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बनि  बनि मसाले, लूण  व छारों गुण  व लक्छण 
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चरक संहितौ सर्व प्रथम  गढ़वळि  अनुवाद   
 खंड - १  सूत्रस्थानम , 27th  सत्ताइसवां  अध्याय   ( अन्नपान विधि   अध्याय   )   पद  २९४  बिटेन   ३०६ तक
  अनुवाद भाग -  २४२
गढ़वाळिम  सर्वाधिक पढ़े  जण  वळ एकमात्र लिख्वार-आचार्य  भीष्म कुकरेती
s = आधी अ
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      !!!  म्यार गुरु  श्री व बडाश्री  स्व बलदेव प्रसाद कुकरेती तैं  समर्पित !!!
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सोंठ - थोड़ा स्निग्ध , अग्निदीपक , वीर्यवर्धक , गरम , वातकफनाशी, विपाक म मधुर , हृदय तै हितकारी व रुचिप्रिय हूंद।
हरी पिप्पली -कफकारी , मधुर , गुरु अर स्निग्ध हूंद।
सुखीं  पिप्पली - कफ वात नाशी , कटु , गरम व  वीर्यवर्धक हूंद।
काळी मर्च सूखी -बिंडी गरम नी , वीर्य तै न बढ़ाण  वळ , लघु , रुचिकारी , छेदन करण वळ , कफ आदि तै उखाड़ण वळ , कफनाशी व अग्निदीपक हूंद।
  काळी मिर्च  हरी अवस्था म स्वादु , गुरु व कफवर्धक हूंद।
हींग -वायु कफ नाशी , विवन्ध नाशी , कटु , गरम , अग्निदीपक , लघु , शूलनाशी अर पाचक हूंद।
सेंधा लूण - रुचिकर , अग्निवर्धक , आँखों कुण हितकारी , अविदाही , त्रिदोषनाशी , मधुर व लूणो म श्रेष्ठ च।
संचल लूण -सूक्ष्म , उष्ण , सुगंधित हूणन रुचिकर , विबंधनाशक , डंकार शोधक , हूंद।
काळो लूण - तीखो , उष्ण , व्ययायी (शरीर म फ़ैलण वळ ) , अग्निदीपक , शूलनाशी , वायु (अधो व् औरघवा द्वी )  अनुलोमन करंदेर हूंद। 
उदमिद् लूण -तीखो , कड़ु , छारयुक्त , वमन की रूचि पैदा करण वळ  हूंद। 
काळो लूणो  गुण संचल क जन हूंदन पर गंध नि हूंद ।  समुद्रो नमक मधुर हूंद। 
धोबीम  कपड़ा धूण  वळ लूण इन मिट्टी  से तैयार हूंद जु कड़ु अर टिकट हूंद।   
सब  लूण  रुचिकारक , अन्न पकाण वळ (सीजनिंग हेतु  बि ) , संस्री  व वातनाशी हूंदन।
जौ छार -हृदय , पाण्डु , ग्रहणी रोग , स्रीहा , ानाः रोग , गळरोग , कफ जन्य खासु , अर अर्श रोग नाशी हूंद।
सौब प्रकारा छार (टंकण , भुज्जी , पापड़ , छार आदि ) तीखा , उष्ण , लघु , रुखो , क्लेदि , अन्न व व्रण पकाऊ , पकयुं व्रण  तै फड़ण  वळ, जळाण  वळ , अग्निवर्धक , कफ तै फड़न वळ  अग्नि जन उष्ण गुण वळ  हूंदन । 
काळो अर मोटा जीरो रुचिकर , अग्निदीपक ,अर  वात कफ  दुर्गंध नाशी हूंद। 
खान पान म क्या क्या सही च क निर्णय करण कठण हूंद कारण  प्रत्येक मनुष्य क रूचि व शरीर विन्यास , स्थान -  ऋतू प्रभाव अलग अलग हूंद। 
आहारयोगी अध्याय समाप्त।  २९४- ३०६। 
 
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*संवैधानिक चेतावनी : चरक संहिता पौढ़ी  थैला छाप वैद्य नि बणिन , अधिकृत वैद्य कु परामर्श अवश्य लीण
संदर्भ: कविराज अत्रिदेवजी गुप्त , भार्गव पुस्तकालय बनारस ,पृष्ठ   ३६६ - ३६७
सर्वाधिकार@ भीष्म कुकरेती (जसपुर गढ़वाल ) 2022

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बनि बनि तेलों गुण व चरित्र 
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चरक संहितौ सर्व प्रथम  गढ़वळि  अनुवाद   
 खंड - १  सूत्रस्थानम , 27th  सत्ताइसवां  अध्याय   ( अन्नपान विधि   अध्याय   )   पद  २८४  बिटेन   २९३ तक
  अनुवाद भाग -  २४१
गढ़वाळिम  सर्वाधिक पढ़े  जण  वळ एकमात्र लिख्वार-आचार्य  भीष्म कुकरेती
s = आधी अ
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      !!!  म्यार गुरु  श्री व बडाश्री  स्व बलदेव प्रसाद कुकरेती तैं  समर्पित !!!
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आहारयोगि  वर्ग

