Author Topic: Badrinath Temple - भारतवर्ष के चार धामों में से एक बद्रीनाथ धाम  (Read 61291 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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ब्रह्मांड के पावनतम धामों में से एक है बद्रीनाथ धाम. कहा जाता है कि यह स्वयं भगवान विष्णु एवं नारद द्वारा सेवित है. इसी कारण सृष्टि में बद्रिकाश्रम को अष्टम बैकुंठ के रूप में मान्यता हासिल है.
पुराणों में चारों युगों में चार धामों की स्थापना का उल्लेख मिलता है. सतयुग का पावन धाम बद्रीनाथ, त्रेता का रामेश्वरम जिसकी स्थापना मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने की थी, द्वापर का द्वारिका एवं कलियुग का जगन्नाथ धाम. बद्रीनाथ धाम में सतयुग के प्रारंभ में जगत कल्याण की कामना से भगवान प्रत्यक्ष रूप से मूर्तिमान होकर यहां स्वयं तप करते थे. सतयुग में भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन से यह पावन धाम मुक्तिप्रदा के नाम से विख्यात हुआ

. त्रेता में इसे योगी सिद्धदा नाम से जाना गया. द्वापर में भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन की आशा में बहुजन संकुल होने के नाते विशाला के नाम से जाना गया. कलियुग में यह धाम बद्रिकाश्रम-बद्रीनाथ के नाम से विख्यात है.

बौद्धधर्म के हीनयन-महायान समुदायों के आपसी संघर्ष ने बद्रिकाश्रम को भी प्रभावित किया. आक्रमण एवं विनाश की आशंका के चलते असमर्थ-असहाय पुजारी भगवान श्री की मूर्ति नारद कुंड में डालकर इस धाम से पलायन कर गए. जब भगवान श्री की प्रतिमा के दर्शन नहीं हुए तो देव मानव भगवान शिव से कारण जानने के लिए कैलाश पर्वत पहुंचे.

 भगवान शिव ने बताया कि मूर्ति नारद कुंड में है, परंतु तुम लोग वर्तमान में शक्तिहीन हो, नारायण मेरे भी आराध्य हैं, अत: मैं स्वयं अवतार लेकर मूर्ति का उद्धार करके जगत के कल्याणार्थ उसकी स्थापना करूंगा. कालांतर में भगवान आशुतोष शिव ही दक्षिण भारत के कालड़ीसीन में ब्राह्मण भैरव दत्त उर्फ शिव गुरु के घर जन्म लेकर जगतगुरु आदि शंकराचार्य के नाम से विश्वविख्यात हुए.

 शंकराचार्य द्वारा संपूर्ण भारतवर्ष के अव्यवस्थित तीर्थों का सुदृढ़ीकरण, बौद्ध मत का खंडन और सनातन वैदिक मत का मंडन सर्वविदित है. शंकराचार्य ग्यारह वर्ष की अवस्था में बद्रिकाश्रम पहुंचे और उन्होंने नारद कुंड से भगवान श्री की दिव्य मूर्ति निकाल कर उसे पुन: स्थापित किया.

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आज भी उसी परंपरा के अनुसार उन्हीं के वंशज भगवान बद्रीनाथ की पूजा-अर्चना करते हैं. मंदिर के कपाट अप्रैल के अंत अथवा मई के प्रथम पखवारे में खुलते हैं और नवंबर के दूसरे सप्ताह में बंद हो जाते हैं. भगवान श्री की शीतकालीन पूजा पाड्‌यकेश्वर मंदिर में होती है. बद्रीनाथ जी की दिव्य मूर्ति की प्रतिष्ठा का काल द्वापर युग माना जाता है. बद्रीनाथ जी की यह तीसरी प्रतिष्ठा है.

