Author Topic: PRASOON JOSHI - AD GURU, LYRICIST IN BOLLYHOOD FROM UTTARAKHAND  (Read 72274 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Prasoon Joshi enthralls audience at Jaipur Literature Festival!
« Reply #50 on: February 09, 2014, 11:33:45 AM »
Prasoon Joshi enthralls audience at Jaipur Literature Festival!

The writer-turned-adman-turned-lyricist is known for his moving poetry and heart-wrenching writing. His Maa song from Taare Zameen Par might have left us misty eyed, but the genius came up with a poetry on father’s love at the coveted lit festival in Jaipur

Prasoon Joshi read out poems, sang songs,and created such a frenzy among the audience, that he was literally mobbed at the book signing session at the ongoing Japur Literature Festival. Joshi opened the session by telling everyone, how, after the movie Taare Zameen Par was released and the song Maa became popular, many fathers were upset. “I had lots of letters from dads. They told me Yeh kya hai, aapne pita ke sang anyaay kiya hai. Pita bhi pyaar karte hain apne bachchon se, and that led me to write a poem for dads,” said Joshi. It was a poem so poignant that even after he finished it, the audience took a moment to applaud. But then, that should be no surprise for someone who has been writing poems since he was 15, and had a book to his name at 17! ” I realised I could not make a living out of writing poetry, and so I began to write Bollywood songs,” he says.

Prasoon was in Jaipur last time too, and for him, coming here has a specific purpose. “In a world where there is so much noise, here is a place where things which are murmurs of life – I call poetry murmurs of life – and in this high decibel level of noise, there is somebody giving a platform for those words that buzz in your head, want to hold discussions and hear about poetry and literature, and I think it is my responsibility to be here and talk to the people who love my work,” said Prasoon and added, “This is special for me, as in I wrote Bhaag Milkha Bhaag, which is my first full Bollywood film. I mean yes, I have part-written scripts before this, but this film is mine from concept to scripting, dialogue, screenplay, songs – as a writer, it is my first complete package. And from the mails I have received from regular people, I know that now there is a curiosity to know more about my work, and people wrote to me and said they would be disappointed if I didn’t come, so I came.”

Prasoon maintained that he was caught up with his work, and he had to change his travel plans to accommodate JLF in his itinerary. “I have come here not as a speaker, but as a student. There are many people here whom I myself look up to. And I know that it is not like watching TV – coming here is a conscious effort, people have to make an effort, travel to come here, it is cold, but they still have to be here in the morning. So it involved a bit of sacrifice, and that proves the intent,” http://www.bollywoodlife.com/news-gossip/prasoon-joshi-enthralls-audience-at-jaipur-literature-festival/

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Re: PRASOON JOSHI - AD GURU, LYRICIST IN BOLLYHOOD FROM UTTARAKHAND
« Reply #51 on: February 09, 2014, 11:38:24 AM »


कोई मुद्दा हवा में न उड़ जाए
यह रिश्ता जिंदगी को जीने लायक बनाता है

दुनिया के सारे रिश्ते एक तरफ हैं और मां-बच्चे का रिश्ता एक तरफ। दरअसल, ईश्वर ने ही इस रिश्ते को प्राकृतिक और भावनात्मक रूप से अनोखा बनाया है। मां का अहसास हमारे अवचेतन मन से ही हमारे साथ होता है। इस रिश्ते की किसी भी रिश्ते से तुलना नहीं कर सकते। किसी भी जाति, धर्म और संप्रदाय के लोग हों, उनमें मां और बच्चे के बीच एक ही तरह का जुड़ाव होता है। एक बच्चा जब न किसी धर्म को समझता है, न कोई भाषा समझता है, न भावनाएं और न ही लोरी समझता है, तब भी उसे मां के स्पर्श का पूरा ज्ञान होता है।

