Author Topic: Chandra Singh Garhwali : वीर चन्द्र सिंह "गढ़वाली"  (Read 55873 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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लेकिन उन्हें निरन्तर उपेक्षित किया गया। इसकी सीधी वजह यह थी कि कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ने के बाद उन्होंने कांग्रेसी खांचे में फिट होनें से इन्कार कर दिया। राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखित उनकी जीवनी में यह दर्ज है कि १९४६ में उनके गढ वाल आने पर  कांग्रेसियों ने जगह-जगह कोशिश की कि वे सीधे जनता से न मिल सकें। श्रीनगर में तो भक्तदर्शन के नेतृत्व में कांग्रेसियों ने उनसे मिलकर कांग्रेस में शामिल होने और फिर एम.पी.,एम.एल.ए. जो चुनाव वे चाहें, वह लड़ने का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव को गढ़वाली जी ने कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य होने का हवाला देते हुए ठुकरा दिया। साथ ही उन्होंनें कहा कि यदि कांग्रेसियों की उन पर इतनी श्र(ा है तो वे एक सीट उनके लिये छोड  दें। जाहिर सी बात है कांग्रेस नें इसे स्वीकार नहीं किया। देश की आजादी के बाद टिहरी राज परिवार की राजमाता और राजा जिनके हाथ नागेन्द्र सकलानी, श्रीदेव सुमन जैसे कितनें ही शहीदों के खून से सने थे कांग्रेस का दामन थामकर भारतीय संसद में पहुंच गये। परन्तु सि(ान्तों पर अडिग रहनें के चलते कम्युनिस्ट चन्द्र सिंह गढ वाली को कांग्रेसियों नें भोपू लेकर घूमनें वाला पागल घोषित कर हंसी का पात्र बनानें की भरसक कोशिश की। चन्द्र सिंह गढ वाली को नीचा दिखानें का कोई मौका उन्होनें हाथ से नहीं जानें दिया। यहां तक कि आजादी के बाद १९४८ में तत्कालीन संयुक्त प्रान्त की गोविन्द बल्लभ पन्त के नेतृत्व वाली सरकार नें उन्हें
गिरफ्तार किया तो गिरफ्तारी के कारणों में ''पेशावर में हुई गदर का सजायाफ्ता'' होना और ''कम्युनिस्ट पार्टी के जोरदार कार्यकर्ता'' होना बताया गया है। इसकी खबर भारतीय अखबारों तथा लंदन के 'डेली वर्कर' में छपनें के बाद हुई फजीहत के चलते पंत जी की तरफ से माफी मांगी गयी और गिरफ्तारी नोटिस में ''पेशावर घटना के उल्लेख को आपत्तिजनक'' माना। वे पेशावर विद्रोह के सैनिकों के पेंशन के मसले पर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पास पहुंचे। नेहरू जी से चन्द्र सिंह ने मांग की कि ''पेशावर कांड को राष्ट्रीय पर्व समझा जाए और सैनिकों को पेंशन दी जाए। जो मर  गए, उनके परिवार को सहायता दी जाए।'' आजादी के आन्दोलन की बड ी शखिसयत और आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री नें उन्हें टका सा जवाब दे दिया ''मान्यता? तुम तो बागी हो।'' चन्द्र सिंह गढ वाली की कांग्रेसियों द्वारा उपेक्षा का यह दौर उनके अन्तिम दिनों तक चलता रहा और वैचारिक रूप से तो उन्हें मारने की कोशिशें आज भी जारी हैं। एन.डी. तिवारी जिनकी सभा में कोटद्वार में लगी लाठियों के बाद चन्द्र सिंह गढ़वाली फिर बिस्तर से न उठ सके, उन्हीं तिवारी नें उत्तराखण्ड का मुखयमंत्री बनने के बाद 'वीर चन्द्र सिंह गढ वाली पर्यटन योजना' चलायी। एक ऐसा व्यक्ति जिसनें फाका करना कबूल किया, पर भ्रष्ट आचरण स्वीकार नहीं किया, उसके नाम पर चल रही यह योजना भ्रष्टाचार का शिकार हो रही है। श्रीनगर (गढवाल) के सरकारी मेडिकल कॉलेज का नाम भी गढ वाली जी के नाम पर है। गरीब मेहनतकशों के पक्ष में लड ने वाले चन्द्र सिंह गढ वाली के नाम पर ऐसा मेडिकल कॉलेज है, जहां इलाज कराने आए गरीबों से कोई सीधे मुंह बात तक नहीं करता है और इस मेडिकल कॉलेज की चर्चा, अराजकता और अव्यवस्थताओं के लिए ही होती है।