तिलक तेल कषाय , अनुरस , स्वादु , सूक्ष्म , उष्ण , व्ययवायी , छिद्रों म पॉंचण  वळ , पित्तकारी , मल मूत्र रुकण वळ, पर कफ नि बढ़ांद।  वातनाशी , औषधियों म श्रेष्ठ , बलकारी , त्वचा कुण लाभकारी , बुद्धि व अग्नि वृद्धिकारक, संयोग व संस्कार करण पर रोगनाशी हूंद ।  प्राचीन कालम ये तेल प्रयोग से दैत्यविपति , बुढ़ापा रहित , विकारशून्य , परिश्रम सहन करणै शक्ति , नि थकण वळ , युद्ध म बल  लाभ सिद्ध ह्वे छौ।
    १ - एरंडी तेल -मधुर, गुरु , कफ वृद्धिकारी , वातरक्त , गुल्म , हृदयरोग , अजीर्ण , ज्वर नाशी हूंद।
 २- राई /सरसों तेल -कडु , रक्त पित्त तै दूषित करण वळ , कफ , शुक्र अर  वायु नष्ट करण वळ , कण्डु व कोठ नाशी च , सरसों तेल खाण से रक्त पित्त दूषित हूंद पर मालिस से ना।
 ३- पियाल या चिरौंजी तेल - मधुर , गुरु , कफ वृद्धिकारी , भौत गरम  नि  हूण से वात पित्त क सम्मलित विकारों म हितकारी च। 
४- अलसी तेल - मधुर , अम्ल , विपाक , म कटु , उष्णवीर्य , वात रोगम  हितकारी , रक्त -पित्त तै कुपित करदो .
५- धणया तेल - गरम , विपाकम कटु , गुरु , विदाही व सब रोगों तै कुपित करंदेर हूंद। 
जौं फलों से जु  बि  तेल निर्मित हूंद ऊं फलों क तेल फलों गुणानुसार समझण  चयेंद। 
 चिरायता तिक्तक , अतिमुक्तक , बहेड़ा , नरयूळ , बेर , अखोड़ , जीवंती , चिरौंजी , क़ुर्बुदार , सूरजबली , त्रपुस , ऐरायारू , ककरि , कृष्माण्ड आदि क तेल मधुर , मधुवीर्य,, मधुर विपाक वळ , वात पित्त  शांत करण वळ , शीतवर्य , मार्गशोषक , मलमूत्र कारी , अग्निवर्धक हूंदन।  मज्जा -वसा , मधुर रस , पुष्टिकारी , शुक्रवर्धक , बलकारी , हूंदन।  यूंक शीतता अर उश्णता प्राणियों अनुसार समजण  चयेंद।  जै प्राणी मांश उष्ण तो वैक मज्जा वासा बि उष्ण , जै प्राणी मांस शीत  टैक मज्जा बि शीत समझण  चयेंद।  २८४ -२९३। 


