Author Topic: Personalities of Uttarakhand/उत्तराखण्ड की प्रसिद्ध/महान विभूतियां  (Read 149742 times)

हेम पन्त

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Panthya Dada ka ullekh Narendra Negi ji ke "Beeru Bhadu ku Desh" gaane mein bhi hai...

पंकज सिंह महर

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वह 1984 की गर्मियों के दिन थे और दिलकश नैनीताल हमेशा की तरह सैलानियों की गहमा-गहमी में डूबा हुआ था। पहाड़ के बाकी हिस्से में उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी के `नशा नहीं रोजगार दो´ आंदोलन की बयार बह रही थी। इस सिलसिले में 17 जून को मंडल मुख्यालय में जोरदार प्रदर्शन की तैयारियां चल रही थीं। इन्हीं दिनों मैंने कुमाऊं विश्वविद्यालय के मुख्य परिसर में एडमीशन लिया था। हम `चिपको´ के जमाने से वाहिनी को देखते-सुनते आए थे और इसके घुमंतू युवा नेतृत्व का असर मुझ जैसे देहाती नौजवानों को इसके जुलूस-प्रदर्शनों में खींच लाता था। दूर-दराज से आए स्त्री-पुरुषों के हुजूम तल्लीताल बस स्टेशन में जुटकर माल रोड की ओर बढ़ रहे थे। फिल्मी मिजाज की सरोवर नगरी में स्वभावत: निरीह दिखाई पड़ने वाले `अपने´ लोगों का भारी तादाद में मुfट्ठयां ताने हुए जुटना रोमांचित करता था। अलग रहकर देखना संभव नहीं हुआ तो पूरी श्रद्धा-भक्ति के साथ मैं भी जुलूस में समाहित हो गया।
माल रोड से गुजरते हुए अधेड़ उम्र के एक फटेहाल शख्स ने बरबस मेरा ध्यान खींचा। गले में हस्तलिखित तख्ती लटकाए वह गंभीर मुद्रा में जुलूस में चले जा रहे थे। अपने साइज से बड़ा बरसों से बे-धुला हाफ स्वेटर, मुड़ी-तुड़ी पैंट और इसी श्रेणी के थेगलीदार जूते। आंखों पर ज्यादा पावर वाला पुराना सा चश्मा। तख्ती भी गत्ते के बेकार डिब्बे को खोल कर बनाई गई थी। अलबत्ता, लिखावट निहायत खूबसूरत और उस पर लिखी इबारत इतनी जानदार कि कोई एक चौथाई सदी बीत जाने के बाद आज भी मुझे जस की तस याद हैं:-

