Author Topic: Chandra Singh Garhwali : वीर चन्द्र सिंह "गढ़वाली"  (Read 55886 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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सन् 1947 में देश आजाद हो गया। नेहरू जी आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बन गये थे, चन्द्र सिंह गढ़वाली उनके पास पेशावर के सैनिकों की पेंशन के बारें में मिलने आये और उनसे पेशावार के स्वतंत्रता सेनानियों की पेंशन के बारे में कुछ करने का आग्रह किया तथा कहा कि पेशावर की क्रान्ति को राष्ट्रीय पर्व समझा जाये जीवित सैनिकों को पेंशन तथा मृत सैनिकों के परिजनों को आर्थिक सहयोग दिया जाय, तो नेहरू जी क्रोध में उबल पड़े और बोले कि मान्यवर तुम यह कैसे भूल जाते हो कि तुम बागी हो। पंड़ित मोतीलाल नेहरू ने अपने अन्तिम दिनों में जवाहर लाल नहेरू से कहा था कि गढ़वाली सैनिको को मत भूलना। जवाहर लाल नेहरू ने जो टिप्पणी गढ़वाली सैनिकों के लिए की थी उसका विरोध वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली ने उनसे किया और उन्हंे बताया कि गढ़वाली सैनिकों ने वही काम किया जो उन्हें देश हित में अपना फर्ज दिखा इसके जो मतलब आप निकाल रहे हैं वह सरासर गलत और पेशावर की बगावत के महत्व को कम करना ही है।देश की अस्मिता और आजादी को नेताओं ने किस कदर अपनी कुंठा का शिकार बनाया इसका जीता जागता उदाहरण हमारे सामने आज कश्मीर है। आजादी के बाद जब देसी रियासतों का भारत में सरदार बल्लभ भाई पटेल द्वारा विलय कराया जा रहा था लेकिन कश्मीर को नेहरू जी ने आसानी से भारत में मिलाने नही दिया और कश्मीर का मसला आज भी देश के लिए नासूर बना हुआ है। इस बात को आम हिन्दुस्तानी जानता है कि अगर अन्य रियासतों की तरह उस समय कश्मीर को भी भारत में मिलाने दिया जाता तो आज हजारों निरीह लोगों की जान न गंवानी पड़ती तथा देश के लिए हमेशा का यह सरदर्द नही होता। सन् 1951-52 में देश में नये संविधान के अनुसार चुनाव कराये गये। वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली ने गढ़वाल से कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ा तो उन्हें पेशावर का बागी होने के दोष में आजाद भारत की सरकार ने बंदी बना दिया तथा महीनों तक जेलों में यातनायें दी। जिस आदमी ने देश की आजादी के लिए अपने सर्वस्व को दॉंव पर लगा दिया उसे देश की आजादी के बाद भी यातनायें दी गईं उनको कई बार बे-वजह गिरफ्तार करके जेल में ड़ाला गया। अपने मित्रों के सहयोग से गढ़वाली जी ने चुनाव लड़ा और बिना संसाधनों के 7714 वोट लिये जबकि विजयी प्रत्याशी को 10000 वोट मिले।पेशावर की सैनिक बगावत को देश की आजादी के बाद भी उतना महत्व नही दिया गया जिस तरह से इसे दिया जाना चाहिए था यही कारण रहा कि अपनी राजनीति चमकाने वाले समय-समय पर वीर चन्द्र सिंह जैसे देश भक्तों के लिए नारे तो लगाते रहे लेकिन देश की आजादी के बाद भी पेशावर के बागी सैनिकों को दोयम दर्जे की जिन्दगी गुजारनी पड़ी। जिन वीरों ने देश की आजादी के लिए एक लौ जलाई और देश की आजादी को एक नई दिशा दी उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया गया। चन्द्रसिंह गढ़वाली में ऐ सेनानायक के सभी गुण विद्यमान थे। उनका जीवन संर्घषमय रहा। उन्हौंने देश सेवा एंव समाज सेवा का कार्य बड़ी कर्तव्य-परायणता के साथ निभाया। गांधी जी ने उनके बारे मंे कहा कि अगर मुझे एक गढ़वाली और मिल गया होता तो देश कब का आजाद हो गया होता। चन्द्रसिंह गढ़वाली के पेशावर सैनिक विद्रोह ने हमें आजाद हिन्दे फौज को संगठित करने की प्रेरणा दी। वहीं बैरिस्टर मुकुन्दीलाल जी के शब्दों में चन्द्रसिंह गढ़वाली एक महान पुरूष हैं। आजाद हिन्द फौज का बीज बोने वाला वही है। पेशावर कांड का नतीजा यह हुआ कि अंग्रेज समझ गये कि भारतीय सेना में यह विचार गढ़वाली सिपाहियों ने ही पहले पहल पैदा किया कि विदेशियों के लिए अपने खिलाफ नही लड़ना चाहिए। यह बीज जो पेशावर में बोया गया था उसका परिणाम सन् 1942 में सिंगापुर में देशभक्त हजारो गढवाली नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज में भर्ती होने आ गये थे। प्रसिद्ध विचारक एवं महाने लेखक राहुल सांकृत्यायन के अनुसार पेशावर का विद्रोह विद्रोहों की एक श्रृंखला को पैदा करता है जिसका भारत को आजाद करने में भारी हाथ है। वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली इसी पेशावर-विद्रोह के नेता और जनक हैं।वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली आजीवन यायावर की भांति घूमते रहे।

