Author Topic: Dr Lalit Mohan Pant, World's Fastest Surgeon from Khantoli, Uttarakhand डॉ ललित  (Read 26806 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Lalit Mohan Pant विध्वंस, वेदना, विलाप ,विवशतायें और ईश्वर .....
 by Lalit Mohan Pant (Notes) on Sunday, June 30, 2013 at 1:13am
 अपनी छोटी छोटी उपलब्धियों ,अनादि, अनंत, अगम, अपार ,अबूझ ब्रह्मांड की ऊर्जा की रश्मियों की हल्की सी झलक देख कर फूले नहीं समा रहे - आत्ममुग्ध हम, अपनी विकास यात्रा को नापते रहे हैं …शिखरों और गहराइयों को हमने कभी चुनौती नहीं माना …कभी विज्ञान तो कभी आस्थायें हमारे अवलंब बन कर हमारी जीवन यात्रा के पथ प्रशस्त करते रहे ….   कहीं चमत्कार को नमस्कार करते हुये हम अपनी आस्थाओं को दृढ करते रहे हैं, तो कभी उन्हीं चमत्कारों को विज्ञान से सुलझा कर उन्हें झुठलाते रहे हैं  ……
           जहाँ तक हम  पहुँचे उसके आगे सब "ईश्वर" के भरोसे छोड़कर हम निश्चिन्त रहे हैं , और यही " ईश्वर" मनुष्य जाति का अलग अलग नामों से सगुण अथवा निर्गुण उपासना और अज्ञात सत्य की खोज का माध्यम रहा है …हमारे जीवन दर्शन की चिरंतन उपलब्धि और आज तक की परिस्थितियों में अनिवार्य स्वीकार्य तथ्य ….ईश्वर हो न हो पर उसका होना जरूरी है वेदना की वैतरणी पार करने के लिये …
            स्पष्टतः विज्ञान के साथ साथ आस्थायें भी समानांतर अमर रहेंगी …. विनाश के साथ रचना … भूलों के साथ सुधार …. निराशा के साथ जिजीविषा जीवन को समय के साथ सामंजस्य स्थापित करने में सहायक नहीं होंगी तो एक स्थायित्व आ जायेगा …हम जानते हैं परमाणु भी स्थिर नहीं रह सकता ….लगातार गति और परिवर्तन प्रकृति की प्रकृति है …
           बीते दिनों उत्तराखंड में प्रकृति की विनाशलीला ,उसके साथ छेड़ छड की चरम परिणति होने में भले ही आस्था और विज्ञान एकमत न हों;  पर जहाँ यह  त्रासद विभीषिका …  भयावह और दहलाने वाली थी वहीँ मनुष्य के संघर्ष और विकट परिस्थितियों को अपनी जीवटता से चुनौतियों का अनुपम उदहारण भी थी …जीवन की क्षण भंगुरता का  साक्षात्कार हमारी भावनाओं को जहाँ उद्वेलित करता रहा वहीँ साधुके बाने में हमारी विकृतियाँ भी उजागर होती रहीं …टुकड़े टुकड़े प्रलय से उपजी वेदना, विलाप और विवशतायें क्या कभी संवेदनाशून्य ,पाषाण दिल और दिमागों को द्रवित कर पायेंगे … ?
          प्रकृति नियंता अपनी लीलायें निर्बाध रचता रहा है ,क्योंकि वह नियमों और मर्यादाओं में बँध कर ही इस ब्रह्माण्ड की रचना कर सका होगा …इसीलिये ब्रह्माण्ड का जो भी पिंड अपने ऑर्बिट से बाहर होता है तो नष्ट हो जाता है …यही  नियम शाश्वत है ,फिर भी न जाने क्यों नष्ट होने के आकर्षण हमारी नियति बन जाते हैं ?
 समस्त मानवीय संवेदनाओं से प्रभु शरण में पहुंची हुई समस्त आत्माओं को श्रद्धांजलि और समर्पण और सेवा के उद्दाम भाव से अपनों से बिछड़े ,पीड़ितों ,असहायों और निराश जनों में आशा का संचार करने वाले स्वयंसेवकों, सैनिकों और हुतात्माओं को नमन .....
 
 -डॉ ललित मोहन पन्त

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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 जो चिरागों की लौ में पिघलता है ….
 
 जो चिरागों की लौ में पिघलता है
 वो हसरतों को रौ में बदलता है .
 
 तेरे वजूद पे भरोसा है जिसको
 आस्माँ से गिर कर भी सँभलता है.
 
 ख्व़ाब जो नींदों के पार रहता है
 वो जागती आँख में मचलता है .
 
 चाँद है ,तारे हैं, तन्हाइयाँ भी हैं
 ये दिल किसे ढूँढने निकलता है.
 
 हर कदम गुजरा इम्तहाँ से मेरा
 हर मोड़ पर रास्ता बदलता है .
 