सन्दर्भः वीर चन्द्र सिंह गढ वाली : लेखक राहुल सांकृत्यायन

पंकज सिंह महर

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गैरसैंण को आन्दोलनकारियों ने आन्दोलन काल में सोच-समझ और विचार-विमर्श कर उत्तराखण्ड की राजधानी घोषित कर दिया था, उत्तराखण्ड क्रान्ति दल ने इस स्थान का नाम महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और पेशावर कांड के नायक वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नाम पर रखा था।

लेकिन यह सपना आज भी अधूरा है, वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली जी तो दूधातोली को भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाना चाहते थे, लेकिन यह भी सपना अधूरा रहा। जिस भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा, उसके जन्म स्थल कण्व आश्रम में वे भरत नगर बसाना चाहते थे, लेकिन यह सपना भी अधूरा ही है। हमें गढ़वाली जी के सपने साकार करने हैं। इसी के साथ हम यह भी मांग सरकारों से करते हैं कि वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली जी को मरणोपरान्त "भारत रत्न" प्रदान किया जाय।

हेम पन्त

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वर्त्तमान सरकार को गैरसैंण को चन्द्र सिंह गढवाली जी के नाम पर "चन्द्र नगर" के नाम से उत्तराखंड की राजधानी घोषित करनी चाहिए..
 ये इस महान जननायक को सच्ची श्रद्धान्जली होगी...

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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प्रयाग पाण्डे मित्रो ! आज यानी  25 दिसंबर पेशावर कांड के महानायक  बीर  चन्द्र सिंह गढवाली जी की 121 वीं  जयंती है । चन्द्र सिंह गढ़वाली का जन्म 25 दिसम्बर 1891 में हुआ था। भारतीय इतिहास में चन्द्र सिंह गढ़वाली को पेशावर कांड के महानायक के रूप में याद किया जाता है। २३ अप्रैल १९३० को पेशावर कांड के महानायक हवालदार मेजर  वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली और उनके साथियों ने  बिट्रिश सरकार से खुली बगावत कर हिंदुस्तान की जनता के पक्ष में खड़े होने का चैतन्य निर्णय लिया था | बीर चन्द्र सिंह गढवाली के नेतृत्व में रॉयल गढवाल राइफल्स के जवानों ने भारत की आजादी के लिये लडनें वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलानें से इन्कार कर दिया था। बिना गोली चले, बिना बम फटे पेशावर में इतना बडा धमाका हो गया कि एकाएक अंग्रेज भी हक्के-बक्के रह गये, उन्हें अपनें पैरों तले जमीन खिसकती हुई सी महसूस होनें लगी।  वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली जी का यह कदम भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास में अद्भुत और असाधारण घटना थी और है | आम जनता के पक्ष में वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली जी की यह संवेदनशीलता , सक्रियता और प्रतिरोध, भारतीय इतिहास में सदैव स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज रहेगा | मानव समाज में इसकी निरंतर प्रासंगिकता बनी रहेगी |
 
 इतिहास पुरुष वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली जी को शत -शत नमन |
 
 वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली जी की जयंती के मौके पर  श्री अशफाक उल्ला खां जी द्वारा आजादी के आन्दोलन के दौरान लिखी निम्न चंद पक्तियां महानायक को समर्पित हैं ----------------
 
 
 
 बुजदिलों को ही सदा मौत से डरते देखा ,
 
 गो  कि सौ बार उन्हें रोज ही मरते देखा ||
 
 मौत से  वीर को हमने नहीं डरते देखा ,
 
 तलख्हे मौत पर भी खेल ही करते देखा ||
 
 मौत एक बार जब आना है तो डरना क्या है ,
 
 हम सदा खेल ही समझा कि ये मरना क्या है ||
 
 वतन हमेशा रहे शाद कम और आजाद ,
 
 हमारा क्या है , अगर हम रहे , रहे न रहे ||मित्रो ! आज यानी  25 दिसंबर पेशावर कांड के महानायक  बीर  चन्द्र सिंह गढवाली जी की 121 वीं  जयंती है । चन्द्र सिंह गढ़वाली का जन्म 25 दिसम्बर 1891 में हुआ था। भारतीय इतिहास में चन्द्र सिंह गढ़वाली को पेशावर कांड के महानायक के रूप में याद किया जाता है। २३ अप्रैल १९३० को पेशावर कांड के महानायक हवालदार मेजर  वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली और उनके साथियों ने  बिट्रिश सरकार से खुली बगावत कर हिंदुस्तान की जनता के पक्ष में खड़े होने का चैतन्य निर्णय लिया था | बीर चन्द्र सिंह गढवाली के नेतृत्व में रॉयल गढवाल राइफल्स के जवानों ने भारत की आजादी के लिये लडनें वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलानें से इन्कार कर दिया था। बिना गोली चले, बिना बम फटे पेशावर में इतना बडा धमाका हो गया कि एकाएक अंग्रेज भी हक्के-बक्के रह गये, उन्हें अपनें पैरों तले जमीन खिसकती हुई सी महसूस होनें लगी।  वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली जी का यह कदम भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास में अद्भुत और असाधारण घटना थी और है | आम जनता के पक्ष में वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली जी की यह संवेदनशीलता , सक्रियता और प्रतिरोध, भारतीय इतिहास में सदैव स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज रहेगा | मानव समाज में इसकी निरंतर प्रासंगिकता बनी रहेगी | इतिहास पुरुष वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली जी को शत -शत नमन | वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली जी की जयंती के मौके पर  श्री अशफाक उल्ला खां जी द्वारा आजादी के आन्दोलन के दौरान लिखी निम्न चंद पक्तियां महानायक को समर्पित हैं ---------------- बुजदिलों को ही सदा मौत से डरते देखा , गो  कि सौ बार उन्हें रोज ही मरते देखा || मौत से  वीर को हमने नहीं डरते देखा , तलख्हे मौत पर भी खेल ही करते देखा || मौत एक बार जब आना है तो डरना क्या है , हम सदा खेल ही समझा कि ये मरना क्या है || वतन हमेशा रहे शाद कम और आजाद , हमारा क्या है , अगर हम रहे , रहे न रहे || height=384Unlike ·  · Follow Post · about an hour ago