करना ही होगा एक इंतखाब।
आदमी की जिंदगी या सुरा-शराब।।


उन्हें देख मैं अचंभित था। थोड़ा सकुचाते हुए मैंने बातचीत की कोशिश की। अपने बारे में उन्होंने इतना भर बताया कि वह यहां सीआरएसटी इंटर कालेज में अंग्रेजी पढ़ाते हैं। बाकी वह शराब माफिया और सरकार के खिलाफ अपना गुस्सा जताते रहे। जहां तक मुझे याद है, इस संक्षिप्त बातचीत के दरम्यान उन्होंने मेरा परिचय जानने की भी कोशिश नहीं की थी। अवस्थी मास्साब से यह मेरी पहली मुलाकात थी। नैनीताल में मुश्किल से दो महीने और रहना हो पाया और पढ़ाई-लिखाई के लिए मैं अन्यत्र चला गया। जीवन की गाड़ी ने ऐसी पलटी खाई कि तीन साल बाद राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ता की हैसियत से मैं दोबारा नैनीताल लौट आया।
पहली शरणस्थली बनी जानेमाने रंगकर्मी और प्रगतिशील शायर जहूर आलम साहब की कपड़े की छोटी सी दुकान- इन्तखाब। इसे नैनीताल का अनौचारिक सांस्कृतिक केंद्र समझ सकते हैं! या फिर उत्तर भारत की स्थापित रंग संस्था `युगमंच´ का आफिस। शहर और बाहर के रंगकर्मी, कलाकार, कवि-लेखक यहां हाजिरी लगाना नहीं भूलते (मैंने तो यहां जाने कितनी बार रात भी गुजारी है)। अवस्थी मास्साब लगभग रोजाना दोपहर के वक्त यहां आकर बैठते थे। संगीत-नाटकों में उनकी गहरी रुचि थी और जहां तक याद पड़ता है वह युगमंच के अध्यक्ष रह चुके थे। हालांकि इन्तखाब की अड्डेबाजी में मैंने उन्हें कभी खुलकर बात-बहस करते नहीं देखा, लेकिन तमाम विषयों पर उनकी संक्षिप्त टिप्पणियां बेहद सार-गभिZत और चुटीली होती थीं। यदाकदा कोई मजेदार बात कहते तो उनकी आंखें खुशी से झपकने लगतीं। बहस-बकलोल में वह अक्सर चुप्पी साधे रहते मगर लोकतंत्र के लिए आवाज उठाने का उन जैसा साहस बहुत कम लोगों में दिखाई देता है। वह `एकला चलो रे´ के मुरीद थे और तानाशाही का प्रतिवाद करना हो तो किसी के साथ आने का इंतजार नहीं करते थे।
एक घटना संभवत: हर नैनीतालवासी को याद रहेगी। किसी बात पर पुलिस ज्यादाती के खिलाफ सीआरएसटी कालेज के छात्रों-अध्यापकों का गुस्सा फूट पड़ा और इसके बाद हुई पुलिस फाइरिंग में एक चूरन बेचने वाले की जान चली गई। फिर क्या था, जैसे पूरा नैनीताल उबल पड़ा। अवस्थी मास्साब बौखलाए पुलिस वालों को समझाने सीधे थाने पहुंच गए और जब लौटे तो उनका मुंह लहूलुहान था। पता चला कि एक बदमिजाज दरोगा ने वहां पड़े पत्थरों से उनकी यह दुर्दशा कर दी। इस बात पर भी खूब बावेला मचा लेकिन अवस्थी मास्साब का पोस्टर विरोध कभी थमा नहीं।
नैनीताल में बिल्डरों की छेड़छाड़ हो या आस-पास के गांव वालों पर प्राधिकरण के फरमानों का कहर, वह किसी आंदोलन के उगने का इंतजार नहीं करते थे। चुभने वाले स्लोगन की तख्ती गले में टांगे अकेले बाजार-बाजार घूमते अवस्थी मास्साब जैसे नैनीताल में प्रतिवाद के प्रतीक बन गए थे। उनकी इन मौन टिप्पणियों की मार से कई बार किसी तुनकमिजाज अभिजन या अफसर की त्योरी चढ़ जाती तो उनके चेहरे पर बच्चों जैसी शरारत भरी मुस्कान छा जाती। बाबरी मfस्जद विध्वंस के दिनों में ऐसे ही एक स्लोगन से बौखलाकर एबीवीपी के एक दबंग छात्र नेता ने उन पर हमला बोल दिया था। उत्तराखण्ड आंदोलन के तूफानी दौर में वह लगभग रोज नया स्लोगन गले में लटकाकर घूमते थे। मुजफरनगर कांड के बाद जब शहर का माहौल अचानक बेहद हिंसक और दहशतजदा बन गया, अवस्थी मास्साब हमेशा की तरह तख्ती लटकाए माल रोड में टहलते नजर आए:

वह जालिम सितमगर!
न जाने कब तक रहेगा वो कायम
कितनों को मारकर मरेगा मुलायम!!


अपने समय के बेहद निष्ठावान शिक्षक, रंगकर्मी और सबसे ऊपर लोकतंत्र के जांबाज प्रहरी शरत चंद्र अवस्थी बिना कोई लकीर छोड़े एक दिन हमारे बीच से हमेशा के लिए चले गए। वह किसी पार्टी या संगठन के कार्यकर्ता नहीं थे और न ही कोई सेलेब्रिटी। उन्होंने कोई `चमकदार´ काम नहीं किया और न ही किसी ईनाम-पुरस्कार से नवाजे गए। नेपाल की सीमा से सटे एक दूरस्थ गांव में जन्मे हिंदुस्तान के निहायत आम आदमी थे अवस्थी मास्साब। लेकिन आप चाहे मानें या नहीं, दुनिया में लोकतंत्र की सांसें उनकी जैसी राहों में चलने वालों की जिद पर ही टिकी हैं।


साभार-http://bugyaal.blogspot.com/

Devbhoomi,Uttarakhand

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AGAR KISI KE PAAS TILU TAUTELI KE BAARE MAIN KUCH MALUM HO TO PLEASE POST KAREN

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SRIDEV SUMAN

Sridev Suman was the best known of a group of freedom fighters to operate in Tehri State. Born in 1916, Suman was largely self-taught. He became a key organizer and agitator for civil rights in Tehri while serving as an editor and writer for several underground presses. He was instrumental in the formation of several organizations, from the Himalaya Seva Sangh, to the Himalayan States People's Federation and Garhdesh Seva Sangh.

