Author Topic: Personalities of Uttarakhand/उत्तराखण्ड की प्रसिद्ध/महान विभूतियां  (Read 149676 times)

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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thanks Mahar bhai is amulya jaankaari ke liye. Captain Ram Singh Thakur jaise veer saputon ki janani Uttarakhand ki Veer bhumi ko mera pranaam.

पंकज सिंह महर

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1840  में जन्मे श्री बुद्धि वल्लभ पंत जी ने अल्मोड़ा अखबार के नाम से हिन्दी अखबार निकाला और उत्तर प्रदेश के पहले समाचार पत्र का गौरव भी इसी अखबार को मिला। यह 1870 की बात है, तब तक उ०प्र० से कोई हिन्दी अखबार प्रकाशित नहीं होता था। श्री पंत अखबार के संपादक थे, अखबार चलाने से पहले उनके द्वारा डिवोटिंग क्लब नामक संस्था का भी गठन किया गया था। समाज सेवा में उनकी अग्रणी भूमिका रही।

पंकज सिंह महर

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भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन में सक्रिय रहे पं० बद्रीदत्त जोशी जी का जन्म 25 जून, 1865 को ग्राम सेलाखोला में हुआ था, उन्होंने कुमाऊं में अपनी कानूनी सेवा दी। वह 1916  से 1928 तक सरकारी वकील रहे। उसके बाद अंग्रेजी हुकूमत के मनमाने फैसलों से क्षुब्ध होकर उन्होंने १९२८ से निजी प्रैक्टिस कर जनता को अपनी सेवायें दीं। वह १८९७ में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में कांग्रेस से वरिष्ठ नेता तेज बहादुर सप्रू से प्रभावित हुये और कांग्रेस के सदस्य बने। उनके द्वारा कानूनी तरीके से कांग्रेस के गठन में अहम भूमिका निभाई गई, वह अनेक संस्थाओं से भी जूड़े रहे, उनके द्वारा लिखी गई कई पुस्तकें आज भी कानूनी छात्रों का मार्गदर्शन कर रही हैं।

पंकज सिंह महर

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अल्मोड़ा जिले के ग्राम पाटिया में जन्मे श्री गौरी दत्त पांडे "गौर्दा" वैद्य परिवार से संबंधित थे। पर्वतीय भाषा के गीत-संगीत में इन्हें महारत हासिल थी। उन्हें १९३४ में जनता द्वारा स्वर्ण पदक देकर भी सम्मानित किया गया था, महात्मा गांधी के सम्पर्क में आने के बाद वह स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय हुये और स्वरचित गीतों से खादी का प्रचार करने लगे और लोगों में देश प्रेम की भावना जगाने लगे। १९२१ में वह कुली बेगार आन्दोलन के दौरान जेल भी गये। उनके कुमाऊनी भाषा में लिखे गये अनेक कविता संग्रह भी प्रकाशित हुये। १९३९ में स्वराज का सपना अपनी आंखों में संजोये गौर्दा परलोक सिधार गये।

पंकज सिंह महर

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बद्री दत्त पांडे जी का जन्म १५ फरवरी, १८८२ को हरिद्वार के कनखल नामक स्थान पर हुआ था, १८८९ में इनका परिवार अल्मोड़ा आ गया। उच्च शिक्षा प्राप्त कर श्री पांडे सर्वप्रथम देहरादून से प्रकाशित अंगेजी दैनिक कास्मोपालिटन के संपादक बने। फिर इलाहाबाद से प्रकाशित लीडर में सहायक व्यवस्थापक रहे। इसके बाद उन्होंने अल्मोड़ा आकर "अल्मोड़ा अखबार" का पुनः प्रकाशन शुरु किया और "शक्ति" अखबार निकालना प्रारम्भ किया। इन दोनों अखबारों के माध्यम से उन्होंने कुमाऊं (तत्कालीन सम्पूर्ण उत्तराखण्ड) की पीड़ा को उजागर करना शुरु किया। बागेश्वर का कुली बेगार आन्दोलन हो या कुमाऊं भर में स्वाधीनता संग्राम हो, हर जगह पांडे जी का सक्रिय योगदान रहा। उनको अनेकों बार जेल में भी डाला गया, जेल से भी वह अपने विचार लेखों के जरिये आम जनता तक पहुंचाते रहे। उनके इस अविस्मरणीय योगदान को देखते हुये "महात्मा गांधी" जी ने उन्हें "कुमाऊं केसरी" की उपाधि से विभूषित किया। उनके द्वारा कई पुस्तकें लिखीं गई, जिसमें "कुमाऊं का इतिहास" अग्रणी है।
      उनके सम्मान में आज भी कई स्थानों पर विद्यालय और चिकित्सालय स्थापित किये गये हैं।