यही वजह है कि यह रिश्ता उसके अवचेतन में समा जाता है। यही एक वजह है कि इस रिश्ते के लिए मेरी कलम हमेशा से कुछ न कुछ लिखती रही है। मेरा हमेशा इस बात में भरोसा रहा है कि मां से जुड़ी कोई भी बात हो, वह दिल से निकलती है और सीधे दिल तक पहुंचती है। यही वजह है कि मैंने जब 'तुझे सब है पता, मेरी मां' लिखा तो मुझे जबर्दस्त कामयाबी मिली। मां और बच्चे के रिश्ते पर मैं लिखता रहा हूं और आगे भी लिखता रहूंगा। इस रिश्ते पर लिखी मेरी रचनाएं इसलिए बेहतरीन बन पड़ीं कि उस रिश्ते का अहसास मेरे भीतर तक समाया है। यह एक ऐसा रिश्ता है जो जीवन को जीने लायक बनाता है। यही वह रिश्ता है जहां आप जिंदगी के असल मायने सीखते हैं। मां और बच्चे का रिश्ता हर लेन-देन से परे है। आज जहां हर चीज का बाजारीकरण कर दिया गया है, वहां यही एक रिश्ता है जो बिना शर्त प्रेम में बंधा है।

हमारे यहां कहा जाता है कि पुत्र कुपुत्र हो सकता है, मगर माता कुमाता नहीं हो सकती। लेकिन मैं इस बात से सरोकार नहीं रखता। मेरा मानना है कि जिस तरह माता कुमाता नहीं होती, उसी तरह पुत्र भी कुपुत्र नहीं होता। यह बात अलग है कि पुत्र उस प्रेम को जाहिर नहीं कर पाता। अपने भीतर से वह भी अपनी मां से उसी प्रेम के साथ जुड़ा होता है। एक कवि होने के नाते मैं यह मानता हूं कि यही एक ऐसा रिश्ता है जिसके बारे में मेरे विचार हमेशा वही रहते हैं।

मेरे लिखे गीत 'तुझे सब है पता, मेरी मां' बहुत ही साधारण लाइन है लेकिन इन शब्दों में सबसे बड़ा सच छुपा है। यह सच शायद हर मां और हर बच्चे को पता है। ये भावना सभी में होती है, मैंने बस इन्हें शब्द दे दिए। इसी वजह से लोग इस गीत से इतना जुड़ पाए। भले ही वह जानवरों की मां हो या इंसानों की, जब वह अपने बच्चों को दूध पिलाती है तो ऐसा कभी नहीं हुआ कि लड़के को ज्यादा पिलाए और लड़की को कम। उसके लिए अपने बच्चों में कोई फर्क नहीं होता।

दुनिया में हर रिश्ते को समझने की जरूरत हमें पड़ती है लेकिन मां और बच्चे के रिश्ते को कभी दोबारा खोजना या समझना नहीं पड़ता। इस स्नेह को कसौटी पर रखने की जरूरत ही नहीं पड़ती। मुझे नहीं लगता कि मां और बच्चे के रिश्ते को सेलिब्रेट करने के लिए किसी खास दिन की जरूरत है। हालांकि मुझे उन लोगों से कोई परहेज नहीं जो 'मदर्स डे' मनाते हैं। मेरे खयाल से यह हमारी अपनी चॉइस होनी चाहिए। मदर्स डे का चलन वेस्टर्न कल्चर से आया है। वहां इसकी जरूरत भी है क्योंकि उन्हें रिश्तों को मजबूत बनाने के लिए सामने वाले को खास महसूस करवाना पड़ता है, जबकि हम भावनात्मक रूप से एक-दूसरे से जुड़े हैं। हमारी कलेक्टिव सोसायटी है। यहां की संस्कृति में ही रक्षाबंधन और करवाचौथ जैसे त्योहार हैं जिनमें भाई और पति अपने आपको खास महसूस करते हैं। मैं तो यही कहूंगा कि मदर्स डे हो या साल के बाकी दिन, बस मां का साथ बना रहना चाहिए। इसी रिश्ते को मेरी कुछ लाइन समर्पित-