In 1942 at the height of tax protests, Suman and many other activists were jailed. Late in 1943, he was tried for treason and jailed again. The ghastly conditions of Tehri's infamous prisons led him to lead a fast unto death in protest. After 84 days, he died a martyr's death, inspiring a generation of activists to take up the banner of liberation that eventually toppled the princely state.
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श्री देव सुमन

यह वीर है उस पुण्य भूमि का, जिसको मानसखंड , केदारखंड, उत्तराखंड कहा जाता है, स्वतंत्रता संग्रामी श्री देब सुमन किसी परिचय के मोहताज़ नही हैं, पर आज की नई पीड़ी को उनके बारे में, उनके अमर बलिदान के बारे में पता होना चाहिए, जिससे उन्हें फक्र हो इस बात पर की हमारी देवभूमि में सुमन सरीखे देशभक्त हुए हैं।
सुमन जी का जनम १५ मई १९१५ या १६ में टिहरी के पट्टी बमुंड, जौल्ली गाँव में हुआ था, जो ऋषिकेश से कुछ दूरी पर स्थित है। पिता का नाम श्री हरी दत्त बडोनी और माँ का नाम श्रीमती तारा देवी था, उनके पिता इलाके के प्रख्यात वैद्य थे। सुमन का असली नाम श्री दत्त बडोनी था। बाद में सुमन के नाम से विख्यात हुए। पर्ख्यात गाँधी- वादी नेता, हमेशा सत्याग्रह के सिधान्तों पर चले। पूरे भारत एकजुट होकर स्वतंत्रता की लडाई लड़ रहा था, उस लडाई को लोग दो तरह से लड़ रहे थे कुछ लोग क्रांतिकारी थे, तो कुछ अहिंसा के मानकों पर चलकर लडाई में बाद चढ़ कर भाग ले रहे थे, सुमन ने भी गाँधी के सिधान्तों पर आकर लडाई में बद्चाद कर भाग लिया। सुन्दरलाल बहुगुणा उनके साथी रहे हैं जो स्वयं भी गाँधी वादी हैं।


परजातंत्र का जमाना था, लोग बाहरी दुश्मन को भागने के लिए तैयार तो हो गए थे पर भीतरी जुल्मो से लड़ने की उस समय कम ही लोग सोच रहे थे और कुछ लोग थे जो पूरी तरह से आजादी के दीवाने थे, शायद वही थे सुमन जी, जो अंग्रेजों को भागने के लिए लड़ ही रहे थे साथ ही साथ उस भीतरी दुश्मन से भी लड़ रहे थे। भीतरी दुश्मन से मेरा तात्पर्य है उस समय के क्रूर राजा महाराजा। टिहरी भी एक रियासत थी, और बोलंदा बद्री (बोलते हुए बद्री नाथ जी) कहा जाता था राजा को। श्रीदेव सुमन ने मांगे राजा के सामने रखी, और राजा ने ३० दिसम्बर १९४३ को उन्हें गिरफ्तार कर दिया विद्रोही मान कर, जेल में सुमन को भरी बेडियाँ पहनाई गई, और उन्हें कंकड़ मिली दाल और रेत मिले हुए आते की रोटियां दी गई, सुमन ३ मई १९४४ से आमरण अन्न शन शुरू कर दिया, जेल में उन्हें कई अमानवीय पीडाओं से गुजरना पड़ा, और आखिरकार जेल में २०९ दिनों की कैद में रहते हुए और ८४ दिनों तक अन्न शन पर रहते हुए २५ जुलाई १९४४ को उन्होंने दम तोड़ दिया। उनकी लाश का अन्तिम संस्कार न करके भागीरथी नदी में बहा दिया । मोहन सिंह दरोगा ने उनको कई पीडाएं कष्ट दिए उनकी हड़ताल को ख़त्म करने के लिए कई बार पर्यास किया पर सफल नही हुआ।


