Author Topic: Chandra Singh Garhwali : वीर चन्द्र सिंह "गढ़वाली"  (Read 55882 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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KAILASH PANDEY/THET PAHADI

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प्रवर्तीय कला केंद्र की अध्यक्षा श्रीमती नईमा खान उप्रेती जी से पता चला है कि संस्था द्वारा हर वर्ष १७ फरवरी को स्व० श्री
मोहन उप्रेती जी के जन्म दिवस मे दिल्ली में आयोजित होने वाले कार्यक्रम में इस वर्ष स्व० श्री वीर चन्द्र सिंह 'गढवाली' जी पर
केन्द्रित किया जा रहा है....

कार्यक्रम की अधिक जानकारी व निमंत्रण जल्दी ही फोरम में उपलब्ध करायी जायेगी...

धन्यवाद
कैलाश पाण्डेय

पंकज सिंह महर

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चंद्र सिंह गढ़वाली की विरासत

तेइस अप्रैल, 1930 को बिना गोली चले, बिना बम फटे पेशावर में इतना बड़ा धमाका हो गया कि एकाएक अंग्रेज भी हक्के-बक्के रह गये, उन्हें अपने पैरों तले जमीन खिसकती हुई-सी महसूस होने लगी। इस दिन हवलदार मेजर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में रॉयल गढ़वाल राइफल्स के जवानों ने देश की आजादी के लिए लडऩे वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया। अंग्रेजों ने तो पठान स्वतंत्रता सेनानियों के विरूद्ध गढ़वाली फौज को उतारा ही इसलिये था कि हिंदू-मुस्लिम विभाजन का ‘बांटो और राज करो’ खेल जो वे 1857 के ऐतिहासिक विद्रोह के बाद से इस देश में खेलते आये थे, उसे वे पेशावर में एक बार फिर सरंजाम देना चाहते थे। लेकिन 23 अप्रैल, 1930 को पेशावर में हुई इस घटना को इस तरह पेश किया जाता है जैसे कि गढ़वाली सिपाहियों ने क्षणिक आवेश में आकर यह कार्यवाही कर दी हो। जबकि वास्तविकता यह है कि यह क्षणिक आवेश में घटित घटना या कांड नहीं था। यह एक सुविचारित विद्रोह था जिसकी तैयारी चन्द्र सिंह गढ़वाली और उनके साथी काफी अर्से से कर रहे थे।

अंग्रेजी फौज में भर्ती होने से पूर्व चन्द्र सिंह की कोई विधिवत शिक्षा नहीं हुई थी। गरीब परिवार में 24 दिसंबर, 1891 को जन्मे लड़के के पिता यदि पढ़ाई-लिखाई से ज्यादा गाय-भैंस चराने को महत्वपूर्ण समझते थे तो यह कोई अचरज की बात नहीं थी। घर से भागकर वह फौज में भर्ती हुए। अंग्रेज पढ़ाई-लिखाई तो कराते थे पर हिंदी रोमन लिपि में लिखवाते थे। ऐसा इसलिये क्योंकि अनपढ़ सिपाही यदि देवनागिरी लिपि पढऩा सीख जायेगा तो देश के अखबारों में अंग्रेजों के विरूद्ध हो रही उथल-पुथल को पढ़कर जानने लगेगा। (आश्चर्यजनक यह है कि रोमन लिपि में हिंदी यानि अंग्रेजी में हिंदी लिखने का कायदा हमारी फौजों में अब भी कायम है) फ्रांस, मैसोपोटामिया (अब ईराक) आदि की लड़ाइयों के दौरान ही अंग्रेजों के बर्ताव से चन्द्र सिंह को अपने गुलाम होने का बोध होने लगा था। फौज में रहते हुए ही जब वे देवनागिरी लिपि सीख गये तो उन्होने हिंदी अखबार पढऩा शुरू किया। पेशावर में तैनाती के दौरान भी पकड़े जाने का खतरा उठाते हुए चन्द्र सिंह अखबार खरीदकर लाते, अपने साथियों के साथ रात में दरवाजे पर कंबल लगाकर उसे पढ़ते और सबेरा होने से पहले पानी में गलाकर नष्ट कर देते थे। इसलिये पेशावर में पठानों पर गोली चलाने के लिये भूमिका बनाते हुए अंग्रेज अफसर ने जब यह समझाना चाहा कि ”पेशावर में 94 फीसदी मुसलमान हैं, दो फीसदी हिंदू हैं। मुसलमान हिंदू की दुकानों को आग लगा देते हैं, लूट लेते हैं। शायद हिन्दुओं को बचाने के लिये हमें बाजार जाना पड़े और इन बदमाशों पर गोली चलानी पड़े’’। तो चन्द्र सिंह ने अपने साथियों को समझाया कि ”इसने जो बातें कही हैं सब झूठ हैं। हिंदू-मुसलमान के झगड़े में रत्ती भर सच्चाई नहीं है। न ये हिंदुओं का झगड़ा है न मुसलमानों का। झगड़ा है कांग्रेस और अंग्रेज का। जो कंाग्रेसी भाई हमारे देश की आजादी के लिये अंग्रेजों से लड़ाई लड़ रहे हैं, क्या ऐसे समय में हमें उनके ऊपर गोली चलानी चाहिये? हमारे लिये गोली चलाने से अच्छा यही होगा कि अपने को गोली मार लें।’’ यानि जिस दौरान अंग्रेज निहत्थे स्वतंत्रता संग्रामी पठानों पर गोली चलवाने का षडय़ंत्र रचना शुरू कर रहे थे, तब तक चंद्र सिंह गढ़वाली और उनके साथी भी पेशावर में निहत्थों पर गोली न चलाने के अपने विद्रोही दृढ़ निश्चय पर पहुंच चुके थे।