पंकज सिंह महर

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चन्द्र सिंह गढ़वाली जी पर लिखी शोभाराम शर्मा जी की पुस्तक हुतात्मा


पंकज सिंह महर

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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चन्द्र सिंह गढ़वाली

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

महान क्रान्तिकारी चंद्र सिंह गढ़वाली
भारतीय इतिहास में चन्द्र सिंह गढ़वाली को पेशावर कांड के नायक के रूप में याद किया जाता है। २३ अप्रैल १९३० को हवलदार मेजर चन्द्र सिंह गढवाली के नेतृत्व में रॉयल गढवाल राइफल्स के जवानों ने भारत की आजादी के लिये लडनें वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलानें से इन्कार कर दिया था। बिना गोली चले, बिना बम फटे पेशावर में इतना बडा धमाका हो गया कि एकाएक अंग्रेज भी हक्के-बक्के रह गये, उन्हें अपनें पैरों तले जमीन खिसकती हुई सी महसूस होनें लगी।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जीवनी[संपादित करें]
चन्द्र सिंह गढ़वाली का जन्म 25 दिसम्बर 1891 में हुआ था। चन्द्रसिंह के पूर्वज चौहान वंश के थे जो मुरादाबाद में रहते थे पर काफी समय पहले ही वह गढ़वाल की राजधानी चांदपुरगढ़ में आकर बस गये थे और यहाँ के थोकदारों की सेवा करने लगे थे। चन्द्र सिंह के पिता का नाम जलौथ सिंह भंडारी था। और वह एक अनपढ़ किसान थे। इसी कारण चन्द्र सिंह को भी वो शिक्षित नहीं कर सके पर चन्द्र सिंह ने अपनी मेहनत से ही पढ़ना लिखना सीख लिया था।

3 सितम्बर 1914 को चन्द्र सिंह सेना में भर्ती होने के लिये लैंसडौन पहुंचे और सेना में भर्ती हो गये। यह प्रथम विश्वयुद्ध का समय था। 1 अगस्त 1915 में चन्द्रसिंह को अन्य गढ़वाली सैनिकों के साथ अंग्रेजों द्वारा फ्रांस भेज दिया गया। जहाँ से वे 1 फ़रवरी 1916 को वापस लैंसडौन आ गये। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही 1917 में चन्द्रसिंह ने अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया। जिसमें अंग्रेजों की जीत हुई थी। 1918 में बगदाद की लड़ाई में भी हिस्सा लिया।

प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के बाद अंग्रेजो द्वारा कई सैनिकों को निकालना शुरू कर दिया और जिन्हें युद्ध के समय तरक्की दी गयी थी उनके पदों को भी कम कर दिया गया। इसमें चन्द्रसिंह भी थे। इन्हें भी हवलदार से सैनिक बना दिया गया था। जिस कारण इन्होंने सेना को छोड़ने का मन बना लिया। पर उच्च अधिकारियों द्वारा इन्हें समझाया गया कि इनकी तरक्की का खयाल रखा जायेगा और इन्हें कुछ समय का अवकास भी दे दिया। इसी दौरान चन्द्रसिंह महात्मा गांधी के सम्पर्क में आये।

कुछ समय पश्चात इन्हें इनकी बटैलियन समेत 1920 में बजीरिस्तान भेजा गया। जिसके बाद इनकी पुनः तरक्की हो गयी। वहाँ से वापस आने के बाद इनका ज्यादा समय आर्य समाज के कार्यकर्ताओं के साथ बीता। और इनके अंदर स्वदेश प्रेम का जज़्बा पैदा हो गया। पर अंग्रेजों को यह रास नहीं आया और उन्होंने इन्हें खैबर दर्रे के पास भेज दिया। इस समय तक चन्द्रसिंह मेजर हवलदार के पद को पा चुके थे।