पंकज सिंह महर

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विश्व प्रसिद्ध चिपको आन्दोलन के बारे में सभी जानते हैं लेकिन इस आन्दोलन की जननी गौरा देवी को कम ही लोग जानते हैं। इस आन्दोलन को विश्व पटल पर स्थापित करने वाली महिला गौरा देवी ने पेड़ों के महत्व को समझा इसीलिए उन्होंने आज से 38 साल पहले जिला चमोली के रैंणी गांव में जंगलों के प्रति अपने साथ की महिलाओं को जागरूक किया। तब पहाड़ों में वन निगम के माध्यम से ठेकेदारों को पेड़ काटने का ठेका दिया जाता था। गौरा देवी को जब पता चला कि पहाड़ों में पेड़ काटने के ठेके दिये जा रहे हैं तो उन्होंने अपने गांव में महिला मंगलदल का गठन किया तथा गांव की औरतों को समझाया कि हमें अपने जंगलों को बचाना है। आज दूसरे इलाके में पेड़ काटे जा रहे हैं हो सकता है कल हमारे जंगलों को भी काटा जायेगा। इसलिए हमें अभी से इन वनों को बचाना होगा। गौरा देवी ने कहा कि हमारे वन हमारे भगवान हैं इन पर हमारे परिवार और हमारे मवेशी पूर्ण रूप से निर्भर हैं। 25 मार्च सन् 1927 की बात है। उस दिन रैणी गांव के अधिकांश मर्द चमोली गये हुए थे। गांव में अधिकांश महिलायें ही थीं। उसी रोज वन निगम के ठेकेदार अपनी लेबर के साथ रैणी के जंगलों को काटने के लिए यहां पहुंचे। गौरा देवी को जब पता चला तो उन्होंने महिला मंगलदल की औरतों को इकट्ठा किया और उन्हें समझाया कि यदि आज हमारे गांव के जंगल यो ही काटे जायेंगे तो कल हमारा क्या होगा? हमारा जीवन इन्हीं वनों पर निर्भर है इसलिए हम कुछ भी करें लेकिन अपने वनों को नही कटने देंगे। साथ की महिलाओं ने कहा कि हम क्या कर सकते हैं? तो गौरा देवी ने कहा कि हम उन पेड़ों पर चिपक जायेंगी जिन्हें ठेकेदार के आदमी काटने आयेंगे। हम उन्हें कहंेगी कि पहले हमे मारो हमारेे टुकड़े करो तब इन पेड़ों को छुओ। गौरा देवी इसी संकल्प को लेकर अपनी सहेलियों के साथ जंगल में गई। जंगल में ठेकेदार के आदमी उस समय अपने लिए खाना पका रहे थे। गौरा देवी ने उन्हें कहा कि अपना खाना खाओ और चुपचाप यहां से निकल पड़ो यहां अगर तुमने पेड़ काटने की सोची तो ठीक नहीं होगा। ठेकेदार के एक आदमी ने गौरा देवी पर अपनी बन्दूक तान कर कहा कि तुम जैसी महिलाओं को हम रोज खदेड़ते हैं तुम चुपचाप अपने घर चली जाओ। गौरा देवी ने कहा कि ये जंगल हमारे देवता हैं और यदि हमारे रहते हुए किसी ने हमारे देवता पर हथियार उठाया तो फिर तुम्हारी खैर नहीं। कुछ देर बार जब ठेकेदार के आदमी पेड़ो को काटने पहंुचे तो गौरा ने अपनी सहेलियों सहित पेड़ों पर चिपट कर उन्हें ललकारा कि यदि तुमने इन पेड़ों को काटा तो बहुत बुरा होगा। यदि तुम्हें पेड़ काटने ही हैं तो पहले हमें मारो। काफी जद्दोजेहद के बाद ठेकेदार के आदमियों को जंगल से वापस अपने ड़ेरों में आना पड़ा। गौरा देवी जानती थीं कि आज तो ये लोग वापस चले गये हैं लेकिन फिर ये आयेंगे और इन पेड़ो को काटेंगे। इसलिए उनमें से कुछ महिलायें वहीं जंगल में डेरा ड़ालकर बैठ गई। रैणीं के लोगों को जब गौरा देवी के जुझारूपन तथा जंगलों के प्रति उनके लगाव को देखा तो वहां के लोग उनके साथ हो लिए। अगले दिन चमोली से लौटकर गांव के लोगों ने