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Jaswant Singh Rawat an Immortal Soldier

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

हेम पन्त:
जसवंतगढ़। गुवाहाटी से तवांग जाने के रास्ते में लगभग 12,000 फीट की ऊंचाई पर बना जसवंत युद्ध स्मारक भारत और चीन के बीच 1962 में हुए युद्ध में शहीद हुए महावीर चक्र विजेता सूबेदार जसवंत सिंह रावत के शौर्य व बलिदान की गाथा बयां करता है। उनकी शहादत की कहानी आज भी यहां पहुंचने वालों के रोंगटे खड़े करती है और उनसे जुड़ी किंवदंतियां हर राहगीर को रुकने और उन्हें नमन करने को मजबूर करती हैं।

1962 के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए जसवंत सिंह की शहादत से जुड़ी सच्चाई बहुत कम लोगों को पता हैं। उन्होंने अकेले 72 घंटे चीनी सैनिकों का मुकाबला किया और विभिन्न चौकियों से दुश्मनों पर लगातार हमले करते रहे। जसवंत सिंह से जुड़ा यह वाकया 17 नवंबर 1962 का है, जब चीनी सेना तवांग से आगे निकलते हुए नूरानांग पहुंच गई। इसी दिन नूरानांग में भारतीय सेना और चीनी सैनिकों के बीच लड़ाई शुरू हुई और तब तक परमवीर चक्र विजेता जोगिंदर सिंह, लांस नायक त्रिलोकी सिंह नेगी और राइफलमैन गोपाल सिंह गोसाईं सहित सैकड़ों सैनिक वीरगति को प्राप्त हो चुके थे।

गढ़वाल राइफल के चतुर्थ बटालियन में तैनात जसवंत सिंह रावत ने अकेले नूरानांग का मोर्चा संभाला और लगातार तीन दिनों तक वह अलग-अलग बंकरों में जाकर गोलीबारी करते रहे और उन्होंने अपनी लड़ाई जारी रखी। सूबेदार कुलदीप सिंह बताते हैं कि जसंवत सिंह की ओर से अलग-अलग बंकरों से जब गोलीबारी की जाती तब चीनी सैनिकों को लगता कि यहां भारी संख्या में भारतीय सैनिक मौजूद हैं। इसके बाद चीनी सैनिकों ने अपनी रणनीति बदलते हुए उस सेक्टर को चारों ओर से घेर लिया। तीन दिन बाद जसवंत सिंह चीनी सैनिकों से घिर गए।

जब चीनी सैनिकों ने देखा कि एक अकेले सैनिक ने तीन दिनों तक उनकी नाक में दम कर रखा था तो इस खीझ में चीनियों ने जसवंत सिंह को बंधक बना लिया और जब कुछ न मिला तो टेलीफोन तार के सहारे उन्हें फांसी पर लटका दिया। फिर उनका सिर काटकर अपने साथ ले गए। जसवंत सिंह ने इस लड़ाई के दौरान कम से कम 300 चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतारा था।

जसवंत सिंह की इस शहादत को संजोए रखने के लिए 19 गढ़वाल राइफल ने यह युद्ध स्मारक बनवाया। स्मारक के एक छोर पर एक जसवंत मंदिर भी बनाया गया है। जसवंत की शहादत के गवाह बने टेलीफोन के तार और वह पेड़ जिस पर उन्हें फांसी से लटकाया गया था, आज भी मौजूद है।

आज भी जीवित हैं जसवंत। जसवंत सिंह लोहे की चादरों से बने जिन कमरों में रहा करते थे, उसे स्मारक का मुख्य केंद्र बनाया गया। इस कमरे में आज भी रात के वक्त उनके कपड़े को प्रेस करके और जूतों को पॉलिश करके रखा जाता है। जसवंत सिंह की शहादत से जुड़ी कुछ किंवदंतियां भी हैं। इसी में एक है कि जब रात को उनके कपड़ों और जूतों को रखा जाता था और लोग जब सुबह उसे देखते थे तो ऐसा प्रतीत होता था कि किसी व्यक्ति ने उन पोशाकों और जूतों का इस्तेमाल किया है।