कहते हैं समय के आगे किसी की नही चलती वही भी हुआ, सुमन की कुछ मांगे राजा ने नही मानी, सुमन जो जनता के हक के लिए लड़ रहे थे राजा ने ध्यान नही दिया, आज न राजा का महल रहा, न राजा के पास सिंहासन। और वह टिहरी नगरी आज पानी में समां गई है। पर हमेशा याद रहेगा वह बलिदान और हमेशा याद आयेगा क्रूर राजा।
और अब मेरे शोध से लिए गए कुछ तथ्य:-
सुमन को कुछ लोग कहते हैं की उनकी लडाई केवल टिहरी रियासत के लिए थी, पर गवाह है सेंट्रल जेल आगरा से लिखी उनकी कुछ पंक्तियाँ की वह देश की आज़ादी के लिए भी लड़ रहे थे।
"आज जननी उगलती है अगनियुक्त अंगार माँ जी,
आज जननी कर रही है रक्त का श्रृंगार माँ जी।
इधर मेरे मुल्क में स्वधीनता संग्राम माँ जी,
उधर दुनिया में मची है मार काट महान माँ जी। "
उनकी शहादत को एक कवि ने श्रधान्जली दी है-
"हुवा अंत पचीस जुलाई सन चौवालीस में तैसा, निशा निमंत्रण की बेला में महाप्राण का कैसा?
मृत्यु सूचना गुप्त राखी शव कम्बल में लिपटाया, बोरी में रख बाँध उसको कन्धा बोझ बनाया।
घोर निशा में चुपके चुपके दो जन उसे उठाये, भिलंगना में फेंके छाप से छिपते वापस आए।"
वीर चंद्र सिंह गढ़वाली जी ने सुमन जी को याद करते हुए लिखा था-
"मै हिमालयन राज्य परिषद् के प्रतिनिधि के रूप में सेवाग्राम में गाँधी जी से १५ मिनट तक बात करते हुए उनसे मिला था, उनकी असामयिक मृत्यु टिहरी के लिए कलंक है। "
और सुंदर लाल बहुगुणा जी ने कहा-
"सुमन मरा नही मारा गया, मेने उसे घुलते-घुलते मरते देखा था। सुमन ने गीता पड़ने को मांगी थी पर नही दी गई, मरने पर सुमन का शव एक डंडे से लटकाया गया, और उसी तरह नदी में विसर्जित कर दिया गया।"
परिपूर्ण नन्द पेन्यूली ने कहा था-
"रजा को मालिक और स्वयं को गुलाम कहना उन्हें अच्छा नही लगा, जबकि राजा और प्रजा में पिता पुत्र का सम्बन्ध होता है।"
अपनी पत्नी विनय लक्ष्मी को उन्होंने कनखल से पत्र लिखा-
" माँ से कहना मुझे उनके लिए छोड़ दें जिनका कोई बेटा नही।"
और साथ में खर्चे की कमी के लिए उन्होंने लिखा-
"राह अब है ख़ुद बनानी, कष्ट, कठिनाइयों में धेर्य ही है बुद्धिमानी"

Devbhoomi,Uttarakhand

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HEMVATI NANDAN BAHUGUNA

Hemvati Nandan Bahuguna was born on 25th April, 1919 in Bughani village of district Pauri Garhwal. In 1942, he led the Quit India Movement at Allahabad. As British Government declared a prize of Rs. 10,000 on catching him live or dead, he went underground to continue the freedom struggle but later arrested. He was tortured and sentenced to rigorous imprisonment by the Britishers but released in 1945 due to illness. After independence, he held a number of important portfolios in state and central governments. This great leader was died on 17th March 1989.

grate anubhavji

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Govind Ballabh Pant

[edit] Early life
As a lawyer in Kashipur, Pant began his active work against the British Raj in 1914, when he helped a local parishad, or village council, in their successful challenge of a law requiring locals to provide free transportation of the luggage of travelling British officials. In 1921, he entered politics and was elected to the Legislative Assembly of the United Provinces of Agra and Oudh.