बैठक की और ठेकेदार तथा स्थानीय वन विभाग के अधिकारियों के सामने अपनी बात रखी। अन्ततोगत्वा यह तय हुआ कि रैंणी गांव का जंगल नहीं काटा जायेगा। गौरा देवी का जन्म जन्म चमोली जिले के लाता गांव में एक मरछिया गांव में हुआ। गौरा देवी जब 22 वर्ष की थीं तब उनके पति का देहान्त हो गया था। बाल विधवा गौरा देवी ने अपने नवजात शिशु के सहारे अपना जीवन अपने ससुराल में रहते हुए अपने बेटे की परवरिश करने के साथ-साथ अपने जीवन को जंगल और अपने गांव के लोगों के हितों के प्रति समर्पित कर दिया। रैणीं के जंगलों को बचाने के बाद गौरा देवी ने रैणीं महिला मंगलदल के माध्यम से क्षेत्र के कई गांवों में लोगों को प्रकृति तथा पर्यावरण के प्रति जागरूक किया। उन्होंने लोगों को बताया कि यदि हम आज अपने वनों तथा पेड़ों का संरक्षण करंेगे तो हमारे साथ-साथ हमारी आने वाली पीढ़ियों को इसका फायदा होगा। गौरा देवी ने वनों की सुरक्षा के अतिरिक्त महिलाओं को स्वावलम्बी बनाने के लिए कई प्रयास किये। गांव में महिलाओं को साक्षर बनाने के लिए कार्य किया। गौरा देवी की जन्म स्थली उत्तराखण्ड में आज चिपको से सीख लिये जाने की आवश्यकता है। मध्य हिमालय की शान्त वादियों में सदा से यहां का जन मानस तथा वनों के बीच घनिष्टता का संबध रहा है। यहां के लोगों का जीवन इन्हीं वनों पर आधारित रहा है। अपने जीवन यापन से लेकर अपने मवेशियों की उदर पूर्ति, ईंधन के रूप में लकड़ी आदि के लिए लोग सदा से ही जंगलों पर निर्भर रहे है। यह बात भी सच है कि समय-समय पर यहां के लोगों ने इन वनों को अनावश्यक रूप से हानि भी पहुंचाई यही कारण है कि आज मध्य हिमालय के वनों का क्षेत्रफल घटता जा रहा है। हालात आज काफी खराब हो चुके हैं कि यहां न तो वन बचे हैं और न नदियों में पानी। यहां का वातावरण जो जंगलों के कारण सदा ही सुहावना और वन तथा घन युक्त रहता था आज यहां के पहाड़ों में भी भयंकर गर्मी से दो-चार होना पड़ता है। वनों को हमारे जीवन में कितना महत्व है इस बात को अधिकांश लोग आज भी या तो समझ नहीं पाये हैं या समझते हुए भी वे लालच व स्वार्थवश इन वनों का विनाश जारी रखे हुए हैं। चिपको आन्दोलन को जन-जन तक पहुंचाने वाली वीरांगना गौरा देवी को हमारे नीति नियंताओं ने भुला दिया। चिपको आन्दोलन के नाम पर कई लोगों ने अपनी दुकानें खोलीं और कई तो विश्व पटल पर भी छा गये लेकिन गौरा देवी को उसकी सोच और दूरदर्शिता के लिए जो सम्मान दिया जाना चाहिए था वह अभी तक नहीं दिया गया है। आज जबकि गौरा देवी हमारे बीच नहीं हैं, उनके विचारों को आने वाली पीढ़ियां सदा ही याद रखेंगी तथा उससे सबक लेंगी। गौरा देवी को वनों से संबंधित नीति बनाने तथा जंगलों की सुरक्षा आदि के लिए आगे लाया जाता तो हिमालय की यह लौह महिला अपने अनुभवों तथा भावों के माध्यम से वनों की और अच्छे तरीके से सुरक्षा तथा व्यवस्था आदि के प्रति समाज का मार्ग दर्शन कर सकती थीं। गौरा देवी ने आजीवन अपने प्राकृतिक संसाधनों, जंगलों की सुरक्षा तथा संरक्षण के लिए संर्घष किया यद्यपि आज गौरा देवी के योगदान को भुला सा दिया गया है लेकिन आने वाली पीढ़ियां गौरा देवी के त्याग और साहस की गाथा को याद रखेंगी।