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*संवैधानिक चेतावनी : चरक संहिता पौढ़ी  थैला छाप वैद्य नि बणिन , अधिकृत वैद्य कु परामर्श अवश्य लीण
संदर्भ: कविराज अत्रिदेवजी गुप्त , भार्गव पुस्तकालय बनारस ,पृष्ठ   ३६४ -३६५
सर्वाधिकार@ भीष्म कुकरेती (जसपुर गढ़वाल ) 2022
शेष अग्वाड़ी  फाड़ीम ,चरक संहिता कु  एकमात्र  विश्वसनीय गढ़वाली अनुवाद; चरक संहिता कु सर्वपर्थम गढ़वाली अनुवाद; ढांगू वळक चरक सहिता  क गढवाली अनुवाद , चरक संहिता म   रोग निदान , आयुर्वेदम   रोग निदान  , चरक संहिता क्वाथ निर्माण गढवाली  , चरक संहिता का प्रमाणिक गढ़वाली अनुवाद , हिमालयी लेखक द्वारा चरक संहिता अनुवाद , जसपुर (द्वारीखाल ) वाले का चरक संहिता अनुवाद , आधुनिक गढ़वाली गद्य उदाहरण, गढ़वाली में अनुदित साहित्य लक्षण व चरित्र उदाहरण   , गढ़वाली गद्य का चरित्र , लक्षण , गढ़वाली गद्य में हिंदी , उर्दू , विदेशी शब्द, गढ़वाली गद्य परम्परा में अनुवाद , सरल भाषा में आयुर्वेद समझाना।  आयुर्वेद के सिद्धांत गढ़वाली भाषा में ; आयुर्वेद सिद्धांत उत्तराखंडी भाषा में, गढ़वाली भाषा में आयुर्वेद तथ्य , गढ़वाली भाषा में आयुर्वेद सिद्धांत व स्वास्थ्य लाभ
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धिक्कार ! बामपंथी इतिहासकारो !
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शरबत  दुनिया का पहला  सॉफ्ट ड्रिंक नहीं है !
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  चरक संहिता व सुश्रुत संहिताओं में  कई प्रकार के सॉफ्ट ड्रिंक्स (ठंड पेय ) का वर्णन मिलता है किन्तु भारतीयों को सिखाया जाता है कि दुनिया में शर्बत पहला सॉफ ड्रिंक है और भारत में मुगलों ने इसे भारत से परिचय कराया।
 बामपत्नी इतिहासकारों का यह घोङोना रूप है। 
आसुत  , कालामल (शर्बत )
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चरक संहितौ सर्व प्रथम  गढ़वळि  अनुवाद   
 खंड - १  सूत्रस्थानम , 27th  सत्ताइसवां  अध्याय   ( अन्नपान विधि   अध्याय   )   पद  २८२  बिटेन २८३    तक
  अनुवाद भाग -  ३४०
गढ़वाळिम  सर्वाधिक पढ़े  जण  वळ एकमात्र लिख्वार-आचार्य  भीष्म कुकरेती
s = आधी अ
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      !!!  म्यार गुरु  श्री व बडाश्री  स्व बलदेव प्रसाद कुकरेती तैं  समर्पित !!!
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शुक्त (चुक्र ) निर्माण हेतु -गुड़ , शहद , कांजी सहित धान क ढेरम धरण से चुक्र निर्माण हूंद।  यु रस पित्तनाशक कफ तै पतळु  करंदेर , वायु अनुलोमक , हूंद।   , चुक्र म जु कंद फल आदि मिश्रित करे जावन तो ये तैं 'आसुत' बुल्दन।  सिरका म काळो  जीरो डळण पर से कालामल ह्वे  जांद  जु रोचक अर लघु हूंद।  ये कृतान वर्ग पर विडयों तैं  ध्यान दीण  चयेंद। २८२ -२८३
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*संवैधानिक चेतावनी : चरक संहिता पौढ़ी  थैला छाप वैद्य नि बणिन , अधिकृत वैद्य कु परामर्श अवश्य लीण
संदर्भ: कविराज अत्रिदेवजी गुप्त , भार्गव पुस्तकालय बनारस ,पृष्ठ   ३६४
सर्वाधिकार@ भीष्म कुकरेती (जसपुर गढ़वाल ) 2022
शेष अग्वाड़ी  फाड़ीम ,चरक संहिता कु  एकमात्र  विश्वसनीय गढ़वाली अनुवाद; चरक संहिता कु सर्वपर्थम गढ़वाली अनुवाद; ढांगू वळक चरक सहिता  क गढवाली अनुवाद , चरक संहिता म   रोग निदान , आयुर्वेदम   रोग निदान  , चरक संहिता क्वाथ निर्माण गढवाली  , चरक संहिता का प्रमाणिक गढ़वाली अनुवाद , हिमालयी लेखक द्वारा चरक संहिता अनुवाद , जसपुर (द्वारीखाल ) वाले का चरक संहिता अनुवाद , आधुनिक गढ़वाली गद्य उदाहरण, गढ़वाली में अनुदित साहित्य लक्षण व चरित्र उदाहरण   , गढ़वाली गद्य का चरित्र , लक्षण , गढ़वाली गद्य में हिंदी , उर्दू , विदेशी शब्द, गढ़वाली गद्य परम्परा में अनुवाद , सरल भाषा में आयुर्वेद समझाना।  आयुर्वेद के सिद्धांत गढ़वाली भाषा में ; आयुर्वेद सिद्धांत उत्तराखंडी भाषा में, गढ़वाली भाषा में आयुर्वेद तथ्य , गढ़वाली भाषा में आयुर्वेद सिद्धांत व स्वास्थ्य लाभ

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ढोल ने कुमाऊं -गढ़वाल में कब  प्रवेश किया ?

आलेख: भीष्म  कुकरेती

 ढोल भारत का अवनद्ध वाद्यों में एक महत्वपूर्ण वाद्य है।  ढोल हमारे समाज में इतना घुल गया है किआप किसी भी पुस्तक को पढ़ें तो लिखा पायेंगे कि ढोल भारत का एक प्राचीन पोला -खाल वाद्य है।  जैसे उत्तराखंडी कद्दू , मकई को पहाड़ों का परम्परागत   भोजन समझते हैं।  वास्तव में ढोल भारत में पन्द्रहवीं सदी में आया व दो शताब्दी में इतना प्रसिद्ध हो चला कि ढोल को प्राचीनतम वाद्य माना जाने लगा।
ढोल है तो डमरू , हुडकी , मृदंग की जाति का वाद्य किन्तु ढोल मृदंग या दुंदभि  की बनावट व बजाने की रीती में बहुत अधिक अंतर है।  ढोल का आकार एक फुट के वास का होता है व मध्य व मुख भाग लगभग एक ही आकार के होते हैं।  ढोल को एक तरफ से टेढ़ी लांकुड़ व दूसरे हिस्से को हाथ से बजाया जाता है जब कि दमाऊ  को दो लांकुड़ों से बजाया जाता है।
       ढोल का संदर्भ किसी भी प्राचीन भारतीय संगीत पुस्तकों में कहीं नहीं मिलता केवल 1800 सदी में रची पुस्तक संगीतसार में ढोल का पहली बार किसी भारतीय संगीत साहित्य में वर्णन हुआ है।  इससे पहले आईने अकबरी में ही ढोल वर्णन मिलता है।

