गढवाल एवं कुमाऊं अंचलों में बंटे उत्तराखंड में मुख्यत: गढ़वाली एवं कुमाउनी बोलियां बोली जाती हैं। नेपाल एवं तिब्बत की सीमा से लगे हुए क्षेत्र में नेपाली एवं तिब्बती भाषा का पुट देखने को मिलता है जबकि देहरादून के भाबर क्षेत्र में रहने वाले जौंनसार जनजाति के लोग जौंनसारी बोली बोलते हैं। भोटिया, थारू, बुक्सा, सौक, जौनसार इत्यादि यहां की प्रमुख जनजातियां हैं। इनके अपने रीति रिवाज, बोलियां एवं त्यौहार हैं।
लोक गीत किस भी अंचल के हों, उनमें प्राय: जीवन के विविध रूपों का सुन्दर समावेश होता है। इनमें त्यौहार, रूप-रंग, हर्ष-उल्लास, भय, राग-द्वेष, विरह-वेदना, स्वप्, प्रेम, घृणा, बदलता परिवेश आदि सब कुछ उपस्थित रहता है। उत्तराखंड के लोकगीतों में झोड़ा, झुमैलों, चांचरी, खुदेड़, कृषिगीत, उत्सवगीत, ऋतुगीत, देवताओं के आह्वान से संबंधित जागर गीत एवं शादी-ब्याह और अन्य मंगल कार्य के अवसरों पर गाए जाने वाले शगुन गीत शामिल हैं।
इन सभी प्रकार के गीतों में प्रकृति का सुन्दर चित्रण दृष्टिगोचर होता है। वसंत ऋतु के आगमन के साथ ही समूची धरा रंग-बिरंगे फूलों का परिधान धारण कर कवियों, गीतकारों और कलाकारों को सृजन के लिए प्रेरित करती है। इस ऋतु में बुरांस, प्योली, कुंज, भिजौली, आडू, मेहल, खुबानी, आलूबुखारा एवं तमाम तरह की जंगली वनस्पतियां सुन्दर पुष्पों से आच्छादित हो जाती हैं।
प्योली और बुरांस का फूल पर्वतीय अंचल के जनजीवन से जुड़ा हुआ है। चैत्र मास की पहली तिथि को कुमाऊं में मनाए जाने वाले त्यौहार का नाम ही 'फूल संक्रान्ति' है। इस दिन नन्हे-मुन्हे बच्चे बुरांस व प्योली के फूलों से अपने घर की दहलीज (घर के प्रवेश द्वार) की पूजा करते हैं तथा देवताओं को पुष्प अर्पित किये जाते हैं।