By Dinesh Dhyani

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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 आजादी से पहले तो अंग्रेज शासकों ने उन्हें तरह-तरह की यातनायें दी लेकिन आजादी के बाद भी उनका कोई ठिकाना न रहा और वे समाज के कार्यों में सदा ही लगे रहे। देश के आजाद होने के बाद भी गढ़वाली जी कभी कोटद्वार कभी चौथान गढ़वाल में अनेकों योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए लड़ते रहे लेकिन कांग्रेस के नेताओं ने हमेशा उन्हें परेशान ही किया। असल में कांग्रेसी चाहते थे कि गढ़वाली जी काग्रेस में रहें लेकिन गढ़वाली जी पहले तो साधारण आर्यसमाजी थे लेकिन बाद में वे पक्के कम्युनिस्ट बन गये। और आजीवन कम्ुयनिस्ट पार्टी के कार्ड़ होल्डर ही रहे। गढ़वाली जी के सामाजिक जीवन का खामियाजा उनके परिवार को उठाना पड़ा। जब जेल में थे देश गुलाम थ तब उनकी पत्नी भागीरथी देवी बच्चों को लिये दर-दर की ठोकरें खाती रहीं और तो और इतने बड़े स्वतत्रता सेनानी की पत्नी को कई बार लोगों के जूठे वर्तन तक साफ करने पड़े और लोगों दया पर आश्रित रहना पड़ा। आजादी के बाद भी गढ़वाली जी दिन रात देश और समाज के बारे मे ंसोचते रहेत थे। उनका सपना था कि कोटद्वार गढ़वाल में जहां कण्वऋर्षि का आश्रम था और जहां महाराजा भरत का जन्म हुआ वहां भरत नगर बसाया जाय और उनके गांव चौथान के गवणी में तहसील बने तथा चन्द्रनगर जिसे आज गैरसैंण कहा जाता है वहां उत्तराखण्ड राज्य की राजधानी बने। गढ़वाली जी रामनगर से चौथान, दूधातोली रेलमार्ग बनाने के लिए भी प्रयासरत रहे लेकिन सत्ता की राजनीति तथा उनका कम्ुयनिस्ट होना ही उनके लिए एक तरह से अभिषाप रहा। कल तक नेहरू सहित जो नेता उन्हें बड़ा भाई कहते थे वे आज उनकी तरफ देखना भी नही चाहते थे। आज भारत का यह वीर योद्धा किसी के लिए वोट बैंक नही बन सका। यही कारण रहा कि आजादी के बाद भी चन्द्र सिंह गढ़वाली जी को दर-दर भटकना पड़ा। वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली का जन्म जिला पौड़ी गढ़वाल के चौथान पट्टी के रैणूसेरा गांव में 25 दिसम्बर 1891 में ठाकुर जाथल सिंह के घर हुआ। चन्द्रसिंह बचपन से शरारती तथा तेज स्वभाव के थे इसलिए लोग इन्हें भड़ कहकर पुकारते थे। चन्द्र सिंह ने गांव में ही दर्जा चार तक पढ़ाई की। चन्द्रसिंह गांव में सैनिकों को देखकर सेना में भर्ती होना चाहते थे लेकिन मां-बाप नही चाहते थे कि वे भर्ती हो इसलिए 3 सितम्बर सन् 1914 में घर से भागकर लैन्सड़ौन में सेना में भर्ती हो गये। 