जिंदगी रफ्तार लेती जा रही है,

तेज उसकी धार होती जा रही है।

रोज रिश्तों के नये मतलब निकलते जा रहे हैं,

पर अभी भी थपकियों की गति वही है, लय वही है,

और ममता से भरा स्पर्श भी बिल्कुल वही है।

शुक्र है सूरज वहीं है, चंद्रमा भी है अभी तक

शुक्र है जिंदा है लोरी, है जहां में मां अभी तक।

http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/paperweight/entry/

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Re: PRASOON JOSHI - AD GURU, LYRICIST IN BOLLYHOOD FROM UTTARAKHAND
« Reply #52 on: February 09, 2014, 11:41:02 AM »
टीवी और इंटरनेट ने हमारे दिलो-दिमाग पर क्या असर किया है, इसे इस उदाहरण से समझते हैं। एक छोटा बच्चा क्रिकेट खेल रहा था। उसने शॉट मारा और उसके फौरन बाद दोबारा वैसा ही शॉट मारा, लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता, धीरे-धीरे बिल्कुल ऐक्शन रिप्ले की तरह। उसे देखकर मैं समझ गया कि वह टीवी में दिखाए जानेवाले रिप्ले की कॉपी कर रहा है क्योंकि उसे नहीं लगता कि उसके बिना उसका शॉट पूरा होगा। इसके लिए वह ऐक्शन रिप्ले को जरूरी मानता है। वह टीवी पर दिखाए जाने वाले क्रिकेट को ही पूरा क्रिकेट मानता है।

वह बच्चा ही क्यों, हमारी पूरी एक जेनरेशन उसे ही सच मानती है क्योंकि ऐसे लोग कितने हैं, जो सचमुच स्टेडियम में जाकर मैच देखते हैं। हमारे सामने पूरी जेनरेशन है, जिसने टीवी से क्रिकेट देखा। दरअसल, हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं, जहां वर्चुअल रिऐलिटी या प्रोजेक्टिड या प्रक्षेपित सच असलियत से बड़ा हो गया है।

क्रिकेट के मामले में सच तो वह है, जो मैदान पर खेला जा रहा है। टीवी पर दिखाया जानेवाला रिप्ले सच नहीं है। आम लोग इस फर्क को समझ नहीं पाते। हमारी आज की पीढ़ी जो कुछ ग्रहण कर रही है, चीजें जिस तरह और जिस रूप में उस तक पहुंच रही हैं, वह उसके मूल और स्वाभाविक रूप से अलग है। इसमें टीवी का अपना योगदान है। उस पर दिखाई जानेवाली चीजों के पीछे कैमरे का कमाल होता है। कैमरे का अपना ऐंगल है। क्रिकेट ही क्यों, और भी बहुत-सी चीजों पर यह बात सच बैठती है। हमारे एक यंग फिल्म मेकर हैं। उन्होंने कभी असल में किसान नहीं देखा। किसान की वही छवि उनके मन में है, जो उन्होंने फिल्मों में देखी है। उनके लिए प्रोजेक्टिड सच ही असलियत बन गया। जाहिर है, अपनी फिल्म में वह जब भी किसान दिखाएंगे, वह वैसा ही होगा जो उन्होंने फिल्मों में देखा होगा।

इसी तरह डिस्कवरी, ऐनिमल प्लेनेट जैसे चैनलों पर कई बार जानवरों को बड़े ही मनोरंजक तरीके से दिखाया जाता है। कई बार कार्यक्रम को कहानी की तरह दिखाया जाता है। उनमें मानवीय संवेदनाएं डाली जाती हैं, जो कि सच नहीं हैं। आपके मन में उस जानवर की वही छवि होगी, जो आपने टीवी पर देखी होगी। आपको लगेगा कि शायद ये जानवर ऐसे ही करते होंगे, जैसे टीवी पर दिख रहे हैं। खबरों में भी नाट्य रूपांतर हावी हो गया है। खबर का न्यूट्रल टच गायब हो गया है। उसे रोचक और मसालेदार बनाया जा रहा है। सच की अपनी ऊर्जा खत्म हो रही है। सच कितना बड़ा था, यह कोई नहीं जानता। छोटी-सी खबर को मिर्च-मसाला लगाकर ऐसे दिखाया जाता है कि लोग उसकी तरफ खिंचे चले आते हैं। लोग उसे ज्यादा शिद्दत से देखते हैं। इसके बाद उस घटना के प्रति जो आपकी प्रक्रिया होती है, वह स्वाभाविक नहीं होती।

