Sham Lal Gangola (Freedom Fighter)
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बागेश्वर क्षेत्र स्वतंत्रता आन्दोलन का महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। यह क्षेत्र अंग्रेजी सरकार के लिए सदा ही सिरदर्द बना रहा, क्योंकि यहां उनकी दमनकारी नीतियों व कार्यों के उपरान्त भी स्वतंत्रता आन्दोलन सदा फलता-फूलता रहा। उत्तराखंड के क्रांतिकारी इतिहास में स्वर्णिम रहा कुली बेगार आंदोलन की शुरूआत भी यहीं से हुई है।
स्वतंत्रता आंदोलन में उत्तराखंड के अमर सेनानियों में से एक अविस्मरणीय नाम स्व.श्याम लाल गंगोला का है। स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रति इनका जीवन सदा समर्पित था। स्वतन्त्रता प्राप्ति की चाहत में इन्होंने पारिवारिक सुख, व्यापारिक उपलब्धि तथा सब कुछ समर्पित कर दिया। उन्हें न तो मां की ममता रोक सकी, न ही पत्नी व परिवार के अबोध बाल सदस्यों का मोह। साह तन-मन-धन से राष्ट ªीय आन्दोलन को समर्पित
थे। इसलिए अंग्रेज सरकार ने उन पर अपनी पैनी नजर रखी और हर प्रकार से परेशान कर उनके मनोबल को तोड़ने की लगातार कोशिश की, किन्तु दमनात्मक कार्यवाहियों के उपरान्त भी उनकी स्वतंत्रता की भावना बिल्कुल नहीं डिगी। उनका जन्म 1888 में बागेश्वर में हुआ। गोवर्धन साह के इकलौते पुत्र थे। वे रामजे इण्टर कालेज अल्मोड़ा के छात्र रहे। बचपन से ही सामाजिक कार्यों के प्रति सजग थे। अल्मोड़ा में उनका सम्पर्क तत्कालीन युवा नेताओं से रहा, जिसमें गोविन्द बल्लभ पन्त, बद्रीदत्त पाण्डे, हरगोविन्द पन्त व विक्टर मोहन जोशी प्रमुख थे। सन् 1969 में स्व.श्री गोविन्द बल्लभ पन्त के सम्पर्क में आए तथा कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर राजनीति में सक्रिय भाग लेना प्रारम्भ कर दिया। कुमांऊ परिषद के प्रमुख सदस्य रहे। प्रतिनिधि मण्डल के मुख्य कार्यकर्ता के रूप में इन्होंने लखनऊ में कुमांऊ परिषद् की मांग करते हुए कुमांऊ में संगठित रूप से आन्दोलन चलाने पर बल दिया। सन् 1920 में काशीपुर ;नैनीतालद्ध में हरगोविन्द के सभापतित्व में कुमांऊ परिषद का ऐतिहासिक अधिवेशन हुआ। इस कुमांऊ परिषद के भीतर हरगोविन्द पन्त, विक्टर मोहन जोशी, श्यामलाल साह गंगोला, बद्रीदत्त पाण्डे चेतना के प्रतिनिधि एवं प्रतीक थे। ये कुली बेगार की समाप्ति या जंगलाद नीति में सुधार ही नहीं वरन् इस स्थाई आन्दोलन को राष्ट्रीय संग्राम असहयोग के साथ जोड़ना अनिवार्य समझते थे। इस अधिवेशन में बद्रीदत्त पाण्डे द्वारा कुली बेगार विरोधी प्रस्ताव रखा गया, जिसमें श्री साह ने कुली बेगार प्रथा की चर्चा में भाग लिया तथा गर्म दल का साथ देकर बद्रीदत्त पांडे तथा विक्टर मोहन जोशी के पक्ष में समर्थन दिया।
काशीपुर अधिवेशन में बद्रीदत्त पांडे व श्यामलाल
साह सहित अधिकांश नेता सन् 1929 में नागपुर के
विशाल जनांदोलन में गए। जिस आंदोलन का नेतृत्व
प्रथम बार महात्मा गांधी कर रहे थे। वहां गांधीजी से
बागेश्वर आने का आग्रह किया गया। गांधीजी तत्कालीन
उत्तराखंड के ग्रामीण चेतन तथा आक्रोश को भली-भांति
न समझ सके, जिस कारण उन्होंने बागेश्वर आने में
असमर्थता व्यक्त की।
सन् 1921 में श्यामलाल साह तथा अन्य नेता
नागपुर से लौटे ही थे कि उन्होंने चामी गांव ;बागेश्वरद्ध
के एक मंदिर में लगभग 400 लोगों की एक सभा की।
जिसमें श्यामलाल साह व चामी के शिवदत्त, रामदत्त व
केशवदत्त प्रमुख व्यक्ति थे। इस सभा में उपस्थित सभी
लोगों ने बेगार न देने की शपथ ली तथा पहाड़ की
संपूर्ण जनता को इस निर्णय में शामिल करने का निश्चय
