Author Topic: Personalities of Uttarakhand/उत्तराखण्ड की प्रसिद्ध/महान विभूतियां  (Read 149722 times)

पंकज सिंह महर

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आज नेट पर सर्च के दौरान उत्तराखण्ड की एक और विभूति से परिचित हुआ, आप सब के समक्ष है....

उत्तराखण्ड के गढ़वाल इलाके में रूद्रप्रयाग जिले के एक छोटे से गांव में रहते हैं जगत सिंह चौधरी और ‘जंगली’ के नाम से जाने जाते हैं। ‘जंगली’ के जंगल तक पहुंचने के लिए रूद्रप्रयाग से कर्णप्रयाग की तरफ जाने पर कोटमल्ला नाम की जगह के लिए एक संकरा रास्ता कटता है। आगे जाकर यह रास्ता कच्चा और पथरीला हो जाता है। करीब बीस किलोमीटर तक चलने के बाद हरियाली देवी का मंदिर आता है। एक तरह से यह नाम बहुत विडंबनापूर्ण है। पूरा इलाका एकदम सूखा हुआ है और बंजर से लगते पहाड़ों पर चीड़ के सिवा कुछ नज़र नहीं आता।

इसी मन्दिर से करीब एक किलोमीटर दूर पथरीली सड़क पर लगा एक विनम्र सा साइनबोर्ड आपका स्वागत करता है : ‘जंगली का जंगल’। इस जंगल में घुसते ही ठंडक महसूस होती है और आप अपने को तमाम तरह के पेड़ों के बीच पाते हैं। जंगली जी से मिलने को आपको बहुत इंतज़ार नहीं करना पड़ता। वे अपने जंगल में ही कहीं होते हैं।

करीब पचपन साल के इस शख्स की आंखों की आग को पहचानने के लिए पहले आप को इस दुर्लभ जंगल की दास्तान सुननी होगी। 1967 में कुल सत्रह की उम्र में जगतसिंह फौज में चले गए। फिर शादी परिवार वगैरह। गांव की स्त्रियों का जीवन बहुत कष्टप्रद था : घर से दो मील नीचे से पानी लाना, फिर दिन भर चारे और ईंधन की खोज में रूखे जंगलों में भटकना।

जगत सिंह को अपना पूरा बचपन याद था जिसमें दिन रात खटती रहने वाली एक मां होती थी : बच्चों के लिए उसके पास ज़रा भी वक्त नहीं होता था। अब शादी के बाद वे देख रहे थे कि उनकी पत्नी भी वैसा ही जीवन बिताने को अभिशप्त है।

इसी दौरान 1974 में मृत्युशैया पर पड़े जगतसिंह के दादाजी ने उनसे वचन लिया कि वे गांव के ऊपर स्थित उनकी साठ नाली यानी करीब पौने दो एकड़ ज़मीन की देखभाल करेंगे। इस पूरी बंजर ज़मीन पर सिर्फ एक पेड़ था। इस इकलौते पेड़ को उसकी उम्र के कारण आज भी सबसे अलग पहचाना जा सकता है।

जगत सिंह ने बरसातों में कुछ पौधे रोपे और जाड़ों में छुट्टी लेकर घर आए और बच गए पौधों की देखभाल में जुट गए। अगली बरसातों में उन्होंने कुछ और पौधे रोपे और यह क्रम चल पड़ा। चार पांच साल में उस बंजर में इतनी हरियाली हो गई कि घर की औरतों को चारे और ईंधन की समस्या नहीं के बराबर रह गई।

इधर जगत सिंह का स्वाध्याय जारी था और 1980 में उन्होंने अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय लिया। फौज की नौकरी छोड़कर उन्होंने निश्चय किया कि वे अपना पूरा समय अपने जंगल को देंगे। रिटायरमेन्ट के बाद मिली फंड की रकम का ज्यादातर पैसा उन्होंने तमाम प्रजातियों के पेड़ों की पौध वगैरह में झोंक दिया। पच्चीस सालों की अथक मेहनत और फौलादी इरादों का परिणाम यह हुआ कि उनके जंजल में करीब सौ प्रजातियों के तकरीबन बीस हजार पेड़ हैं। यह फकत जंगल नहीं है : यह जगतसिंह चौधरी का जीवन है और उनकी प्रयोगशाला भी जिसमें उन्होंने तमाम हैरतअंगेज कारनामों को अंजाम दिया।

वे मानते हैं कि किसी पेड़ को लगा देने के बाद उसे काटने का हमारा कोई अधिकार नहीं। लेकिन इसके बदले वे उस पेड़ से विनम्रतापूर्वक मांग करते हैं कि वह भी उन्हें कुछ दे। सो आप देखते हैं कि चीड़ के पेड़ों पर सोयाबीन की लताएं चढ़ी हुई हैं और बांज के पेड़ों पर बारहमासा हरे चारे की। अपने जंगल से वे साल में दो कुन्तल सोयाबीन उगा लेते हैं।

