Uttarakhand > Personalities of Uttarakhand - उत्तराखण्ड की महान/प्रसिद्ध विभूतियां

उत्तराखण्ड के क्रांतिवीर-स्व० श्री विपिन चन्द्र त्रिपाठी/ Vipin Chandra Tripathi

<< < (2/8) > >>

Anubhav / अनुभव उपाध्याय:
Mahar ji Vipin Chandra Tripathi ji ke jeevan aur sangharsho ke baare main forum ko batane ke liye dhanyavaad.

पंकज सिंह महर:
त्रिपाठी जी मात्र उत्तराखण्ड के हे नेता नहीं थे, वे मजदूरों के हितों के प्रति भी बहुत चिंतित रहते थे। उत्तरखण्ड विधान सभा में वे लोक लेखा समिति के सदस्य थे और समिति के अध्ययन भ्रमण पर वे एक बार पूना गये थे। उन्हें वहां से ट्रेन पकड़नी थी और ट्रेन लेट थी, इसी स्टेशन पर कुली और रेलवे के कुछ कर्मचारी अपनी मांगों को लेकर आन्दोलन कर रहे थे। तो त्रिपाठी जी ने अपना परिचय देते हुये उनकी समस्याओं को सुना और उनकी मांगों को जायज बताकर उन्हें समर्थन दिया तथा वहां पर उन्हें सम्बोधित भी किया, मेरे ख्याल से वह पहले ऎसे उत्तराखण्डी होंगे, जिनकी जिन्दाबाद के नारे पूना में भी लगे।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
Bipin Chandra Tripathi
 
Bipin Chandra Tripathi was the chief of the Uttarakhand Kranti Dal, a political party recognised in the Indian state of Uttarakhand.

पंकज सिंह महर:
त्रिपाठी जी का संस्मरण चारु दा द्वारा प्रकाशित "जननायक" पुस्तक से

"मुझे रह-रह कर जेल से छूटने पर रानीखेत से द्वाराहाट को जाते समय शुभचिन्तकों द्वारा अपने पैंसोम की भाड़े की टैक्सी में क्रांतिकारी बन कर बैठने के अहम के अंतिम क्षणों में जम्बू-गंदरैणी बेचने वाले लिद्दड़-बिद्दड़ उस भोटिया भाई के शब्द डंक की तरह चोट मार रहे हैं-"भुला! आदमी ने अपनी औकात नहीं भूलनी चाहिये। तुमने अभी किया ही क्या है, जो तुम टैक्सी के बगैर द्वाराहाट नहीं जा सकते।" उसके ये शब्द मुझे इतनी गहराई तक चोट कर गये कि मैं थोड़ी देर के लिये धम्म से जमीन पर बैठ गया, मेरी घिग्घी बंध गई। होश आने पर टैक्सी का प्रस्ताव रद्द करने के बाद २ बजे की बस से हम द्वाराहाट को चले। द्वाराहाट से २ कि०मी० पहले ही मेरी बस में होने की खबर के बाद जिंदाबाद के नारों के साथ जनता ने मुझे घेर लिया। मुझे याद आया कि ६ जुलाई, १९७५ को जब शाम ५ बजे मेरी दुकान से मुझे बंदी बनाकर मेन चौराहे पर खड़े ट्रक की ओर ले जाया जा रहा था। ५० गज की दूरी पर गोलाई में खड़े लोग यह सब देख रहे थे और इस तरह से देख रहे थे कि जैसे मैं कोई कत्ली मुल्जिम हूं और मेरे मन म्वं देखने वालों के प्रति एक हिकारत और नफरत की भावना ने घेर कर लिया।
       जिस वक्त मैं बस से नीचे उतरा, उस समय मुझे अपनी भारी भूल का अहसास हुआ और अपने से ही नफरत सी होने लगी कि ६ जुलाई, ७५ को मजबूर लोगों की वह दूरी उस आतंककारी व्यवस्था की देन थी, जिसने मेरे लोगों को भी मुझसे नहीं मिलने दिया और मैं उसे अपने प्रति अपने ही लोगों का छल समझ बैठा। ढोल-नगाड़े बजाते हुये घटगाड़ से जुलूस आगे को बढ़ा और मृत्युंजय के पास दोनों ओर खड़ी ईजाओं और दीदीयों द्वारा फूल और आंखत बरसाते हुये जो अकिंचन स्नेह और अपनत्व मुझे मिला, उससे लगा कि क्या यह स्नेह, यह प्यार, यह अपनापन रुपये पैसे से भी खरीदा जा सकता है।
      मैं सोचने लगा कि जितना अपनत्व हमें अपने इन लोगों से मिलता है, यदि उसका चौथाई हिस्सा भी बिना मिलावट के उन्हें लौटा दें तो फिर दशकों से भूख-प्यास और गरीबी में तड़फड़ाती इस छल-कपट से कोसों दूर निश्छल जनता को शायद आज के समाजसेवी नेताओं की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। हितचिंतक सभा के प्रांगण में बांई ओर पोखर से सटी दीवार के ऊपर तीस फुट ऊंचा रंग-बिरंगी झंडियों से सजाया हुआ मैंने अपने जीवन में पहली बार देखा (यद्यपि सत्ताधीशों की दरबारगिरी के लिये जनता के नाम पर इससे कहीं बड़े व हजारों की लागत के मंच बने हैं और बन रहे हैं) किसी प्रकार लोगों से मिलते-जुलते मैंने मंच पर पहुंच कर उनके प्रति कृतग्यता प्रकट करने की हठधर्मिता तो की, लेकिन फिर भी रह-रह कर उस भोटिया भाई के "भुला! अपनी औकात मत भूलना" शब्द चोट मारने लगे।

