Author Topic: Chandra Singh Garhwali : वीर चन्द्र सिंह "गढ़वाली"  (Read 55891 times)

पंकज सिंह महर

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श्री पीताम्बर दत्त डेवरानी जी के लेख का अंतिम भाग-
 
2 जून, 1930 को मुकदमा शुरू हुआ। 8 जून तक बहस होती रही। 11 जून को फैसला सुना दिया गया। यह कोर्ट मार्शल सेना के इतिहास में सबसे बड़ा था, जबकि एक पूरी बटालियन पर सैनिक कानून के तहत भीषण आरोप लगाया गया था।
न्यायधीशों ने 43 सिपाहियों को सेवा से हटा देने का आदेश दिया। 17 ओहदेदारों को डेढ़ से 17 वर्ष की सजा दी तथा प्रमुख अभियुक्त चंद्रसिंह गढ़वाली को आजन्म कैद की सजा दी गई। 8 जून को बैरिस्टर मुकंदीलाल गढ़वाल लौट रहे थे, तब महान क्रांतिकारी चंद्रसिंह ने उनके माध्यम से गढ़वाल के लिए यह संदेश भेजा- ‘गढ़माता! हम तेरे अन्न-जल से तेरी गोद में पले थे, इसलिए हम आज तेरी ही इज्जत और शान के लिए मरने जा रहे हैं।साथ ही अपने पिताजी को पत्र लिखा कि तुम्हारे दो और लड़के हैं। मैं भारत मां के लिए काम आ रहा हूं। बैरिस्टर साहब को कहा कि मेरे पिता के पास आकर मेरा संदेश सुना देना। चंद्रसिंह को पक्का विश्वास था कि उसे गोली से भूना जाएगा और यह पछतावा उन्हें जीवन भर रहा कि ऐसा नहीं हुआ। चंद्रसिंह गढ़वाली को आजीवन कारावास तो दिया ही गया, उनकी घर की जमीन-जायदाद भी कुड़क कर दी गई।
देशभर में गढ़वाली दिवस
पेशावर कांड की सारे विश्व में धूम मच गई। देश के कोने-कोने में ‘गढ़वाली दिवस’ मनाए जाने लगे। अंग्रेजी सरकार इससे विचलित हो गई। पेशावर कांड के नायक वीर चंद्रसिंह गढ़वाली के अनन्य सहयोगी श्री भजनसिंह ‘सिंह’ के अनुसार, भारतीय जनता और भारतीय सैनिकों को इससे अप्रभावित रखने के लिए हमारी सेना को लैंसडौन से बदायूं तक पैदल मार्च करने तथा नगरों में ऐसा व्यवहार करने का आदेश हुआ, जिससे लोगों को यह विश्वास हो सके कि गढ़वाली सेना अब भी परम राजभक्त है और उसकी ‘गढ़वाली दिवस’ से कोई सहानुभूति नहीं है। फिर भी उनकी आशाओं-आकांक्षाओं के विपरित गढ़वाली सेना जिस नगर में पहुंचती वहां ‘गढ़वाली सेना की जय’ के नारे लगते और उनका स्वागत राजभक्तों और देशभक्तों की शाही दावतों द्वारा किया जाता था, इस  प्रकाश पेशावर की इस अहिंसक सैनिक क्रांति से भारतीय सैनिकों में हलचल मच गई और अंग्रेजों की यह चाल नाकामयाब साबित हुई।
देश की विभिन्न जेलों में चंद्रसिंह गढ़वाली को अमानुषिक यंत्रणाएं दी गईं। 16 वर्ष पांच महीने वे जेल में रहे। पहाड़ों का गुण है कि वे टूट भले ही जाते हैं, झुकते नहीं हैं। अमानवीय यंत्रणाएं गढ़वाल के बहादुर बेटे को कभी झुका नहीं सकीं। अपने जेल जीवन में गढ़वाली जी का संपर्क देश के साम्यवादी और समाजवादी नेताओं से हुआ। उनसे बहुत कुछ सीखने-समझने का अवसर उन्हें मिला। माक्र्सवादी सिद्धांतों से प्रभावित होकर वे सच्चे साम्यवादी हो गए। साम्यवादी उन्हें ‘बड़े भाई’ कहकर पुकारने लगे और राजनीतिक क्षेत्र में गढ़वालीजी ‘बड़े भाई’ के नाम से ही विख्यात हो गए। जेलों में और जेल के बाहर बंबई के ‘कम्यून’ में उन्होंने रूसी क्रांति और साम्यवादी साहित्य का गहराई से अध्ययन किया और जीवन के अंतिम क्षणों तक उनके अध्ययन का क्रम चलता रहा। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समस्याओं पर उनकी पकड़ बहुत गहरी थी और उनके निष्कर्ष हमेशा सही और खरे उतरते थे।