उस समय पेशावर में स्वतंत्रता संग्राम की लौ पूरे जोरशोर के साथ जली हुई थी। और अंग्रेज इसे कुचलने की पूरी कोशिश कर रहे थे। इसी काम के लिये 23 अप्रैल 1930 को इन्हें पेशावर भेज दिया गया। और हुक्म दिये की आंदोलनरत जनता पर हमला कर दें। पर इन्होंने निहत्थी जनता पर गोली चलाने से साफ मना कर दिया। इसी ने पेशावर कांड में गढ़वाली बटेलियन को एक ऊँचा दर्जा दिलाया और इसी के बाद से चन्द्र सिंह को चन्द्रसिंह गढ़वाली का नाम मिला और इनको पेशावर कांड का नायक माना जाने लगा।

अंग्रेजों की आज्ञा न मानने के कारण इन सैनिकों पर मुकदमा चला। गढ़वाली सैनिकों की पैरवी मुकुन्दी लाल द्वारा की गयी जिन्होंने अथक प्रयासों के बाद इनके मृत्युदंड की सजा को कैद की सजा में बदल दिया। इस दौरान चन्द्रसिंह गढ़वाली की सारी सम्पत्ति ज़प्त कर ली गई और इनकी वर्दी को इनके शरीर से काट-काट कर अलग कर दिया गया।

1930 में चन्द्रसिंह गढ़वाली को 14 साल के कारावास के लिये ऐबटाबाद की जेल में भेज दिया गया। जिसके बाद इन्हें अलग-अलग जेलों में स्थानान्तरित किया जाता रहा। पर इनकी सज़ा कम हो गई और 11 साल के कारावास के बाद इन्हें 26 सितम्बर 1941 को आजाद कर दिया। परन्तु इनके में प्रवेश प्रतिबंधित रहा। जिस कारण इन्हें यहाँ-वहाँ भटकते रहना पड़ा और अन्त में ये वर्धा गांधी जी के पास चले गये। गांधी जी इनके बेहद प्रभावित रहे। 8 अगस्त 1942 के भारत छोड़ों आंदोलन में इन्होंने इलाहाबाद में रहकर इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई और फिर से 3 तीन साल के लिये गिरफ्तार हुए। 1945 में इन्हें आजाद कर दिया गया।

