बौद्ध धर्म के नयन-महायान समुदायों के आपसी संघर्ष ने बद्रिकाश्रम को भी प्रभावित किया. आक्रमण एवं विनाश की आशंका से ग्रस्त एवं खुद रक्षा करने में असमर्थ इस धाम के पुजारी भगवान की मूर्ति को नारद कुंड में डालकर यहां से पलायन कर गए. जब भगवान की प्रतिमा के दर्शन नहीं हुए तो नर-देवता संयुक्त रूप से देवाधिदेव भगवान शिव की शरण में जाते हैं, जो उस समय कैलाश में समाधि लिए हुए थे.
आराधना से प्रकट होकर भगवान कैलाशपति ने कहा कि नारायणश्री की मूर्ति कहीं गई नहीं है. वहीं समीप के नारद कुंड में ही है, परंतु तुम लोग वर्तमान में शक्तिहीन हो. भगवान नारायणश्री मेरे भी आराध्य हैं. अतएव मैं स्वयं अवतार धारण करके मूर्ति का उद्धार कर जगत का कल्याण करूंगा. कालांतर में भगवान आशुतोष शिव ही दक्षिण भारत के कलाड़ी नामक स्थान में ब्राह्मण भेरवदत्त उ़र्फ शिव गुरु के घर माता आर्यम्बा की कोख से जन्म लेकर आदिगुरु शंकराचार्य के नाम से विख्यात हुए.
जगतगुरु शंकराचार्य द्वारा संपूर्ण भारत में अव्यवस्थित तीर्थों का सुदृढ़ीकरण, बौद्ध मतों का खंडन एवे सनातन वैदिक मत का मंडन सर्वविदित है.
शिव रूप आदिगुरु शंकराचार्य ने ठीक ग्यारह वर्ष की अवस्था में दक्षिण भारत से बद्रिकाश्रम पहुंच कर नारद कुंड से भगवानश्री की दिव्य मूर्ति का विधिवत उद्धार करके उसे पुन: प्राण प्रतिष्ठित किया. बद्रीनाथ धाम में आज भी उन्हीं के द्वारा शुरू परंपरा के अनुसार उन्हीं के वंशज नांबूदरीपाद ब्राह्मण ही भगवान नारायण रूप बद्रीनाथ जी की पूजा-अर्चना वैदिक परंपरा के अनुसार करते हैं. अति हिमपात के कारण इस धाम के कपाट वर्ष में छह माह बंद रहते हैं.
मंदिर के कपाट पूजन के लिए अप्रैल के अंत अथवा मई के प्रथम पखवारे में श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ खोल दिए जाते हैं. कुंभ 2010 के अवसर पर इस बार भी कपाट 19 मई को खोले गए. मंदिर खुलने के दिन अखंड ज्योति दर्शन का विशेष महत्व है. छह माह बाद मंदिर के पट बंद होने का दिन लगभग नवंबर मास के दूसरे सप्ताह में आता है, जो प्रत्येक वर्ष दशहरे के दिन निश्चित किया जाता है. भगवान बद्रीनाथ जी की मूर्ति का स्वरूप एवं भगवानश्री की दिव्य मूर्ति की प्रतिष्ठा का इतिहास लगभग द्वापर युग के श्रीकृष्णावतार के समय का माना जाता है.
भगवान बद्रीनाथ की इस तीसरी प्रतिष्ठा का इतिहास कुछ इस प्रकार है, जब विधर्मियों-पाखंडियों का प्रभाव बढ़ा तो उन्होंने भगवानश्री की प्रतिमा को क्षति पहुंचाने का प्रयास किया. बचाव में पुजारियों ने भगवानश्री की प्रतिमा पास के नारद कुंड में डाल दी, जिसकी प्राण प्रतिष्ठा स्वयं शिवावतार आदि शंकराचार्य ने की. भगवानश्री की दिव्य मूर्ति हरित वर्ण की पाषाण शिला में निर्मित है, जिसकी ऊंचाई लगभग डेढ़ फुट आंकी जाती है.
भगवानश्री नारायण यहां पद्मासन में विराजमान हैं, पद्मासन भी योग मुद्रा में है. पद्मासन पर भगवानश्री के गंभीर बुर्तलाकार नाभिहृदय के दर्शन होते हैं. यही ध्यान साधक को साधना में गंभीरता प्रदान करता है, जिससे साधक के मन की चपलता स्वयं समाप्त हो जाती है. नाभि के ऊपर भगवानश्री के विशाल वक्षस्थल के दर्शन होते हैं. बाएं भाग में भृगुलता का चिन्ह एवं दाएं भाग में श्रीवत्स चिन्ह स्पष्ट दिखता है. भृगुलता भगवानश्री की सहिष्णुता एवं क्षमाशीलता का परिचायक है. श्रीवत्स दर्शन शरणागत दायक और भक्त वत्सलता का प्रतीक है
. पुराण इसका स्वयं साक्षी है कि त्रिदेवों में महान कौन है के परीक्षण के क्रम में भृगुऋृषि ने भगवान विष्णु जी के वक्षस्थल पर पैर से प्रहार किया तो भगवान ने क्षमादान के साथ अपने श्रेष्ठ गुणों का भी प्रदर्शन किया. श्रीवत्स चिन्ह में बाणासुर की रक्षा के लिए भगवान शिव द्वारा फेंके गए त्रिशूल के घाव एवं श्रीकृष्ण के वक्षस्थल स्पष्ट रूप से दिखते हैं.
सुवर्ण रेखा के रूप में लक्ष्मी प्रदाता प्रतीक बने हैं. यह चिन्ह दाएं भाग में स्थित हैं. इस पर भगवानश्री के दिव्य कंबुग्रीवा के दर्शन होते हैं, जो महापुरुषों के लक्षणों का परिचायक है. इसके ऊपर भगवान बद्रीनाथ जी की विशाल जटाओं से सुख भाग के दर्शन होते हैं.