हम जब किसी अवॉर्ड शो में जाते हैं तो वहां का सीन ही अलग होता है। कुर्सियां बिछ रही होती हैं, तारें फैली होती हैं, लोग यहां से वहां दौड़ रहे होते हैं। बाद में जब वह अवॉर्ड फंक्शन टीवी पर टेलिकास्ट होता है तो इतना चमकीला और भड़कीला नजर आता है कि आंखें चौंधिया जाती हैं। लोग उस फंक्शन के पीछे की सचाई जान ही नहीं पाते कि वहां असल में हो क्या रहा था? वे उसी सच को देखेंगे और जानेंगे, जो परदे पर नजर आया। उसके पीछे का सच तो छुपा ही रह जाता है। कई बार इस तरह की वर्चुअल रिऐलिटी से लोगों को छद्म सुख भी मिलने लगता है। हालांकि यहां यह नहीं कहा जा सकता कि यह सही है या गलत? बात सिर्फ रिऐलिटी और वर्चुअल रिऐलिटी के फर्क को समझने की है।

वह बच्चा तब कर अपना क्रिकेट पूरा नहीं समझेगा, जब तक वह ऐक्शन रिप्ले नहीं कर लेगा क्योंकि टीवी पर देखी गई इन्हीं चीजों का उसके मन पर गहरा असर पड़ा है। उसे लगता है कि यह काम ऐसे ही पूरा होगा, जैसे टीवी पर दिखा है। यह एक बारीक और महीन-सी बात है, जिसे समझने की जरूरत है। मैं उपदेश देने की कोशिश नहीं कर रहा हूं, न ही किसी चीज की खिलाफत कर रहा हूं। क्रिकेट आज जितना पॉपुलर है, उसके पीछे टीवी का काफी योगदान है। लेकिन मैदान के क्रिकेट और टीवी के क्रिकेट के बीच का फर्क समझना भी जरूरी है।

http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/paperweight/entry/%E0%A4%B0-%E0%A4%90%E0%A4%B2-%E0%A4%9F-%E0%A4%AA%E0%A4%B0-%E0%A4%B9

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Re: PRASOON JOSHI - AD GURU, LYRICIST IN BOLLYHOOD FROM UTTARAKHAND
« Reply #53 on: February 09, 2014, 11:42:25 AM »
खून से लिखी जाती है क्रांति, इंटरनेट से नहीं

पेपरवेट
प्रसून जोशी   
कोई मुद्दा हवा में न उड़ जाए
खून से लिखी जाती है क्रांति, इंटरनेट से नहीं
प्रसून जोशी  M

अन्ना हजारे के आंदोलन को जिस तरह लोगों का सपोर्ट मिला, उसकी कल्पना भी शायद किसी ने नहीं की होगी। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि जिस तरह आम जनता इस आंदोलन से जुड़ी और इसे कामयाब बनाया, उसमें सोशल नेटवर्किंग साइट्स का बहुत बड़ा योगदान रहा है। मैंने देखा कि लोगों ने अपने-अपने फेसबुक प्रोफाइल पर अन्ना हजारे की मुहर लगाई हुई थी। इंटरनेट के जरिए अन्ना का बायोडेटा सर्कुलेट हुआ। बहुत सारे लोग इससे प्रेरित हुए और आंदोलन का हिस्सा बने। सवाल यह है कि क्या बड़ी क्रांति के लिए इस तरह का वर्चुअल सपोर्ट काफी है?