लिया और आगामी उत्तरायणी मेला बागेश्वर में बेगार
प्रथा का विरोध करने हेतु बनने वाली रूपरेखा में सक्रिय
भाग लिया। जिसकी सूचना तत्कालीन ग्राम के पटवारी
ने शासन को भेज दी थी। शासन को सूचना मिलते ही
इस आंदोलन को दबाने के लिए जिला मुख्यालय
अल्मोड़ा से सेना के 500 गोरखा जवान व डिप्टी
कमिश्नर बागेश्वर पहुंचे।
सन् 1921 में बागेश्वर में उत्तरायणी मेले के दौरान
कुली बेगार आंदोलन को देखते हुए सरकार ने कड़ी
सुरक्षा व्यवस्था के साथ मेला बंद की घोषणा कर दी
थी, जिससे तनाव की स्थिति आ गई। तब श्री साह
बिना किसी चिंता के आंदोलन को सक्रिय रूप देते रहे।
तब उनके निजी मकान ने एक होटल का रूप लिया था,
जहां बाहर से आए हुए स्वतंत्रता सेनानी रहते थे। सरयू
तट पर 15 जनवरी 1921 से उस ऐतिहासिक आंदोलन
को सफल बनाने के लिए पुरजोर कोशिश की। विक्टर
मोहन जोशी व बद्रीदत्त पांडे आदि नेताओं के साथ कंधे
से कंधा मिलाकर कार्य करते रहे
औपनिवेशिक-नौकरशाही न दमन कर सकी न ही
दबाव डाल सकी। मेले में दिन भर हजारों लोगों ने साथ
में गंगाजल लेकर बेगार न देने का संकल्प लिया। 15
जनवरी 1921 को हुए इस ऐतिहासिक स्वतंत्रता आंदोलन
में श्यामलाल साह ही उत्तराखंड के सर्वप्रथम व्यक्ति थे,
जिन्हें उत्तराखंड से पहली बार गिरफ्तार किया गया।
इसके पश्चात देवीलाल साह आदि अन्य साथियों को
पकड़ा गया। भरे बाजार में जिला जेल अल्मोड़ा ले जाते समय
वे अपने मकान के आगे रुके। वहां उनकी मां इंतजार
कर रही थी। अपने सुपुत्र को फूल माला पहनाकर और
आरती उतारकर इतना ही संदेश दिया कि ‘देश के लिए
मर मिटना पर माफी मांगकर वापस मत आना।’ श्री
साह के जेल जाने के बाद लोगों ने बेगार देना बंद कर
दिया। बागेश्वर की इस विजय के बारे में बद्रीदत्त व
अन्य नेताओं ने जगह-जगह सभाएं कर बताया। तीन
माह बाद कुली बेगार आंदोलन, असहयोग आंदोलन में
बदल गया।
इस आंदोलन में श्री साह को 1929 में डेढ़ साल
की सख्त सजा जिला जेल अल्मोड़ा में हुई तथा अर्थदंड
न देने पर घर की समस्त संपत्ति की नीलामी व कुड़की
निकाल दी गई। सजा भुगतने के उपरांत भी अंग्रेजी
शासन के खिलाफ उनका आंदोलन जारी रहा। इन सभी
बातों की गुप्त सूचना स्थानीय अधिकारियों ने शासन
को दे दी। फलस्वरूप उन्हें पुनः जनवरी 1924 में
गिरफ्तार कर लिया गया। 21 जनवरी 1924 को क्रमशः
ह.द.1988 पर छह माह व ह.द.145 पर दो साल और
ह.द.117 पर भी दो साल का कठोर कारावास व अर्थदंड
न देने पर इस बार भी उनके घर की संपत्ति पर पुनः
कुड़की व नीलामी की गई। बरेली जेल में उन्हें अनेक
प्रकार की यात्नाएं दी गई तथा कारागार से छूटने के पूर्व
बिजली का करेंट देकर उन्हें शारीरिक व मानसिक रूप
से अस्वस्थ कर दिया गया, ताकि वे भविष्य में कुछ भी
ना कर सकें। जेल से छूटने के बाद वे भले ही अस्वस्थ
रहे हों, लेकिन फिर भी अंग्रेजों के विरु( आंदोलन
करते रहे। 1929 में उन्होंने आग्रह कर महात्मा गांधी से
बागेश्वर में 22 जून 1929 को विक्टर मोहन जोशी व
शांति भाई के साथ स्वराज्य मंदिर की आधारशिला
रखवाई। इसके बाद भी वे लगातार कांग्रेस का सक्रिय
कार्य करते रहे।
सन् 1936 में साह जी ने बागेश्वर में एक ऊनी
कारोबार समिति बनाई। उसमें वे डायरेक्टर पद पर
कार्य करते रहे। कारावास में मिली असह्य वेदना से
उनका शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य गिरता रहा। 1939
में उनका स्वर्गवास हो गया। उनके नाम पर बागेश्वर में
उत्तर प्रदेश सरकार ने ‘श्यामलाल साह स्मारक राजकीय
उच्चीकृत प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र’ खोला।
(Sabhar - Regional Reporter)