इस जंगल में खेती करने का उनका ढंग निराला है : वे ‘गड्ढा यंत्र’ का इस्तेमाल करते हैं। करीब छह फीट, लम्बे तीन फीट चौड़े और डेढ़ फीट गहरे गडढे कई स्थानों पर खोदे गए हैं। इन गड्ढों में मिट्टी को समानान्तर मेड़ों की शक्ल में बिछाया गया है। दो मेड़ों के बीच खरपतवार गिरती रहती है। मेड़ों के ऊपर मूली, प्याज, आलू और टमाटर वगैरह उगाए जाते हैं। फसल कटने के बाद मेड़ों के बीच इकठ्ठा खरपतवार खाद में बदल चुकी होती है। अगली फसल के लिए अब मेड़ों को खाली जगह में खिसका दिया जाता है। तीखी ढलान वाले पहाड़ी इलाके में पानी को बहने से बचाने और ज़मीन को लगातर उपजाऊ बनाते जाने का यह तरीका नायाब है।

तीस साल पहले जिस धरती की कोई कीमत नहीं थी चौधरी साहब की लगन और मेहनत ने उस ज़मीन पर कुछ इंच की उपजाऊ मिट्टी की परत बिछा दी। अपने घर के लिए अन्न और सब्जी इसी जंगल से उगा लेने वाले जगत सिंह चौधरी ने कई अनूठे प्रयोग किए। सबसे पहले तो उन्होंने तमाम स्थापित ‘वैज्ञानिक’ सत्यों को गलत साबित किया। करीब ढाई हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित इस जंगल में उन्होंने ऐसी ऐसी प्रजातियां उगाई हैं कि एकबारगी यकीन नहीं होता। आम, पपीता, असमी बांस के साथ साथ वे देवदार और बांज भी उगा चुके हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस ऊंचाई पर इन पेड़ों का उगना असंभव है। आप उनसे इसका रहस्य पूछेंगे तो वे किंचित गर्व से आपसे कहेंगे कि वे अपने जंगल में कुछ भी पैदा कर सकते हैं। आप पूछेंगे ‘कैसे’ तो एक निश्छल ठहाका गूंजेगा “क्योंकि जंगली पागल है।”

तो आप देखते हैं कि एक चट्टान पर आंवले का पेड़ फलों से लदा हुआ है। एक जगह पानी के तालाब के पास हजारों की तादाद में मगही पान की बेलें हैं। छोटी और बड़ी इलायची की झाड़ियों पर बौर आ रहे हैं। कहीं बादाम उग रहा है और कहीं पर हंगेरियन गुलाबों की क्यारियां हैं। अपने इस्तेमाल की चाय भी वे यहीं उगाते हैं। तमाम तरह के पहाड़ी फलों के पेड़ भी हैं। जंगल का एक हिस्सा बेहद आश्चर्यजनक है : जंगली जी यहां दुर्लभ हिमालयी जड़ी बूटिया उगाते हैं। वजदन्ती, हत्थाजड़ी और सालमपंजा जो दस हजार फीट से ऊपर ही पाई जाने वाली औषधीय प्रजातियां हैं यहां बाकायदा क्यारियों में उगाई जाती हैं। यह उनका नवीनतम प्रयोग है जिसमें वे भारत के गरीब पहाड़ी कृषक वर्ग के लिए चमकीले भविष्य का सपना संजोए हैं। वे चाहते हैं कि पहाड़ के किसान अपनी ज़मीन पर जड़ी बूटियां उगाएं। “एक नाली ज़मीन से साल में एक लाख रूपए तक कमा पाना संभव है” वे बहुत विश्वास से कहते हैं।

पिछले दशक में उनकी मेहनत का नतीजा यह निकला कि उनके जंगल में पानी के दो स्रोत फूट पड़े जिनसे अब उनके गांव भर की पानी की दिक्कत दूर हो गई है। मुझे अपना गांव याद आता है जहां बहने वाली गगास नदी पिछले तीन सालों से गर्मियां आते ही सूख जाती है। सरकार की तुगलकी योजना यह है कि बागेश्वर में बहने वाली पिंडर का पानी गगास तक लेकर आया जाए। पेड़ उगा कर पानी के स्रोतों को जिन्दा करने की कोई नहीं सोचता। शुरू शुरू में जगतसिंह चौधरी को पागल और सनकी कहा जाता था। वन विभाग के अफसरों ने उनका मजाक उड़ाया। सरकार ने उनके जंगल के बिल्कुल नजदीक एक कृषि प्रयोगशाला स्थापित करने के लिए लाखों की रकम एक इमारत बनाने पर फूंकी। आज तक उसमें कोई काम नहीं हुआ और वह खंडहर में तब्दील होती जा रही है।