 हासिल ए हयात अब भी बाकी है
 सिर्फ याद से दिल नहीं बहलता है.
 
 -ललित मोहन पन्त
 02.21सुबह
 13.07.2013

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Lalit Mohan Pant बिटिया  के जन्म दिन पर ....
 
 राज सिंहासन से उतरकर मेरी कुटिया में ,
 तेरा आना शुभ हुआ ,जैसे गंगा समाती लुटिया में .
 मुझको पिता के रूप में,  जब से  तूने  है चुना ,
 बढ़ता रहा सौभाग्य मेरा, जाने कितना गुना .
 मैं अकिंचन था ,तू मेरा भाग्य बनकर आ गई ,
 आसमाँ पर  जिंदगी के,  इठलाती घटा सी छा गई .
 स्वागत अभिनन्दन, तुझे शुभाशीष कहते हैं .
 जन्मदिन पर मंगलकामना ,तेरे स्वजन करते हैं .
 तू परी है, देवाशीष है,  और है  मेरा अभिमान,
 प्रतीक्षारत दिशाएं, भूमंडल, करो लक्ष्य का संधान .
 यह जन्म मानव का, ईश्वर का है दिया वरदान ,
 सार्थक हो हर पल ,जन जन का हो तुमसे कल्याण
 तू जहाँ हो वहां सुख आनंद, तेरी प्रतीक्षा करता रहे ,
 हमारी भावनाओं को ये मन, तेरी गागर में भरता रहे .
 
 ललित मोहन पन्त
 16.07.2013

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वक़्त बदला, हैं बदले ख़यालात से …
October 16, 2013 at 1:59am
ग़ज़ल -

मात्रा भार- २१२ २१२ २१२ २१२
रदीफ़ -से
काफ़िया -हालात ,इफरात ,जज्ब़ात ,बरसात

वक़्त बदला, हैं बदले ख़यालात से
रौंदता ही रहा हमको लम्हात से .

क्यों मयस्सर नहीं जिंदगी में सुकूँ
जूझता ही रहा मैं तो हालात से .

माँगता था दुआ में तिरी रहमतें
उलझनें सौंप दी तूने इफरात में.

जुर्रतें वक़्त की कहाँ कम हुईं
खेलती ही रहीं मेरे जज़्बात से.

अब्र थे आस्माँ में घुमड़ने लगे
भीगता ही रहा पहली बरसात से.

बात है कि अब ख़त्म होती नहीं
बात निकली थी तब बात ही बात से.

-ललित मोहन पन्त

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दहकता सूरज भी /अंतिम छोर नहीं है.... ब्रह्माण्ड का ....

एक आसमान को छूता
पहाड़ सा / दरक जाता है
मेरे भीतर कहीं ..
घाटियों में भारी भरकम चट्टानें
पलक झपकते
मेरे संपूर्ण अस्तित्व को
कुचल कर
गोफन से छूटे / पत्थर की तरह
गूँज जाती हैं.
संज्ञाहीन / संवेदनाहीन
मेरे कंठ को चीर कर
निकलती मेरी चीखें
मेरे खुद के कान / सुन नहीं पाते
मैं देखता हूँ
मेरे भीतर खौलता हुआ लावा
मेरे खून को / जमा देता है
जब तुम न्याय के सिंहासन पर बैठ कर
सच की गर्दन मरोड़कर
देखते देखते निगल जाते हो
और फिर / दुर्गन्ध युक्त झूठ का / वमन करते हो
न्याय को शिखंडी बना कर
वध करते हो विश्वास का
जब मेरे शब्द
तुम्हारे लिए अर्थहीन हो जाते हैं
तब उनके हिंसक होने को
कब तक रोकेगा मेरा विवेक ?
मत थमाओ
बारूद / निरपराध के हाथों
जिस धरती पर
शीश नवाने से
मंदिर के पत्थर भी
न्याय करते हों
वहाँ तुम्हारी / जड़ व विकृत
संवेदनाओं के लिए
कितनी और बलि देनी होंगी ?
जानते हो ?
दहकता सूरज भी /
अंतिम छोर नहीं है ... ब्रह्माण्ड का ....

....ललित मोहन पन्त

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अंतर्द्वंद ……
September 27, 2013 at 1:24am

जटायु की तरह

दग्ध डैनों की

पीड़ा से आहत

जब मैं सूरज/ आकाश और धरती

का अंतर समझ गया था

तब भी ललचाता रहा आकाश

ऊँची उड़ानें बादलों के पास

सूरज को छूने की ललक

जिजीविषा /विश्वास 

 

 

दग्ध डैनों की विवशता

मन नहीं स्वीकारता

पराजय के अनुभव से

ये नहीं हारता

लालसा /आकांक्षा /जीत /छटपटाहट

सातत्य हैं जीवन के

तो निष्क्रियता /हार

हैं विराम तन मन के

 

इसीलिये एक बार

सम्पूर्ण उर्जा समेट कर

फिर दशानन को

ललकारना चाहता हूँ

हे राम !