22 दिसम्बर 1946 में कम्युनिस्टों के सहयोग के कारण चन्द्रसिंह फिर से गढ़वाल में प्रवेश कर सके। 1957 में इन्होंने कम्युनिस्ट के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा पर उसमें इन्हें सफलता नहीं मिली। 1 अक्टूबर 1979 को चन्द्रसिंह गढ़वाली का लम्बी बिमारी के बाद देहान्त हो गया। 1994 में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया। तथा कई सड़कों के नाम भी इनके नाम पर रखे गये।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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वीर चंदर सिंह गड्वाली पेशावर का महा नायक
पेशावर का महानायकः वीरचन्द्र सिंह गढ़वालीदिनेश ध्यानी तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री हेमवतीनन्दन बहुगुणा वीरचन्द्र सिंह गढ़वाली जीजी के साथ वीरचन्द्र सिंह गढ़वाली जींआज हम जिस आजादी में संास ले रहे हैं वह हमें ऐसे ही नही मिल गई थी इसके लाखों लोगों को अनेकों कुर्वानिंया दी यातनायें सही। लोगों ने सोचा था कि देश आजाद होगा हम आजाद होगें हमें अपना विकास और अपने तरीके से जीवन जीने के अवसर मिलेंगे लेकिन आजादी के बाद जिस तरह से देश का विभाजन हुआ वह भारतीय इतिहास में सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण रहा। देश के विभाजन को दंश आजादी के छः दशक बाद भी लोगों को चैन से नही रहने दे रहा है। आजादी के बाद जो अल्पसंख्यक पाकिस्तान में रह रहे हैं जिन्हौने तब देश की आजादी के लिए जंग लड़ी थी वे अपने ही देश में बंधुवा मजदूरों से भी बदतर जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। जब-जब भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ता है उन लोगों का जीवन नरक हो जाता है। हाल ही के दिनों में मुम्बई बम धमाकों के बाद वहां रह रहे अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को लूटा जा रहा है उनकी बहू बेटियां सुरक्षित नही हैं। उन्हें कहा जा रहा है कि या तो मजहब बदलो या देश बदलो। वे लोग किससे से पूछें कि हमारा क्या कसूर है? क्या यही हमारा दोष है कि हम अपने देश में ही रहे? दिल्ली में बैठकर बंटवारा करने वाले क्या जाने के बलूस्तिान व पेशावर में रह रहे हिन्दू किस हाल में हैं और इस बंटवारे के बाद उनपर क्या कहर बरपेगा। यही हाल हिन्दुस्तान में भी था। बंटवारे के बाद भी कुछ लोग थे जिन्हें अपना वतन प्यारा था और वे अपने ही देश में ही रह गये लेकिन समय के साथ-साथ उनके जीवन और अस्तित्व पर संकट गहराता जा रहा है।कश्मीर समस्या हो या पाकिस्तान के साथ सीमा विवाद हो ये कुछ ऐसे मसले हैं जो आजादी के बाद से हमेशा से हमारे लिए सरदर्द बने हुए हैं। लोगों ने कभी नही सोचा था कि आजादी के बाद हमें इस प्रकार की समस्याओं से दशकांे बाद तक दो-चार होना पडेगा। भारतीय स्वाधीनका संग्राम के स्वतत्रंता सेनानियों ने अपनी सर्वस्व को दंाव पर लगाकर यह आजादी दिलाई थी लेकिन आजादी के बाद काले अंग्रेजों ने उन क्रान्तिकारियों को भी जलील करने में कोई कोर कसर नही छोड़ी। इसी प्रकार का दंश पेशावर की अमर क्रान्ति के जनक और प्रखर स्वतंत्रता सेनानी वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली को भी आजीवन झेलना पड़ा। लेकिन हिमालय का यह बेटा आजीवन अपने सिद्धान्तों के लिए लड़ता रहा लेकिन किसी के आगे झुका नही। वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली जिनका नाम आज देश से अधिक पेशावर और पाकिस्तान में बड़े सम्मान से लिया जाता है। लेकिन आजाद में उनके योगदान को काले शासकों ने अपनी राजनीति में बाधा समझकर हमेशा कम करके आंका और इस जांबाज सिपाही को कभी भी चैनी से नही रहने दिया। आज गढ़वाली जी इस संसार में नही हैं लेकिन आज भी उनके परिजन दर-दर की ठोकर खा रहे हैं किसी को उनकी सुध लेने की फुरसत नही है। उत्तराखण्ड में चन्द्रसिंह गढ़वाली के नाम से अनेकों सरकारी योजनायें चल रही हैं लेकिन गढ़वाली जी की अल्मोड़ा की पुस्तैनी जमीन के बदले कोटद्वार हल्ुदखत्ता में जो 60 बीघा जमीन लीज पर दी गई थी वह आज भी लीज पर है और कोटद्वार में होते हुए भी उसको परिसीमन में उत्तर प्रदेश में दिखाया गया है। उनके परिजनों की इस मांग को कि हमें इस जमीन के बदले में चाहे कम जमीन दे दो लेकिन हमें मालिकाना हक तो दो। इस बात पर किसी के कान पर जंू नही रेंगती है। अपने चेहतों को औने-पौंने दामों पर ऐकड़ों जमीन देने वाले राजनेता जानते हैं कि चन्द्रसिंह गढ़वाली के आज उनके लिए वोट बैंक नही हैं इसलिए उनके परिजनों की हालात को कौन समझे। गढ़वाली जी सहित कई वीर सैनिक हैं जिनके परिजनों को तथा जीवित स्वतत्रता सेनानियो ंको आज कई परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।