पहाड़ की बेटी जो ठान ले, उसे पूरा करने से पीछे नहीं हटती। ढाई माह पूर्व जब कलर्स चैनल पर डांसिंग क्वीन की शुरुआत हुई थी तो किसी ने सोचा भी नहीं था कि मृगा का सफर फाइनल तक पहुंचेगा, लेकिन मृगा ने अपनी मेहनत के बल पर खुद को साबित करके दिखा दिया। आज भले ही वह डांसिंग क्वीन का खिताब न जीत पाई हो, लेकिन उसके फ‌र्स्ट रनर अप बनने पर ही उत्तराखंडवासी गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। रुद्रप्रयाग के एक छोटे से कस्बे चोपता में शिक्षक माता-पिता बीना और गोपालकृष्ण सकलानी के घर जन्मी मृगा बचपन से ही मायानगरी मुंबई जाने के सपने देखा करती थी। शांत मिजाज की मृगा ने छोटी उम्र से ही अपने सपने को पूरा करने की ठान ली थी। यही वजह है कि पिता के इंजीनियर बनाने की इच्छा के विपरीत उसने माडलिंग को करियर के तौर पर चुन लिया। इसके लिए उसने बीएससी की पढ़ाई भी अधूरी छोड़ दी। बेटी की ललक को देख माता-पिता ने भी उसे इजाजत दे दी और करीब चार साल पहले मृगा जा पहुंची मुंबई। मृगा की मां बीना सकलानी बताती हैं कि उसने जो मुकाम हासिल किया है उस पर वह बेहद गर्व महसूस करती हैं। आज वह पूरे देश में इस छोटे से क्षेत्र का नाम रोशन कर रही हैं। वह आगे कहती हैं कि मृगा के अंदर प्रतिभा कूट-कूट कर भरी है, जिसका नतीजा सबके सामने है। वहीं, पिता गोपालकृष्ण सकलानी भी बेटी की सफलता पर बेहद खुश हैं। हालांकि, इलाके में कलर्स चैनल का प्रसारण न होना उन्हें काफी खला। वह कहते हैं, जिले के साथ ही राज्य के अधिकांश क्षेत्र में केबल डिस्क से कलर्स टीबी का प्रसारण न होने से ही उनकी बेटी को नुकसान हुआ। प्रसारण न होने से मृगा को अपेक्षा के अनुरूप वोटिंग नहीं हो सकी। हालांकि, उनका कहना था कि बेटी ने आज जो मुकाम हासिल किया वही उनके लिए सबसे बड़ा पुरस्कार है।
 
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Devbhoomi,Uttarakhand

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अपने ही गांव में बेगानी हुई गौरा



रैणी गांव का नाम आते ही जेहन में उभर आती है उस महिला की तस्वीर, जिसने गंवई होते हुए भी एक ऐसे आंदोलन का सूत्रपात किया, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी पहचान बन गया। बात हो रही है चिपको आंदोलन की नेत्री गौरा देवी की। प्रथम महिला वृक्षमित्र के पुरस्कार से नवाजी गई गौरा देवी ने न सिर्फ जंगलों को कटने से बचाया, बल्कि वन माफियाओं को भी वापस लौटने पर मजबूर कर दिया।
जीवनपर्यत गौरा लोगों में पेड़ों के संरक्षण की अलख जगाती रहीं, लेकिन उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनके निधन के बाद खुद उनके ही गांव में सरकारी मशीनरी व चंद निजी स्वार्थो के लोभी लोग उनके सपनों का गला घोंट देंगे। आलम यह है कि गांव के नजदीक ही जलविद्युत परियोजना के लिए सुरंगों का ताबड़तोड़ निर्माण किया जा रहा है। इससे गांव के लोग पलायन को मजबूर हो गए हैं।

जोशीमठ से करीब 27 किमी दूर स्थित है रैणी गांव। 26 मार्च 1974 का दिन इस गांव को इतिहास में अमर कर गया। सरकारी अधिकारियों की नजर लंबे समय से गांव के नजदीक स्थित जंगलों पर थी। यहां पेड़ों के कटान के लिए साइमन कंपनी को ठेका दिया गया था, जिसके तहत सैकड़ों मजदूर व ठेकेदार गांव पहुंच गए थे।
 गांव वालों के विरोध को देखते हुए अधिकारियों ने साजिश के तहत उन्हें चमोली तहसील में वार्ता के लिए बुलाया और पीछे से ठेकेदारों को पेड़ कटान के लिए गांव भेज दिया गया, लेकिन उनका यह कदम आत्मघाती साबित हुआ। गांव में मौजूद गौरा देवी को जैसे ही खबर मिली वह ठेकेदारों के सामने आ गई और पेड़ पर चिपक गई। देखादेखी अन्य महिलाओं ने भी ऐसा ही किया। ठेकेदारों, मजदूरों ने उन्हें हटाने की बहुत कोशिश की, लेकिन एक नहीं चली। इस तरह चिपको आंदोलन का सूत्रपात हुआ और गौरा ने 2451 पेड़ों को कटने से बचा दिया।
 चिपको जननी के नाम से विख्यात गौरा का कहना था कि 'जंगल हमारा मायका है हम इसे उजाड़ने नहीं देंगे।' जीवन भर वृक्षों के संरक्षण को संघर्ष करते हुए चार जुलाई 1991 को तपोवन में उनका निधन हो गया। इससे पूर्व भारत सरकार ने वर्ष 1986 में गौरा देवी को प्रथम महिला वृक्ष मित्र पुरस्कार से नवाजा था। मृत्यु से पूर्व गौरा ने कहा 'मैंने तो शुरुआत की है, नौजवान साथी इसे और आगे बढाएंगे', लेकिन वक्त बदलने के साथ लोग गौरा के सपनों से दूर होते गए।