15 जून 1915 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान चन्द्रसिंह मित्र देशो की सेना के साथ फ्रांस के मोर्चे पर गये थे। 1917 को वे तुर्कों के खिलाफ सीरिया, रमादी तथा तथा बसरा के मोर्चों पर भी लड़ने के लिए गये। सन् 1920 में गढ़वाली जी की कम्पनी को वजीरिस्तान के बार्ड़र पर भी लड़ाई में भेजा गया। देश में तथा देश क बाहर गढ़वाली जी अनेकों बार अपने जौहर दिखा चुके थे। लेकिन इसबीच देश प्रेम का अंकुर भी अन्दर ही अन्दर पलता रहा जो 23 अपै्रल 1930 को पेशावर की सशस्त्र बगावत के रूप में सामने आया। प्रथम विश्व युद्ध में गढ़वाल राइफल्स से लगभग 13000 जवानों ने अपनी कुर्वानी दी, दो विक्टोरिया क्रास और बाद में फिर कहीं जाकर 1921 में इसे रॉयल गढ़वाल राइफल्स का खिताब मिला। पेशावर की बगावत के नायक वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली अपने सिद्धान्त के लिए हिमालय की तरह अटल थे। आजीवन उन्हौंने अपने सिद्धान्तों से समझौता नही किया। हिमालय का यह अटल सिद्धान्तवादी लौह पुरूष अपने सिद्धान्तों के लिए लड़ते हुए 1 अक्टूबर 1979 को दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में मानव देह को त्यागकर परमधाम को चला गया लेकिन उनके विचार और सिद्धान्त हमेशा देश और समाज को आगे बढ़ने तथा गरीब और लाचार लोगोें की आवाज बनने की प्रेरणा देते रहेंगे।

http://dhyani-aksharchaya.blogspot.in/2010/03/blog-post_4689.html

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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 By Dr Anil Karki

चंद्र सिंह 'राही' जी का एक रोमोलिया गीत

https://soundcloud.com/user886055991/l3da4zdurpdm

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Anil Karki
January 9 at 7:54pm ·

अलविदा चन्द्र सिंह 'राही' मेरे लोक गायक। 'हिल्मा चांदी को बटन' और 'स्वर्गतारा ज्युन्याली रात' व 'बाना हो रँगीली बाना धुर आये बांज कटान' हमेशा याद रहेगा। उत्तराखंड की लोक गायन की हर विधा के जानकार थे आप। आपकी आवाज का खिलमुक्ता पन ही पहचान थी आपकी। नमन
https://www.youtube.com/watch?v=C6HT3_LGvjM

