देवी की बालवाड़ी : संकीर्णता और घृणा से भरी दुनिया को बदलने का एक प्रयास
[justify]नादिना बौलौ द्वारा नार्वेजियन में लिखी और डेनमार्क के रूथ सिलीमानव लोन पालसन द्वारा अंग्रेजी भाषा में लिखी बाउंडलेस किताब उत्तराखंड के पहाड़ों की साधारण कद-काठी वाली एक महिला द्वारा 1970 के दशक में नार्वे जाकर बसने और वहां किए गए उनके असाधारण कार्य, अन्तर्राष्ट्रीय बालवाड़ी (इंटरनेशनल किंडरगार्टेन) के संचालन का सचित्र, सरस विवरण देती है।
देवी उत्तराखंड की पहाडियों में हिमालय की गोद में बसे धुरका गांव में पैदा हुई। पिता द्वितीय विश्वयुद्ध के समय फौज में थे। सबसे बड़ी बहन राधा से प्रेरित होकर देवी और बाकी बहनों ने भी महात्मा गांधी की अंग्रेज शिष्या सरला बहन द्वारा स्थापित ‘लक्ष्मी आश्रम’ में गांधीजी की बुनियादी तालीम पर आधारित शिक्षा हासिल की। वर्धा में उच्च शिक्षा लेने के बाद देवी ने लक्ष्मी आश्रम में शिक्षण भी किया। उनका विवाह पुरस्कारभाई के साथ हुआ जो गांधीवादी कार्यकर्ता और सरला बहन के निकट सहयोगी थे, लेकिन बाद में नार्वे चले गए। वे वहां एक ऑयल बेस में काम कर रहे थे।
देवी जब नार्वे के बर्गेन शहर पहुंचीं तब उनका ध्येय वहां यह सब कुछ करना नहीं था। वे तो अपने पति के साथ रहने वहां गई थीं। नया देश, बिल्कुल नया माहौल और उस पर घर में अकेले खाली रहकर वक्त बिताने की मजबूरी, लेकिन चारों ओर पहाड़ियों से घिरे होने के कारण उन्हें प्राकृतिक वातावरण अपने उत्तराखंड जैसा लगा। खाली वक्त का सदुपयोग करने और नए देश-परिवेश में मन लगाने के लिए उनके मन में कुछ करने का विचार आया, लेकिन सब कुछ इतना आसान नहीं था, सबसे बड़ी मुश्किल थी कि उन्हें नार्वें की भाषा नहीं आती थी। नार्वेजियन सीखने से उनमें आत्मविश्वास आया। गांधीवादी विचारों में पली-बढ़ी देवी के मन में एक अंतर्राष्ट्रीय बालवाड़ी की शुरुआत करने का विचार आया। सोच-विचार के बाद एक ऐसी बालवाड़ी का खाका तैयार हुआ जिसमें आधे बच्चे नार्वे के हों और बाकी अन्य देशों के। किंडरगार्टेन्स नार्वे में पहले से थे, लेकिन एक इंटरनेशनल किंडरगार्टेन खोलने का विचार बिल्कुल नया था और जैसा कि पुस्तक में लिखा है, यह सोच महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित थी। देवी ने महसूस किया कि अगर नार्वे में सब लोगों को प्रेमपूर्वक मिलजुल कर रहना है तो शुरुआत छोटे बच्चों से करनी चाहिए। उन्हें छुटपन से ही सिखाना चाहिए कि दुनिया में अलग-अलग देश और इंसान हैं, जिनका रंग, नस्ल, जाति, धर्म, लिंग, खानपान, पहनावा इत्यादि भी भिन्न-भिन्न हैं। इस भिन्नता को सकारात्मक रूप से कैसे देखें और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की सोच कैसे साकार हो, इसी पर देवी और उनकी टीम के प्रयास केंद्रित रहे। नार्वे में रह रहे विभिन्न देशों के बच्चों