पांच छ: साल पहले तत्कालीन उत्तरांचल के राज्यपाल सुरजीत सिंह बरनाला इस जंगल को देखने आए और उनकी अनुशंसा पर जगतसिंह चौधरी को प्रतिष्ठित वृक्षमित्र सम्मान मिला। गढ़वाल विश्वविद्यालय ने उन पर एक संक्षिप्त आलेख छापा। रूद्रप्रयाग के तत्कालीन जिलाधिकारी रमेश कुमार सुधांशु ने अपने स्तर से भरसक जंगली जी की सहायता की। लेकिन जगतसिंह चौधरी के जंगल को बतौर मॉडल देखे और प्रचारित किए जाने की आवश्यकता पर कोई गौर नहीं किया गया।

दरअसल ‘जंगली’ को शायद इस सब की अब उतनी दरकार भी नहीं रह गई लगती। रोज सुबह नौ बजे से शाम पांच बजे तक अपने जंगल और अपने पौधों के बीच काम में लगे रहने वाले जगतसिंह चौधरी का बेटा और भतीजा उनके साथ रहकर प्रकृति के तमाम रहस्यों को सीख रहे हैं। मेहनत करना उनमें सबसे बड़ा रहस्य है।

पिछले एकाध दशक से इस देश में आई पर्यावरण चेतना के परिप्रेक्ष्य में यह कदाचित संभव है कि ‘जंगली’ का जंगल आने वाले दशकों में किसी तीर्थ का रूप ले ले। यह बिल्कुल संभव है।
साभार : http://mohalla.blogspot.com/2007/10/blog-post_8453.html

पंकज सिंह महर

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Re: Personalities of Uttarakhand
« Reply #91 on: April 28, 2008, 02:29:14 PM »
जगत सिंह "जंगली" जी



पंकज सिंह महर

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Re: Personalities of Uttarakhand
« Reply #92 on: April 30, 2008, 01:06:06 PM »
Born in Almora, Uttarakhand in 1942, the sitar player Ananda Shankar is a legendary figure of Indian music. The son of Udday Shankar, a pioneer of  East-West cultural relations in the 1920s,  Ananda studied for five years at Benaras Hindu University under Dr. Lalmani Misra. By the late 60s, Ananda was living with his uncle, Ravi Shankar, in San Francisco, witnessing flower power at its height. The eventual sitar tutor of Jimi Himdrix, Ananda's reputation was revitalized in the 1990s when cuts like 'Dancing Drums' and 'Streets of Calcutta' were picked up by producers, DJs and musicians attracted to the coruscating "breaks and beats." During the emergence of the so-called 'Asian Underground' in the UK during the mid-nineties, Talvin Singh's club night Anokha, organized an entire evening dedicated to Ananda Shankar, spreading the word to an entirely new generation. Ananda spent the majority of the latter part of his career composing music for his wife's contemporary dance company, Mudavis.

पंकज सिंह महर

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अपनी छोटी उम्र में ही 25 अप्रेल, 1913 को दिवंगत हुए राजा कीर्ति शाह के उत्तराधिकारी नरेन्द्र शाह बने। उनकी बाल्यावस्था में राज्य के प्रशासन की देखभाल उनकी मां ने की। 14 अक्टूबर, 1919 को नरेन्द्र शाह का राज्याभिषेक हुआ।

अपने पिता की तरह उनकी शिक्षा भी अजमेर के मेयो कॉलेज में हुई। वे अपनी किशोरावस्था में ही ब्रिटिश सरकार द्वारा लेफ्टिनेंट बनाये गये तथा उनकी माता को प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान युद्ध सेवा की मान्यता स्वरूप केसर-ई-हिंद का मेडल दिया गया। ये सेवाएं युद्ध के दौरान अंग्रेजी-सरकार को लकड़ी की आपूर्ति करना थी।

राजा नरेन्द्र शाह ने 27 वर्षों तक शासन किया तथा राज्य के प्रशासन में सक्रिय रूचि दिखायी। उन्होंने वन विभाग विकास योजना शुरू करने के लिए युवा अधिकारियों को प्रशिक्षण लेने वन कॉलेज, देहरादून में भेजा तथा अपने राज्य के वन-प्रबंधन में सुधार लाने के लिए विदेशी विशेषज्ञों को आमंत्रित किया। उन्होंने मुनि की रेती से अपनी नई राजधानी तक मोटर गाड़ी के लिए सड़क बनवाया। वर्ष 1918 में राज्य के नागरिक कानूनों को नरेन्द्र हिंदु कानून नामक पुस्तक में संग्रहित करवाया तथा वर्ष 1922 में संपूर्ण भूमि के लिए भूमि कर का निर्धारण करवाया।

राज्य में कई प्राथमिक स्कूल खोलने तथा तेज छात्रों को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए उन्होंने ही पहल किया। अपने पिता के स्मरणार्थ बनारस हिंदु विश्वविघालय में औद्योगिक रसायन शास्त्र विभाग सर कीर्ति शाह के नाम पर खुलवाने के लिए 1,00,000 रूपये का दान तथा 60,000 रूपये का वार्षिक अनुदान देने की भी उन्होंने घोषणा की। टिहरी, उत्तरकाशी, देवप्रयाग एवं राजगढ़ी अस्पतालों में आधुनिक उपकरणों की आपूर्ति कर स्वास्थ्य सुविधा में सुधार लाने का प्रयास किया।

