Dwarika Pande
पूज्यनीय श्रद्धेय पिताश्री जन्म शताब्दी बर्ष श्रद्धा सुमन (भाग २)
श्री गोविंद बल्लभ पाँन्डे
( जनवरी ७,१९१६ अप्रैल २९,१९८६ )
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यादें भाग १ की कुछ :
शतक,
शत नत मस्तक,
पितर
बाबूजी,
पिताजी
पापा डैडी,
तुम सतोगुण धर्म,
तरोताज़ा ।
निराकार
परमपिता
पौरूष
स्वतः खेल,
प्रकृति स्वरूप
साकार प्रत्यक्ष
पितृ देव
कराते मेल ।
मित्रों !
पता हो
पिता क्या है ?
स्मृति पटल पर,
याद आये पिता अपना !
आगे,
दुनियादारी
समझदारी
पिता की,
जरूर बतियाना ।
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अंश आकृति
अपनी ही
समझ कर,
कृतिकृत्य
नवनित नित्य
सुधार कर,
निश्चिंतिं कितनी,
उभर कर,
उमर भर,
भूल नहीं पाता,
मैं कभी चाह कर ।
मित्र !
इत्र से,
पितृ के
आस्था संस्कार
छाये रहेंगे,
भाव में, कार्य में�, स्वभाव में�, बुद्धि में� बने रहेंगे ।
स्वधर्म,
फटकार दुलार,
याद प्यार,
दिलाते रहेंगे,
जब तब भावगंगा बहेगी,
हम और आप
बने रहेंगे ।
श्रृष्टा,
अभिभावक पालक भी,
�थोड़ा घोड़ा,
लट्टू टट्टू भी,
उमंग, उड़ती पतंग,
बाबूजी चले संग ।
अपने ही,
माँ पिता गाँव में�,
हम कितने खुश थे,
दिन में� दिन था,
रात में रात,
घुसे पड़े
रहते न थे ?
अपने ही घर में� पागल !
पा पानी,
ग गैस,
ल लाइट,
सबकुछ था न्यारा प्यारा,
निश्कपट पनघट,
झटपट खटखट नटखट,
सूरज उगता दिखता था,
गोधुली सरपट,
चटपट झुरमुट,
वो पनघट चक्की,
चोखा चौकी चुल्हा मीठा था ।
अब दिन को करते रात,
रात को दिन बाबूजी ।
कहानी भी,
रंगमंच भी,
हा हा ही ही,
कभी दूसरा
कभी खुद ही,
चक्रित घरघर ।
व्यवधान और गिद्ध,
फिर भी अपनी जिद्ध,
पवित्र मन,
वचन कर्म पथ दुग्ध,
न अवरुद्ध क्रुद्ध ,
सरल शुद्ध शीतल सिद्ध !
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