अरुण/Sajwan

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Mehta Ji

Kya aapko Veerbala Teelu Rauteli ke bare me kuch jankari hai.

Rajen

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सजवाण जी तीलू रौतोली के बारे में दिनेश बिजल्वान का ज्ञान काफी अच्छा है.

Mehta Ji

Kya aapko Veerbala Teelu Rauteli ke bare me kuch jankari hai.

पंकज सिंह महर

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THE MAN OF LETTERS : Pt. Devidutt Sharma
« Reply #138 on: February 17, 2009, 01:11:28 PM »


By: Rajshekhar Pant

Born sometime in the year 1883 in the family of an ordinary farmer in Mehragaon, in the vicinity of Bhimtal (Distt Nainital) he was armed just with a vernacular certificate, though  laved in twenty six languages besides herbal sciences and agronomy. His ardent desire of seeing his then a slave country fully emancipated was transmuted by him into a ceaseless effort to literate and enlightens the millions. Both destiny and his own kinsmen however, tricked him to such an extent that by the dusk of his tragically unfortunate life he was reduced to a psychotic. Pt Devidutt Sharma of Kumaon hills of course died over half a century ago almost unwept, unhonoured and unsung.   

An opportunity to enter into an intimate conversation with his matriculate grandson, who with his hairs turning grey came to me looking for a job, and later with the other members of his family, revealed the magnanimity of this gifted genius, who was a born teacher and was probably years ahead of his times.   

In the early years of the previous century when anti-British sentiments were percolating down the masses and the time was ripening fast for the emergence of a popular leader like Mahatma Gandhi, Pt Sharma – then a primary school teacher posted near Okhalkanda in the remote interior of Kumaon -thought of enlightening and integrating his ignorant and diversified country men by means of literacy. An inhabitant of the region where even school-going happened to be a luxury in those days, he first became well versed in twenty six languages spoken and written throughout the Indian subcontinent. His genius was then concentrated in developing a technique through which several languages could be taught simultaneously. In the dim light of Kerosine lamp he would spent his off school hours cutting with his knife different shapes from the soft bark of the pine trees. After so many sleepless nights he finally succeeded in developing thirty perfect shapes. Letters of twenty six different languages written in different scripts of Indian subcontinent like gujarati, kannada, tamil, telgu, tibetan, brahmi, kethi etc besides Hindi and English could be formed by piecing together the selected shapes from his collection. Himself devoid of proper formal education, Pt Sharma was fully aware of Child psychology.  So meticulously these shapes were designed that for children the exercise of making different letters from the given number of shapes could be preceded by piecing them together into hundreds of other figures like temples, cradles, flowers, and so many other symbols inherent in folk life.

It is quite interesting to note that Pt Sharma was busy perfecting his system almost at the same time when the famous Italian educationist Maria Montessori was toying with the idea of evolving a play-way method for educating young children. She is said to have started her project in the year 1907 and propounded her famous thesis in the year 1910. Pt Sharma got his finally perfected technique, which undoubtedly was as original as that of Maria Montessori, registered in Calcutta in the year 1910-11. Unlike the far better placed Maria Montessori this poor Pundit from the interiors of Kumaon could never start a Casadei-bambini (the house of children) of his own. He however, started a small Kindergarten at his village home in Mehragaon. The thirty different shapes there were made in wood, beautifully cut and polished, and were placed in a box entitled Kindergarten Box No 1. Education Directorates of the then United Province, Bengal, Bihar, MP, Punjab, Bombay Presidency etc patronized it. The innovative mind of Pt Sharma developed a series of boxes and several other visual aids for teaching alphabets, numbers, tables, addition, subtraction and so on in a play-way method.