सन् 1941 में जेल से छूटने के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू के कहने पर वे अपनी पत्नी श्रीमती भागीरथी देवी के साथ आनंद भवन, इलाहाबाद में रहने लगे, परंतु वहां अपनी भारी उपेक्षा देख कर गांधीजी के आमंत्रण पर वे वर्धा आश्रम चले गए। गांधीजी ने उनकी ज्येष्ठ पुत्री माधुरी का नाम माधवी रखा। आश्रम के नियमों का पालन करते हुए भी, गांधीजी की रीति-नीति से वे सहमत नहीं हो सके। कुछ समय वहां रहने के बाद गढ़वालीजी गोविंद बल्लभ पंत के पास चले गए, जिन्होंने उन्हें जमनालाल बजाज की गोशाला में काम करने की सलाह दी। इस अपमान का घूंट को गढ़वाली कैसे पी सकते थे? उन्होंने तमक कर पंतजी से कहा, ”क्या तुम्हारी नैनीताल की गोशाला में आग लग गई है? मुझे वहां क्यों नहीं भेज देते? इस प्रकार उस वीर को, जिसने एक नया इतिहास रचा था, कांग्रेसी नेतागण बराबर अपमानित और प्रताडि़त करते रहे। भयंकर आर्थिक संकट में फंसे रहने पर भी वे इन नेताओं के आगे कभी गिड़गिड़ाए नहीं। बड़े स्वाभिमानी थे वे।
फिर आया 1942 का ‘भारत छोड़ो आंदोलन’। एक और मौका लगा गढ़वालीजी के हाथ अंग्रेजों को भारत से भगाने का और वे पूरी शक्ति के साथ डा. कुशलानंद गैरोला के साथ इस आंदोलन में कूद गए। विश्वविद्यालय के नौजवान छात्रों को संगठित कर बड़े भाई ने जब बनारस में तहलका मचा दिया था। बनारस में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और तीन की वर्ष की सजा देकर जेल के सींखचों में बंद कर दिया गया। सन् 1945 को जेल से रिहा हुए, किंतु उनके गढ़वाल आने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। कुछ दिन तक वे अल्मोड़ा, रानीखेत आदि स्थानों में जन सेवा करते रहे। अल्मोड़ा में अन्नकाल में रानीखेत में पानी दिलाने में उन्होंने विशेष कार्य किया। इस प्रतिबंध के कारण सारा गढ़वाल खौलने लगा। अंतत: 22 दिसंबर, 1946 को गढ़वाली जी ने प्रतिबंध हटने पर गढ़वाल में प्रवेश किया।
टिहरी के राजशाही से मुक्ति आंदोलन में गढ़वाल आने पर उन्होंने अपनी सारी ताकत लगा दी। अमर शहीद नगेंद्र सकलानी, मोलूसिंह, बृजेंद्र गुप्ता और दूसरे लोगों के साथ लेकर उन्होंने टिहरी में तूफान खड़ा कर दिया और तब तक चैन की सांस नहीं ली, जब तक टिहरी राजशाही से मुक्त होकर भारत के साथ विलीन नहीं हो गई।
1947 में देश आजाद हो गया। आजादी के बाद भी गढ़वालीजी को कांग्रेसी शासन में कई बार जेल की यात्राएं करनी पड़ीं। कांग्रेसजन उनसे रुष्ट थे, क्योंकि वे कम्युनिस्ट हो गए थे और महज इसी कारण उनकी देश के लिए की गई अप्रतिम सेवाओं और पेशावर कांड तक को भुला दिया गया। सन् 1948 के विधानसभा चुनाव में गढ़वाल कांग्रेस कमेटी ने जरूर उन्हें कांग्रेस टिकट पर चुनाव लडऩे को कहा था, परंतु सिद्धांतिक गढ़वालीजी जानते थे कि कांग्रेस टिकट पर चुनाव जीतकर भले की अपने स्थार्थों की पूर्ति कर लें, जनता की सेवा वे नहीं कर सकते। 4.6.65 के पत्र में उन्होंने मास्टर जयलाल वर्माजी को लिखा था, ”23 वर्ष तक मैं किसान को बेटा था, उस समय कांग्रेसी नहीं था, बाद में 16 वर्ष फौजी सिपाही रहा, वहां भी कांग्रेसी हो नहीं सकता था। 16 वर्ष 5 महीने जेल में रहा, वहां भी कांग्रेसी बन नहीं सकता था। 1936 से 42 तक पंत सरकार ने मुझे भारतीय रिपब्लिकन आर्मी के जिन शहीदों जैसे- अजय घोष, बटुकेश्वर दत्त, यशपाल, शिव वर्मा, अजयदेव कपूर, डॉ. गयाप्रसाद, रामसिंह, ज्वालाप्रसाद, दासबाबू जैसे क्रांतिकारियों के साथ जेल में रखा, वहां खुद भी माक्र्सवाद, लेनिनवाद, समाजवाद की पुस्तकें पढऩे को भेजीं। आचार्य नरेंद्र देव, सुभाष बाबू, गोपीनाथ श्रीवास्तव और सुंदरलालजी ने मुझे राजनीति का प्रोफेसर बनाया। मैं कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य हूं।