अंग्रेज स्वयं इस विद्रोह के महत्व और इसके संभावित परिणाम के खतरे को भांप चुके थे। वे जानते थे कि यदि इस घटना की व्यापक चर्चा हुई तो गढ़वाली पल्टन से उठी ये बगावत की चिंगारी पूरी अंग्रेजी फौज के हिंदुस्तानी सैनिकों में आग की तरह फैल जायेगी। इसलिये जब चन्द्र सिंह और उनके साथियों पर मुकदमा चलाया गया तो 23 अप्रैल को गोली न चलाने का मुकदमा नहीं चला। बल्कि 24 अप्रैल की हुक्म उदूली का मुकदमा चलाया गया। 24 अप्रैल, 1930 को अंग्रेजों ने फिर गढ़वाली पल्टन को पेशावर में उतारना चाहा। परंतु चन्द्र सिंह ओर उनके साथियों की कोशिशों के चलते उनकी बटालियन बैरकों से बाहर ही नहीं निकली। हालांकि इस हुक्म उदूली में पूरी बटालियन शामिल थी लेकिन कोर्ट मार्शल की कार्यवाही उन 67 सैनिकों के खिलाफ हुई जिन्होने ”24 घंटे के भीतर इस्तीफा मंजूर हो’’, लिखे कागज पर हस्ताक्षर किये थे। इन 67 में से भी सात सरकारी गवाह बन गये तो कोर्ट मार्शल में 60 ही लोगों को सजा हुई थी।

पेशावर में गढ़वाली पल्टन द्वारा किया गया विद्रोह भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसके महत्व को कमतर करने की अंग्रेजों ने भरसक कोशिश की। परंतु आश्चर्यजनक तो यह है कि हमारे स्वाधीनता आंदोलन के बड़े नेताओं ने भी इसे कमतर ही आंका है। इस घटना के महत्व को रेखांकित करते हुए 8 जून, 1930 के लीडर ने समाचार छापा कि ”1857 के बाद बगावत के लिये भारतीय सिपाहियों का पहला कोर्ट मार्शल आजकल एबटाबाद के पास काकुल में हो रहा है।’’ यानि अखबार तो पेशावर विद्रोह को 1857 के बाद का सबसे बड़ा सैनिक विद्रोह आंक रहे थे। परंतु अहिंसा की माला जपने वाले स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े नेताओं ने भी इसे अंग्रेजों की तरह ही अपराध समझा। फ्र्रांसिसी पत्रकार चाल्र्स पैत्राश द्वारा गढ़वाली सिपाहियों के बारे में पूछे गये सवाल का जवाब देते हुए गांधीजी ने कहा था कि ”वह सिपाही जो गोली चलाने से इंकार करता है, अपनी प्रतिज्ञा भंग करता है, इस प्रकार वह हुक्म उदूली का अपराध करता है। मैं अफसरों और सिपाहियों से हुक्म उदूली करने के लिये नहीं कह सकता। जब हाथ में ताकत होगी, तब शायद मुझे भी इन्हीं सिपाहियों से और अफसरों से काम लेना पड़ेगा। अगर मैं इन्हें हुक्म उदूली करना सिखाऊंगा तो मुझे भी डर लगा रहेगा कि मेरे राज में भी वे ऐसा ही न कर बैठें।’’ यानि अंग्रेजों की फौज के प्रति की गयी प्रतिज्ञा को तो गांधीजी महत्वपूर्ण मान रहे थे, परंतु देश की आजादी के निहत्थे मतवालों पर गोली न चलाकर अपनी जान को खतरे में डालने के गढ़वाली सैनिकों के अदम्य साहस की उनकी निगाह में कोई कीमत नहीं थी। अहिंसा के अनन्य पुजारी आजादी के संग्राम में इन सिपाहियों के योगदान को नकारते हुए इस बात के लिये अधिक चिंतित थे कि सत्ता हाथ में आने के बाद उनके कहने पर भी ये सिपाही निहत्थी जनता पर गोली न चलाये तो क्या होगा? पर सैन्य विद्रोह को कमतर आंकने या उन्हें नकारनें की यह प्रवृति सिर्फ पेशावर विद्रोह के प्रति ही नहीं है। बल्कि 1946 में हुये नौसैनिक विद्रोह के प्रति भी गांधीजी, पटेल आदि नेताओं का यही उपेक्षापूर्ण रवैया था। नौसेना विद्रोह के नाविकों को तो पटेल ने ‘गुंडा’ तक कहा था। साहित्यकारों ने अलबता इन विद्रोहों के उचित महत्व को रेखांकित किया था। जहां पेशावर विद्रोह के नायक चन्द्र सिंह गढ़वाली की जीवनी राहुल सांकृत्यायन ने लिखी, वहीं नौसैनिक विद्रोह पर साहिर लुधियानवी ने लंबी कविता लिखी:
ऐ रहबरे मुल्को कौम बता
ये किसका लहू है कौन मरा