अबकी बार

निरीह /विजित जटायु

विजय का वरण कर

तुम्हारी प्रतीक्षा करेगा

फिर नई ये

कहानी ज़माना कहेगा 

 

प्रभु !

तुम तो अन्तर्यामी हो ना

मेरी यह अंतर्यात्रा

इस जय /पराजय के द्वंद्व से

कब मुक्त होगी ???

ये आशा /पिपासा

कब लुप्त होगी ???

 

-ललित मोहन पन्त

२००६ 

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Lalit Mohan Pant
बेबसी कि इंतेहा जब आह सुनती है
आँसुओं से बैठ कर फिर वक़्त बुनती है

आगाज से अंजाम तक आबले रिसते रहे
जिंदगी ये , क्यों न जाने राह चुनती है।

जीभ से जो पेट तक है आग का दरिया
फलसफों को भूख जिसमें रोज़ धुनती है।

तू भले ही और कितने इम्तहाँ ले ले
रेत है जो भाड़ की हर वक़्त भुनती है .

-ललित
3. 03 सुबह
27 . 11 . 2013

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Lalit Mohan Pant  December 29, 2013 at 8:23pm · It is indeed a matter of great pride and pleasure for me to receive this prestigious Award of Honour by the Supreme body of Surgeons of the country .
 
 I genuinely feel that this recognition of the task given by the almighty in the form of my little contribution to the society and humanity is still beyond my imagination.
 
 I humbly dedicate this honour to the supreme lord, who I found in my parents, my grandfather, my teachers, my mentors, my family, my colleagues, my friends and patients or beneficiaries who bestowed their faith in me.
 
 Many a times, working in odds, I found myself lonely, consoling myself that god is watching over me and was with me through out the journey!
 
 I again thank all my Governing council members specially Dr K C Diwani, Dr C P Kothari  and Prof Satish Shukla  and my all teachers and mentors . I would  also like to mention the name of a renowned senior surgeon and my teacher, Dr. U Navlekar from Kutch, who inspired me to work with the laparoscope during the initial days of my career and certified that I could perform laparoscopic sterilizations independently. He was fortunately there to bless me.
 I wish you all a happy new year!
 Jai Hind!



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फिर आज सुबह साँसों की ...January 3, 2014 at 12:48amग़ज़ल अर्कान ११२ ,११२ ,२२२ काफिया -साँसों ,पाँखों ,आँखों रदीफ़ -की

फिर आज सुबह साँसों की इक आस बनी पाँखों की .

बहकी अनदेखी राहें हमराज बनीं बाँकों की .

बिसरे दुःख ,ख़्वाब नये हैंबहती कजली आँखों की .

अब क्या कर ये गुजरेगी मछली फड़की बाँहों की .

फन भी लहराने को हैं जब बीन बजी बाँसों की .

लड़ते लड़ते भोर हुई सिमटी सिहरी साँझों की .

मरने मिटने की चाहत अरमान बनी राँझों की .

परवाह जरा तू कम कर दिल में चुभती फॉसों की .

-ललित मोहन पन्त १.१.२०१४

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Lalit Mohan Pant 
 
कशमकश ….

एक छे माय …घिसटते घिसटते एक दिन हमारी संस्था के आसरे में आ गई …क़ौन थी कहाँ से आई नहीं जान पाये … और हमारी माय बन गई …. संस्था के आसरे में कई ऐसे आये भगवान के दूत हैं … उसका भी ऐसे ही स्वागत हुआ जैसा औरों का … और चूँकि वो सबसे बुजुर्ग थी ,लगभग ६०-६५ साल की तो वह रिश्ते में इस परिवार की अपने आप माय हो गई …. माय , अचानक कल हमारा घर छोड़ कर जाने लगी … उसे कुछ होश सा नहीं था … विभ्रम जैसी स्थिति में थी वो … क्या पूछो क्या जवाब देती थी वो .... उसे वापस उसके बिस्तर पर लाये और उसकी जाँचें करवाईं तो पता लगा उसके गुर्दे ठीक से काम नही कर रहे हैं … स्थानीय चिकित्सक कहते हैं आगे ले जाओ … बड़ी जगह … बड़े अस्पताल … बड़े डॉक्टर … बड़ी जाँचें … बड़ा इलाज …… बड़ा पैसा ....बड़ी देखभाल .... और फिर आजकल तो वेंटिलेटर और यमदूतों की रस्साकसी ?????????? हे भगवान् ! हेभगवान् !! हे भगवान् !!! क्या करें ????????????? सबसे बड़ा भगवान दाहिने हो जाये तो सारे बड़े भी दाहिने हो जायेंगे पर कैसे ?????????

 

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