मेरे हिसाब से बिल्कुल नहीं। अब तक का इतिहास उठाकर देख लें, तो पाएंगे कि बड़ी क्रांति वहीं हुई है, जहां लोग खुद सड़कों पर उतरे हैं। पहले आंदोलन का मतलब होता था अपना खून बहाना। अब एयरकंडिशंड कमरे में बैठ सिर्फ माउस पर अपनी उंगली हिलाकर 'आई अग्री' या 'लाइक' पर क्लिक कर देने मात्र से क्या आप अपने आपको आंदोलन का हिस्सा मान सकते हैं? डिजिटल वर्ल्ड में जी रहे लोग दरअसल डिजिटल क्रांति ही कर रहे हैं। इतिहास में जो क्रांतियां हुई हैं, वे खून से लिखी गईं। उसमें लोगों का खून-पसीना बहा। क्रांति में झंडे, बिल्ले और नारों का महत्व है। इसे हम क्रांति की ब्रैंडिंग कह सकते हैं। फिर भी इनका महत्व कम नहीं आंका जा सकता। झंडे आपको अपने हाथों से ही फहराने होंगे और नारे आपको अपने मुंह से ही लगाने होंगे। इनका विकल्प इंटरनेट नहीं हो सकता। आज की क्रांति ऐसी नहीं है और यह सब सांकेतिक आंदोलन में तब्दील हो गया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह वर्चुअल वर्ल्ड हमारे आक्रोश को ठंडा करने का जरिया बन गया है? इस सवाल पर हमें विचार करने की जरूरत है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर ही अपना विरोध जता देना किसी छद्म आंदोलन का हिस्सा लगता है। ऐसा करके जो सुख मिलता है, वह भी छद्म सुख ही है। सोशल साइट पर एक कमेंट डालकर आप अपनी जिम्मेदारी से बच सकते हैं, खुद को काम करने से बचा सकते हैं।

मेरे ही एक जानने वाले के फेसबुक प्रोफाइल पर अन्ना हजारे की मुहर लगी थी। मैंने उसे फोन किया और पूछा कि वह अन्ना हजारे के बारे में कितना जानता है? मगर उसका जवाब निराशाजनक ही रहा। भले ही वह अन्ना के बारे में पूरी तरह नहीं जानता था लेकिन उसके फेसबुक पर उनकी मुहर थी। इस बात से यह साफ अंदाजा लगाया जा सकता है कि ऐसे लोगों का आंदोलन में कितना इनवॉल्वमेंट है। अब आंदोलन भी एक फैशन का रूप ले रहा है। सोशल साइट्स पर भी कुछ लोग तो सिर्फ इसलिए जुड़ते हैं कि देखिए, हम भी इसका हिस्सा हैं और हम भी सामाजिक सरोकार से जुड़े हैं। यहां सोचने वाली बात यह है कि खुद को बिना कष्ट दिए, एसी कमरों और आफिसों में बैठकर कैसे हम अपने आपको किसी आंदोलन का हिस्सा मान सकते हैं? यह सही है कि सोशल साइट्स लोगों को जोड़ने का बहुत बड़ा प्लैटफॉर्म हैं और भविष्य में रहेंगी भी, लेकिन ये साइट्स असली क्रांति करने का माद्दा कभी नहीं रख सकतीं। इसके लिए खुद इंसान को ही सड़कों पर उतरना होगा।