लगभग 78 वर्ष पूर्व 23 अपै्रल 1930 को पेशावर में रायल गढवाल राइफल्स के वीर गढ़वाली सैनिकों ने अंग्रेजों के आदेश का उलंघन करते हुए पेशावर में अपनी मांगों के समर्थन में प्रदर्शन कर रहे निहत्थे पठानों पर गोलियां चलाने से मना कर दिया था। गढ़वाली सैनिकों की अचानक इस बगावत से अंग्रेज शासकों की पांवों तले की जमीन खिसक गई। अंग्रेजी हुकूमत का हुक्म न मानकर गढ़वाली सैनिकों ने सैकड़ों निहत्थे पठानों की जान बचाई ही देश की आजादी के लिए लड़ रहे लोगों को एक दिशा भी दी। पेशावर की यह घटना देश के इतिहास में एक ऐसी घटना थी जिसके बारे में नेताजी सुभाषचन्द्र वोस ने कहा कि हमें आजाद हिन्द फौज सेना के गठन की प्रेरणा रायल गढ़वाल राईफल्स के जवानों की पेशावर की बगावत से मिला। अब देश को आजाद होने से कोई नही रोक सकता। तब महात्मा गांधी ने कहा था कि वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली यदि मुझे पहले मिल गया होता तो देश कब का आजाद हो गया होता। यह अलग बात है कि देश के आजाद होन के बाद कहते हैं कि गांधी जी से जब पेशावर की बगावत तथा उसके बन्दियों के बारे में पूछा गया तो तब गांधी जी ने कहा था कि पेशावर में 23 अपै्रल 1930 को गढ़वाली सैनिकों ने सर्वोंच्च सत्ता के खिलाफ बगावत की थी और बगावत बगावत होती है इसलिए हम इस बगावत को मान्यता नही देते हैं। यही कारण रहा कि सन् 1947 में देश आजाद हो गया लेकिन पेशावर के बहादुर सैनिकों को सरकार की तरफ से कुछ भी सहयोग या सम्मान नही मिला। सन् 1974 में जाकर इन वीर सैनिकों को स्वतत्रता सेनानियों का दर्जा दिया गया व 65 रूपये पेंशन तय की गई। तब तक कई वीर सैनिक दिवंगत हो चुके थे। वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली को जो पेंशन दी गई उन्हौंने उसे लेने से मना कर दिया था। असल में पेशावर में गढ़वाली वीर सैनिकों ने जो बगावत की उसकी योजना एकदम नही बनी। वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली 11 सितम्बर 1914 को घर से भागकर लैन्सडौंन में 2/18 गढ़वाल राइफल्स में भर्ती हो गये थे। अगस्त 1915 ई. में चन्द्र सिंह प्रथम विश्व युद्ध में मित्र देशों की ओर से लड़ने के लिए फ्रांस गये वहंा जब फ्रांसीसी हिन्दुस्तानी सैनिकों को मिलने लगे पुलिस द्वारा उन्हें रोक दिया। पूछने पर पता चला कि अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों को बता दिया था कि हिन्दुस्तानी हमारे गुलाम हैं इसलिए तुम्हारे से ऐसा व्यवहार किया जा रहा है। अंग्रेज सेना में हिन्दुस्तानी सैनिकों को कम वेतन देते थे और अंग्रेज सैनिकों को उनसे पांच गुना वेतन देते थे। हिन्दुस्तानी सैनिकों को गुलाम समझते थे यही कारण था कि हिन्दुस्तानी ओहदेदार मामूली अंग्रेज सैनिकों को सल्यूट मारते थे। 1920 में गढ़वाल में अकाल पडा अंग्रेजों ने सेना में जो ओहदेदार थे उन्हें कहा कि यदि सेना में रहना है तो आम सिपाही बनकर रहो तथा पन्द्रह साल से कम नौकरी जिसकी भी थी सबकों सेना से निकाल दिया। इन सभी बातों का चन्द्र सिंह के मन पर काफी गहरा असर पड़ा और वे अंग्रेजों की सेना में रहते हुए देश की आजादी के लिए सोचने लगे। कहते हैं जहां चाह वहां राह चन्द्र सिंह सेना में जहां भी रहे वे देशकाल की घटनाओं से जुड़े रहे और समय-समय पर वे अखबार और लोगों के माध्यम से देश की आजादी के बारे में जानते सुनते रहे। इस बीच चन्द्र सिंह 1929 में गांधी जी के अल्मोड़ा आगमन पर उनसे भी मिले थे गांधी जी से चन्द्र सिंह ने एक टोपी मांगी और उसे पहनते हुए कहा कि मैं इस टोपी की कीमत चुकाकर रहंूगा। मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, पं. गोविन्द बल्लभ पंत, सरदार बल्लभ भाई पटेल आदि नेताओं से मिले थे। 