उनके प्रशासन से अंग्रेज बहुत खुश थे और उन्हें श्रेणी के नाईट कमांडर की उपाधि से विभूषित किया तथा बनारस हिंदु विश्वविघालय ने सम्मान की डिग्री डाक्टरेट से सम्मानित किया।

22 सितंबर, 1950 को एक सड़क दुर्घटना में राजा नरेन्द्र शाह की मृत्यु हो गयी।
 

पंकज सिंह महर

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चंडी प्रसाद भट्ट का जन्म 23 जून, 1934 को हुआ तथा उन्होंने अपनी युवावस्था गोपेश्वर में बितायी। अधिकांश पर्वतीय गांवों के लोगों की तरह चंडी प्रसाद को भी मैदानों में जाकर काम करना पड़ा जो ऋषिकेश की एक बस कंपनी में टिकट बाबू बन गये। वर्ष 1956 में दौरे पर आये गांधीवादी नेता जयप्रकाश नारायण के भाषणों से भट्ट को आशा बंधी। भट्ट एवं अन्य युवाओं ने गांधीवादी के प्रचार में अपने आपको झोंक दिया तथा आर्थिक विकास के लिये तथा संपूर्ण उत्तराखंड में शराबखोशी के विरूद्ध ग्रामीणों को संगठित करने लगे।

      वर्ष 1964 तक भट्ट ने दसोली ग्राम स्वराज्य मंडल की स्थापना की, जिसका कार्य जंगल आधारित उद्योगों में अपने घर के निकट ही गोपेश्वर में रोजगार पाने के लिये गांवों के लोगों को संगठित करना था। जब पेड़ों से लकड़ी के उपकरण बनाने तथा आयुर्वेदिक दवाओं के लिये जड़ी-बूटियों का बिक्री करने तथा भ्रष्टाचार एवं शोषण की खिलाफत करना आदि भी इसका कार्य था। पेड़ों तथा वनोत्पादन के लिये ग्रामीणों के वैध अधिकारों में कटौती तथा बाहरी व्यापारिक रूचियों के कारण वर्ष 1973 में भट्ट को सक्षम बनाया कि वे वन आधारित समिति सदस्यों तथा ग्रामीणों को सामूहिक चिपको आंदोलन में ले आयें ताकि वर्ष 1917 से जंगल नीति का पुनर्निरीक्षण हो।
      वर्ष 1982 में चिपको आंदोलन को प्रेरणा एवं मार्गदर्षन देने के लिये एक अलौकिक महिला प्रधान पर्यावरण आंदोलन चलाने तथा वनों के उचित इस्तेमाल के लिये उन्हें सामूहिक नेतृत्व के लिये रेमन मैगसेसे एवार्ड से विभूषित किया गया तथा वर्ष 2005 में भारत सरकार द्वारा प्रतिष्ठित पद्म भूषण एवार्ड दिया गया। यद्यपि भट्ट भारत की निचली भूमि की सभाओं में तथा बाहर चिपको आंदोलन के प्रवक्ता रहे, पर वे अपने समुदाय से कभी नहीं बिछुड़े। वह उनकी पत्नी तथा उनके पांच बच्चे हिमालयी पड़ोस का साधारण जीवन व्यतीत करते हैं। इस क्रम में वे अपने लोगों के कठिन जीवन अपने ज्ञान वर्धन तथा उत्पादक सलाह देकर निश्चित ही उनकी सहायता करते रहें।
 

पंकज सिंह महर

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84 साल की उम्र में दामोदर राठौर अगर कुछ और साल जीने की ख्वाहिश रखते हैं तो सिर्फ इसलिए कि वह कुछ और पेड़ लगा सकें। वह अब तक 3 करोड़ से ज्यादा पेड़ लगा चुके हैं। उनका लक्ष्य 5 करोड़ पेड़ लगाने का है। कुछ साल पहले उन्हें वृक्ष मित्र के अवॉर्ड से नवाजा गया, लेकिन इसके अलावा उन्हें कहीं से कोई मदद नहीं मिली। वैसे उन्हें इस बारे में किसी से कोई शिकवा भी नहीं है। वह तो बस इस बात से खुश हैं कि कम से कम अब लोग उनकी बात सुनने लगे हैं और उसे मानकर पेड़ काटने से बचते हैं।

उत्तराखंड में सीमांत जिले पिथौरागढ़ से लेकर राजधानी देहरादून तक दामोदर राठौर पेड़ लगा चुके हैं। फिर चाहे वह दूर-दराज के डीडीहाट व चंपावत हों या मैदानी इलाके हल्द्वानी और बरेली हों। पेड़ों से उनके लगाव की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। इंटर तक पढ़े दामोदर राठौर ने 1950 में ग्रामसेवक के तौर पर काम करना शुरू किया। सरकारी अधिकारियों के आदेश पर वह पेड़ लगाते और उनकी देखभाल करते थे। लेकिन धीरे-धीरे उन्हें लगने लगा कि पेड़ लगाने के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति की जा रही है। लगाने के लिए जो पौधे आते हैं वे आधे सूखे होते हैं। एक बार पौधा लगाने के बाद सिर्फ कागजों पर ही उस ओर ध्यान दिया जाता है।