इंटरनेट का रोल इतना ही है कि वह संदेश को फैलाए। उसे सूचना प्रसार का जरिया माना जा सकता है। यह कर्म का अंत नहीं हो सकता। अगर आपको भूख लगी है तो असल खाना ही खाना होगा। नेट पर खाने की थाली देखकर पेट नहीं भरा जा सकता। ठीक ऐसे ही नेट के जरिए आंदोलन का हिस्सा नहीं बना जा सकता। जब भी गांधी जी ने अनशन किया तो देश के बच्चे-बच्चे को पता था कि आज गांधी जी ने खाना नहीं खाया। तब तो ऐसी सोशल साइट्स नहीं हुआ करती थीं। फिर भी आंदोलन असरकारी होते थे। पिछले दिनों आई एक रिसर्च रिपोर्ट से यह साबित होता है कि किसी भी सोशल साइट पर बने रिश्ते वास्तविक रिश्तों से कमजोर होते हैं। मेरा मानना है कि फेसबुक पर 'क्लिक' करने की बजाय अगर सशरीर उस आंदोलन का हिस्सा बना जाता तो शायद भावना कुछ और ही होती। यही वजह है कि मुद्दों से गंभीरता से जुड़ने की जरूरत है, तभी असल क्रांति होगी।

http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/paperweight/entry/%E0%A4%96-%E0%A4%A8-%E0%A4%B8-%E0%A4%B2-%E0%A4%96

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Re: PRASOON JOSHI - AD GURU, LYRICIST IN BOLLYHOOD FROM UTTARAKHAND
« Reply #54 on: February 09, 2014, 11:43:40 AM »

पेपरवेट

प्रसून जोशी   

कोई मुद्दा हवा में न उड़ जाए
भ्रष्टाचार हमारी संस्कृति में बस गया है

पिछले दिनों एक के बाद एक बहुत-से घोटाले सामने आए। हर तरफ बस करप्शन को लेकर ही बातें हो रही थी। ऐसी ही चर्चा मैं भी अपने एक राजनीतिज्ञ मित्र से कर रहा था। वह एमएलए है और इस बाबत चर्चा करने के लिए मेरे पास उनसे बेहतर विकल्प भी नहीं हो सकता था। भ्रष्टाचार को लेकर जब मैंने कहा कि अगर तमाम राजनीतिज्ञ और सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह बढ़ाकर कॉरपोरेट वर्ल्ड के दर्जे की कर दी जाए तो शायद करप्शन में कमी आ सकती है। हालांकि मेरे इस सुझाव से वह पूरी तरह असहमत थे। उनका कहना था कि ऐसा होने पर भी करप्शन को कम नहीं किया जा सकता। दरअसल लोगों की मन:स्थिति ही ऐसी हो गई है, जहां करप्शन को गलत समझा ही नहीं जा रहा और तनख्वाह बढ़ने पर भी वह नहीं बदल सकती।

दरअसल करप्शन देश की जड़ों तक फैला है। वजह है, उसके प्रति हमारी मौन स्वीकृति। जब माता-पिता अपनी बेटी के लिए वर ढूंढते हैं तो उसकी हर आदत की छानबीन करते हैं। वह शराब और सिगरेट पीता है या नहीं, उसे कोई बीमारी है या नहीं या उसके चाल-चलन कैसा हैं? मगर यह जानने की कोशिश कोई नहीं करता कि वह लड़का रिश्वत लेता है या नहीं? अक्सर पैरंट्स लड़के की 'ऊपरी कमाई' को महत्त्व देते हैं।

हैरानी की बात तो यह है कि संभ्रांत परिवार के लोग यह पूछते हैं कि लड़के की दो नंबर की कमाई है या नहीं? कोई मां यह नहीं चाहती कि उसकी बेटी की शादी शराबी से हो लेकिन लड़के की 'ऊपरी कमाई' है तो उसके लिए मां की मौन स्वीकृति होगी। उसके मन में यह खयाल रहेगा कि ऊपरी कमाई से दामाद के पास ज्यादा पैसे आएंगे और हमारी बेटी ज्यादा सुखी रहेगी। यानी यह करप्शन हमारी संस्कृति में घुल गया है। इसकी हद तो यह है कि हमने भगवान को भी इसमें शामिल कर लिया और इसे गलत भी नहीं मानते।