सरकार ने गौरा के गांव में उनके नाम से एक 'स्मृति द्वार' बनाकर खानापूर्ति तो की, लेकिन पिछले 17 साल में शायद ही कभी कोई मौका आया हो, जब इस पर्यावरण हितैषी की याद में कभी सरकारी मशीनरी ने दो पौधे भी रोपे हों। हद तो तब हो गई, जब गौरा के गांव के जनप्रतिनिधियों ने ही उनके अभियान से मुंह मोड़ लिया। स्थिति यह है कि गांव में गौरा के नाम पर बनाए गए मिलन स्थल को गांव के नजदीक बनाए जा रहे बांध की कार्यदायी संस्था 'ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट' को किराए पर दे दिया गया है। इतना ही नहीं, गांव के नजदीक इन दिनों सुरंगों का निर्माण कार्य जोरों पर है, जिसके लिए पेड़ भी काटे जा रहे हैं। परियोजना निर्माण के लिए हो रहे धमाकों से कई घरों में दरारें पड़ गई हैं। ऐसे में लोग यहां से पलायन करने को मजबूर हो गए हैं।

पूर्व ग्राम प्रधान मोहन सिंह राणा व्यथित स्वर में कहते हैं कि सरकार ने गांव को हमेशा ही नजर अंदाज किया। उन्होंने यह भी कहा कि गौरा के सपनों को पूरा करने के लिए दोबारा चिपको जैसे आंदोलन शुरू करने की जरूरत है। गौरा देवी के पुत्र चंद्र सिंह व ग्रामीण गबर सिंह का कहना है कि सुरंग निर्माण को रोकने व गांव की अन्य समसयओं के बाबत कई बार शासन-प्रशासन से गुहार कर चुके हैं, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही।


Source : http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_5733377.html

Devbhoomi,Uttarakhand

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चिपको आंदोलन का दूसरा नाम बचनी देवी

विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन के कार्यकर्ताओं में भले ही पुरुष कार्यकर्ताओं के नाम लोग अधिक जानते हैं, लेकिन इस आंदोलन में महिलाओं की भूमिका भी कम नहीं है। हालांकि, महिलाओं में गौरा देवी या सुदेशा बहन को ही लोग अधिकतर जानते हैं, लेकिन ऐसी कई महिलाओं ने इस आंदोलन के प्रसार में अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी, जिन्हें अब तक पर्याप्त सम्मान या पहचान नहीं मिल पाई है।

टिहरी जिले के हेंवलघाटी क्षेत्र के अदवाणी गांव की बचनी देवी भी उन महिलाओं में एक है, जिन्होंने चिपको आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। बचनी देवी का जन्म अगस्त 1929 में पट्टी धार अक्रिया के कुरगोली गांव में हुआ। उनकी शादी अदवाणी गांव निवासी बख्तावर सिंह के साथ हुई।

 30 मई 1977 को जब चिपको नेता सुंदरलाल बहुगुणा, धूम सिंह नेगी और कुंवर प्रसून अदवाणी पहुंचे, तो वहां वन निगम के ठेकेदार पेड़ों पर आरियां चला रहे थे। बहुगुणा, नेगी व प्रसून के आह्वान पर बचनी देवी गांव की महिलाओं को साथ लेकर आंदोलन में कूद पड़ी। उन्होंने पेड़ों से चिपककर ठेकेदारों के हथियार छीन लिए और उन्हें वहां से भगा दिया।

उस दौर में गांव के अधिकांश लोग पेड़ों के कटान के समर्थक थे, क्योंकि वन विभाग द्वारा गठित श्रमिक समितियां ठेकेदारों के माध्यम से कार्य करती थी और लोग इसे रोजगार के रूप में देखते थे। बचनी देवी से जुड़ा सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि उनके पति बख्तावर सिंह खुद निगम के लीसा ठेकेदार थे। ऐसे में बचनी देवी ने साहस और सूझबूझ से परिवार का विरोध भी झेला और आंदोलन में भी भागेदारी की।

 पति के अलावा परिवार के अन्य सदस्य भी जंगल कटने के समर्थक थे, क्योंकि इससे उनकी आजीविका जुड़ी हुई थी, लेकिन चिपको आंदोलन की विचारधारा को भलीभांति समझने वाली बचनी देवी ने सार्वजनिक हित को महत्वपूर्ण समझा। यहां यह भी बता दें कि चिपको आंदोलन की शुरूआत अदवाणी के जंगलों से ही हुई थी।

