श्रीमती जसूली दताल उर्फ जसूली सौक्याण
इनका अनुमानित जीवनकाल 1805 से 1895 तक का है, इनका जन्म पिथौरागढ़ जिले की धारचूला तहसील के दारमा परगने के अन्तर्गत दांतू गांव में हुआ था। यह एक धनाढय परिवार में जन्मी थीं और अपने माता-पिता की इकलौती सन्तान थीं। विवाह के बाद इनकी कोई सन्तान भी नहीं हुई थी। इनके जीवन से संबंधित एक विचित्र और सत्यकथा यह है कि एक बार कुमाऊं के कमिश्नर हैनरी रैमजे अपने दौरे पर दुग्तू से दांतू गांव की ओर जा रहे थे, रास्ते में उन्होंने देखा कि एक वृद्ध महिला न्यूलामती नदी के किनारे पर चांदी के सिक्कों को एक-एक कर नदी में बहा रही थी। दांतू पहुंच कर गांव वालों से जब रैमजे ने इस विचित्र महिला के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि जसूली जी हर सप्ताह मन भर चांदी के सिक्के न्यूलामती नदी को दान कर देती हैं। रैमजे ने जसूली को समझाया कि इस धन का उपयोग जनहित में हो सकता है, वे इस प्रस्ताव को मान गई और धर्मशालायें बनवाने की इच्छा जताई और इनका असीम धन भेड़-बकरियों पर लाद कर अल्मोड़ा पहुंचवाया गया। इसी धन से हैनरी रैमजे ने जसूली सौक्याण के नाम से ३०० से अधिक धर्मशालायें बनवाई, इन्हें बनने में २० वर्ष से अधिक का समय लगा। इनमें सबसे प्रसिद्ध हैं- नारायण तिवाड़ी देवाल, अल्मोड़ा की धर्मशाला, इसके अलावा वीरभट्टी (नैनीताल), हल्द्वानी, रामनगर, कालाढूंगी, रातीघाट, पिथौरागढ़, भराड़ी, बागेश्वर, सोमेश्वर, लोहाघाट, टनकपुर, ऐंचोली, थल, अस्कोट, बलुवाकोट, धारचूला कनालीछीना, तवाघाट, खेला, पांगू आदि अनेक स्थानों पर धर्मशालायें हैं, जो उन महान विभूति की दानशीलता का स्मरण आज भी कराती हैं।