While turning the pages of the old registers of his Kindergarten, I noticed a pile of citations and certificates awarded to him in the first half of the previous century. Stalwarts like Mahatama Gandhi, Pt Madan Mohan Malvia, Dr Rajendra Prasad and educationists like Powell Price had praised the originality and usefulness of his products. In its halcyon days the kindergarten of Pt Sharma was a well known name in the far off Peshawar, and Rangoon. Popularity of his boxes is reflected well in a booklet entitled Vidya Bhari Pustak which accompanied Kindergarten Box No 1. Twenty edition of this booklet were released in a short span and the last one consisted of twenty thousand copies.

Pt Sharma did also work for the revival of the ethnic medicine, industries based on locally available raw material agronomy and herbal science. He perfected the age old technique of making pahari-paper, fatless soap, ink and so many other things from the material locally available. Most of these articles were produced by him in a large scale for the masses. His book Himalaya Jadi Booti Prakash, the study of which was compulsory for the concerned officials in hills, happened to be once the bible of the forest department.

Propagation of literacy and enlightenment of his compatriots however, was his first love. For opening a High School at Bhimtal he offered to donate five acres of his ancestral land. As an articulate votary of women’s education, he fought hard for removing the disparities in the scholarships for boys and girls. Old-timers in the village still have the fond memories of Pt Sharma walking on the cobbled streets of Mehragaon. A sixteen spoke forty two inches umbrella with a thought for the day written on it in bold letters would invariably rest on his shoulders in all seasons while he counseled the fellow villagers to desist from defecating in open or not to keep the community water resources open or unfenced.

The ways of Pt Sharma obviously were disliked by most of his kin. Born with a mission larger than his own life and that of his family’s needs, he could never run his Kindergarten as a business enterprise. It always remained for him a means to serve the nation. Most of his earnings were spent in helping the poor and needy. His younger son, quite dearer to him became a psychiatric case and the elder one, his bitterest ever critic had to be disowned. Further, after independence the department of education also did not take any cognizance of him. All this must have been too much for this poor old man. Forsaken by his kin and reduced to utter poverty, he lost his mental balance and passed away silently sometime in the year 1956 as a tired soldier, who, in spite of being exhausted enough to win the battle never accepts his defeat.

The wallowing mire of time has engulfed Pt Sharma and his Kindegarten now. Even the District Institute of Educational Training (DIET) –where high sounding seminars and symposiums of NCERT and other such bodies are held quite frequently and which is just six km ahead of Meharagaon in Bhimtal – is not aware of this man of letters. His grandson however, has preserved in a rusted box the smoke sodden registers , stencils catalogues, correspondence, citations and other belongings of the Kindergarten Co. as a proud legacy of his grandfather.

“The time worn proverb that All’s well that ends well” says Dr Mathpal, the famous prehistoric archaeologist, “has never been repudiated with more vehemence than in the life of Pt Sharma.”  It is really difficult to find out any justification for the weal and woes which criss-crossed the life of this unfortunate genius. We Indians believe that those born with a saintly aura do not normally take rebirth and have to bear the pros and cons of their accumulated Karma during the course of their life. A bit cruel it may sound, yet there is no other way out to accept the wanton moves of malevolent destiny. 

 


साभार- http://pant.rediffiland.com/

पंकज सिंह महर

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उत्तराखंड का इतिहास अनेक महापुरुषों की गौरवमयी गाथाओं से भरा हुआ है इन्हीं महापुरुषों में से एक पन्थ्या दादा थे, जिन्होंने राजशाही की निरंकुशता के खिलाफ आत्मदाह कर स्वाभिमान की रक्षा की थी।
जानकारी के अनुसार पन्थ्या दादा का जन्म सत्रहवीं शताब्दी के उत्तारा‌र्द्ध में पौड़ी-गढ़वाल की कटूलस्यूं पट्टी के प्रसिद्ध गांव सुमाडी में हुआ था। बचपन में ही इनके माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण वह अपनी बहन की ससुराल फरासू में रहते थे। उस समय उत्ताराखंड का गढ़वाल क्षेत्र 52 छोटे राज्यों में बंटा हुआ था। इन्हीं गढ़पतियों में से एक शक्तिशाली राजा मेदनी शाह का वजीर सुमाड़ी का सुखराम काला था।