                       क्या सिंधु घाटी सभ्यता में ढोल था ?
 सौम्य वाजपेयी तिवारी (हिंदुस्तान टाइम्स , 16 /8/2016 ) में संगीत अन्वेषक शैल व्यास के हवाले से टिप्पणी करती हैं कि धातु उपकरण , घटम के अतिरिक्त कुछ ऐसे वाद्य यंत्र सिंधु घाटी समाज उपयोग करता था जो ढोल , ताशा , मंजीरा व गोंग जैसे।  इससे सिद्ध होता है बल सिंधु घाटी सभ्यता में ढोल प्रयोग नहीं होता था।

   वैदिक साहित्य में ढोल
वेदों में दुंदभि , भू दुंदभि घटम , तालव का उल्लेख हुआ है (चैतन्य कुंटे, स्वर गंगा फॉउंडेशन )

उपनिषद आदि में चरम थाप वाद्य यंत्र
उपनिषदों में कई वीणाओं का उल्लेख अधिक हुआ है चरम थाप वाद्य यंत्रों का उल्लेख शायद हुआ ही नहीं।

पुराणों में चरम थाप वाद्य यंत्र
पुराणों में मृदंग , पाणव , भृग , दारदुरा , अनाका , मुराजा का उल्लेख है किन्तु ढोल जैसा जो लान्कुड़ व हाथ की थाप से बजाया जाने वाले चरम वाद्य यंत्र का जिक्र पुराणों में नहीं मिलता (संदर्भ २ )
वायु पुराण में मरदाला , दुंदभि , डिंडिम  उल्लेख है (,  प्रेमलता शर्मा , इंडियन म्यूजिक पृष्ठ 26 )मार्कण्डेय पुराण (9 वीं सदी ) में मृदंग , दरदुरा , दुंदभि , मृदंग , पानव का उल्लेख हुआ है किन्तु  ढोल शब्द अनुपस्थित  है।

   महाकाव्यों , बौद्ध व जैन साहित्य में ढोल
  महाकाव्यों , बौद्ध व जैन साहित्य में डमरू  मर्दुक ,  दुंदभि  डिंडिम , मृदंग का  उल्लेख अवश्य मिलता है किन्तु ढोल शब्द नहीं मिलता।  अजंता एलोरा , कोणार्क आदि मंदिरों , देवालयों में ढोल नहीं मिलता।
    गुप्त कालीन तीसरी सदी रचित नाट्य शास्त्र में ढोल
भरत नाट्य शास्त्र में मृदंग , त्रिपुष्कर , दार्दुर , दुंदभि  पानव , डफ्फ , जल्लारी का उल्लेख तो मिलता है किन्तु ढोल शब्द व इससे मिलता जुलता वाद्य यंत्र नदारद है।
तमिल साहित्य पुराणानुरू (100 -200 ई )
तमिल साहित्य में चरम थाप वाद्य यंत्रों को बड़ा सम्मान दिया गया है व इनको युद्ध वाद्य यन्यत्र , न्याय वाद्य यंत्र व बलि वाद्य यंत्र में विभाजित किया गया है। ढोल प्राचीन तमिल साहित्य में भी उल्लेखित नहीं है।
कालिदास साहित्य
कालिदास साहित्य में मृदंग  पुष्कर , मरजाजा , मरदाला जैसे चरम थाप वाद्य यंत्रों का उल्लेख हुआ है।
( पुराण से कालिदास तक संदर्भ , प्रेमलता शर्मा , इंडियन म्यूजिक )

   मध्य कालीन नारदकृत संगीत मकरंद में चर्म  थाप वाद्य यंत्र

संगीत मकरंद में ढोल उल्लेख नहीं मिलता है

   तेरहवीं सदी का संगीत रत्नाकर पुस्तक

संगीत रत्नाकर पुस्तक में मृदंग , दुंदभि , तुम्ब्की , घट , मर्दल , दार्दुल , हुड़का ( हुड़की ) कुडुका , सेलुका , ढक्का , डमरुक , रुन्जा का ही उल्लेख है (चैतन्य कुंटे )

  सुलतान काल व ततपश्चात में वाद्य यंत्र
आमिर खुशरो ने दुहुल का उल्लेख किया है (इजाज इ खुसरवी ) और खुसरो को सितार व तबला का जनक भी माना जाता है।