न केवल पेशावर विद्रोह की महत्ता को नकारा गया बल्कि यह भी भरसक कोशिश की गयी कि इस विद्रोह के नायक चन्द्र सिंह गढ़वाली की राजनैतिक भूमिका और विचारधारा को छुपाया जाये। यह आजादी के आंदोलन का इतिहास लिखने की कांग्रेसी शैली रही है कि आजादी के आंदोलन का इतिहास या तो कांग्रेस का इतिहास नजर आता है या अंग्रेजों का इतिहास।

पेशावर में तैनाती से पहले ही 1922 के आस-पास चन्द्र सिंह आर्य समाज के निकट आ गये थे। आर्य समाज के प्रभाव में वह ऊंच-नीच, बलि प्रथा, फलित ज्योतिष आदि धार्मिक पाखंडों के विरोधी हो गये थे। आर्य समाज द्वारा किये गये देश भक्ति के प्रचार का भी उन पर प्रभाव था। पेशावर विद्रोह के लिये काले पानी की सजा पाने के बाद विभिन्न जेलों में यशपाल, शिव वर्मा, रमेश चंद्र गुप्त, ज्वाला प्रसाद शर्मा जैसे कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के साथ रहते हुए साम्यवाद से उनका परिचय हुआ और धीरे-धीरे चन्द्र सिंह गढ़वाली का साम्यवाद की और झुकाव हुआ। ‘गढ़वाल प्रवेश पर प्रतिबंध’ की शर्त पर जब उनकी रिहाई हुई तो महात्मा गांधी के वर्धा आश्रम सहित विभिन्न स्थानों पर रहते हुए वह बंबई स्थित कम्युनिस्ट पार्टी के कम्यून में पहुंचे और विधिवत पार्टी सदस्य बने। वहां से रानीखेत में पार्टी का काम करने उन्हें भेजा गया। जहां अकाल, पानी की समस्या समेत विभिन्न सवालों पर उन्होने आंदोलन चलाया। गढ़वाल प्रवेश पर से प्रतिबंध हटने तथा अंग्रेजों के देश से चले जाने के बाद भी गढ़वाल में अकाल, पोस्ट ऑफिस के कर्मचारियों की हड़ताल, सड़क, कोटद्वार के लिये दिल्ली से रेल का डिब्बा लगे ऐसे तमाम सवालों पर उन्होंने आंदोलन किए। कम्युनिस्ट पार्टी के निर्देश पर कामरेड नागेंद्र सकलानी टिहरी राजशाही के विरुद्ध लड़ाई तेज करने कीर्तिनगर पहुंचे। यहां 11 जनवरी, 1948 को सकलानी के साथ ही मोलू भरदारी की भी शहादत हुई। मोलू भरदारी भी कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार सदस्य थे। इन दोनों शहीदों के मृत शरीरों को लेकर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में जनता नें टिहरी मार्च किया। ये शहादत टिहरी राजशाही के ताबूत में अंतिम कील सिद्ध हुई। यानि 1930 में हुये पेशावर विद्रोह से लेकर 1979 में जीवन के अंतिम क्षण तक चंद्र सिंह गढ़वाली निरंतर स्वाधीनता आंदोलन से लेकर तमाम जन संघर्षों में शामिल रहे। इसमें जेलों के भीतर की अव्यवस्था और राजनैतिक बंदियों के लिये की जाने वाली भूख हड़तालें भी शामिल हैं। परंतु आज टुकड़े-टुकड़े में हमारे सामने पेशावर विद्रोह के इस नायक का जो ब्यौरा पहुंचता है उसे देखकर ऐसा लगता है कि चन्द्र सिंह गढ़वाली वह सितारा थे जो 23 अप्रैल, 1930 को अपनी समूची रोशनी के साथ चमके और फिर अंधेरे में खो गये। जबकि 1930 के बाद आधी शताब्दी से अधिक के जनता के मुद्दों पर जूझते रहे। चन्द्र सिंह गढ़वाली स्वतंत्रता संग्राम और उसके बाद भी संघर्ष की अदम्य जिजिविषा के चलते उत्तराखंड के सबसे बड़े नेताओं में एक ठहरते हैं। लेकिन उन्हें निरंतर उपेक्षित किया गया। इसकी सीधी वजह यह थी कि कम्युनिस्ट पार्टी से जुडऩे के बाद उन्होंने कांग्रेसी खांचे में फिट होने से इन्कार कर दिया। राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखित उनकी जीवनी में यह दर्ज है कि 1946 में उनके गढ़वाल आने पर कांगे्रसियों ने जगह-जगह कोशिश की कि वह सीधे जनता से न मिल सकें। श्रीनगर में तो भक्तदर्शन के नेतृत्व में कांगे्रसियों ने उनसे मिलकर कांगे्रस में शामिल होने और फिर एम. पी., एम. एल. ए. जो चुनाव वह चाहें लडऩे का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव को गढ़वाली जी ने कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य होने का हवाला देते हुए ठुकरा दिया। साथ ही उन्होंने कहा कि यदि कांग्रेसियों की उन पर इतनी श्रद्धा है तो वे एक सीट उनके लिये छोड़ दें। जाहिर-सी बात है कांग्रेस नें इसे स्वीकार नहीं किया। देश की आजादी के बाद टिहरी राज परिवार की राजमाता और राजा जिनके हाथ नागेंद्र सकलानी, श्रीदेव सुमन जैसे कितने ही शहीदों के खून से सने थे, कांग्रेस का दामन थामकर भारतीय संसद में पहुंच गये। परंतु सिद्धांतों पर अडिग रहने के चलते कम्युनिस्ट चन्द्र सिंह गढ़वाली को कांग्रेसियों ने भोंपू लेकर घूमने वाला पागल घोषित कर हंसी का पात्र बनाने की भरसक कोशिश की। चन्द्र सिंह गढ़वाली को नीचा दिखाने का कोई मौका उन्होंने हाथ से नहीं जाने दिया। यहां तक कि आजादी के बाद 1948 में तत्कालीन संयुक्त प्रांत की गोविंद बल्लभ पंत के नेतृत्व वाली सरकार ने उन्हें गिरफ्तार किया तो गिरफ्तारी के कारणों में ”पेशावर में हुए गदर का सजायाफ्ता’’ होना और ”कम्युनिस्ट पार्टी के जोरदार कार्यकर्ता’’ होना बताया गया है। इसकी खबर भारतीय अखबारों तथा लंदन के डेली वर्कर में छपने के बाद हुई फजीहत के चलते पंत की तरफ से माफी मांगी गयी और गिरफ्तारी नोटिस में ”पेशावर घटना के उल्लेख को आपत्तिजनक’’ माना। वह पेशावर विद्रोह के सैनिकों के पेंशन के मसले पर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पास पहुंचे। नेहरू जी से चन्द्र सिंह ने मांग की कि ”पेशावर कांड को राष्ट्रीय पर्व समझा जाय और सैनिकों को पेंशन दी जाये। जो मर गये उनके परिवार को सहायता दी जाये।’’ आजादी के आंदोलन की बड़ी शख्सियत और आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री ने उन्हें टका-सा जवाब दे दिया ”मान्यता? तुम तो बागी हो।’’