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Charu Tiwari
January 10 at 10:58pm ·
'लोक का चितेरा' नाम से स्व. श्री चन्द्रसिंह राही जी की पचास वर्षो की गीत यात्रा पर शीघ्र प्रकाशित होने वाले अभिनन्दन ग्रंथ के संपादकीय का एक अंश-
-----लोक विधाओं पर बहुत सारे लोगों ने काम किया है। आकाशवाणी के जिन कार्यक्रमों का जिक्र किया गया है उनमें लोक के मर्मज्ञ केशव अनुरागी का विशेष योगदान रहा है। उन्होंने लोक की अभिव्यक्ति का जो व्यापक मंच तैयार किया उसकी नींव पर हमारे गीत-संगीत की बहुत सारी प्रतिभाओं ने अपना रचना-संसार खड़ा किया। आदि कवि गुमानी, मौलाराम, गौर्दा, गोपीदास, कृष्ण पांडे, सत्यशरण रतूड़ी, शिवदत्त सती, मोहन उप्रेती, ब्रजेन्द्र लाल साह, नईमा खान, लेनिन पंत,
रमाप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ के बाद घनश्याम सैलानी, डा. गोबिन्द चातक, डा. शिवानन्द नौटियाल, हरिदत्त भट्ट ‘शैलेश’, मोहनलाल बाबुलकर, अबोधबंधु बहुगुणा, कन्हैयालाल डंडरियाल, रतनसिंह जौनसारी, शेरदा ‘अनपढ़’, गोपालबाबू गोस्वामी, बीना तिवारी, चन्द्रकला, मोहन सिंह रीठागाड़ी, झूसिया दमाई, कबूतरी देवी, बसन्ती बिष्ट, गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’, नरेन्द्रसिंह नेगी, हीरासिंह राणा आदि ने सांस्कृतिक क्षेत्रा में अपना अविस्मरणीय योगदान दिया है। लोक पंरपरा को आगे ले जाने वाली पीढ़ी भी तैयार है। जागर शैली और ढोल-दमाऊ को विश्व पटल तक पहुंचाने वाले जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण हैं तो जौनसार से रेशमा शाह, जागर शैली की हेमा करासी नेगी हैं तो विशु( लोक की आवाज लिये ‘न्यौली’ गाने वाली आशा नेगी भी। अभी लोकधुनों के प्रयोगधर्मी किशन महीपाल और रजनीश सेमवाल से भी लोगों का परिचय हुआ है।
लोक विधाओं पर संक्षिप्त में इतनी बातें हमारे लोक की समृ(ि को तो बताती हैं, लेकिन इससे बात पूरी नहीं होती। इस पर पूरी चर्चा भी कर लें तो समाप्त नहीं होगी। यह बात शुरू ही तब हो पायेगी जब इसमें लोक विधाओं के साथ जीने वाले एक व्यक्तित्व का नाम जोड़ा जायेेगा। वह नाम है- श्री चन्द्रसिंह ‘राही’। चन्द्रसिंह ‘राही’ का मतलब है उपरोक्त सभी लोक विधाओं का एक साथ चलना। उनको समझना। उस अन्र्तदृष्टि को भी जो लोक के भीतर समायी है। हम उन्हें अपनी लोक विधाओं का एक चलता-पिफरता ज्ञानकोश कह सकते हैं। वे लोक धुनों के धनी हैं। प्रकृति प्रदत्त आवाज के बादशाह भी। उनके गीतों में प्रकृति का माधुर्य है। संवेदनाएं हैं। भाषा का सौंदर्य है। बिम्ब जैसे उनके गीतों की विशेषता। शब्दों का बड़ा संसार है। उनके पास लोक की पुरानी विरासत है। नये सृजन के लिये खुले द्वार भी। लोक में बिखरी बहुत सारी चीजों को समेटने की दृष्टि भी। वे लोक गायक हैं। गीत लिखते और गाते हैं। संगीत से उनका अटूट रिश्ता है। लोक वाद्यों पर उनका अधिकार है। कोई लोकवाद्य ऐसा नहीं है जिसे उन्होंने न बजाया हो। वे उत्तराखंड के हर लोकवाद्य पर अधिकारपूर्वक बोल सकते हैं। ‘राही’ जी लोक विधाओं के अन्वेषी हैं। लगभग तीन हजार से अधिक लुप्त होते लोकगीतों का संकलन उनके पास है। गढ़वाली और कुमाउंनी भाषा पर उनका समान अधिकार है। इन सबके साथ ‘राही’ जी हमारी सांस्कृतिक धरोहर के सबसे प्रबल पहरेदार हैं। एक सरल इंसान। दरअसल ‘राही’ जी की अपनी खूबियां हैं।