पंकज सिंह महर:
श्रद्देय त्रिपाठी जी के साथ करीब से रहने का सौभाग्य मुझे भी मिला, जब वह उत्तराखण्ड विधान सभा में विधायक थे, तो अक्सर उनसे मेरी मुलाकात होती थी, कुछ सरकारी दौरों में भी मुझे उनके साथ जाने का मौका मिला, सदन में सदन की समितियों में जन भावना को प्रमुखता से रखते मैंने उन्हें स्वयं देखा। उनकी सच्चाई से सभी लोग भयभीत रहते थे, सही बात को प्रभावी ढंग से कहना, त्रिपाठी जी से सीखा जा सकता है। उत्तराखण्ड की छोटी-छोटी चीजों की उन्हें जनकारी थी। एक बार नैनीताल में जल निगम का निरीक्षण करने जब हम लोग गये तो अधिकारियों ने बताया कि फ्लैट के छोर पर जो नलकूप लगे हैं, वह झील का पानी नहीं खींचते हैं, तो त्रिपाठी जी ने कहा कि जहां पर यह मैदान है वहां पर भी झील ही थी, १९१० के आस-पास यहां पर नैना पीक से भू-स्खलन हुआ था, आज भी इसके नीचे झील है, तो अधिकारियों का मुंह देखने लायक था।
     उनकी एक और खात बात थी, वह वी०आई०पी० होने के बजाय बिपिन दा ही रहना चाह्ते थे। विधायक बनते ही जहां लोग नई और लग्जरी गाड़ी खरीद लेते हैं, वहीं त्रिपाठी जी देहरादून से द्वाराहाट या कहीं और का सफर बस से ही तय किया करते थे। एक बार मैंने कहा चाचा जी ( मैं उनको विधायक जी की जगह यही सम्बोधन देते थे और वे भी मुझे इसी रिश्ते का स्नेह देते थे) आपको रेलवे कूपन मिलते हैं आप हल्द्वानी तक ट्रेन से जाया करिये या टैक्सी से। तो उन्होंने कहा कि मैं वी०आई०पी० नहीं बनना चाहता। ट्रेन में सब सो जाते हैं और टैक्सी में २-३ आदमी ही जा पाते हैं, वहीं बस में ५०-६० लोगों से सम्पर्क होता है, उनकी समस्यायें पता चलतीं है, उनके विचार पता चलते हैं, ऎसा नहीं होता कि सिर्फ पढ़ा-लिखा आदमी ही विचारवान होता है। कभी-कभी अन्पढ़ भी ऎसी बात बताते हैं कि आई०ए०एस० भी वहां तक नहीं सोच पाते।
     तो इतने सरल और हर समय उत्तराखण्ड के विकास की सोच रखने वाले थे, त्रिपाठी जी। वासतव में उनके जाने से हमेने एक ऎसा नेता खो दिया, जिसकी हुंकार और दहाड़ गलत काम करने वालों को दुबकने के लिये मजबूर कर देती थी।
     उनकी मृत्यु के बाद सदन में उन्हें श्रद्धांजलि दी गई थी, वैसा सन्नाटा मैंने सदन में सभी नहीं देखा, सभी गमगीन और अधिकांश उनकी चर्चा करते समय रो भी पड़े थे। श्री काशी सिंह ऎरी जी ने अपना भाषण रोते-रोते ही पूरा किया था, उन्होंने कहा कि त्रिपाठी जी की मृत्यु के बाद उनके बड़े और छोटे भाई को ढांढस बधाते हुये मैंने कहा कि "दाज्यू आप कह रहे होम मेरा छोटा भाई चला गया, मैं क्या करुं" और भुला तुम कह रहे हो कि मेरा ददा चला गया मैं क्या करुं, मेरा तो बड़ा और छोटा भाई ही चला गया, आप लोग बताओ, मैं क्या करुं"
       सदन में यह सब लिखते हुये भी मेरे आंखों में आंसुं थे और इन पंक्तियों को लिखते समय भी।

Navigation

[0] Message Index

[#] Next page

[*] Previous page

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 
Go to full version