मैं कुछ ऐसे लोगों को भी जानता हूं जो मंदिर में जाते हैं और भगवान से अपने फायदे का फिक्स पर्सेंट चढ़ाने की बात कहकर मन्नत मांगते हैं। उतना मुनाफा होने के बाद वह बकायदा हिस्सा चढ़ाते भी हैं। पिछले हफ्ते ही एक दोस्त से एयरपोर्ट पर मिला। वह किसी मंदिर से होकर लौटे थे और अपनी आप बीती सुनाते हुए बता रहे थे कि किस तरह उन्होंने पंडित को पैसे देकर दर्शन किए। उनकी नजर में पैसा खिलाकर भगवान तक पहुंचने में कोई खराबी नहीं थी। मतलब साफ है कि अगर भगवान के साथ सौदेबाजी हो रही है तो इंसान की तो क्या हैसियत है।

समस्या यह है कि समाज में 'कैसे' की बजाय 'क्या' को महत्त्व दिया जा रहा है। आपको कोई नहीं पूछेगा कि आपने पैसा कैसे कमाया है, जबकि आपकी प्रतिष्ठा इस बात से आंकी जाती है कि आपके पास क्या है, कितना पैसा है? हर कोई देश समय और परिस्थिति के हिसाब से करप्शन में लिप्त है। इसकी सफाई में भी हमारे पास तर्क कम नहीं होते। रिश्वत लेने या देने वाला कहता है कि अगर मैं नहीं करूंगा तो कोई और करेगा। वही लोग जब बड़े स्तर पर घोटाले होते हुए देखते हैं तो भूल जाते हैं कि वह खुद भी इसी का हिस्सा हैं। अगर आम जीवन में हम कभी भी करप्शन में हिस्सेदार रहे हैं तो हमें कोई हक नहीं बनता कि हम उन लोगों को भला-बुरा कहें जो बड़े स्तर पर घोटाले कर रहे हैं।

मुझे लगता है हमारी धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था में कभी इस तरह की कोई आचार संहिता ही नहीं रही जहां करप्शन को गलत बताया गया हो। जब तक इंसान अपने विवेक से यह फैसला नहीं लेता कि क्या सही है और क्या गलत, तब तक यह सब रुक भी नहीं सकता। हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में छोटी-छोटी जरूरतों के लिए किया गया करप्शन हमारी आदतों में आ गया है। हम जब तक इसे आदत के रूप में न देखकर करप्शन के रूप में देखेंगे तब तक इससे बाहर नहीं निकल सकते।

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Re: PRASOON JOSHI - AD GURU, LYRICIST IN BOLLYHOOD FROM UTTARAKHAND
« Reply #55 on: March 26, 2014, 12:09:56 AM »
उत्तराखंड मूल के प्रसिद्ध गीतकार, ऐड गुरु प्रसून जोशी जी ने लिखा है भारतीय जनता पार्टी के लिए एक देशभक्ति से ओत प्रोत कविता। जिसका ऑडियो के रूप में आज बीजेपी ने लांच कर दिया है जिसे चुनाव प्रचार में इस्तेमाल किया जायेगा। गायक सुखविंदर और संगीत आदेश श्रीवास्तव। गीत लाइन देखिये

सौगंध मुझे इस मिट्टी की, मैं देश नहीं मिटने दूंगा
मैं देश नहीं मिटने दूंगा, मैं देश नहीं झुकने दूंगा।

मेरी धरती मुझसे पूछ रही, कब मेरा कर्ज चुकाओगे?
मेरा अंबर पूछ रहा कब अपना फर्ज निभाओगे?

वे लूट रहे सपनो को मैं चैन से कैसे सो जाऊं
वे बेच रहे भारत को खामोश मै कैसे हो जाऊं
मैंने कसम उठाई है मै देश नहीं बिकने दूंगा

वो जितने अंधेरे लाएंगे मै उतने उजाले लाऊंगा
वो जितनी रात बढ़ाएंगे मै उतने सूरज उगाऊंगा।
इस छल-फरेब की आंधी में मैं दीप नहीं बुझने दूंगा!

वे चाहते हैं जागे न कोई, बस रात का कारोबार चले
वे नशा बांटते जाएं, और देश यूंही बीमार चल....
पर जाग रहा है देश मेरा, हर भारतवासी जीतेगा!