 भगवान श्री की दिव्य मूर्ति हरित वर्ण की पाषाण शिला में निर्मित है, जिसकी ऊंचाई लगभग डेढ़ फुट है. भगवान श्री पद्मासन में योग मुद्रा में विराजमान हैं. यहां भगवान श्री का दर्शन साधक को गांभीर्य प्रदान करता है, जिससे मन की चपलता स्वयं समाप्त हो जाती है. नाभि के ऊपर भगवान श्री के विशाल वक्षस्थल के बाएं भाग में भृगुलता और दाएं भाग में श्री वत्स चिन्ह स्पष्ट दिखते हैं. भृगुलता भगवान श्री की सहिष्णुता एवं क्षमाशीलता का प्रतीक है और श्रीवत्स भक्त वत्सलता का.

पुराण इसका स्वयं साक्षी है कि त्रिदेवों में महान कौन के परीक्षण के दौरान भृगु ॠषि ने भगवान विष्णु के वक्षस्थल पर प्रहार किया तो क्षमादान के साथ भगवान ने अपने महान होने का परिचय  दिया. श्रीवत्स चिन्ह बाणासुर की रक्षा हेतु भगवान शिव द्वारा फेंके गए त्रिशूल का घाव है

. इससे ऊपर भगवान की दिव्य कंबुग्रीवा के दर्शन होते हैं, जो जीव मात्र को जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त करते हैं. देवर्षि नारद भगवान बद्रीनाथ के बाएं भाग में ताम्र वर्ण की छोटी सी मूर्ति के रूप में स्थित हैं. नारद जी के पृष्ठ भाग में चांदी की दिव्य मूर्ति उद्धव जी की है.

द्वापर में भगवान नारायण के सखा उद्धव यहां पधारे थे. शीतकाल में देव पूजा के समय उद्धव जी की ही पूजा होती है. भगवान नारायण के बाएं स्कंध भाग में लीलादेवी, उर भाग में उर्वशी, मुखारविंद के पास श्रीदेवी और कटि भाग के पास भूदेवी विराजमान हैं

. स्वयं भगवान नारायण योग मुद्रा में तपस्या में लीन हैं. गरुण जी भगवान बद्रीनाथ के दाएं भाग में हाथ जोड़े ध्यान मुद्रा में खड़े हैं. वह भगवान विष्णु के वाहन हैं. तीस हज़ार वर्षों की तपस्या के बाद उन्हें नारायण दरबार में स्थान मिला था. यहीं कुबेर जी हैं, जो भगवान के कोषाध्यक्ष हैं और यक्षों के राजा भी.

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बौद्ध धर्म के नयन-महायान समुदायों के आपसी संघर्ष ने बद्रिकाश्रम को भी प्रभावित किया. आक्रमण एवं विनाश की आशंका से ग्रस्त एवं खुद रक्षा करने में असमर्थ इस धाम के पुजारी भगवान की मूर्ति को नारद कुंड में डालकर यहां से पलायन कर गए. जब भगवान की प्रतिमा के दर्शन नहीं हुए तो नर-देवता संयुक्त रूप से देवाधिदेव भगवान शिव की शरण में जाते हैं, जो उस समय कैलाश में समाधि लिए हुए थे.

 आराधना से प्रकट होकर भगवान कैलाशपति ने कहा कि नारायणश्री की मूर्ति कहीं गई नहीं है. वहीं समीप के नारद कुंड में ही है, परंतु तुम लोग वर्तमान में शक्तिहीन हो. भगवान नारायणश्री मेरे भी आराध्य हैं. अतएव मैं स्वयं अवतार धारण करके मूर्ति का उद्धार कर जगत का कल्याण करूंगा. कालांतर में भगवान आशुतोष शिव ही दक्षिण भारत के कलाड़ी नामक स्थान में ब्राह्मण भेरवदत्त उ़र्फ शिव गुरु के घर माता आर्यम्बा की कोख से जन्म लेकर आदिगुरु शंकराचार्य के नाम से विख्यात हुए.