[edit] In the freedom struggle
In 1930, he was arrested and imprisoned for several weeks for organizing a Salt March inspired by Gandhi's earlier actions. In 1933, he was arrested and imprisoned for seven months for attending a session of the then-banned provincial Congress. In 1935, the ban was rescinded, and Pant joined the new Legislative Council. During the Second World War, Pant acted as the tiebreaker between Gandhi's faction, which advocated supporting the British Crown in their war effort, and Subash Chandra Bose's faction, which advocated taking advantage of the situation to expel the British Raj by any means necessary.

In 1940, Pant was arrested and imprisoned for helping organize the Satyagraha movement. In 1942 he was arrested again, this time for signing the Quit India resolution, and imprisoned until March of 1945, at which point Jawaharlal Nehru had to plead for Pant's release, on grounds of failing health.


[edit] Post-independence
After independence in 1947, Pant became Chief Minister of the United Provinces, which he renamed Uttar Pradesh. Among his achievements in that position was the abolition of the zamindari system. He was called on to succeed Kailash Nath Katju as Home Minister in 1955; in that position, his chief achievement was the establishment of Hindi as an official language of the central government and a few states. In 1957, he was awarded the Bharat Ratna.



At the entrance Hall to the Lok Sabha Outer Lobby is placed the 9-feet high bronze statue of Pandit Govind Ballabh Pant, a distinguished freedom fighter, an able administrator, an orator non pareil, a staunch nationalist and an outstanding parliamentarian.  He played a very significant role in the Indian National Congress for more than three decades and was an untiring participant in both the Non-Cooperation Movement and the Civil Disobedience Movement.  He was a member of the United Provinces Legislative Council and the Prime Minister of the State.  He was also a member of the Central Legislative Assembly and the Constituent Assembly.  As Chief Minister of Uttar Pradesh, he played a key role in the development of the State.  When he became the Union Home Minister, he proved once again his administrative acumen.

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HEMVATI NANDAN BAHUGUNA

Hemvati Nandan Bahuguna was born on 25th April, 1919 in Bughani village of district Pauri Garhwal. In 1942, he led the Quit India Movement at Allahabad. As British Government declared a prize of Rs. 10,000 on catching him live or dead, he went underground to continue the freedom struggle but later arrested. He was tortured and sentenced to rigorous imprisonment by the Britishers but released in 1945 due to illness. After independence, he held a number of important portfolios in state and central governments. This great leader was died on 17th March 1989.

GRATE BHAIJI

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HEMVANTI NANDAN BAHU GUNA

SUNDAR LAL BAHU GUNA



पंकज सिंह महर

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Personalities of Uttarakhand/Bhakt Darshan भक्त दर्शन
« Reply #148 on: May 01, 2009, 12:38:37 PM »
Bhakt Darshan


Bhakt Darshan (1912-1991) served Garhwal as Member of Parliament in the 1st, 2nd, 3rd, and 4th Lok Sabha (India) as well as a Deputy Minister and Minister of State in Lal Bahadur Shastri's and Indira Gandhi's governments.

Early life

Bhakt Darshan, the youngest son of Gopal Singh Rawat of Musethi tea estate in Garhwal, was born in 1912. In December 1911 the third and last Delhi Durbar was held to commemorate the coronation of King George V and Queen Mary as Emperor and Empress of India. In their honour Gopal Singh Rawat named his youngest son Raj Darshan, a name which was later changed to Bhakt Darshan when Bhakt Darshan grew up and under the influence of Mahatma Gandhi, Jawahar Lal Nehru and Gobind Ballabh Pant joined the Indian Independence Movement that aspired to India's freedom and statehood in the comity of nations.


Education

Educated at Nobel Laureate Rabindranath Tagore's Visva-Bharati University Santiniketan, the alma mater of several prominent personalities of the nationalist movement in India, most notably Indira Gandhi, a former prime minister of India, Satyajit Ray, Amartya Sen, Bhakt Darshan joined the freedom struggle at an early age of 14 and suffered imprisonment for several years.


Member of Parliament

Bhakt Darshan was elected the first MP or Member of Parliament from Garhwal (Lok Sabha constituency) when India got its freedom and held the first general elections in the history of modern India in 1952. He represented Garhwal constituency of Uttar Pradesh successively for four terms during First, Second, Third and Fourth Lok Sabha between 1952-70, and gracefully resigned from active politics due to defection in Indian National Congress.