भक्ति काल
दक्षिण व उत्तर दोनों क्षेत्रों के भक्ति कालीन साहित्य में  मृदंग का ाहिक उल्लेख हुआ है। 15 वीं सदी के विजयनगर कालीन   अरुणागिरि नाथ साहित्य में डिंडिम का उल्लेख हुआ है।
        आईने अकबरी
आईने अकबरी में चर्म  वाद्यों में नक्कारा /नगाड़ा , , ढोलक /डुहुल , पुखबाजा , तबला का उल्लेख मिलता है। (आईने अकबरी , वॉल 3 1894 एसियाटिक सोसिटी ऑफ बंगाल पृष्ठ  254 )
प्रथम बार भारतीय साहित्य में आईने अकबरी में ही आवज (जैसे ढोल ), दुहूल  (ढोल समान ) , धेडा (छोटे आकार का ढोल ) का  मिलता है ( दिलीप रंजन बरथाकार , 2003 , , द म्यूजिक ऐंड  इंस्ट्रूमेंट्स ऑफ नार्थ ईस्टर्न  इण्डिया,  मित्तल पब्लिकेशन दिल्ली , भारत पृष्ठ 31 ). आईने अकबरी में नगाड़ों द्वारा नौबत शब्द का प्रयोग हुआ है जो भारत में कई क्षेत्रों में प्रयोग होता है जैसे गढ़वाल व गजरात में दमाऊ से नौबत बजायी जाती है
     इससे साफ़ जाहिर होता है बल ढोल (दुहुल DUHUL ) का बिगड़ा रूप है , तुलसीदास का प्रसिद्ध दोहा ढोल नारी ताड़न के अधिकारी भी कहीं न कहीं  अकबर काल में ढोल की जानकारी देता है
    खोजों के अनुसार duhul तुर्किस्तान , अर्मेनिया क्षेत्र का प्राचीनतम पारम्परिक चर्म थाप वाद्य  है जो अपनी विशेषताओं के कारण ईरान में प्रसिद्ध हुआ और अकबर काल में भारत आया।  चूँकि ढोल संगीत में ऊर्जा है व सोते हुए लुंज को भी नाचने को बाध्य कर लेता है तो यह बाद्य भारत में इतना प्रसिद्ध हुआ कि लोक देव पूजाओं का हिस्सा बन बैठा।
जहां तक पर्वतीय उत्तराखंड में ढोल प्रवेश का प्रश्न है अभी तक इस विषय पर कोई वैज्ञानिक खोजों का कार्य शुरू नहीं हुआ है।  इतिहासकार , संस्कृति विश्लेषक जिस प्रकार आलू , मकई , कद्दू को गढ़वाल -कुमाऊं का प्राचीन भोज्य पदार्थ मानकर चलते हैं वैसे ही ढोल  को कुमाऊं -गढ़वाल का प्राचीनतम वाद्य लिख बैठते हैं।
    इस लेखक के गणित अनुसार यदि ढोल उपयोग राज दरबार में प्रारम्भ हुआ होगा तो वह कुमाऊं दरबार में शुरू हुआ होगा।  कुमाऊं राजाओं के अकबर से लेकर शाहजहां से अधिक अच्छे संबंध थे और कुमाऊं राजनेयिक गढ़वाली राजनैयिकों के बनिस्पत दिल्ली दरबार अधिक आते जाते थे तो संभवत: चंद राजा पहले पहल ढोल लाये होंगे. .चूँकि नौबत संस्कृति प्रचलित हुयी तो कहा जा सकता है बल ढोल दमाऊ पहले पहल राज दरबार में ही प्रचलित हुए होंगे।  बड़ा मंगण /प्रशंसा जागर भी इसी ओर इंगित करते हैं बल ढोल वादन संस्कृति राज दरबार से ही प्रचलित हुयी होगी।  इस लेखक के अनुमान से श्रीनगर में सुलेमान शिकोह के साथ  ढोल का अधिक उपयोग  यदि समाज ने ढोल अपनाया तो ढोल बिजनौर , हरिद्वार , बरेली,  पीलीभीत से भाभर -तराई भाग में पहले प्रसिद्ध हुआ होगा और ततपश्चात पर्वतीय क्षेत्रों में प्रचलित हुआ ।  अनुमान किया जा सकता है ढोल गढ़वाल -कुमाऊं में अठारहवीं सदी में प्रचलित  हुआ व ब्रिटिश शासन में जब समृद्धि आयी तो थोकदारों ने ढोल वादकों को अधिक परिश्रय दिया।  अर्थात ढोल का अधिक प्रचलन ब्रिटिश काल में ही हुआ।  उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में ढोल प्राचीन नहीं अपितु आधुनिक वाद्य ही है के समर्थन में एक तर्क यह भी है कि ढोल निर्माण गढ़वाली या कुमाउँनी नहीं  करते थे और ब्रिटिश  काल के अंत में भी नहीं।  ब्रिटिश काल में श्रीनगर में भी ढोल व्यापार मुस्लिम व्यापारी करते थे ना कि गढ़वाली।
 ढोल सागर को भी गढ़वाली बोली का साहित्य बताया जाता है जबकि ढोल सागर ब्रज भाषायी साहित्य है और उसमे गढ़वाली नाममात्र की है।  इस दृष्टि से भी ढोल प्राचीन वाद्य नहीं कहा जा सकता है। 
 