चंद्र सिंह गढ़वाली और उनके साथियों का अंग्रेजों का विरोध करने से भी बड़ा संदेश संभवत: यह है कि सरकारी नौकर होने के बावजूद हमें अपने विवेक को नहीं खोना चाहिए। हमें देखना चाहिए कि हम जिस व्यवस्था की सेवा कर रहे हैं वह किस हद तक जन विरोधी है या हो सकती है। और यह संदेश ज्यादा गंभीर और शाश्वत किस्म का है इसलिए सत्ताधारियों के लिए बेचैन करने वाला है।

चन्द्र सिंह गढ़वाली की कांग्रेसियों द्वारा उपेक्षा का यह दौर उनके अंतिम दिनों तक चलता रहा और वैचारिक रूप से तो उन्हें मारने की कोशिशें आज भी जारी हैं। नारायण दत्त तिवारी, जिनकी सभा में कोटद्वार में लगी लाठियों के बाद चन्द्र सिंह गढ़वाली फिर बिस्तर से न उठ सके, उन्हीं तिवारी ने उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनने के बाद ‘वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली पर्यटन योजना’ चलायी। एक ऐसा व्यक्ति जिसने फांका करना कबूल किया पर भ्रष्ट आचरण स्वीकार नहीं किया, उसके नाम पर ऐसी योजना चल रही है जो भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी के लिये ही जानी जाती है। तिवारी से उन्हें इससे बेहतर श्रद्धांजलि की उम्मीद की भी नहीं जा सकती थी। श्रीनगर (गढ़वाल) के सरकारी मेडिकल कॉलेज का नाम भी गढ़वाली जी के नाम पर है। गरीब मेहनतकशों के पक्ष मे लडऩे वाले चन्द्र सिंह गढ़वाली के नाम पर ऐसा मेडिकल कॉलेज है जहां इलाज कराने आये गरीबों से कोई सीधे मुंह बात तक नहीं करता है और इस मेडिकल कॉलेज की चर्चा, अराजकता और अव्यवस्थताओं के लिये ही होती है।