Union Minister

He was a noted parliamentarian and an educationist as well. As a Union Minister during 1963-71 he held with distinction various important portfolios. He was Deputy Minister for Education in Pt. Jawaharlal Nehru's, Lal Bahadur Shastri's cabinets, and later Minister of State for Transport and Minister of State for Education in Mrs Indira Gandhi's cabinet. He was the first Chairman of the Kendriya Vidyalaya Sangathan (Central School Organizaion). He left politics in 1971 when his beloved party Indian National Congress, which under the leadership of Gandhi, Nehru, Patel, and other national leaders brought the long-awaited freedom to India, was divided into two factions due to inter-party ideological struggle between the groups headed by Indira Gandhi on the one hand and party hard liners such as Morarji Desai on the other. Bhakt Darshan didn't want to take sides, so he left to lead a private life in Dehradun.

During his long public life, Bhakt Darshan took keen interest in the development of Garhwal, especially in the matters of education and general welfare and upliftment of the poor and was associated with several organizations connected with the development of the region.

He was deeply involved in the promotion of Hindi, he served as Deputy Chairman Hindi Sansthan Utttar Pradesh; Vice Chancellor Kanpur University; Deputy Chairman U.P. Khadi and Gram Udiyog Board, and was intimately connected with various social and cultural organizations.

A promoter of healthy journalism. he was Founder-Editor of 'Karma Bhumi'. a Hindi weekly. He had two publications--'Suman-Smriti-Granth' and 'Garhwal-Ki-Diwangat Vibhutiyan' to his credit.

A renowned and dedicated social and political worker, he truly believed in the Gandhian way of life and organised the Kasturba Gandhi National Memorial Fund. He worked relentlessly for the welfare of ex- servicemen and serving soldiers and also established Azad Hind Fauj Relief Fund.

His eldest brother Ganga Singh Rawat served as an administrator in Garhwal and Kumaon before and after Indian Independence. At the age of 17 he got married to Savitri Devi and was later blessed with seven children: Jag Darshan, Priya Darshan, Hari Darshan, Sant Darshan, Chandra Darshan, Meera Darshan and Neera Darshan.

Shri Bhakt Darshan died on 30 April, 1991 at the age of 79.

from- http://en.wikipedia.org/wiki/Bhakt_Darshan

हेम पन्त

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www.radionaama.blogspot.com से साभार


ये आकाशवाणी है ! अब आप देवकीनंदन पाण्डे से समाचार सुनिये
किसी ज़माने में रेडियो सेट से गूँजता ये स्वर घर-घर का जाना-पहचाना होता था। ये थे देवकीनंदन पाण्डे अपने ज़माने के जाने-माने समाचार वाचक। अपने जीवन काल में ही पाण्डेजी समाचार वाचन की एक संस्था बन गए थे। उनके समाचार पढ़ने का अंदाज़, उच्चारण की शुद्धता, स्वर की गंभीरता और गुरुता और प्रसंग अनुरूप उतार-चढ़ाव श्रोता को एक रोमांच की स्थिति में ले आता था। कानपुर में पैदा हुए देवकीनंदनजी के पिता शिवदत्त पाण्डे अपने क्षेत्र के जाने-माने डॉक्टर थे। बेहद रहम दिल और आधी रात को उठकर किसी भी मरीज़ के लिए मुफ़्त में इलाज करने को तत्पर। मूलरूप से पाण्डे परिवार कुमाऊँ का था। शायद यही वजह है कि पाण्डेजी के स्वर में एक पहाड़ी ख़नक सुनाई देती थी।

देवकीनंदन पाण्डेजी अपने स्कूली दिनों में कभी भी मेघावी छात्र नहीं रहे लेकिन वे कभी भी अपनी कक्षा में फेल नहीं हुए। घूमने-फिरने, नाटक करने और खेलकूद में उनकी गहन दिलचस्पी थी। पाठ्य पुस्तके उन्हें कभी भी रास नहीं आईं किंतु नाटक, उपन्यास, कहानियॉं, जीवन चरित्र और इतिहास की पुस्तकें उन्हें हमेशा से आकर्षित करती थीं। उनकी आरंभिक शिक्षा अल्मोड़ा में हुई। अल्मोड़ा यानी हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं के ऊपर बसा नगर । पाण्डेजी के पिता पुस्तकों के अनन्य प्रेमी थे। इस वजह से घर में किताबों का अच्छा ख़ासा संकलन थाजिससे पाण्डेजी को पठन-पाठन में दिलचस्पी होने लगी।