23 अप्रैल 1930 को पेशावर में एक वहां कांग्रेस के बैनर तले एक जलसे का आयोजन किया गया था जिसमें देश की आजादी के लिए लोग अपने नेताओं को सुनने के लिए हजारों की संख्या मंें उपस्थित थे। अंग्रेज फौजी शासकों ने अपनी पूर्व नियोजित षड़यंत्र के आधार पर पहले पेशावर में तैनात गढ़वाली सैनिकों को भड़काया कि यहां पेशावर में 98 प्रतिशत मुसलमान हैं और मात्र 2 प्रतिशत हिन्दू हैं। हिन्दू चूंकि व्यापारी हैं इसलिए मुसलमान उनकी दुकानें लूट लेते हैं तथा हिन्दुओं पर अत्याचार करते हैं। राम-कृष्ण को गालियां देते हैं गौ हत्या करते हैं।हिन्दुओं की बहू बेटियों को उठा ले जाते हैं गढ़वाली पल्टन को शहर जाकर हिन्दुओं की रक्षा करनी होगी और जरूरी हुआ तो मुसलमानों पर गोलियां भी चलानी पड़ेंगी। अंग्रेज अफसर के चले जाने के पर चन्द्र सिंह गढ़वाली ने अपने साथियों को वस्तुस्थिति से अवगत कराया और कहा कि यह लड़ाई हिन्दू मुसलमान की नही है बल्कि यह अंग्रेजों और कांग्रेस की लड़ाई है। अंग्रेज हिन्दू-मुसलमानों के नाम पर पेशावर मंे दंगा कराना चाहते हैं। इसलिए चन्द्र सिंह ने अपनी कंम्पनी सहित तमाम गढ़वाली सैनिकों तक यह संन्देश पहुंचा दिया कि जब भी हमें पेशावर में निहत्थे लोगों पर गोलियां चलाने के लिए आदेश दिया जाये हम उसे न मानें। इसके लिए सैनिकों को तैयार करने में चन्द्र सिंह को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। जिन अंग्रेजों के अधीन वे नौकरी कर रहे थे उनके आदेश को खुद भी न मानना तथा बटालियनों को इसके लिए संयुक्त रूप से तैयार करना कितना जोखिम भरा काम था। जरा सी चूक होने पर कोर्ट मार्शल की सजा या गोली भी मारी जा सकती थी लेकिन चन्द्र सिंह के अन्दर तो देश की आजादी का जो जुनून उफन रहा था उसके मूल में कई कारण थे।22 अप्रैल को गढ़वाली सैनिकों को आदेश मिला कि उन्हें कल 23 अप्रैल को पेशावर जाना होगा। चन्द्र सिंह ने तत्काल पॉंचों कम्पनियों के पॉंच प्रमुख व्यक्तियों को बुलाया और उनके साथ विचार-विमर्श से गोली न चालने की योजना पास हो गई।23 अप्रैल, 1930 की सुबह कप्तान रिकेट 72 सैनिकों को लेकर पेशावर में किस्साखानी बाजार पहॅंुच गये। किसी व्यक्ति द्वारा शिकायत किये जाने पर चन्द्रसिंह पर सन्देह हो जाने के कारण कप्तान रिकेट उन्हें शहर नही ले गये। चन्द्र सिंह ने दूसरे अधिकारी से पेशावर में पहुॅंची सेना के लिए पानी ले जाने के बहाने पेशावर जाने की इजाजत ले ली और पानी लेकर पेशावर के लिए रवाना हो गये। पेशावर पहुॅंकर चन्द्रसिंह ने देखा कि पेशावर में हजारों की संख्या में लोग प्रदर्शन कर रहे हैं। कैप्टेन रिकेट उन्हें वहां से हटने के लिए कह रहा है लेकिन कोई भी अपनी जगह से टस से मस नही हुआ। रिकेट चिल्ला रहा था कि हट जाओं नही तो गोलियों से मारे जाओगे। जनता उसकी धमकियों से भड़क गई और अंग्रेजों के ऊपर बोतलें आदि फेंकने लगी। रिकेट ने गढ़वाली सिपाहियों को आदेश देते हुए कहा गढ़वाली थ्री राउंड़ फायर, यानि गढ़वाली सैनिकों तीन राउंड़ गोली चलाओं तो तभी चन्द्र सिंह गढ़वाली ने कहा कि गढ़वाली सीज फायर यानि कि गढ़वाली सैनिकों फायर न करो। गढ़वाली सैनिकों ने अंग्रेजों अफसर के ऑर्डर को न मानते हुए अपने नेता चन्द्र सिंह गढ़वाली की बात को मानते हुए अपनी राइफलें नीचे रख दीं। चन्द्र सिंह ने कहा कि हम निहत्थे पठानों पर गोली नही चलायेंगे। हम देश की सेना में देश की रक्षा के लिए भर्ती हुए हैं न कि किसी निदोंर्ष की जान लेने के लिए। हम अपने पठान भाइयों पर किसी भी कीमत में गोली नही चलायेंगे चाहो तो हमें गोलियां से भून दो। तत्पश्चात गढ़वाली सैनिकों को छावनियों में लाया गया। 24 अप्रैल 1930 को पुनः इन सैनिकों को पेशावर में जाने के लिए कहा गया तो गढ़वाली सैनिकों ने अंग्रेजों के हुक्म को मानने से मना कर दिया था। तब पेशावर में अंग्रेज सैनिकों को बुलाकर निहत्थे प्रदर्शनकारियेां पर गोलियां चलवाई गई। पेशावर की इस बगावत में 67 गढ़वाली सैनिकों पर मुकदमा चलाया गया और उनमें से कईयों को काला पानी की सजा व आजीवन कारावास हुआ