सरकार की तरफ से इस फंड में आए धन का पूरा दुरुपयोग हो रहा है। दामोदर कहते हैं, 'यह सब बातें मुझे बहुत परेशान करती थीं। मैंने फैसला किया कि अब अपने बूते पेड़ लगाकर दिखाऊंगा और साबित करूंगा कि अगर इच्छाशक्ति हो तो सब कुछ मुमकिन है।' उन्होंने ग्राम सेवक का काम छोड़ दिया। 1952 से पेड़ लगाने की यह तपस्या अब तक अनवरत जारी है।

वह कुल 3 करोड़ 15 लाख 10 हजार 705 पेड़ लगा चुके हैं। उन्होंने बताया कि पहाड़ों में ज्यादातर पेड़ सिलिंग, उतीश और बाज के लगाए हैं। सिलिंग जल स्त्रोत के लिए वरदान होता है और उन्हें नया जीवन देता है। अब वह मेडिसन प्लांट भी लगा रहे हैं। ज्यादातर पेड़ ग्राम पंचायत की जमीन पर और कुछ व्यक्तिगत जमीन पर भी लगाए हैं। उन्होंने कहा कि पेड़ लगाने के लिए इजाजत लेना बड़ा पेचीदगी भरा काम हैं। मैंने राज्य सरकार को पत्र लिखकर कहा है कि मुझे जहां भी वृक्ष विहीन जमीन मिलेगी वहां पेड़ लगा लूंगा। पौधों के लिए उन्होंने एक नर्सरी बनाई है।

बागवानी की किसी डिग्री के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि मैंने प्रकृति से सीखा है। प्रकृति ही मेरी पाठशाला है। परिवार में उनकी बीबी और 17 साल की एक बेटी है। लेकिन दामोदर कहते हैं कि उनके 3 करोड़ से ज्यादा बच्चे हैं। लगाए गए पेड़ों को वह अपने बच्चे ही मानते हैं और उसी तरह उनकी देखभाल भी करते हैं। उम्र के इस पड़ाव पर उनकी तबीयत खराब ही रहती है, लेकिन 5 करोड़ पेड़ लगाने का जुनून उनमें नया जोश भरता है। वह डीडीहाट के पास 6900 फुट की ऊंचाई पर जंगलों के बीच कुटिया बना कर रहते हैं। घर का खर्च जुटाने के लिए उनकी पत्नी एक स्कूल में पढ़ाती हैं। वह प्रार्थना भी करते हैं तो यही मांगते हैं कि उनका लक्ष्य पूरा होने से पहले भगवान उन्हें अपने पास न बुलाए।

साभार - पूनम पाण्डे http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/3101063.cms
 
 
 
 
 

 

पंकज सिंह महर

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Re: Personalities of Uttarakhand
« Reply #96 on: June 24, 2008, 02:06:03 PM »
दामोदर राठौड़ जी के जज्बे का मेरा पहाड़ पूरी तरह से सम्मान करता है। काश हमारे प्रदेश में और दामोदर राठौड़ और जगत सिंह जंगली होते। राठौड़ जी के बारे में हेम पंत जी विस्तार से बतायेंगे।

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Re: Personalities of Uttarakhand
« Reply #97 on: June 24, 2008, 02:11:14 PM »
Jai Ho Mahar ji aap bhi search main humare Google ho :).

Ho sake to inka address pata kijiye please.

दामोदर राठौड़ जी के जज्बे का मेरा पहाड़ पूरी तरह से सम्मान करता है। काश हमारे प्रदेश में और दामोदर राठौड़ और जगत सिंह जंगली होते। राठौड़ जी के बारे में हेम पंत जी विस्तार से बतायेंगे।

पंकज सिंह महर

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अस्सी के दशक की शुरुआत से ही एक अकेले व्यक्ति के शांत प्रयासों ने ऐसे ग्रामीण आंदोलन की नींव रखी जिसने उत्तराखंड की बंजर पहाड़ियों को फिर से हराभरा कर दिया। सच्चिदानंद भारती की असाधारण उपलब्धियों को सामने लाने का प्रयास किया संजय दुबे ने।  

शायद ही कुछ ऐसा हो जो संच्चिदानंद भारती को उफरें खाल के बाकी ग्रामीणों से अलग करता हो। ये तो जब वो हमारा स्वागत गुलाब के फूल से करने के साथ हमें अपने गले लगाते हैं तब हमें एहसास होता है कि इसी असाधारण रूप से साधारण व्यक्ति के महान कृत्य हमें उफरें खाल खींच कर लाये हैं।