कॉलेज के ज़माने में अंग्रेज़ी अध्यापक विशंभर दत्त भट्ट देवकीनंदन पाण्डे पर अगाध स्नेह रखते थे। उन्होंने पहले-पहल पाण्डेजी की आवाज़ की विशिष्टता को पहचाना और सराहा। उन्होंने अपने इस छात्र को उसकी प्रतिभा का आभास करवाया। भट्टजी पाण्डेजी को रंगमंच के लिये प्रोत्साहित करने लगे। अलमोड़ा में पाण्डेजी ने कई दर्ज़न नाटकों में हिस्सा लिया इससे उनके आत्मविश्वास में मज़बूती आई।

४० के दशक में अल्मोड़ा जैसी छोटी जगह में केवल दो रेडियो थे। एक स्कूल के अध्यापक जोशीजी के घर और दूसरा एक व्यापारी शाहजी के घर। युवा देवकीनंदन पाण्डे को दूसरे महायुद्ध के समाचारों को सुनकर बहुत रोमांच होता। वे प्रतिदिन सारा काम छोड़कर समाचार सुनने जाते। उन दिनों जर्मनी रेडियो के दो प्रसारकों लॉर्ड हो हो और डॉ. फ़ारूक़ी का बड़ा नाम था। दोनों लाजवाब प्रसारणकर्ता थे। उनकी आवाज़ हमेशा पाण्डेजी के दिलो-दिमाग़ में छाई रही। सन् १९४१ में बी.ए. करने के लिए पाण्डेजी इलाहबाद चले आए जहॉं का विश्वविद्यालय पूरे देश में विख्यात था। १९४३ में पाण्डेजी ने लख़नऊ में एक सरकारी नौकरी कर ली और केज्युअल आर्टिस्ट के रूप में एनाउंसर और ड्रामा आर्टिस्ट हेतु उनका चयन रेडियो लखनऊ पर हो गया। इस स्टेशन पर उर्दू प्रसारणकर्ताओं का बोलबाला था। पाण्डेजी हमेशा मानते रहे कि इस विशिष्ट भाषा के अध्ययन और सही उच्चारण की बारीकियों का अभ्यास उन्हें रेडियो लखनऊ से ही मिला।मुझे यह लिखने में कोई झिझक नहीं है कि देवकीनंदन पाण्डे जैसे प्रसारणकर्ताओं की वजह से ही हिंदी को आकाशवाणी जैसे अंग्रेज़ी परिवेश में मान मिलना प्रांरभ हुआ.

देश के आज़ाद होते ही आकाशवाणी पर समाचार बुलेटिनों का सिलसिला प्रारंभ हुआ। दिल्ली स्टेशन पर अच्छी आवाज़ें ढूंढ़ने की पहल हुई। देवकीनंदन पाण्डे ने डिस्क पर अपनी आवाज़ रेकार्ड करके भेजी। फ़रवरी १९४८ में समाचार वाचकों का चयन किया गया। उम्मीदवारों की संख्या थी तीन हज़ार और बिला शक देवकीनंदन पाण्डे का नाम सबसे ऊपर था। आकाशवाणी लखनऊ पर मिले उर्दू के अनुभव ने उन्हें हमेशा स्पष्ट समाचार वाचन में लाभ दिया। पाण्डेजी मानते थे कि निश्चित रूप से देश की भाषा हिन्दी है लेकिन वाचिक परंपरा में उर्दू के शब्दों के परहेज़ नहीं किया जाना चाहिए। हिन्दी-उर्दू की चाशनी सुनने वालों के कान में निश्चित ही रस घोलती है।