चन्द्र सिंह गढ़वाली की स्मृति में 23 अप्रैल को पीठसैण में प्रतिवर्ष मेला लगता है। इस मेले में नेताओं के भाषण सहित सब कुछ होता है। बस यह बताने की हिम्मत कोई नहीं करता कि चन्द्र सिंह गढ़वाली की विचारधारा क्या थी। आजकल तो भाजपा वाले भी जोर-शोर से चन्द्र सिंह गढ़वाली का नाम लेते हैं। पिछले वर्ष मुख्यमंत्री की हैसियत से भुवन चन्द्र खंडूड़ी पीठसैण पहुंचे थे, इस वर्ष रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ पहुंचे।

पेशावर में निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इन्कार करने के बाद चन्द्र सिंह गढ़वाली भारत की गंगा-जमुनी तहजीब और हिंदू-मुस्लिम एकता के बड़े नायक के रूप में सामने आते हैं, जिन्होने अंग्रेजों की ‘फूट डालो राज करो’ की नीति को पलीता लगा दिया था। देश में मंदिर मस्जिद के नाम पर और उत्तराखंड में भी एम.एम.एस. कांड के नाम पर, मस्जिदों में मुर्दा पशु फेंकने, बरावफात के जुलूस पर पथराव करने जैसे तमाम सांप्रदायिक उन्मादी कारनामे सरकारी संरक्षण में करने वाले भाजपाई, चन्द्र सिंह गढ़वाली की हिंदू-मुस्लिम एकता की परंपरा से नजरें कैसे मिलायेंगे? वे तो अंग्रेजों की ‘फूट डालो राज करो’ की परंपरा के वारिस ही हो सकते हैं।

चंद्र सिंह गढ़वाली आजीवन कम्युनिस्ट रहे। कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव भी लड़ा और जन संघर्षों की अगुवाई भी उन्होनें की। चन्द्र सिंह गढ़वाली की समझौता विहीन संघर्षों की परंपरा को आज भी उत्तराखंड व देश में आगे बढ़ाने की जरूरत है। लेकिन देश की दो बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियां-भाकपा व माकपा कभी सांप्रदायिकता से लडऩे के नाम पर तो कभी किसी और नाम पर, मेहनतकश अवाम पर भरोसा करने के बजाय कभी कांग्रेस, कभी लालू, कभी मुलायम, कभी मायावती और यहां तक कि भाजपा खेमे में रहे नवीन पटनायक के पीछे भागने और इनका तथाकथित तीसरा, चैथा मोर्चा बनाने में ही अपनी ऊर्जा खर्च कर दे रही है। आजादी से पहले ही जब बम्बई में चन्द्र सिंह गढ़वाली कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने तो उस वक्त उन्होंने पार्टी के तत्कालीन महासचिव कामरेड पी. सी. जोशी से कहा था कि ”कामरेड जोशी नेहरू पर जो इतना विश्वास करते हैं वह ठीक नहीं है। नेहरू को मैं नजदीक से जानता हूं। जेल से बाहर निकलकर वे नरेन्द्र देव का भोंपू, पटेल की लाठी लेकर आयेंगे और हर तरह से पार्टी को दबा देने की कोशिश करेंगे।’’ 63 सालों के बाद जबकि कांग्रेस नेहरू वाली कांग्रेस भी नहीं रह गयी है, तब क्या भाकपा-माकपा के कामरेड कांगे्रस, लालू, मुलायम जैसों के पीछे दौडऩे के बजाय कामरेड चन्द्र सिंह गढ़वाली की बात पर गौर फरमाने की जहमत उठायेंगे? गढ़वाली जी का निधन पहली अक्टूबर, 1979 को हुआ।

लेखक- श्री इन्द्रेश मैखुरी
साभार- www.samayantar.com

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 गढ़वाली के नाम पर थलीसैण कालेज 
देहरादून, जागरण ब्यूरो:
 
राजकीय डिग्री कालेज थलीसैण का नामकरण वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के नाम पर होगा। इस बाबत शासनादेश जल्द जारी किया जाएगा। वहीं कीर्तिनगर और चाकीसैण में उप तहसील के लिए स्थायी कार्यालय भवन बनाए जा रहे हैं। वहां नायब तहसीलदार स्थायी रूप से बैठेंगे।
 
(Dainik jagran)
 

Devbhoomi,Uttarakhand

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Ticket on name of Veer Chandra Singh Gahrwali.