मांओं बहनों की अस्मत पर, गिद्ध नजर लगाए बैठे हैं
मैं अपने देश की धरती पर अब दर्द नहीं उगने दूंगा

अब घड़ी फैसले की आई,हमने है कसम खाई
हमें फिर से दोहराना है,खुद को याद दिलाना है
न भटकेगे न अटकेगे, कुछ भी हो
इस बार हम देश नहीं मिटने देगे!

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एड गुरु बनने से पहले कुछ ऐसे रहते ‌थे सेंसर बोर्ड ने नए चेयरमैन प्रसून जोशी

जाने माने कवि कवि, गीतकार और एड गुरु प्रसून जोशी को फिल्म सेंसर बोर्ड का चेयरमैन बनाए जाने से उत्तराखंड के लोग बेहद खुश हैं। आइए जानते हैं प्रसून के जीवन की कुछ अनकही बातें.. मूल रूप से अल्मोड़ा के जाखनदेवी मोहल्ले में रहने वाले प्रसून का अल्मोड़ा से गहरा लगाव रहा है। तारे जमी पर, रंग दे बसंती, फना जैसी हिट फिल्मों के गीतकार और विज्ञापन के क्षेत्र में अनूठे प्रयोगों के लिए अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित कर चुके प्रसून जोशी का जन्म अल्मोड़ा के जाखनदेवी मोहल्ले में हुआ। उनके पिता डीके जोशी शिक्षा विभाग में अधिकारी थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गोपेश्वर और नरेंद्रनगर गढ़वाल में हुई। गाजियाबाद से एमबीए करने के बाद वह 1992 में विज्ञापन की दुनियां से जुड़ गए। मूलत: वह कवि हैं। 1996 में उनका पहला एलबम अब के सावन आया निकला। वह तारे जमी पर, रंग दे बसंती, फना जैसी हिट फिल्मों के साथ ही एक दर्जन से अधिक चर्चित फिल्मों के लिए गीत लिख चुके हैं। उन्हें दो बार फिल्म फेयर और दो बार आइफा समेत कई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं।

प्रसून जोशी के गीतों और विज्ञापनों में पहाड़ और प्रकृति का विशेष स्थान रहता है। उन्होंने अपने कई गीतों और विज्ञापनों में पहाड़ का चित्रण करने के साथ ही यहां के परिवेश को संजोया है। कुछ साल पहले अल्मोड़ा में अमर उजाला से बातचीत में उन्होंने कहा था कि किसी क्षण जब वह अटक जाते हैं तब प्रकृति का सहारा लेकर ही आगे बढ़ते हैं। उनका कहना था कि पहाड़ सबको अपना लेता है और इस अंचल ने उन्हें खुली सोच दी है।

प्रसून जोशी का जन्म उत्तराखंड में 1971 में हुआ। उन्हें विज्ञापन और फिल्म जगत के सम्मानित लोगों में गिना जाता है। उन्होंने कई फिल्मों के गाने, डायलॉग और स्क्र्तीनप्ले लिखे हैं। प्रसून ने 17 साल की उम्र में लिखना शुरू कर दिया था। एमबीए करने के बाद प्रसून ने दस साल एक कंपनी में काम किया। फिर मैकैन एरिक्सन से जुड़े। आखिरकार राजकुमार संतोषी की फिल्म लज्जा से उन्हें फिल्मों में एंट्री मिली।

लेखक, गीतकार, एड गुरु और मार्केटिंग इंडस्ट्री की मशहूर शख्सियत हैं। जोशी को दो बार सर्वश्रेष्ठ गीतकार के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है। ये अवार्ड उन्हें तारे जमीं पर और चिटगॉन्ग फिल्मों के गीतों के लिए दिया गया है। 2015 में कला, साहित्य और एडवरटाइजिंग के क्षेत्र में योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री से नवाजा गया।

amar ujala

 

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