औपचारिकताओं से निबटकर जब हम चारो तरफ फ़ैली पर्वत श्रृंखलाओं पर नज़र दौडाते है तो हमें भारती जी की अद्भुत उपलब्धियों की गुरुता का एहसास हो जाता है। दरअसल भारती ने एक समय नग्न हो चुकी उत्तराखंड के पौड़ी ज़िले में स्थित दूधातोली पर्वत श्रृंखला के एक बड़े हिस्से को राज्य के सबसे बढिया और घने जंगलों में तब्दील कर दिया है। उनकी कोशिशों की बदौलत सैंकड़ो पेड़ सरकारी कुल्हाड़ी के शिकार होने से बच गए- ये छोटी सफलता एक बड़े परिवर्तन की नींव बनी। महत्वपूर्ण बात ये थी कि इस घटना ने उफरें खाल और इसके आसपास के लोगों में अपने अधिकारों की समझ और एकता की भावना पैदा कर दी।  

साल 1960 के बाद अनियंत्रित औद्योगिकरण ने पहाड़ों के एक लंबे-चौड़े हिस्से को प्राकृतिक संपदा का गोदाम बना डाला। एक ऐसा गोदाम जिसमें मैदान की ज़रूरत के सामान रखे होते थे। 1970 के दशक में वन्य संपदा के विनाश को रोकने के लिए सबसे मशहूर संघर्ष था चिपको आंदोलन, इसकी शुरुआत चमोली ज़िले के गोपेश्वर नाम की जगह से हुई। भारती उस समय गोपेश्वर के कॉलेज में पढ़ रहे थे और इस आंदोलन में उन्होंने भी सक्रिय भुमिका निभाई। भारती जी ने पेड़ों के संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए कॉलेज में एक समूह भी बनाया जिसका नाम था 'डालियों का दागड़िया' (पेड़ों के मित्र)। पढ़ाई खत्म करके जब वो उफरें खाल पहुंचे तो वहां भी उनका सामना विनाश की कुछ ऐसी ही परिस्थितियों से हुआ। भारती बताते हैं, "उसी दौरान वन विभाग ने डेरा गांव के समीप लगे पेड़ों का एक बड़ा हिस्सा काटने का फैसला किया। चिपको आंदोलन से जुड़ा होने की वजह से मुझे पता था कि इस परिस्थिति से कैसे निपटना है, मैंने गांव वालो को साथ लेकर अभियान शुरू कर दिया।" उनकी कोशिशों की बदौलत सैंकड़ो पेड़ सरकारी कुल्हाड़ी के शिकार होने से बच गए। बाद में ये छोटी सी सफलता एक बड़े परिवर्तन की नींव बनी। महत्वपूर्ण बात ये थी कि इस घटना ने उफरें खाल और इसके आसपास के लोगों में अपने अधिकारों को लेकर समझ और एकता की भावना पैदा कर दी।

पहाड़ों के बुजुर्ग याद करते हैं कि किस तरह से एक समय में यहां के वन, इनमें रहने वाले जंगली जानवरों और इस पर ईंधन और भोजन के लिए आश्रित गाँव वालों, दोनों के लिए पर्याप्त हुआ करते थे। लेकिन, जैसे-जैसे जंगलो की कटाई अनियंत्रित होती गई, गाँव वालो को दोहरी मार झेलनी पड़ गई-- एक तरफ़ तो उनके लिए ज़रूरी संसाधनों का अकाल पड़ने लगा, वहीं दूसरी ओर जंगली जानवर भी सिकुड़ते वनों के चलते अपनी ज़रूरतें पूरी न होने से इंसानी रिहाइशों में सेंध लगाने लगे थे। लेकिन भारती की सलाह पर पास के डेरा गांव के लोग इन जानवरों को मारने की बजाय अपने घरों और खेतों के चारो तरफ चारदीवारियां खड़ी करने लगे। 1980 में बननी शुरू हुई दीवार के लिए सिर्फ डेरा गांव के ही नहीं बल्कि दूसरे गांवो के लोगों ने भी आर्थिक सहयोग दिया। आज 9 किमी लंबी इस दीवार के प्रयोग को और जगहों पर भी लागू किया जा रहा है। इसी दौरान भारती ने एक स्थानीय स्कूल में अध्यापन का कार्य भी शुरू कर दिया। उनके पुराने साथी और पेशे से डॉक्टर, दिनेश ने बताया कि ये उनकी सफलता के सबसे महत्वपूर्ण कारकों में से एक था। क्योंकि ऐसा करने से वो सीधे-सीधे पर्यावरण सरंक्षण के संदेश को नई पीढी तक पहुंचा पाए।  