Hisalu

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Very Informative

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२३ अप्रैल १९३०
 
२३ अप्रैल १९३० को बिना गोली चले, बिना बम फटे पेशावर में इतना बड़ा धमाका हो गया कि एकाएक अंग्रेज भी हक्के-बक्के रह गए, उन्हें अपनें पैरों तले जमीन खिसकती हुई सी महसूस होने लगी। इस दिन हवलदार मेजर चन्द्र सिंह गढ वाली के नेतृत्व में  रॉयल गढ वाल राइफल्स के जवानों ने देश की आजादी के लिए लड ने वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलानें से इन्कार कर दिया। अंग्रेजों ने तो पठान स्वतंत्रता सैनानियों के विरू( गढ वाली फौज को उतारा ही इसलिए था कि हिन्दू-मुस्लिम विभाजन का ''बांटो और राज करो''

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२३ अप्रैल १९३० को बिना गोली चले, बिना बम

फटे पेशावर में इतना बड़ा धमाका हो गया कि एकाएक अंग्रेज भी हक्के-बक्के रह गए, उन्हें अपनें पैरों तले जमीन खिसकती हुई सी महसूस होने लगी। इस दिन हवलदार मेजर चन्द्र सिंह गढ वाली के नेतृत्व में रॉयल गढ वाल राइफल्स के जवानों ने देश की आजादी के लिए लड ने वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया। अंग्रेजों ने तो पठान स्वतंत्रता सैनानियों
के विरू( गढ वाली फौज को उतारा ही इसलिए था कि हिन्दू-मुस्लिम विभाजन का ''बांटो और राज करो'' खेल जो वे १८५७ के ऐतिहासिक विद्रोह के बाद से इस देश में खेलते आए थे, उसे वे पेशावर में एक बार फिर सरंजाम देना चाहते थे। लेकिन २३ अप्रैल १९३० को पेशावर में हुई इस घटना को इस तरह पेश किया जाता है, जैसे कि गढ वाली सिपाहियों ने क्षणिक आवेश में आकर यह कार्यवाही कर दी हो। जबकि वास्तविकता यह है कि यह क्षणिक आवेश में घटित घटना या कांड
नहीं था। यह एक सुविचारित विद्रोह था, जिसकी तैयारी चन्द्र सिंह गढ वाली और उनके साथी काफी अर्से से कर रहे थे। अंग्रेजी फौज में भर्ती होने से पूर्व चन्द्र सिंह की कोई विधिवत शिक्षा नहीं हुई थी। गरीब परिवार में जन्मे लड के के पिता यदि पढ ाई-लिखाई से ज्यादा गाय भैंस चराने को महत्वपूर्ण समझते थे, तो यह कोई अचरज  की बात नहीं थी। घर से भागकर वे फौज में भर्ती हुए। अंग्रेज पढ ाई-लिखाई तो कराते थे, पर हिन्दी रोमन लिपि में लिखवाते थे। ऐसा इसलिए क्योंकि अनपढ सिपाही यदि  ेवनागिरी लिपि पढ ना सीख जाएगा, तो देश के अखबारों में अंग्रेजों के विरू( हो रही उथल-पुथल को पढ कर जानने लगेगा। )आश्चर्यजनक यह है कि रोमन लिपि में हिन्दी यानि अंग्रेजी में हिन्दी लिखने का कायदा हमारी फौजों में अब भी कायम है) फ्रांस, मैसोपोटामिया (अब ईराकद्) आदि की लड़ाईयों के दौरान ही अंग्रेजों के बर्ताव से चन्द्र सिंह को अपने गुलाम होने का बोध होने लगा था। फौज में रहते हुए ही  जब वे देवनागिरी लिपि सीख गए, तो उन्होंने हिन्दी अखबार पढ ना शुरू किया। पेशावर में तैनाती के दौरान भी पकड े जाने का खतरा उठाते हुए चन्द्र सिंह अखबार
खरीदकर लाते, अपने साथियों के साथ रात में दरवाजे पर कंबल लगाकर उसे पढ ते और सवेरा होने से पहले पानी में गलाकर नष्ट कर देते थे। इसलिए पेशावर में पठानों पर गोली चलाने के लिए भूमिका बनाते हुए अंग्रेज अफसर ने जब यह समझाना चाहा कि ''पेशावर में ९४ फीसदी मुसलमान हैं, २ फीसदी हिन्दू हैं।

मुसलमान, हिन्दू की दुकानों को आग लगा देते हैं, लूट लेते हैं। शायद हिन्दुओं को बचाने के लिए हमें बाजार जाना पड े और इन बदमाशों पर गोली चलानी पड े'' तो चन्द्र सिंह ने अपनें साथियों को समझाया कि ''इसने जो
बातें कही हैं, सब झूठ हैं। हिन्दू-मुसलमान के झगड े में रत्ती भर सच्चाई नहीं है। न ये हिन्दुओं का झगड ा है, न मुसलमानों का। झगड ा है कांग्रेस और अंग्रेज का। जो
कांग्रेसी भाई हमारे देश की आजादी के लिए अंग्रेजों से लड ाई लड  रहे हैं, क्या ऐसे समय में हमें उनके ऊपर गोली चलानी चाहिए? हमारे लिए गोली चलाने से अच्छा यही होगा कि अपने को गोली मार लें।'' यानि जिस दौरान अंग्रेज निहत्थे स्वतंत्रता संग्रामी पठानों पर गोली चलवाने का षडयन्त्र रचना शुरू कर रहे थे, तब तक चन्द्र सिंह गढ वाली और उनके साथी भी पेशावर में
गोली न चलाने के अपने विद्रोही दृढ  निश्चय पर पहुंच चुके थे।