संदर्भ -
२- शोधगंगा inflinet.ac.in

Copyright @Bhishma  Kukreti , Mumbai , October 2018
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देवग्राम (उर्गम घाटी , चमोली ) में एक भवन में पारम्परिक गढ़वाली शैली की  काष्ठ कला अलंकरण, उत्कीर्णन  अंकन
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Traditional House Wood Carving Art from   Devgram  Urgam  valley   , Chamoli   
 गढ़वाल,कुमाऊंकी भवन (तिबारी, निमदारी,जंगलादार मकान, बाखली,खोली) में पारम्परिक गढ़वाली शैली की  काष्ठ कला अलंकरण, उत्कीर्णन  अंकन, - 626
( काष्ठ कला पर केंद्रित ) 
 
 संकलन - भीष्म कुकरेती     
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चमोली गढ़वाल में भिन्न भिन्न क्षेत्रों की अपनी भवन शैलियां विशेष हैं जैसे नीति घाटी , मलारी  घाटी , माणा  घाटी , उर्गम घाटी आदि में अपनी विशेष भवन शैलियां दर्शन होते हैं। 
प्रस्तुत देवग्राम (उर्गम घाटी ) का भवन दुपुर  व दुखंड भवन है।  भवन के आधार तल(ग्राउंड फ्लोर ) में  कमरों , खिड़कियों  में सपाट ज्यामितीय कटान के दरवाजे ही हैं।  भवन के पहले तल में छज्जा व छज्जा दास काष्ट के ही हैं व सपाट कटान के उदाहरण हैं। काष्ठ  के  छज्जे पर जंगल बंधा है , जंगल पर सात जोइडिडार स्तम्भ स्थापित हैं व स्तम्भ ज्यामितीय कटान के हैं।  आधार में ऊपर समांतर में तीन कड़ियाँ हैं जो रेलिंग बनाते हैं। 
निश्श निकलता है कि  भवन में काष्ठ  कला में ज्यामितीय अलंकरण की ही कला है। 
सूचना व फोटो आभार: त्रिभुवन डिमरी
यह लेख  भवन  कला संबंधित  है न कि मिल्कियत  संबंधी  . मालिकाना   जानकारी  श्रुति से मिलती है अत:  वस्तु स्थिति में  अंतर   हो सकता है जिसके लिए  सूचना  दाता व  संकलन कर्ता  उत्तरदायी  नही हैं .
Copyright @ Bhishma Kukreti, 2022 
गढ़वाल,  कुमाऊँ , उत्तराखंड , हिमालय की भवन  (तिबारी, निमदारी , जंगलादार  मकान , बाखली , मोरी , खोली,  कोटि बनाल  ) काष्ठ  कला अंकन ,   श्रंखला जारी   कर्णप्रयाग में  भवन काष्ठ कला,   ;  गपेश्वर में  भवन काष्ठ कला,  ;  नीति,   घाटी में भवन काष्ठ  कला,    ; जोशीमठ में भवन काष्ठ कला,   , पोखरी -गैरसैण  में भवन काष्ठ कला,   श्रृंखला जारी  रहेगी

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मांश, दही, ल्हसी  क गुण 
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चरक संहितौ सर्व प्रथम  गढ़वळि  अनुवाद   
 खंड - १  सूत्रस्थानम , 27th  सत्ताइसवां  अध्याय   ( अन्नपान विधि   अध्याय   )   पद  २७४  बिटेन २७६   तक
  अनुवाद भाग -  ३३८
गढ़वाळिम  सर्वाधिक पढ़े  जण  वळ एकमात्र लिख्वार-आचार्य  भीष्म कुकरेती
s = आधी अ
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      !!!  म्यार गुरु  श्री व बडाश्री  स्व बलदेव प्रसाद कुकरेती तैं  समर्पित !!!
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कै पदार्थक गुरु या लघु हूणौ  नियम पदार्थक मूल स्वभाव , संयोग , संस्कार (पकाण  आदि ) , परिमाण , आदि बथों  तेन विश्लेषण कौरी  करण  चयेंद।  जौंमा यी  बात गुरु म आंदन तौं  गुरु समझण , जु हळ का होवण स्यु हळ का (लघु ) समझण। 
निमर्दक  (मांस पकाणो  बनि बनि  ब्यूंत से  ) , नाना प्रकारौ पदार्थों का मिश्रण से ,पकायुं , आम , क्लिन्न , भुन्युं  अंतर् से गुरु , हृदय कुण प्रिय , वीर्यवर्धक , बलवान मनुष्यों कुण हितकारी च। 
मलै वळि दही तै खूब छोळि  वामा इलैची , दालचीनी , तेजपात , जवाण , नागकेशर , गुड़, आदो ,सोंठ दगड़ मिलैक बणी रसदार ताकवर पुष्टिकारी , वीर्यवर्धक , स्नेहक बलकारी , रुचियुक्त हूंद।
गुड़ दगड़ दही स्नेहक , हृदय कुण प्रिय अर वातनाशी हूंद। २७४-२७६