यहां साल भर आंदोलन चला, जिसमें बचनी देवी पूर्ण रूप से सक्रिय रहीं और उन्होंने घर-घर जाकर दूसरी महिलाओं को संगठित व जागरूक किया। खास बात यह है कि सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करने के साथ उसने घर-परिवार की जिम्मेदारी, चूल्हा, चौका, घास-लकड़ी का काम भी बखूबी निभाया। इस दौरान उन्हें अनेक कष्ट भी झेलने पड़े।

एक साल के संघर्ष के दौरान ठेकेदारों को खाली हाथ वापस जाना पड़ा तथा इस क्षेत्र में पेड़ों की नीलामी व कटान पर वन विभाग को रोक लगानी पड़ी। बचनी देवी धीरे-धीरे अपने पति व परिवार जनों को समझाने में भी कामयाब रही। आज उनकी उम्र 80 वर्ष है और उन दिनों की याद ताजा कर वह कहती है कि आंदोलन के दौरान कई बार उनके पति उनसे बात तक नहीं करते थे, फिर भी उन्होंने संयम से काम लिया और दोनों मोर्चो पर सफलता पाई।

आंदोलन में उनके साथ रहे धूम सिंह नेगी व सुदेशा बहन का कहना है कि उनमें साहस और हिम्मत के कारण अदवाणी की दूसरी महिलाएं भी आंदोलन में शामिल हुई थी। बचनी देवी का आज भरा-पूरा परिवार है। वह चाहती हैं कि लोग अपने संसाधनों के प्रति जागरूक रहें।

पंकज सिंह महर

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श्रीमती तारा देवी

श्रीमती तारा देवी की कोख ने टिहरी आन्दोलन के महान सपूत श्रीदेव सुमन जैसा नायाब हीरा उत्तराखण्ड को दिया था। श्रीमती तारा देवी अपने पुत्र के बलिदान के बाद भी सामाजिक गतिविधियों में लगातार सक्रिय रहीं। ६० के दशक में जब सारा पहाड़ नशे की खिलाफत कर रहा था, उस समय उन्होंने महिलाओं को संगठित कर इस सामाजिक बुराई के खिलाफ आन्दोलन किया। बादशाही थौल में सुन्दर लाल बहुगुणा के उपवास के समय भी तारा देवी जी उनको समर्थन देने पहुंची। इसके अलावा चमोली जिले के चंदापुरी गांव की महिलाओं के शराब के विरुद्ध आन्दोलन का नेतृत्व इन्होंने ही किया था।

पंकज सिंह महर

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श्रीमती बौंणी देवी


बौणी देवी चमोली गढ़वाल की एक जागरुक महिला थी, वे दशौली ग्राम स्वराज्य संघ से जुड़ी थी और उन्होंने अपने गांव में महिला मंगल दल का गठन भी किया। बौंणी देवी मात्र कक्षा ५ तक पढ़ी थी, लेकिन अत्यधिक आत्मविश्वासी, कर्मठ और सचेत नारी हैं। उन्होंने सर्वोदयी नेताओं के शिविर में जाकर वहां से प्रेरणा प्राप्त कर अपने दुर्गम क्षेत्र में महिला मंगल दल को साथ लेकर वृक्ष लगाने से लेकर चारदीवारी तक बनाने तक अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये और अपने गांव में प्राइमरी पाठशाला खुलवाने से लेकर हाईस्कूत खुलवाने के प्रयास में अत्यन्त संघर्ष किया, इसके लिये वह अनशन पर भी बैंठी, वे सामूहिक वृक्ष मित्र पुरस्कार से भी सम्मानित हुई। बौंणी देवी ने स्कूल आफ फंडामेंटल रिसर्च, कलकताके निदेशक विप्लव बसु के आमंत्रण पर २२ दिन तक पश्चिम बंगाल की यात्रा की और वहां  पर चिपको आन्दोलन पर व्याख्यान दिया।

पंकज सिंह महर

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श्रीमती प्रतिभा मिश्र

जिस समय उत्तराखण्ड में महिलायें समाज के कार्य कलापों में आगे आने से संकोच करती थीं, ऐसे वातावरण में उत्तराखण्ड के प्रख्यात साहित्यकार, कवि, पत्रकार तथा स्वतंत्रता सेनानी स्व० कृपाराम मिश्र जी की पत्नी प्रतिभा सामाजिक कार्यों में आगे आईं, उनकी कांग्रेसी विचारधारा होने के कारण उनका अपने कार्यकाल में कांग्रेस में सदा सहयोग रहा। उन्होंने अपने सामाजिक कार्यों के अनुभवों द्वारा दूसरी महिलाओं को भी प्रेरणा दी, मार्गदर्शन किया, ताकि महिलायें संकोच के बिना सामाजिक कार्यों में हिस्सा लें। वे जिला परिषद की सदस्या भी रहीं, दीर्घाकाल तक समाजसेवा के क्षेत्रम ें किये गये उनके कार्य उल्लेखनीय हैं।

 

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