अंग्रेज स्वयं इस विद्रोह के महत्व और इसके सम्भावित परिणाम के खतरे को भांप चुके थे। वे जानते थे कि यदि इस घटना की व्यापक चर्चा हुई, तो गढ वाली पल्टन से उठी ये बगावत की चिंगारी पूरी अंग्रेजी फौज के हिन्दुस्तानी सैनिकों में आग की तरह फैल जाएगी। इसलिए जब चन्द्र सिंह और उनके साथियों पर मुकदमा चलाया गया, तो २३ अप्रैल को गोली न चलाने का मुकदमा नहीं चला, बल्कि २४ अप्रैल की हुक्म उदूली का मुकदमा चलाया गया। २४ अप्रैल १९३० को अंग्रेजों नें फिर गढ़वाली पल्टन को पेशावर में उतारना चाहा।

परन्तु चन्द्र सिंह और उनके साथियों की कोशिशों के चलते उनकी बटालियन बैरकों से बाहर ही नहीं निकली। हालांकि इस हुक्म उदूली में पूरी बटालियन शामिल थी, लेकिन कोर्ट मार्शल की कार्यवाही उन ६७ सैनिकों के खिलाफ हुई, जिन्होंने ''२४ घंटे के भीतर इस्तीफा मंजूर हो'', लिखे कागज पर हस्ताक्षर किए थे। इन ६७ में से भी ७ सरकारी गवाह बन गए, तो कोर्ट मार्शल में ६० ही लोगों को सजा हुई थी।

By - इन्द्रेश मैखुरी

Source - Regional Reporter.

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पेशावर में गढ़वाली पल्टन द्वारा किया गया विद्रोह भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास में
एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसके महत्व को कमतर करने की अंग्रेजों ने भरसक कोशिश की। परन्तु आश्चर्यजनक तो यह है कि हमारे स्वाधीनता आन्दोलन के बड े नेताओं ने भी इसे कमतर ही आंका है। इस घटना के महत्व को रेखांकित करते हुए ८ जून १९३० के 'लीडर' ने समाचार छापा कि ''१८५७ के बाद बगावत  के लिए भारतीय सिपाहियों का पहला कोर्ट मार्शल
आजकल एबटाबाद के पास काकुल में हो रहा है।'' यानि अखबार तो पेशावर विद्रोह को १८५७ के बाद का सबसे बड ा सैनिक विद्रोह आंक रहे थे। परन्तु अहिंसा की माला जपने वाले स्वतंत्रता आन्दोलन के बड े नेताओं ने भी इसे अंग्रेजों की तरह ही अपराध समझा। फ्रांसिसी पत्रकार चार्ल्स पैत्राश द्वारा गढ वाली सिपाहियों के बारे में पूछे गए सवाल का जवाब देते हुए गांधीजी ने कहा था कि ''वह सिपाही जो गोली चलाने से इन्कार करता है, अपनी प्रतिज्ञा भंग करता है, इस प्रकार वह हुक्म उदूली का अपराध करता है। मैं अफसरों और सिपाहियों से हुक्म उदूली करने के लिए नहीं कह सकता। जब हाथ में ताकत होगी, तब शायद मुझे भी इन्हीं सिपाहियों से और अफसरों से काम लेना पड़ेगा। अगर मैं इन्हें हुक्म उदूली करना सिखाऊंगा, तो मुझे भी डर लगा रहेगा कि मेरे राज में भी वे ऐसा ही न कर बैठें।'' यानि
अंग्रेजों की फौज के प्रति की गई प्रतिज्ञा को तो गांधीजी महत्वपूर्ण मान रहे थे, परन्तु देश की आजादी के निहत्थे मतवालों पर गोली न चलाकर स्वयं को खतरे में डालने के गढ वाली सैनिकों के अदम्य साहस की उनकी निगाह में कोई कीमत नहीं थी। अहिंसा के अनन्य पुजारी आजादी के संग्राम में इन सिपाहियों के योगदान को नकारते हुए इस बात के लिए अधिक चिंतित थे कि सत्ता हाथ में आने के बाद उनके कहने पर भी ये सिपाही निहत्थी जनता पर गोली न चलाएं, तो क्या होगा? पर सैन्य विद्रोह को कमतर आंकने या उन्हें नकारने की यह प्रवृत्ति सिर्फ पेशावर विद्रोह के प्रति ही नहीं है। बल्कि १९४६ में हुए नेवी विद्रोह के प्रति भी गांधीजी, पटेल आदि नेताओं का यही उपेक्षापूर्ण रवैया था। नेवी विद्रोह के नाविकों को तो पटेल ने 'गुंडा' तक कहा था।