1970 के अंत तक जंगलों की कटाई इस स्तर पर पहुंच चुकी थी कि इसने सरकारी अमले में भी इससे निपटने के लिए क़दम उठाने की बेचैनी पैदा कर दी। उन्होंने संरक्षित वनों के खाली पड़े भू-भाग पर चीड़ के पेड़ लगाने शुरू कर दिए। भारती के अनुसार ये क़दम खतरनाक साबित हुआ। वो कहते हैं, "चीड़ के जंगलों ने ज़मीन में नमी का स्तर तेज़ी से कम किया और नमी की कमी के साथ चीड़ के पेड़ों की पत्तियों में मौजूद ज्वलनशील पदार्थ ने  जंगल में आग की घटनाओं को भी बढ़ा दिया। इसके अलावा चीड़ की जड़ों में मिट्टी की बेहतर पकड़ के गुण न होने के चलते भू-स्खलन के खतरे भी बढ़ गए।" 1980 में भारती ने एक दूसरा तरीका निकाला। वन विभाग की मदद से उन्होंने स्थानीय पहाड़ी प्रजाति के पौधे--देवदार, बुरांस, बांच आदि--की नर्सरी खोली। ये कोशिश बाद में दूधातोली लोक विकास संस्थान(डीएलवीएस) के रूप में विकसित हुई जो आज पूरे क्षेत्र में स्थानीय पहाड़ी पौधे लगाने के साथ-साथ अपने अपने साथ जुड़े 150 गांवों में सालाना पर्यावरण जागरुकता शिविर का आयोजन भी करता है। डीएलवीएस क्षेत्र की इसी समय भारती गांधी शांति प्रतिष्ठान के अनुपम मिश्र के संपर्क में आए, जिन्होंने उन्हें छोटे स्तर की बावड़ियों और पानी के स्रोत तैयार करने के तरीके सुझाए। भारती ने इन सिद्धांतों को अपनी ज़रूरतों के हिसाब से ढाल लिया और पुराने, सूखे पड़े पानी के स्रोतों को पुनर्जीवित करना शुरू कर दिया।
महिलाओं के सशक्तिकरण का भी बड़ा ज़रिया बना है--पहाडों में कामकाज के अभाव में ज्यादातर पुरूष मैंदानो की ओर चले जाते है और घर की जिम्मेदारी महिलाओं के कंधे पर आ जाती है और इन्हें ही संसाधनों के अकाल की मार झेलनी पड़ती है। इनकी सहभागिता बढ़ाने के लिए भारती ने हर गांव में महिला मंगल दल की नींव डाली और उनके सुरक्षित भविष्य की जिम्मेदारी का थोडा सा बोझा उन्ही के कन्धों पर डाल दिया। पहले वृक्षारोपण अभियान के बाद जितने गांवो ने इसमें हिस्सा लिया था उन्होंने एक सामूहिक फैसला लिया कि अगले 10 सालों तक जंगल में सारी प्रतिकूल गतिविधियां रोक दी जाएंगी। महिला मंगल दल के माध्यम से महिलाओं ने जंगलों के रखरखाव और उनमें किसी के अवांछित प्रवेश को रोकने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली।

एक दशक के भीतर ही दूधातोली के लोगों ने अपने खोए हुए जंगलों का एक बड़ा हिस्सा वापस पा लिया। भारती गर्व से बताते हैं कि पिछले 27 सालों के दौरान पूरे जंगल को लगाने में गांव वालों ने बमुश्किल 5-6 लाख रूपए खर्च किए होंगे। शुरुआती नर्सरी स्थापित करने के लिए मिली सहायता के बाद डीएलवीएस ने कभी कोई और सरकारी सहायता नहीं मांगी। इसकी बजाय नर्सरी के पौधों की बिक्री के जरिए इसने अपने कार्यक्रमों के लिए धन का बंदोबस्त ख़ुद ही किया। असल में भारती वन संरक्षण को लेकर सरकारी रवैये की आलोचना करते हैं। उनके मुताबिक, "वन रिज़र्व करने का अर्थ है पहाड़ी लोगों के वन में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगना लेकिन पैसे के लालच में वन अधिकारी ठेकेदारों के साथ मिलकर इन्ही कानूनों का खुले आम उल्लंघन करते हैं।"

1987 में पूरा इलाका भीषण सूखे की चपेट में था। चिंतित डीएलवीएस ने हर पेड़ के पास एक छोटा सा गड्ढा बनाने का फैसला किया ताकि इनमें पानी इकट्ठा हो सके और पेड़ों को जीने के लिए कुछ औऱ समय मिल सके। इसी समय भारती गांधी शांति प्रतिष्ठान के अनुपम मिश्र के संपर्क में आए, जिन्होंने उन्हें छोटे स्तर की बावड़ियों और पानी के स्रोत तैयार करने के तरीके सुझाए। भारती ने इन सिद्धांतों को अपनी ज़रूरतों के हिसाब से ढाल लिया और पुराने, सूखे पड़े पानी के स्रोतों को पुनर्जीवित करना शुरू कर दिया। इसके अलावा उन्होंने कई नए जलस्रोतों का भी निर्माण किया। नतीजा, छोटे-बड़े लगभग 12 हजार तालाब अब 40 से ज्यादा गांवों की पानी की जरूरत बखूबी पूरी करते हैं। सिमकोली गांव के सतीश चंद्र नौटियाल एक छोटे से कुएं की तरफ इशारा करके बताते हैं कि 2005 में इसे बनाने में भारती ने उनकी सहायता की थी। वो कहते हैं कि आज ये कुआं ही पूरे गांव के आस्तित्व का आधार है।