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*संवैधानिक चेतावनी : चरक संहिता पौढ़ी  थैला छाप वैद्य नि बणिन , अधिकृत वैद्य कु परामर्श अवश्य लीण
संदर्भ: कविराज अत्रिदेवजी गुप्त , भार्गव पुस्तकालय बनारस ,पृष्ठ   ३६३
सर्वाधिकार@ भीष्म कुकरेती (जसपुर गढ़वाल ) 2022
शेष अग्वाड़ी  फाड़ीम ,चरक संहिता कु  एकमात्र  विश्वसनीय गढ़वाली अनुवाद; चरक संहिता कु सर्वपर्थम गढ़वाली अनुवाद; ढांगू वळक चरक सहिता  क गढवाली अनुवाद , चरक संहिता म   रोग निदान , आयुर्वेदम   रोग निदान  , चरक संहिता क्वाथ निर्माण गढवाली  , चरक संहिता का प्रमाणिक गढ़वाली अनुवाद , हिमालयी लेखक द्वारा चरक संहिता अनुवाद , जसपुर (द्वारीखाल ) वाले का चरक संहिता अनुवाद , आधुनिक गढ़वाली गद्य उदाहरण, गढ़वाली में अनुदित साहित्य लक्षण व चरित्र उदाहरण   , गढ़वाली गद्य का चरित्र , लक्षण , गढ़वाली गद्य में हिंदी , उर्दू , विदेशी शब्द, गढ़वाली गद्य परम्परा में अनुवाद , सरल भाषा में आयुर्वेद समझाना।  आयुर्वेद के सिद्धांत गढ़वाली भाषा में ; आयुर्वेद सिद्धांत उत्तराखंडी भाषा में, गढ़वाली भाषा में आयुर्वेद तथ्य , गढ़वाली भाषा में आयुर्वेद सिद्धांत व स्वास्थ्य लाभ

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Time Table for the King for taking judicial decision
Duties (Raj dharma) of the Chief Executive Officer -40   
Judiciary System in the Organization /Country

Guidelines for Chief Officers (CEO) Series –448       
       Bhishma Kukreti (Marketing Strategist)
s= आधी –अ
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न्यायान्पश्येतु मध्यान्हे पूर्वान्हे स्मृतिदर्शनम् I I53 II
मनुष्यमारणे स्तेये साहसेsत्यायिके सदा I
नत्वा वा प्रांजलि: प्र्ह्वो ह्यर्थी कार्य निवेदयेत् II54 II
It is the duty of the king to offer decision in noon time and before noon, the king should study old scripts (cases ) or listen them. However, in case of human killing, looting by force , or terristic activities, the king should take decision at any time.
(Shukraniti, Raj dharma Nirupan or “The Duties of a King” –  53, 54   )
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Reference:
Shukraniti, Manoj Pocket Books, Delhi pp259
Copyright@ Bhishma Kukreti, 2022
Strategies for Executive for marketing warfare
Tactics for the Chief Executive Officers responsible for Marketing
Approaches   for the Chief Executive Officers responsible for Brand Image
Strategies for the Chief Executive Officers responsible for winning Competitors
Immutable Strategic Formulas for Chief Executive Officer
(CEO-Logy, the science of CEO’s working based on Shukra Niti)
(Examples from Shukra Niti helpful for Chief executive Officer)
Successful Strategies for successful Chief executive Officer
Duties (Raj dharma) of the Chief Executive Officer   


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चूड़ा /चिवड़ा /बुखणो  गुण  व लक्ष्ण
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चरक संहितौ सर्व प्रथम  गढ़वळि  अनुवाद   
 खंड - १  सूत्रस्थानम , 27th  सत्ताइसवां  अध्याय   ( अन्नपान विधि   अध्याय   )   पद  २७१  बिटेन  २७३  तक
  अनुवाद भाग -  ३३७
गढ़वाळिम  सर्वाधिक पढ़े  जण  वळ एकमात्र लिख्वार-आचार्य  भीष्म कुकरेती
s = आधी अ
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      !!!  म्यार गुरु  श्री व बडाश्री  स्व बलदेव प्रसाद कुकरेती तैं  समर्पित !!!
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पृथुका (चिवड़ा ) चूड़ा गुरु हूंद। भुन्युं चूड़ा कम खाण चयेंद।  जौक  चूड़ा पुटुकुंद अवरोध कोरी जीर्ण हूंद। अणभुन्युं  जौ  रेचक हूंद। सुप्या न्न अथवा  मूंग , उड़द आदि से बणीं वस्तु (चबेना  या बुखण )  वायुकारक , रुखा व शीतल हून्दन।  यूं तैं  घी /तेल (स्निग्ध वस्तु )  अर  लूणौ  दगड़  कम मात्रा म खाण चयेंद।  जु  धीमी आंच पर पकदन  सि कठोर व स्थूल हूंदन (आग म सिकण  बि )। यी भारी , देर से पचण वळ पुष्टिकारक बल दायी हूंदन। २७१ - २७३।  .