साहित्यकारों ने अलबत्ता इन विद्रोहों के उचित महत्व को रेखांकित किया था। जहां पेशावर विद्रोह के नायक चन्द्र सिंह गढ वाली की जीवनी राहुल सांकृत्यायन ने लिखी, वहीं नेवी विद्रोह पर साहिर लुधियानवी नें लंबी कविता लिखी। '' ऐ रहबरे मुल्को कौम बता ये किसका लहू है कौन मरा''  न केवल पेशावर विद्रोह की महत्ता को नकारा गया, बल्कि यह भी भरसक कोशिश की गई कि इस विद्रोह के नायक चन्द्र सिंह गढ वाली की राजनैतिक भूमिका और विचारधारा को छुपाया जाए। पेशावर में तैनाती से पहले ही १९२२ के आस-पास चन्द्र सिंह आर्य समाज के निकट आ गए थे। आर्य समाज के प्रभाव में वे ऊंच-नीच, बलि प्रथा, फलित ज्योतिष आदि धार्मिक  पाखंडों के विरोधी हो गए थे। आर्य समाज द्वारा किए गए देश भक्ति के प्रचार का भी उन पर प्रभाव था।
पेशावर विद्रोह के लिए काले पानी की सजा पाने के
बाद विभिन्न जेलों में यशपाल, शिव वर्मा, रमेश चन्द्र गुप्त, ज्वाला प्रसाद शर्मा जैसे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों  के साथ रहते हुए साम्यवाद से उनका परिचय हुआ और धीरे-धीरे चन्द्र सिंह गढ़वाली का साम्यवाद की ओर झुकाव हुआ। 'गढ वाल प्रवेश पर प्रतिबंध' की शर्त पर जब उनकी रिहाई हुई, तो महात्मा गांधी के वर्धा आश्रम
सहित विभिन्न स्थानों पर रहते हुए वे बम्बई स्थित कम्युनिस्ट पार्टी के कम्यून में पहुंचे और विधिवत पार्टी सदस्य बने। वहां से रानीखेत में पार्टी का काम करने उन्हें भेजा गया। जहां अकाल, पानी की समस्या समेत विभिन्न सवालों पर उन्होंने आन्दोलन चलाया। गढ वाल  प्रवेश पर से प्रतिबंध हटने तथा अंग्रेजों के देश से चले जाने के बाद भी गढ वाल में अकाल, पोस्ट ऑफिस के कर्मचारियों की हड ताल, सड क, कोटद्वार के लिए दिल्ली से रेल के डिब्बे की मांग जैसे तमाम सवालों पर उन्होंने आन्दोलन किया। कम्युनिस्ट पार्टी के निर्देश पर कामरेड नागेन्द्र सकलानी टिहरी राजशाही के विरूद्व लड ाई तेज करने कीर्तिनगर पहुंचे। यहां ११ जनवरी १९४८ को
सकलानी के साथ ही मोलू भरदारी की भी शहादत हुई।

मोलू भरदारी भी कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार सदस्य थे। इन दोनों शहीदों के मृत शरीरों को लेकर चन्द्र सिंह गढ वाली के नेतृत्व में जनता ने टिहरी मार्च किया। ये शहादत टिहरी राजशाही के ताबूत में अन्तिम कील सि( हुई। यानि १९३० में हुए पेशावर विद्रोह से लेकर १९७९ में जीवन के अन्तिम क्षण तक चन्द्र सिंह गढ वाली निरन्तर स्वाधीनता आन्दोलन से लेकर तमाम जन संघर्षों  में शामिल रहे। इसमें जेलों के भीतर की व्यवस्था और राजनैतिक बंदियों के लिए की जाने वाली भूख हड तालें भी शामिल हैं। परन्तु आज टुकड े-टुकड े में हमारे सामने पेशावर विद्रोह के इस नायक का जो ब्यौरा पहुंचता है, उसे देखकर ऐसा लगता है कि चन्द्र सिंह गढ वाली वह सितारा थे, जो २३ अप्रैल १९३० को अपनी  समूची रोशनी के साथ चमका और फिर अंधेरे में खो गया। जबकि १९३० के बाद आधी शताब्दी से अधिक समय तक के जनता के मुद्‌दों पर जूझते रहे। चन्द्र सिंह गढवाली स्वतंत्रता संग्राम और उसके बाद भी संघर्ष की अदम्य जिजिविषा के चलते उत्तराखण्ड के aसबसे बड े नेताओं में एक ठहरते हैं।

सन्दर्भः वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली : लेखक राहुल सांकृत्यायन

 

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