जगतगुरु शंकराचार्य द्वारा संपूर्ण भारत में अव्यवस्थित तीर्थों का सुदृढ़ीकरण, बौद्ध मतों का खंडन एवे सनातन वैदिक मत का मंडन सर्वविदित है.

 शिव रूप आदिगुरु शंकराचार्य ने ठीक ग्यारह वर्ष की अवस्था में दक्षिण भारत से बद्रिकाश्रम पहुंच कर नारद कुंड से भगवानश्री की दिव्य मूर्ति का विधिवत उद्धार करके उसे पुन: प्राण प्रतिष्ठित किया. बद्रीनाथ धाम में आज भी उन्हीं के द्वारा शुरू परंपरा के अनुसार उन्हीं के वंशज नांबूदरीपाद ब्राह्मण ही भगवान नारायण रूप बद्रीनाथ जी की पूजा-अर्चना वैदिक परंपरा के अनुसार करते हैं. अति हिमपात के कारण इस धाम के कपाट वर्ष में छह माह बंद रहते हैं.

 मंदिर के कपाट पूजन के लिए अप्रैल के अंत अथवा मई के प्रथम पखवारे में श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ खोल दिए जाते हैं. कुंभ 2010 के अवसर पर इस बार भी कपाट 19 मई को खोले गए. मंदिर खुलने के दिन अखंड ज्योति दर्शन का विशेष महत्व है. छह माह बाद मंदिर के पट बंद होने का दिन लगभग नवंबर मास के दूसरे सप्ताह में आता है, जो प्रत्येक वर्ष दशहरे के दिन निश्चित किया जाता है. भगवान बद्रीनाथ जी की मूर्ति का स्वरूप एवं भगवानश्री की दिव्य मूर्ति की प्रतिष्ठा का इतिहास लगभग द्वापर युग के श्रीकृष्णावतार के समय का माना जाता है.

 भगवान बद्रीनाथ की इस तीसरी प्रतिष्ठा का इतिहास कुछ इस प्रकार है, जब विधर्मियों-पाखंडियों का प्रभाव बढ़ा तो उन्होंने भगवानश्री की प्रतिमा को क्षति पहुंचाने का प्रयास किया. बचाव में पुजारियों ने भगवानश्री की प्रतिमा पास के नारद कुंड में डाल दी, जिसकी प्राण प्रतिष्ठा स्वयं शिवावतार आदि शंकराचार्य ने की. भगवानश्री की दिव्य मूर्ति हरित वर्ण की पाषाण शिला में निर्मित है, जिसकी ऊंचाई लगभग डेढ़ फुट आंकी जाती है.

 भगवानश्री नारायण यहां पद्मासन में विराजमान हैं, पद्मासन भी योग मुद्रा में है. पद्मासन पर भगवानश्री के गंभीर बुर्तलाकार नाभिहृदय के दर्शन होते हैं. यही ध्यान साधक को साधना में गंभीरता प्रदान करता है, जिससे साधक के मन की चपलता स्वयं समाप्त हो जाती है. नाभि के ऊपर भगवानश्री के विशाल वक्षस्थल के दर्शन होते हैं. बाएं भाग में भृगुलता का चिन्ह एवं दाएं भाग में श्रीवत्स चिन्ह स्पष्ट दिखता है. भृगुलता भगवानश्री की सहिष्णुता एवं क्षमाशीलता का परिचायक है. श्रीवत्स दर्शन शरणागत दायक और भक्त वत्सलता का प्रतीक है

. पुराण इसका स्वयं साक्षी है कि त्रिदेवों में महान कौन है के परीक्षण के क्रम में भृगुऋृषि ने भगवान विष्णु जी के वक्षस्थल पर पैर से प्रहार किया तो भगवान ने क्षमादान के साथ अपने श्रेष्ठ गुणों का भी प्रदर्शन किया. श्रीवत्स चिन्ह में बाणासुर की रक्षा के लिए भगवान शिव द्वारा फेंके गए त्रिशूल के घाव एवं श्रीकृष्ण के वक्षस्थल स्पष्ट रूप से दिखते हैं.