सूर्य टरे, चंद्र टरे, टरे जगत व्यवहारा।
चंद्रसिंह टारे न टरे, कोटि करे उपचारा।।


मेरी रग में साम्यवाद है। इसलिए मुझे आर्थिक विषमता, मौत और जेल यातनाएं विचलित नहीं कर पाएंगी। चंद्रसिंह कांग्रेसी नहीं थे, कम्युनिस्ट बन गए, लेकिन क्या यह कोई अपराध था, जिसके कारण उन्हें और पेशावर कांड को भूला देना चाहिए? क्या इसलिए इतिहास को झुठला दिया जाना चाहिए था? आज भी यह प्रश्र जिंदा है और इसका जवाब दिया जाना चाहिए।
पेशावर कांड के बाद गढ़वालीजी चुप नहीं बैठे रहे। एक सच्चे जनसेवक की भांति वह उत्तराखंड की सेवा में आखिरी सांस तक जुटे रहे। चाहे गढ़वाल-कुमाऊं में अकाल की समस्या रही हो, चाहे गढ़वाल विश्वविद्यालय, स्कूलों और सड़कों का मसला रहा हो- एक बुलंद आवाज हमेशा उठती थी और वह आवाज होती थी- वीर चंद्रसिंह गढ़वाली की।
गढ़वाली जी एक स्पष्टवादी प्रखर वक्ता तो थे ही, एक अच्छी सूझबूझ वाले योजनकार भी थे। भरतनगर, दूधातोली विकास योजना, बालावाली से थलीसैण तक रेल मार्ग, उत्तर प्रदेश का तीन भागों में विभाजन, नयार से पानी लिफ्ट कर भरतनगर तक पहुंचाने आदि की योजनाएं उन्होंने शासन के सम्मुख रखी थीं। इसे देश और उत्तराखंड का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आजादी के बाद इस देश के कर्णधारों ने उनकी एक भी योजना को मूर्तरूप देने का सार्थक प्रयास नहीं किया। सन् 2000 में उत्तराखंड राज्य का गठन हो गया और इन दस वर्षों में भी गढ़वालीजी की जनहितकारी सारी योजनाएं जस की तस सरकार की मोटी फाइलों में बंद पड़ी हैं। यदि उनका सही ढंग से क्रियान्वयन हो तो निश्चित रूप से उत्तराखंड का सर्वांगीण विकास हो सकेगा। योजनाएं तो स्वीकृत नहीं हुईं, हां, कमलापति त्रिपाठी ने अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में सन् 1973-74 में उनके जीवन काल में दूधातोली में समाधि के लिए छह फीट लंबी और छह फीट चौड़ी भूमि अवश्य स्वीकृत कर दी थी। इस भूमि में गढ़वालीजी की पावन भस्मी दबी है। वह भस्मी उपेक्षित दूधातोली को देख कर कितना छटपटाती होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। हां, इतना संतोष जरूर उसे होगा कि अंतिम बादशाह मुहम्मद शाह जफर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के शहीद को कूए यार में जहां दो गज जमीन भी नहीं मिल पाई, वहां उसे छह फीट जमीन तो सिर छिपाने को अपने राज में अपने देश में मिल गई।
  चंद्रसिंह गढ़वाली जीवनभर आर्थिक कठिनाइयों से जूझते रहे, परेशान रहे, लेकिन कभी दुखी नहीं हुए। उन्हें भारी दुख तब हुआ, जब नेहरू ने पेशावर कांड को एक भावुकताजन्य कांड लिखा था। श्री भजनसिंह ‘सिंह’ ने इसके प्रतिवाद में एक तीखा पत्र नेहरू को लिखा भी था, जब वे देहरादून जेल में थे। परंतु पंडितजी ने उस पत्र का न तो उत्तर दिया और न ही संशोधन ही किया अपने विचारों में। दूसरी खटकने वाली बात तब हुई, जब राउंड टेबल कांफ्रेंस में एक फ्रांसिसी पत्रकार द्वारा गांधीजी ने यह पूछने पर कि पेशावर कांड के गढ़वाल सैनिक, जिन्होंने तुम्हारें अहिंसा के सिद्धांत का प्राणों के मूल्य का विश्व में अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया है, वे अभी तक ब्रिटिश बंदीग्रह में क्यों हैं? गांधीजी ने उत्तर में कहा था, ‘जो सिपाही गोली चलाने से इनकार करता है, वह अपनी प्रतिज्ञा भंग करता है। अगर में आज उन्हें हुक्मउदूली करना सिखाऊंगा तो मुझे डर लगा रहेगा कि शायद कल को मेरे राज में भी ऐसा ही करें। यह शब्द उन गांधीजी के थे जो देश की आजादी के लिए ‘एक और चंद्रसिंह होता तो देश कभी का आजाद हो गया होता’ की बात करते थे। सबसे आश्चर्यजनक और शर्मनाक बात तो तब हुई जब आजादी के बाद गढ़वालीजी के गिरफ्तारी वारंट में गिरफ्तारी का कारण उनके द्वारा पेशावर कांड किया जाना लिखा था। किसी महान क्रांतिकारी के साथ इससे भोंडा और निकम्मा मजाक तथा असहनीय अपमान दूसरा क्या हो सकता है? जिस कांड से नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने प्रेरणा लेकर आजाद हिंद फौज का गठन किया, उसका इतना बड़ा उपहास, इनती बड़ी अवहेलना कि इतिहास इसके लिए कभी क्षमा नहीं करेगा।
1 अक्टूबर, 1979 को विजयदशमी के दिन दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में गढ़वाल का यह शेर एक संघर्षशील, जुझारू, जीवन जी कर हमेशा के लिए चिरनिद्रा में सो गया। जीते जी उस हुतात्मा को हम सम्मान नहीं दे पाए, लेकिन क्या मरने के बाद भी उनकी जनहित की योजनाएं कार्यान्वित कर हम कृतघ्रता से मुक्त होने के लिए प्रायश्चित नहीं कर सकते थे? बड़े सुनहले स्वप्नों को लेकर पेशावर कांड हुआ था। उस कांड का नायक हताशा और निराशा में बुदबुदाता हुआ चला गया। दुष्यंत के शब्दों में-
  कहां तो तय था चिरागां हर एक घर के लिए
कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।
यहां ददख्तों से साये में धूप लगती है
चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिए।