By Dinesh Dhyani

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12 जून 1930 को रात में चन्द्र सिंह को एकटाबाद जेल में भेज दिया गया। चन्द्रसिंह कई जेलों में यातनाएॅं सहते रहे। नैनी जेल में उनकी भंेट क्रान्तिकारी राजबन्दियों से हुई। लखनऊ जेल में उनकी मुलाकात सुभाष चन्द बोस से हुई। चन्द्रसिंह कहते थे कि जेल में जो बेड़ियां हाथ पांवों में लगी हैं वे मर्दों के जेवर होते हैं। चन्द्र सिंह गढ़वाली को सबसे पहले कालापानी की सजा व कोड़ों की सजा हुई क्योंकि अंग्रेज मानते थे कि पेशावर की बगावत चन्द्र सिंह के ही कहने पर हुई थी। गढ़वाल के प्रसिद्ध वैरिस्टर मुकुन्दीलाल जिन्हौंने गढ़वाली सैनिकांे का केस लड़ा उनका कहना है कि कमांड़र-इन-चीफ स्वंय चाहते थे कि संसार को यह पता न लेगे कि भारतीय सेना अंग्रेजों के विरूद्ध हो गई है इसलिए उन्होंने मेरी ओर ध्यान न देकर चन्द्रसिंह की मौत की सजा को आजन्म कारावास की सजा में बदल दिया। 23 अप्रैल को सैनिक बगावत हुई लेकिन अंग्रेजों ने बगावत का केस दर्ज नही किया वे जानते थे कि यदि बगावत का केस दर्ज होगा तो देश में जो आन्दोलन चल रहा है उसमें यह आग में घी का काम करेगा। इसी आधार पर उन्हें बन्दी बनाया गया। लेकिन देश की जनता 23 अप्रैल 1930 की सैनिक बगावत के बारे में जान चुकी थी कई अखबारों में इस खबर को छापा। यह अलग बात है कि देश के इतिहास में पेशावर की बगावत को उतना महत्व नही दिया गया जिस प्रकार से यह कं्रान्ति हुई थी। पंड़ित जवाहर नेहरू ने अपनी एक पुस्तक मंे लिखा है कि पेशावर में गढ़वाली सैनिकों ने सैनिक बगावत इसलिए की थी कि वे जानते थे कि देश आजाद होने वाला है और उनके खिलाफ किसी प्रकार की कठोर कार्यवाही नही की जायेगी। इससे जाहिर होता है कि देश की लिए अपनी जान को दांव पर लगाने वाले वीर सैनिकांें की उस समय भी नेताओं की नजर में कोई कीमत नही थी। जो सैनिक अंग्रेजों के अधीर नौकारी कर रहे थे उनके खिलाफ सशस्त्र बगावत करना आम बात नही थी। अंग्रेज चाहते तो गढ़वाली सैनिकों को पेशावर में गोलियों से भून देते कोई उस समय पूछने वाला नही था। फिर गढ़वाली सैनिक जानते थे कि इस बगावत का अंजाम कुछ भी हो सकता था। लेकिन नेहरू जी की बातों से लगता है उस समय भी देश की आजादी को नेता राजनीति के चश्मे से देखने लगे थे। चन्द्र सिंह गढ़वाली को सन् 1945 में जेल से रिहा कर दिया गया लेकिन उनके गढ़वाल प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। जेल में क्रान्तिकारी यशपाल से परिचय होने से जेल से बाहर आने के बाद गढ़वाली जी कुछ दिन लखनऊ में उनके साथ रहे। उसके बाद वे हल्द्वानी आ गये।1946 में चन्द्र सिंह ने रानीखेत में भंयकर अकाल से पीड़ित लोगों की मदद से सरकारी गल्ले के भण्डार को जनता में बांट दिया। इससे स्थानीय प्रशासन नाराज हुआ लेकिन गढ़वाली जी ने कहा कि एक तरफ हमारी जनता भूख से मर रही है और तुम हमारे हिस्से के अनाज को ब्लैक में बेच रहे हो। रानीखेत में अंग्रेजों की बटालियनें थी उनके लिए पानी का समुचित प्रबन्ध था लेकिन स्थानीय लोगों को काफी परेशानी होती थी गढ़वाली जी ने लोगों की पानी की समस्या का भी समाधान कराया। दिसम्बर 1946 को चन्द्र सिंह ने गढ़वाल में प्रवेश किया गढ़वाल की जनता ने उन्हें सर ऑंखों पर स्थान दिया और जगह-जगह उनका भव्य स्वागत हुआ। चूंकि गढ़वाली जी 1944 में पक्के कम्युनिस्ट बन गये थे इसलिए गढ़वाल के कांग्रेसी उनके स्वागत सत्कार को पचा नही पाये इसलिए उनका विरोध करना शुरू कर दिया।सन् 1948 में टिहरी में राजशाही के खिलाफ लड़ने वाले अमर वीर नागेन्द्र दत्त सकलानी के शहीद हो जाने के बाद वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली जी ने टिहरी आन्दोलन का नेतृत्व भी किया। सरकार को आशंका हो गई थी कि चन्द्रसिंह जिला बोर्ड के चेयरमैन का चुनाव लड़ना चाहते हैं इसलिए सरकार ने उन्हें पेशावर का सजायाफ्ता बताकर जेल में ड़ाल दिया। कुछ माह बाद जेल से छूटने के बाद गढ़वाली जी ने गढ़वाल में शराब के खिलाफ आन्दोलन भी किया इसमें कोटद्वार की इच्छागिरि मांई जिन्हंे लोग टिंचरी मांई के नाम से जानते थे उनका भी अहम योगदान रहा। और इसमें उन्हें काफी सफलता भी मिली।

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