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Utttarakhand Language & Literature - उत्तराखण्ड की भाषायें एवं साहित्य / Re: Articles & Poem by Sunita Sharma Lakhera -सुनीता शर्मा लखेरा जी के कविताये
« Last post by Sunita Sharma Lakhera on February 05, 2023, 01:08:19 PM »प्रकृति पीड़
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सुन रे मानव!
पहाड़ चिरशांति का उद्बोधक
कोलाहल तुम्हारा हो या औजारों का
उसके अनहद को भंग करता होगा
मानवीय क्रिया- कलापों पर सिर धुनता होगा
सहनशीलता की भी एक उम्र होती है...
फिर क्रोध का आवेग उसमें भी जन्मेगा..
ज्वालामुखी की शक्ल में सबकुछ लीलने को आतुर...!
विकास के हर एक उद्भव का अंत मिट्टी है..
मिट्टी का वजूद मिट्टी पहाड़ हो या मैदान ..
आक्षेपों के आवरण में लिपटी परियोजनाएं..
अपनी असफलता गीत गाती है ..
इंसान प्रकृति के न्याय के आगे हतप्रभ...
शहर के बसने से जमींदोज़ होने तक के सफर में ...
बेवक्त मिले बिछोह सहने को मजबूर..
अपनी असफलताओं पर हाथ मलता है !
विकास पीड़ की अंतहीन वेदना सहते हुए..
अपने वज़ूद के दरकने की आवाज़...
कब तक चेताएगी संवेदनशील प्रकृति?
जो छिन जाए वो टीस बन ही जाएगी...
तृष्णाओं की संवेदनहीन मकड़जाल पर ...
फिर मिट्टी में विलीन हो जाएगी मिट्टी बनकर !
हर बरस आग- बाढ़ का बोझ सह- सह कर ...
मैदानों में उतर आते हैं पहाड़ी लोग ...
अपने सपनो के बसेरे को खो देते विकास के नाम पर ....
और जारी रहता है मिट्टी का सफर मिट्टी बनाने तक ....!
त्रासदी का एक ही झटका छीन लेती कमाई उम्र भर की...
पीछे छोड़ जाती मजबूरियों ,वीरानियों सा नीरस जीवन ...
जारी रहता प्रकृति का न्यायिक चक्र अनवरत ...
इसलिए मात्र एक ही समाधान शेष..
आपदा आये जब कभी भी तुम निराश मत होना!
प्रकृति से छेड़खानी की कहानी यूंही नहीं भुलाई जा सकती ...
मिट्टी के वजूद भर इंसान की बिसात एक दिन मिट्टी में मिल जाती..
ये तो प्रकृति उपक्रम हर बरस चलचित्र दिखाती..
सुनो ! तुम बस कभी आंसू मत बहाना
नव जीवन संचार का इंतज़ार करना!
प्रकृति के लेन -देन में भेदभाव नहीं दिखता
जैसा बोएंगे वैसा ही तो काटेंगे फसल
सपनो के नीड़ फिर बस जाएंगे
चहुं ओर सुख - संपदा की गीत गाए जाएंगे
बस प्रकृति के गर्भ पर प्रहार मत करना
सृजन स्वर युगों से वो गा रही, गाती रहेगी !
सुनीता शर्मा ' नन्ही '
प्रतिष्ठित हलंत में पूर्व प्रकाशित
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सुन रे मानव!
पहाड़ चिरशांति का उद्बोधक
कोलाहल तुम्हारा हो या औजारों का
उसके अनहद को भंग करता होगा
मानवीय क्रिया- कलापों पर सिर धुनता होगा
सहनशीलता की भी एक उम्र होती है...
फिर क्रोध का आवेग उसमें भी जन्मेगा..
ज्वालामुखी की शक्ल में सबकुछ लीलने को आतुर...!
विकास के हर एक उद्भव का अंत मिट्टी है..
मिट्टी का वजूद मिट्टी पहाड़ हो या मैदान ..
आक्षेपों के आवरण में लिपटी परियोजनाएं..
अपनी असफलता गीत गाती है ..
इंसान प्रकृति के न्याय के आगे हतप्रभ...
शहर के बसने से जमींदोज़ होने तक के सफर में ...
बेवक्त मिले बिछोह सहने को मजबूर..
अपनी असफलताओं पर हाथ मलता है !
विकास पीड़ की अंतहीन वेदना सहते हुए..
अपने वज़ूद के दरकने की आवाज़...
कब तक चेताएगी संवेदनशील प्रकृति?
जो छिन जाए वो टीस बन ही जाएगी...
तृष्णाओं की संवेदनहीन मकड़जाल पर ...
फिर मिट्टी में विलीन हो जाएगी मिट्टी बनकर !
हर बरस आग- बाढ़ का बोझ सह- सह कर ...
मैदानों में उतर आते हैं पहाड़ी लोग ...
अपने सपनो के बसेरे को खो देते विकास के नाम पर ....
और जारी रहता है मिट्टी का सफर मिट्टी बनाने तक ....!
त्रासदी का एक ही झटका छीन लेती कमाई उम्र भर की...
पीछे छोड़ जाती मजबूरियों ,वीरानियों सा नीरस जीवन ...
जारी रहता प्रकृति का न्यायिक चक्र अनवरत ...
इसलिए मात्र एक ही समाधान शेष..
आपदा आये जब कभी भी तुम निराश मत होना!
प्रकृति से छेड़खानी की कहानी यूंही नहीं भुलाई जा सकती ...
मिट्टी के वजूद भर इंसान की बिसात एक दिन मिट्टी में मिल जाती..
ये तो प्रकृति उपक्रम हर बरस चलचित्र दिखाती..
सुनो ! तुम बस कभी आंसू मत बहाना
नव जीवन संचार का इंतज़ार करना!
प्रकृति के लेन -देन में भेदभाव नहीं दिखता
जैसा बोएंगे वैसा ही तो काटेंगे फसल
सपनो के नीड़ फिर बस जाएंगे
चहुं ओर सुख - संपदा की गीत गाए जाएंगे
बस प्रकृति के गर्भ पर प्रहार मत करना
सृजन स्वर युगों से वो गा रही, गाती रहेगी !
सुनीता शर्मा ' नन्ही '
प्रतिष्ठित हलंत में पूर्व प्रकाशित