 
मैं श्री पीताम्बर दत्त डेवरानी जी और www.lekhakmanch.com का आभारी हूं कि इतना विस्तृत लेख उनके माध्यम से हमें प्राप्त हुआ।

पंकज सिंह महर

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पेशावर कांड में हवलदार चन्द्र सिंह भण्डारी के अलावा निम्न सिपाहियों को लम्बी सजायें हुई-

१- हवलदार २५० नारायण सिंह गुसांई
२- नायक २२४ जीत सिं रावत
३- नायक ३८७ भोला सिंह बुटोला
४- नायक ९०६ केशर सिंह रावत
५- नायक ११७६ हरक सिंह धपोला
६- लांस नायक १६२३ महेन्द्र सिंह नेगी
७- लांस नायक १८०४ भीम सिंह बिष्ट
८- लांस नायक २०१७ रतन सिंह नेगी
९- लांस नायक २०८८ आनन्द सिंह रावत
१०- लांस नायक २२३८ आलम सिंह फरस्वाण
११- लांस नायक २२९९ भवान सिंह रावत
१२- लांस नायक २६९८ उमराव सिंह रावत
१३- लांस नायक ३१६४ हुकुम सिंह कठैत
१४- लांस नायक ४२०४ जीत सिंह बिष्ट
१५- लांस नायक १०६९ सुन्दर सिंह बुटोला
१६- लांस नायक २४७२ खुशहाल सिंह गुसाई
१७- लांस नायक २४३६ ग्यान सिंह भण्डारी
१८-  लांस नायक रुपचन्द्र सिंह रावत
१९- लांस नायक ३२१५ श्रीचन्द सिंह सुनार
२०- लांस नायक ३३२६ गुमान सिंह नेगी
२१- लांस नायक ३५६४ माधो सिंह नेगी
२२- लांस नायक ३६०७ शेर सिंह असवाल
२३- लांस नायक ३६३७ बुद्धि सिंह असवाल
२४- लांस नायक ३७९१ जूरासंध सिंह असवाल
२५- लांस नायक ३८१२ राय सिंह नेगी
२६- लांस नायक ३९३१ दौलत सिंह रावत
२७- लांस नायक ४२६७ डब्बल सिंह रावत
२८- लांस नायक ४३२३ रतन सिंह नेगी
२९- लांस नायक ४३८३ श्याम सिंह सुनार
३०- लांस नायक ४६०३ मदन सिंह नेगी
३१- लांस नायक ४६१९ खेम सिंह गुंसाई