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*संवैधानिक चेतावनी : चरक संहिता पौढ़ी  थैला छाप वैद्य नि बणिन , अधिकृत वैद्य कु परामर्श अवश्य लीण
संदर्भ: कविराज अत्रिदेवजी गुप्त , भार्गव पुस्तकालय बनारस ,पृष्ठ   ३६२
सर्वाधिकार@ भीष्म कुकरेती (जसपुर गढ़वाल ) 2022
शेष अग्वाड़ी  फाड़ीम ,चरक संहिता कु  एकमात्र  विश्वसनीय गढ़वाली अनुवाद; चरक संहिता कु सर्वपर्थम गढ़वाली अनुवाद; ढांगू वळक चरक सहिता  क गढवाली अनुवाद , चरक संहिता म   रोग निदान , आयुर्वेदम   रोग निदान  , चरक संहिता क्वाथ निर्माण गढवाली  , चरक संहिता का प्रमाणिक गढ़वाली अनुवाद , हिमालयी लेखक द्वारा चरक संहिता अनुवाद , जसपुर (द्वारीखाल ) वाले का चरक संहिता अनुवाद , आधुनिक गढ़वाली गद्य उदाहरण, गढ़वाली में अनुदित साहित्य लक्षण व चरित्र उदाहरण   , गढ़वाली गद्य का चरित्र , लक्षण , गढ़वाली गद्य में हिंदी , उर्दू , विदेशी शब्द, गढ़वाली गद्य परम्परा में अनुवाद , सरल भाषा में आयुर्वेद समझाना।  आयुर्वेद के सिद्धांत गढ़वाली भाषा में ; आयुर्वेद सिद्धांत उत्तराखंडी भाषा में, गढ़वाली भाषा में आयुर्वेद तथ्य , गढ़वाली भाषा में आयुर्वेद सिद्धांत व स्वास्थ्य लाभ

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कांडा (सितोन्स्यूं पौड़ी ) के   बछेटी  भवन में   गढवाली  शैली   की  काष्ठ कला अलंकरण,  उत्कीर्णन , अंकन

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    Tibari, Traditional  House Wood Art in House of Kanda  Sitaunsyun  Pauri Garhwal       

पौड़ी गढ़वाल, के  भवनों  (तिबारी,निमदारी,जंगलेदार मकान,,,खोली ,मोरी,कोटिबनाल ) में  गढवाली  शैली   की  काष्ठ कला अलंकरण,  उत्कीर्णन , अंकन  -625


 संकलन - भीष्म कुकरेती   

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कांडा (सितोन्स्यूं पौड़ी ) का  बछेटी  भवन  दुपुर  व दुखंड  भवन है।   कांडा (सितोन्स्यूं पौड़ी ) के बछेटी  भवन  की तिबारी बड़ी सुन्दर व आकर्षक तिबारी है।  आश्चर्य है कि  भवन में पारम्परिक गढ़वाली खोली नहीं है जो कि  पौड़ी गढ़वाल में कम ही दिखती हैं किन्तु चमोली व रुद्रप्रयाग में अधिकतर घरों में खोली आवश्यक  अर्चना होती है।
प्रस्तुत कांडा (सितोन्स्यूं पौड़ी ) के बछेटी  भवन  में पहले तल मजिल ) में दो तिबारियां (बरामदे ) हैं एक में तीन स्तम्भ व एक तिबारी में  दृष्टिगोचर हो रहे हैं।  प्रत्येक स्तम्भ एक सामान है।  स्तम्भ के तल में अधोगामी पद्म पुष्प , ड्यूल व ऊपर उर्घ्वगामी पद्म पुष्प से आकर्षक कुम्भियाँ निर्मित हुयी है।  यही संरचना ऊपर दोहराई गयी है व तब ऊपरी कुम्भी से थांत  आकर की आकृति शुरू होती है जो ऊपर छत आधार के नीचे दो कड़ियों  से मिल जाता है।  ऊपर दो स्तम्भों के तोरणम (  चाप , मेहराब , arch ) निर्मित है व तोरणम के  प्राकृतिक कला अंकन हुआ है।   
आश्चर्य है कि  तिबारी के शीर्ष में देव मूर्ति नहीं लगी है।  शायद निकल गयी होगी।
 निष्कर्ष निकलता है कि कांडा (सितोन्स्यूं पौड़ी ) के बछेटी  भवन  में ज्यामितीय व प्राकृतिक अलंकरण कला अंकन हुआ है। 


सूचना व फोटो आभार: विनोद बछेटी

यह लेख  भवन  कला संबंधित  है . भौगोलिक स्थिति व  मालिकाना   जानकारी  श्रुति से मिलती है अत: यथास्थिति में अंतर हो सकता है जिसके लिए  सूचना  दाता व  संकलन कर्ता  उत्तरदायी  नही हैं .

Copyright @ Bhishma Kukreti, 2022

गढ़वाल,  कुमाऊँ , उत्तराखंड , हिमालय की भवन  (तिबारी, निमदारी , जंगलादार  मकान ,बाखली ,  बाखई, कोटि बनाल  ) काष्ठ  कला अंकन नक्काशी श्रृंखला  जारी रहेगी,पौड़ी गढ़वाल के भवनों की काष्ठ कला , उत्तराखंड भवनों की काष्ठ कला    * पौड़ी की लकड़ी  नक्कासी

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