यहां प्रचलित लोकमान्यताओं के अनुसार राजा अजय पाल ने जब अपनी राजधानी चांदपुर गढ़ी से देवलगढ़ में स्थानांतरित की थी तो उन्होंने सुमाड़ी का क्षेत्र काला जाति के ब्राह्मणों को जो कि मां गौरा के उपासक थे, उन्हें दान में दे दिया था। यह भूमि किसी भी राजा द्वारा घोषित करों से मुक्त थी। चूंकि एकमात्र सुमाड़ी के ग्रामीण ही सभी राजकीय करों से मुक्त थे, इसलिए यह व्यवस्था राजा के कुछ दरबारियों को फूटी आंख नहीं सुहाती थी और साथ ही वजीर सुखराम काला से कुछ मतभेदों के चलते कुछ दरबारी भी असंतुष्ट थे। इन्हीं असंतुष्टों ने राजा को सुमाड़ी वालों पर भी कर लगाने के अतिरिक्त अन्य राजकीय कार्यो को करने के लिए उकसाया गया जिनमें दूणखेणी [बोझा ढोना] भी शामिल था। इसी काल में पूजा पर मेदनीशाह द्वारा दो अन्य कर स्यूंदी और सुप्पा भी लगाए गए।

मेदनीशाह ने राजदरबारियों के कहने पर वजीर सुखराम काला से मशविरा कर सुमाड़ी की जनता को बोझा ढोने और राजकीय करों को सुचारु रूप राजकोष में जमा करने का फरमान जारी कर दिया। सुमाड़ी में जब यह फरमान पहुंचा तो गाववासियों ने राजा का यह हुक्म मानने से इनकार कर दिया। राजाज्ञा दंडीव अपराध मानते हुए राजा ने पुन: फरमान भेजा कि या तो जनता राजकीय आदेश पर अतिशीघ्र अमल करे या गांव को अतिशीघ्र खाली कर दिया जाए। जब ग्रामीणों ने इन दोनों व्यवस्थाओं को मानने से इनकार कर दिया तो बौखलाहट में मेदिनीशाह ने दंडस्वरूप गांववालों को प्रतिदिन एक आदमी की बलि देने के लिए फरमान भेज दिया। इस ऐतिहासिक दंड को आज भी रोजा के नाम से जाना जाता है।

राजशाही का यह फरमान प्रजा के स्वाभिमान को भंग करने की एक साजिश थी जिससे निरपराध ग्रामीण बोझा ढोने को तैयार हो जाएं। इस फरमान के आते ही गांव में आतंक फैल गया। ग्रामीण राजतंत्र की निरंकुशता से भलीभांति परिचित थे और वे अच्छी तरह जानते थे कि प्रजा को राजा के आदेश की अवहेलना करने की कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। ग्रामीण किंकर्तव्यविमूढ़ होकर फरमान मानने या गांव छोड़ने को विवश होने लगे। राजा के इन आदेशों से गांव वालों में मतभेद उभरने लगे किंतु अंतत: उन्होंने अपने स्वाभिमान को बचाने की खातिर रोजा देना उचित समझा। इस घटनाक्रम के समय सुमाड़ी में अन्य जातियों के अलावा काला जाति के तीन प्रमुख परिवार, कुटुम्ब, उदाण तथा भगड़ एवं पैलू थे, जिनमें उदाण सबसे बड़े भाई का परिवार था। आज भी इन तीनों भाइयों के वंशज पितृ-पूजा के अवसर पर अपने पूर्वजों का नाम बड़ी श्रद्धा से लेते हैं। संभत: सबसे बड़े भाई का परिवार होने के कारण इस संकट की घड़ी में रोजा देने के लिए उदाण कुटुंब के सदस्य का आम सहमति से चुनाव किया गया होगा। दैववश जिस परिवार को सबसे पहले रोजा देना था उस परिवार में कुल तीन लोग पति, पत्नी और एक अबोध बालक ही थे और यह पन्थ्या के बड़े भाई का परिवार था। पन्थ्या इस सारे घटनाक्रम से अनभिज्ञ फरासू में अपनी बहन के साथ था।