की अपनी संस्कृति और पहचान को समझने के साथ ही उनको नार्वे की संस्कृति और समाज से कैसे जोड़ा जाए, इस पर अंतर्राष्ट्रीय बालवाड़ी ने सफलता से काम किया जहां अब 70 के करीब देशों के बच्चे आत्मीयता और प्रेम से परिपूर्ण वातावरण में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैैं। वे सब साथ मिलकर प्रार्थना करते हैं, खाना खाते हैं, गाते हैं, चित्रकारी करते हैं, खेलते-कूदते हैं। वे सब एक-दूसरे की संस्कृति, इतिहास, परंपराओं के बारे में सीखते हैं, त्यौहारों को मनाते हैं, व्यंजनों का स्वाद चखते हैं। स्वाभाविक ही है कि इस तरह के परिवेश में शिक्षित बच्चे बड़े होकर विविधता या भिन्नता से बैर या परहेज करने के बजाय इसे सहजता और आनंदपूर्वक स्वीकार करना, इससे आनंदित होना बचपन से ही सीखते हैं। 1970 के दशक के अंत में की गई एक छोटी सी शुरुआत ने 30 साल से ज्यादा का रोचक सफर तय कर लिया है।
नार्वे में बच्चों के लालन-पालन और शिक्षा की गुणवत्ता पर सरकार बहुत ज्यादा ध्यान देती है ताकि वे कुंठाओं से मुक्त रहें और बड़े होकर अच्छे शांतिप्रिय नागरिक बनें। देवी ने जब तीस साल पहले अंतर्राष्ट्रीय बालवाड़ी का प्रस्ताव बर्गेन शहर के नगर निकाय के सम्मुख विचार के लिए रखा तो वहां की सरकार और प्रशासनिक मशीनरी के साथ-साथ समाज का रवैया भी सकारात्मक और सहयोगपूर्ण था। पुस्तक में देवी को ’माउंटेन गोट’ कहा गया है जो दुर्गम पहाड़ों में आसानी से चढ़ जाती है। देवी ने भी तीस सालों के अथक प्रयास के दौरान बाधाओं और चुनौतियों के अनेक पहाड़ों को पार किया है। भारत में प्राय: ऐसी सहयोग भावना सरकार या समाज के स्तर पर कम देखने को मिलती है। भारत में लालफीताशाही, स्वार्थ और परस्पर सहयोग की जगह एक-दूसरे की टांग खींचने की आदत के चलते नवाचारी प्रयासों को आगे बढ़ाने में कठिनाई आती है। नार्वे की अंतर्राष्ट्रीय बालवाड़ियां गांधीवादी और सरला बहन के विचारों से प्रभावित हैं। सरला बहन की कहानी सुनाने की अद्भुत कला का जिक्र देवी ने सरला बहन स्मृति ग्रन्थ में किया है ‘शिक्षा व जिन मूल्यों की दृष्टि से मुझे कहानी का आश्रम के बच्चों पर प्रभाव भी दिखने लगा। आज भी मैं सुदूर उत्तरी ध्रुव के निकट बसे देश में जब श्वेत और अश्वेत बच्चों के अंतर्राष्ट्रीय बाल मन्दिर में की बाल मंडली में बैठकर कहानी कहने लगती हूं तो मुझे कहानी कहती बहनजी का चित्र याद हो आता है।’
देवी अब करीब 67 साल की हैं, लेकिन उनके प्रयत्न निरंतर जारी हैं। वे अपने ताजा ईमेल में लिखती हैं, ‘बच्चों का प्यार अपने को ताकत देता है’। भारत जैसे विविधताओं वाले देश को यदि कट्टरता, असष्णिुता, हिंसा और वैमनस्य से बचाना है तो बच्चों से शुरुआत करनी होगी और ऐसी शिक्षा देनी होगी कि वे भविष्य में अच्छे, खुले विचारों वाले नागरिक बनें।
-कमल कुमार जोशी, अल्मोड़ा