कुलदीप सिंह बताते हैं कि इस पोस्ट पर तैनात किसी सैनिक को जब झपकी आती है तो कोई उन्हें यह कहकर थप्पड़ मारता है कि जगे रहो सीमाओं की सुरक्षा तुम्हारे हाथ में है। इतना ही नहीं एक किंवदंती यह भी है कि उस राह से गुजरने वाला कोई राहगीर उनकी शहादत स्थली पर बगैर नमन किए आगे बढ़ता है तो उसे कोई न कोई नुकसान जरूर होता है। हर ड्राइवर अपनी यात्रा को सुरक्षित बनाने के लिए जसवंतगढ़ में जरूर रुकता है।

यह जसवंत सिंह की वीरता ही थी कि भारत सरकार ने उनकी शहादत के बाद भी सेवानिवृत्ति की उम्र तक उन्हें उसी प्रकार से पदोन्नति दी, जैसा उन्हें जीवित होने पर दी जाती थी। भारतीय सेना में अपने आप में यह मिसाल है कि शहीद होने के बाद भी उन्हें समयवार पदोन्नति दी जाती रही। मतलब वह सिपाही के रूप में सेना से जुड़े और सूबेदार के पद पर रहते हुए शहीद हुए लेकिन सेवानिवृत्त लगभग 40 साल बाद हुए।

अरुणाचल के लोगों को यह बात इस युद्ध के 50 साल बाद भी सालती रही है कि जसवंत सिंह जैसे योद्धा को आज तक परमवीर चक्र क्यों नहीं मिला। बीजेपी के पूर्व सांसद किरण रिजिजू कहते हैं कि महावीर चक्र कम नहीं है, लेकिन जसवंत सिंह जैसे योद्धा परमवीर चक्र के हकदार हैं। मैंने सांसद रहते हुए यह मांग उठाई और देश के रक्षा मंत्री को पत्र भी लिखा लेकिन आज तक परमवीर चक्र उन्हें नहीं मिल पाया।

अरुणाचल पूर्व के सांसद तापिर गाव ने कहा कि मैं जसवंत गढ़ में खड़ा होकर भारत सरकार से मांग करता हूं कि जसवंत सिंह को जल्द से जल्द परमवीर चक्र दिया जाए। यदि बीजेपी की सरकार बनी तो हम उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित करेंगे।

बहरहाल जसवंत सिंह के इस युद्ध स्मारक की देखरेख 10वें सिख रेजीमेंट के हाथों में है। यहां आने वाले हर व्यक्ति के लिए यह रेजीमेंट खाना चाय और लंगर की व्यवस्था करता है। यह जसवंत सिंह की शहादत है जिसे ध्यान में रखकर चाय की पहली प्याली, नाश्ते का हर पहला प्लेट और भोजन की सारी व्यवस्था का पहला भोग जसवंत सिंह को ही लगाया जाता है।

शैला और नूरा की शहादत भी कम नहीं है। नूरानांग के इस युद्ध के दौरान शैला और नूरा नाम की दो लड़कियों की शहादत को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता। जसवंत सिंह जब युद्ध में अकेले डटे थे तो इन्हीं दोनों ने शस्त्र और असलहे उन्हें उपलब्ध कराए। जो भारतीय सैनिक शहीद होते उनके हथियारों को वह लाती और जसवंत सिंह को समर्पित करती और उन्हीं हथियारों से जसवंत सिंह ने लगातार 72 घंटे चीनी सैनिकों को अपने पास भी फटकने नहीं दिया और अंतत: वह भारत माता की गोद में लिपट गए और इतिहास में अपने नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवा लिया।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:


Royal GarhwaliLike This Page · 51 minutes ago
Must Must Must Share AND TAG Please
 Es Duniya me aaj bhi Kuch logAmar
 hote hai.... Uttarakhand ke ekAese
 veer ki Kahani jo Mar kar bhiAmar
 Hai........
 1962 के युद्ध में भारत के पास एक
 ऐसा भी वीर
 था जिसकी वीरता को चीन...ने
 भी सलाम किया|
 मित्रों आज हम आपको एक ऐसे वीर
 की गाथा सुनाने जा रहे हैं
 जो अपनी मात्र भूमि के लिए वीर
 गति को प्राप्त हो गया और जिसने अकेले
 ३०० चीनी सैनिकों को मर गिराया|
 जी हाँ मित्रों ३०० सैनिकोंको मौत के
 घाट उतार दिया था इस महावीरने|
 इनका नाम है जसवंत सिंह रावत और यह
 एक उत्तराखंडी है|जसवंत सिंह के नाम पर
 एक गाँव का नाम जसवंतपुर भीहै| इन्हें
 इनकी बहादुरी के लिए महावीरचक्र
 भी दिया गया| जिस युद्ध में ये शहीद हुए
 वो था " बैटल ऑफ़ नूरानांग"|
 तेजपुर नूरानांग में रायफलमेन जसवंत सिंह
 के नाम का मंदिर चीन युद्ध में
 इनकी असाधारण वीरता का परिचायक
 है| यहाँ से गुजरने वाला हर व्यक्ति उनके
 मंदिर में "शीश" नवाता है| यहाँ आने
 वालों को उनकी शौर्य गाथा सुनाई
 जाती की किस तरह एक बंकर से
 दो श्तानिया लड़कियों की सहायता लेकर
 चीन की पूरी ब्रिगेड से वह 72 घंटे तक
 झूझते रहे| इनकी वीरता को चीन ने
 भी सलाम किया| भारत से नफरत करने
 वाले चीन ने इनका "तांबे" का "शीश"
 बनाकर भारत को सौंपा| ४ गढ़वाल
 रायफल का यह सेनानी केवल एकसाल पहले
 ही सेना में शामिल हुआ था| सेना में इस
 वीर जवान का सम्मान यह है की शहादत
 के बाद
 भी उनकी पदोनित्ति की जाती है और
 प्रोटोकॉल भी उसी के हिसाब से
 दिया जाता है| इस समय उन्हें लेफ्टिनेंट
 जेनरल का पद मिला हुआ है| जसवंत सिंह के
 बंकर में उनका बिस्तर,पानी का लोटा-
 ग्लास इत्यादि हर रोज साफ़
 किया जाता है| सेना की वहां मौजूद एक
 टुकड़ी उन्हें नियमानुसार सलामी देती है

utkarsh83:
my salute to the braveheart! son of the motherland.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
1962 वॉर में शहीद हुआ भारत माता का वो सपूत आज भी ड्यूटी पर तैनात->
 
........................................................................
 उनको सुबह तड़के साढ़े चार बजे बेड टी दी जाती है. उन्हें नौ बजे नाश्ता और शाम सात बजे रात का खाना भी मिलता है.चौबीस घंटे उनकी सेवा में भारतीय सेना के पाँच जवान लगे रहते हैं. उनका बिस्तर लगाया जाता है, उनके जूतों की बाक़ायदा पॉलिश होती है और यूनिफ़ॉर्म भी प्रेस की जाती है.
 इतनी आरामतलब ज़िंदगी है बाबा जसवंत सिंह रावत की, लेकिन आपको ये जानकर अजीब लगेगा कि वे इस दुनिया में नहीं हैं.
 .
 राइफ़ल मैन जसवंत सिंह भारतीय सेना के सिपाही थे, जो 1962 में नूरारंग की लड़ाई में असाधारण वीरता दिखाते हुए मारे गए थे. उन्हें उनकी बहादुरी के लिए मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था.
 सेला टॉप के पास की सड़क के मोड़ पर वह अपनी लाइट मशीन गन के साथ तैनात थे. चीनियों ने उनकी चौकी पर बार-बार हमले किए लेकिन उन्होंने पीछे हटना क़बूल नहीं किया.
 वो मोर्चे पर लड़े और ऐसे लड़े कि दुनिया हैरान रह गई, इससे भी ज्‍यादा हैरानी आपको ये जानकर होगी कि 1962 वॉर में शहीद हुआ भारत माता का वो सपूत आज भी ड्यूटी पर तैनात है। सेना के रजिस्‍टर में उनकी ड्यूटी की एंट्री आज भी होती है और उन्‍हें प्रमोश भी मिलते हैं। अब वो कैप्‍टन बन चुके हैं। इनका नाम है- कैप्‍टन जसवंत सिंह रावत। महावीर चक्र से सम्‍मानित फौजी जसवंत सिंह को आज बाबा जसवंत सिंह के नाम से जाना जाता है।
 उनके परिवार वाले जब ज़रूरत होती है, उनकी तरफ़ से छुट्टी की दर्खास्त देते हैं. जब छुट्टी मंज़ूर हो जाती है तो सेना के जवान उनके चित्र को पूरे सैनिक सम्मान के साथ उनके उत्तराखंड के पुश्तैनी गाँव ले जाते हैं और जब उनकी छुट्टी समाप्त हो जाती है तो उस चित्र को ससम्मान वापस उसके असली स्थान पर ले जाया जाता है.
 .
 ╰☆╮||जय जवान || || जय हिंद || ╰☆╮

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