लोकगीतों के अनुसार जिस दिन सुमाड़ी में पन्थ्या के भाई के परिवार को रोजा देने के लिए नियुक्त किया गया उस दिन पन्थ्या फरासू में गायों को जंगल में चुगा रहा था। थकान लगने के कारण उसे जंगल में ही कुछ समय के लिए नींद आ गई। इसी नींद में पन्थ्या को उनकी कुलदेवी मां गौरा ने स्वप्न में दर्शन देकर सुमाड़ी पर छाए भयंकर संकट से अवगत कराया। नींद खुलने पर पन्थ्या ने देखा कि लगभग शाम होने वाली है। इसलिए वह तुरंत गायों को एकत्र कर घर ले गया और बहन से सुमाड़ी जाने की अनुमति लेकर अंधेरे में ही प्रस्थान कर दिया। जैसे कि लोकगीतों में कहा जाता है:-

फरासू कू छूट्यो पन्थ्या, सौड़ू का सेमल।

सौड़ू का सेमल छुट्यो, जुगपठ्याली पन्थ्या।

फरासू से सुमाड़ी के बीच में ये दोनों स्थान सौड़ू एवं जुगपठ्याली, पहाड़ की चढ़ाई चढ़ते समय विश्राम के काम आते थे। घर पहुंचकर पन्थ्या को स्वप्न की सारी बातें सच होती हुई नजर आई और उन्होंने राजा के इस थोपे हुए फरमान को प्रजा का उत्पीड़न मानते हुए इसके विरोध में आत्मदाह करने का ऐलान कर दिया। तत्पश्चात् ग्रामीणों को स्वाभिमान के साथ जीने की शिक्षा देकर अगले दिन इस वीर बालक पन्थ्या ने मां गौरा के चरणों में अंतिम बार सिर नवाकर अग्निकुंड में अपने प्राणों की आहुति दे दी।

इस हृदयविदारक दृश्य को पन्थ्या की चाची भद्रादेवी सहन न कर सकीं और उन्होंने भी तत्काल कुंड में छलांग लगा दी और इसी समय बहुगुणा परिवार की एक सुकोमल बालिका ने भी इसी अग्निकुंड में अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। राजा मेदिनीशाह को जैसे ही इस दु:खद घटना से अवगत कराया गया तो उन्होंने अगले तीन दिनों तक रोजा न देने का फरमान सुमाड़ी भेजा। इस घटना को लेकर प्रजा में जहां विद्रोह होने का डर राजा को सताने लगा वहीं संयोगवश इसी बीच राज परिवार दैवीय प्रकोपों के आगोश में भी तड़पने लगा।

इन आकस्मिक संकटों से उबरने के लिए राजा ने राजतांत्रिक से सलाह मशविरा किया। राजतांत्रिक ने राजा को बताया कि यह दैविक विपत्तिायां ब्रह्म हत्याओं और एवं निरपराध पन्थ्या के आत्मदाह से उपजी हैं अत: इन आत्माओं की शांति के लिए इनकी विधिवत् पूजा अर्चना करना आवश्यक है। विपत्तिमें फंसे राजा ने तुरंत ही इस कार्य के लिए अपनी सहमति देकर यह कार्य संपन्न कराने के लिए तांत्रिक को सुमाड़ी भेज दिया जहां तांत्रिक ने परंपरागत वाद्यों के माध्यम से घड़याला लगाकर पन्थ्या और उसके साथ आत्मोत्सर्ग करने वाली सभी पवित्र आत्माओं का आह्वान किया और उन सभी की प्रतिवर्ष विधिवत् पूजा अर्चना करने का वचन दिया। यह पूजा आज भी पूस के महीने में निर्बाध रूप से बड़ी श्रद्धा के साथ मनाई जाती है।

साधारणतया पितृपक्षों में सभी हिंदुओं द्वारा अपने पूजनीय पितरों को अन्न और जल अर्पित किया जाता है, लेकिन सुमाड़ी संभवत: ऐसा पहला गांव है, जहां पर पितृपक्ष के अतिरिक्त पूस में भी सामूहिक रूप से एक दिन का चयन कर बड़ी श्रद्धा एवं भक्ति से अपने पूज्य पितरों की पूजा अर्चना अन्न एवं जल देकर की जाती है। इसी कड़ी में पन्थ्या काला राजशाही की निरंकुशता के खिलाफ आत्मदाह करने वाले प्रथम ऐतिहासिक बालक थे जिन्हें सुमाड़ी की जनता प्यार अविराम रूप से मिलता चला आ रहा है।

सौजन्य : दैनिक जागरण 

 

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