दिल्ली पैरामेडिकल इंस्टीट्यूट के संस्थापक निदेशक, उत्तराखंड लोकभाषा साहित्य मंच के संरक्षक और मेरे मित्रा श्री विनोद बछेती ने श्री चन्द्रसिंह ‘राही’ के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक पुस्तक निकालने की बात कही। जिसका संपादन उन्होंने मुझे सौंपा। इससे पहले भी वे उत्तराखंड के सुप्रसि( लोकगायक श्री नरेन्द्रसिंह नेगी और श्री हीरासिंह राणा पर इस तरह की पुस्तकों का प्रकाशन कर चुके हैं। मेरे लिये इससे बड़े सौभाग्य की बात और क्या हो सकती थी कि जिनके गीत हम सत्तर के दशक में बहुत छोटी उम्र में सुना करते थे आज उनके गीतों पर कुछ लिखने-कहने का मौका मिला। चन्द्रसिंह ‘राही’ जी से मुलाकात कब हुई यह कहना बहुत कठिन है। लगता है कि दशकों से एक-दूसरे को जानते हैं। उम्र का इतना बड़ा पफासला होने के बाद भी उन्होंने कभी उस अन्तर को प्रकट नहीं होने दिया। उनके साथ उस दौर में ज्यादा निकटता हो गयी जब मैं ‘जनपक्ष’ पत्रिका का संपादन कर रहा था। कभी भी, किसी भी समय उनका पफोन आ सकता है। वह सुबह पांच बजे भी हो सकता है, रात के 12 बजे भी। बहुत आत्मीयता से वे विशु( कुमाउंनी में वे बात करते हैं।
दो साल पहले अपने गृह क्षेत्रा द्वाराहाट के कपफड़ा में एक कार्यक्रम में शामिल होने गया। चन्द्रसिंह ‘राही’ भी साथ थे। पता चला कि वहां रामलीला भी हो रही है। आयोजकों ने कहा कि आप रामलीला का उद्घाटन कर दो। हमें भी रामलीला देखनी थी चले गये। लोगों को पता नहीं था कि मेरे साथ कौन हैं। मैंने मंच में जाकर घोषणा की कि रामलीला का उद्घाटन चन्द्रसिंह ‘राही’ करेंगे। और स्पष्ट करते हुए बताया कि ये वही ‘राही’ जी हैं जिन्होंने ‘सरग तारा जुनाली
राता...’, ‘हिल मा चांदी को बटना...’, जैसे गीत गाये हैं। पूरा पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज गया। रामलीला तो छोडि़ये पहले गीतों की फरमाइश आ गयी। पुरानी पीढ़ी के लोग कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि सत्तर के दशक में जिस गायक को रेडियो पर सुना था उसे कभी सामने भी देख पायेंगे। ऊपर से धारा प्रवाह कुमाउंनी बोलने से वे लोगों के चहेते बन गये। मैं उन्हें कई आयोजनों में अधिकारपूर्वक अपने साथ ले गया। वे जहां भी गये अपने गीतों से लोगों के दिलों में स्थान बना आये। राही जी को जौनसार से लेकर जौहार तक की लोक विधाओं में महारत हासिल है। चन्द्रसिंह ‘राही’ अब अस्वस्थ रहते हैं। उनका इलाज भी चल रहा है। हम सब की कामना है कि वे जल्दी स्वस्थ हों और उनकी आवाज हमें वर्षो तक मंचों पर सुनाई दे।

विनोद सिंह गढ़िया

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[justify]भारतीय इतिहास में चन्द्र सिंह गढ़वाली को पेशावर कांड के नायक के रूप में याद किया जाता है। आज के ही दिन यानि २३ अप्रैल १९३० को हवलदार मेजर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में रॉयल गढ़वाल राइफल्स के जवानों ने भारत की आजादी के लिये लडनें वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलानें से इनकार कर दिया था।
पेशावर कांड की बरसी पर महान नायक वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली जी को कोटि-कोटि नमन।


 

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