भारती से विदा लेते वक्त उनके पुराने साथी रहे पोस्टमैन दीनदयाल धोंडियाल और किराना व्यापारी विक्रम नेगी के चेहरे गर्व से चमक रहे थे। नेगी कहते हैं, "जंगलो की कटाई रोकना तो एक छोटा सा क़दम था। असली चुनौती थी पहाड़ों की खत्म हो चुकी सुंदरता को फिर से वापस लाना।"

निस्संदेह भारती और उनके साथियों ने इस चुनौती पर एक चमकदार जीत अर्जित की है।
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साभार- http://www.tehelkahindi.com/UjlaaBharat/KhaamoshKranti/195.html

पंकज सिंह महर

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उत्तराखण्ड की विभूतियों की बात हो और जिम कार्बेट का नाम न लिया जाय ऎसा हो नहीं सकता, वह भले ही अंग्रेज थे लेकिन उत्तराखण्ड से उन्हे बहुत प्यार था, वे नैनीताल में पैदा हुये और उत्तराखण्ड के उस समय साधन विहीन लोगों की उन्होंने बहुत मदद की। यहां से जाते समय भी कालाढूंगी(नैनीताल) की अपनी रियासत को वे स्थानीय लोगों को दान दे गये। आज भी वहां के निवासी बड़े आदर से उनका नाम लेते हैं, कारबेट सैप वहां के बुजुर्गों के लिये भगवान तुल्य थे, ये मैने खुद देखा है कि उनकी बात करते समय वहां के बुजुर्गों की आंखें आज भी नम हो जाती हैं।
 

जिम कॉर्बेट (25 जुलाई 1875, 19 अप्रैल 1955) भारत में जन्मे एक शिकारी संरक्षणविद तथा प्रकृति प्रेमी, जो आदमखोर बाघों तथा चीतों के शिकार पर अपने लेखों के लिए प्रसिद्ध थे। अंग्रेज वंशज एडवर्ड जेम्स जिम कॉर्बेट का जन्म हिमाल की पहाड़ियों पर कुमाऊं के नैनीताल शहर में हुआ था। उनकी शिक्षा नैनीताल में ही हुई थी।

प्रारंभिक जीवन में कॉर्बेट एक शिकारी एवं मछलियों में रूचि रखते थे पर बाद में फोटोग्राफी के बड़े खेल में शामिल हो गये। बाघों एवं चीतों के प्रशंसक होने के नाते उन्होंने कभी भी उन्हें गोली नहीं मारने का निश्चय किया जब तक कि वे आदमखोर या मवेशियों के लिए भय का कारण नही बन जाते। वर्ष 1907 से 1938 के बीच कॉर्बेट ने कम से कम दर्जनभर आदमखोरों को पकड़ा और मार डाला। अनुमान किया जाता है कि इन 12 जानवरों द्वारा कुल 1,500 से अधिक पुरूषों, महिलाओं तथा बच्चों को मार डाला गया था।

कॉर्बेट एक अग्रणी संरक्षणकारी थे तथा स्थानीय स्कूलों एवं समाज में स्थानीय लोगों के इर्द-गिर्द प्राकृतिक सौदर्य के प्रति जागरूकता को प्रेरित करने तथा वनों एवं वन्य-जीवों का संरक्षण करने के लिए भाषण दिया करते थे। उत्तर प्रदेश में उन्होंने क्रीड़ा के संरक्षण के लिए संघ एवं वन्य जीवन संरक्षण के लिए अखिल भारतीय सम्मेलन के गठन के लिए सहायता दी। उन्होंने हेली पार्क के नाम से भारत के प्रथम राष्ट्रीय पार्क की स्थापना की जिसका नाम संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) के भूतपूर्व गवर्नर लॉर्ड मेल्कम हेली के नाम पर था एवं जिसे वर्ष 1934 में कुमाऊ पहाड़ियों पर उद्घाटि किया गया।

वर्ष 1947 के बाद, कॉर्बेट एवं उनकी बहन मैगी न्येरी, केन्या चले गये जहां उन्होंने जंगली बिल्ली तथा अन्य वन्य जीवन की घटती संख्या पर लिखना एवं खतरे की घंटी बजाना जारी रखा। अपनी छठी पुस्तक ट्री टॉप्स लिखने के कुछ दिन बाद हृदय रोग के कारण उनकी मृत्यु हो गयी तथा उन्हें न्येरी में संत पीटर के अंगलिंकन चर्च में दफनाया गया।

आदमखोरों का शिकार एवं मार देने का वर्णन उनकी पुस्तकों, कुमाऊं के आदमखोर (वर्ष 1946), रूद्रप्रयाग का आदमखोर चीता (वर्ष 1948) तथा मंदिर का बाघ एवं कुमाऊं के और आदमखोर (वर्ष 1954) में किया गया है।
 
 

 

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