निम्न लिखित को मिलेट्री कोर्ट मार्शल द्वारा नौकरी से निकाल दिया गया-

१-  लांस नायक ५५१ पाती राम भण्डारी
२-  लांस नायक ७०९ पान सिंह दानू
३- लांस नायक ७७९ राम सिंह दानू
४- लांस नायक १०७१ हरक सिंह रावत
५-  लांस नायक  १३०० लक्ष्मण सिंह रावत
६- लांस नायक १२४६ माधो सिंह गुसांई
७- १४७७ चन्द्र सिंह रावत
८- १४७८ जगत सिंह नेगी
९- १६७३ शेर सिंह भण्डारी
१०- २१९६ मान सिंह कुंवर
११- २२८१ बचन सिह नेगी

निम्नलिखित को नौकरी से डिस्चार्ज किया गया-

१- सूबेदार त्रिलोक सिंह रावत
२- जय सिंह बिष्ट
३- हवलदार १०५ गोरिया सिंह रावत
४- हवलदार ३७६ गोविन्द सिंह बिष्ट
५- हवलदार प्रताप सिंह नेगी
६- नायक २३४ राम शरण बडोला

पंकज सिंह महर

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वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली जी के नाम पर उत्तराखण्ड सरकार ने अपनी स्वरोजगार योजना का नाम "वीर चन्द्र सिंह गढ़्वाली स्वरोजगार योजना" रखा है।

इनकी अतुलित वीरता और अप्रतिम व्यक्तित्व से प्रभावित होकर प्रसिद्ध लेखक और यायावर श्री राहुल सांस्कृतायन जी ने एक पुस्तक लिखी है।


इनके राजनीतिक और सामाजिक कार्य वारिस श्री कुंवर सिंह नेगी जी ने भी एक पुस्तक का प्रकाशन किया है। जो गढ़वाली जी के सहकर्मी रहे, उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा है कि सरकार की  उपेक्षा के कारण "कई बार गढ़वाली जी बैरिस्टर मुकुन्दी लाल से लड़ पड़ते और कहते कि सन १९३० में अपनी वकालत के जरिये मुझे और मेरे साथियों को फांसी से नहीं छुड़ाते तो आज हमारी यह दुर्दशा नहीं होती। कहते थे कि शहीदों की मजारों पर, लगेंगे हर बरस मेले, देश पर मरने वालों का यहीं बाकी निशां होगा और फूट-फूट कर रो पड़ते।"

पंकज सिंह महर

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कोटद्वार में स्थापित गढ़वाली जी की मूर्ति
   
     
 
 

पंकज सिंह महर

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Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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delhi mai bhi inke naam se marg hai koyee bata sakta hai ki wo marg kahan per hai?

हेम पन्त

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Garhwal Bhawan ke paas jo road hai...wo shayad Garhwali ji ke naam par hai

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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महार भाई धन्यवाद चंदर सिंह जी के ऊपर इतनी जानकारी उपलब्ध करने का.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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महर जी. बहुत ही सुंदर जानकारी..

महात्मा गांधी जी ने वीर चन्द्र सिह गढ़वाली जी के बारे में लिखा "

" चन्द्र सिह गढ़वाली जैसे बहादुर लोग मुझे और मिल जाते तो मै भारत को बहुत पहले आजाद करा देता"

Devbhoomi,Uttarakhand

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वावो महर जी ग्रेट कास चन्द्र सिंह गढ़वाली जी के जैसे देश भक्त आज भी होते तो क्यों हमें पोखरियाल और खंडूरी जैसे घूस खोरों के बारे में कुच्छ लिखना पड़ता

 

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