१९४८ में आकाशवाणी में हिन्दी समाचार प्रभाग की स्थापना हुई। इसमें आले हसन (जो कालांतर में बीबीसी उर्दू सेवा के विश्व विख्यात प्रसारणकर्ता माने गए) सुरेश अवस्थी, बृजेन्द्र, सईदा बानो और चॉंद कृष्ण कौल। लाज़मी था कि उस समय के समाचार वाचकों को हिन्दी-उर्दू दोनों आना ज़रूरी था। आले हसन का हिन्दी वाचन अद्भुत था। वे बहुत क़ाबिल अनाउंसर और न्यूज़ रीडर थे। शुरू में मूल समाचार अंग्रेज़ी में लिखे जाते थे जिसका अनुवाद वाचक को करना होता था। अशोक वाजपेयी, विनोद कश्यप और रामानुज प्रताप सिंह को भी अनुवाद करने के लिये मजबूर किया गया लेकिन काफ़ी जद्दोजहद के बाद उन्हें इस परेशानी से मुक्ति मिली और हिन्दी समाचार हिन्दी में ही लिखे जाने लगे। यहॉं ये भी उल्लेखनीय है कि मेल्विन डिमेलो और चक्रपाणी जैसे धुरंधर अंग्रेज़ी प्रसारणकर्ताओं से सामने जिन लोगों ने हिन्दी प्रसारण का लोहा मनवाया उसमे ंदेवकीनंदन पाण्डे की भूमिका को बिसराया नहीं जा सकता।

देवकीनंदन पाण्डे समाचार प्रसारण के समय घटनाक्रम से अपने आपको एकाकार कर लेते थे और यही वजह थी उनके पढ़ने का अंदाज़ करोड़ों श्रोताओं के दिल को छू जाता था। उनकी आवाज़ में एक जादुई स्पर्श था। कभी-कभी तो ऐसा लगता था कि पाण्डेजी के स्वर से रेडियो सेट थर्राने लगा है। आज जब टीवी चैनल्स की बाढ़ है और एफ़एम रेडियो स्टेशंस अपने अपने वाचाल प्रसारणों से जीवन को अतिक्रमित कर रहे हैं ऐसे में देवकीनंदन पाण्डे का स्मरण एक रूहानी एहसास से गुज़रना है। तकनीक के अभाव में सिर्फ़ आवाज़ के बूते पर अपने आपको पूरे देश में एक घरेलू नाम बन जाने का करिश्मा पाण्डेजी ने किया। सरदार पटेल, लियाक़त अली ख़ान, मौलाना आज़ाद, गोविन्द वल्लभ पंत, पं. जवाहरलाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण के निधन का समाचार पाण्डेजी के स्वर में ही पूरे देश में पहुँचा। संजय गॉंधी के आकस्मिक निधन का समाचार वाचन करने के लिये सेवानिवृत्त हो चुके पाण्डेजी को विशेष रूप से आकाशवाणी के दिल्ली स्टेशन पर आमंत्रित किया गया।


देवकीनंदन पाण्डे को वॉइस ऑफ़ अमेरिका जैसी अंतरराष्ट्रीय प्रसारण संस्था से अपने यहॉं काम करने का ऑफ़र मिला लेकिन देश प्रेम ने उन्हें ऐसा करने से रोका। पाण्डेजी को अपनी शख़्सियत की लोकप्रियता का अंदाज़ उस दिन लगा जब श्रीमती इन्दिरा गॉंधी ने एक बार आकाशवाणी के स्टॉफ़ आर्टिस्टों को उनकी समस्या सुनने के लिये अपने निवास पर आमंत्रित किया। श्रीमती गॉंधी से जब पाण्डेजी का परिचय करवाया गया तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा कि "अच्छा तो आप हैं हमारे देश की न्यूज़ वॉइस'। पूर्व सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल तो एक बार पाण्डेजी का नाम सुनकर उनसे गले लिपट गए थे।

नए समाचार वाचकों के बारे में पाण्डेजी का कहना था जो कुछ करो श्रद्धा, ईमानदारी और मेहनत से करो। हमेशा चाक-चौबन्द और समसामयिक घटनाक्रम की जानकारी रखो। जितना ़ज़्यादा सुनोगे और पढ़ोगे उतना अच्छा बोल सकोगे। किसी शैली की नकल कभी मत करो। कोई ग़लती बताए तो उसे सर झुकाकर स्वीकार करो और बताने वाले के प्रति अनुगृह का भाव रखो। निर्दोष और सोच समझकर पढ़ने की आदत डालो; आत्मविश्वास आता जाएगा और पहचान बनती जाएगी।

ऊँची क़द काठी के देवकीनंदन पाण्डे आज तो हमारे बीच में नहीं है लेकिन जब भी रेडियो पर समाचार प्रसारणों की बात चलेगी तो उनका नाम इस विधा के शिखर के रूप में जाना जाता रहेगा।


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