 सुवर्ण रेखा के रूप में लक्ष्मी प्रदाता प्रतीक बने हैं. यह चिन्ह दाएं भाग में स्थित हैं. इस पर भगवानश्री के दिव्य कंबुग्रीवा के दर्शन होते हैं, जो महापुरुषों के लक्षणों का परिचायक है. इसके ऊपर भगवान बद्रीनाथ जी की विशाल जटाओं से सुख भाग के दर्शन होते हैं.

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नौ मई को खुलेंगे श्रीबदरीनाथ धाम के कपाट
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नरेन्द्रनगर, निज प्रतिनिधि: करोड़ों हिन्दुओं के आस्था के प्रतीक श्रीबदरीनाथ के कपाट आगामी नौ मई को प्रात: 5:30 बजे आम श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ खोले जाएगें। आचार्य कृष्ण प्रसाद उनियाल ने पंचाग देखकर मुहूर्त निकालने के बाद महाराजा मनुजयेन्द्र शाह ने इसकी घोषणा की।

प्राचीन परंपरा के अनुसार मंगलवार को बसंत पंचमी के पर्व पर राजमहल नरेन्द्रनगर में महाराजा मनुजयेन्द्र शाह की कपाट खोलने की तिथि की घोषणा से पूर्व मंदिर समिति से आए लोगों ने महाराजा का भव्य स्वागत किया। इसके बाद सुबह 11 बजे विधिवत पूजा अर्चना के बाद आचार्य कृष्ण प्रसाद उनियाल ने विधिवत ढंग से पंचाग देखकर श्रीबदरीनाथ के कपाट खोलने की तिथि नौ मई को बताया। इसके बाद महाराजा ने दोपहर 12 बजे तिथि की विधिवत घोषणा की। इसके अलावा गाडू घड़ा के लिए तेल निकालने के लिए 27 अप्रैल का दिन तय किया गया। इस अवसर पर महारानी राज्ये लक्ष्मी शाह, मंदिर समिति के अध्यक्ष अनुसूया प्रसाद भट्ट, मुख्य कार्याधिकारी प्रवेश डंडरियाल, धर्माधिकारी जेपी सती, संपूर्णानंद जोशी, राणा कर्ण प्रकाश जंग, शम्भू प्रसाद पुरोहित, बसंत डिमरी, अनिल डिमरी, एनपी जमलोकी समेत बड़ी संख्या में स्थानीय लोग मौजूद थे।


http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_7293575.html

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14 लाख से ज्यादा पहुंचे बदरी केदार के दर पर
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भारी बारिश के बाद भी आस्था आपदा पर भारी पड़ रही है। पिछले दो-तीन महीने से हो रही बारिश के बाद भी बदरी- केदार की यात्रा पर आने वाले यात्रियों की संख्या 14 लाख के पार पहुंच गई है। इससे मंदिर समिति को भी 13 करोड़ से ज्यादा की आय प्राप्त हो चुकी है।

बदरी केदार मंदिर समिति के अध्यक्ष अनुसूइया प्रसाद भंट्ट ने यहां जारी एक बयान में कहा कि भारी बारिश और मार्ग अवरुद्ध रहने के बाद भी यात्रा निरंतर चल रही है। कुल 14 लाख से अधिक यात्रियों से मंदिर समिति को तेरह करोड़, ग्यारह लाख, तीस हजार, छह सौ सत्तर रुपये की आय प्राप्त हुई है।

 पिछले वर्ष के इन महीनों की तुलना में इस वर्ष यात्रियों की संख्या अधिक दर्ज की गई है। बदरीनाथ में पहुंचे साढ़े आठ लाख यात्रियों से आठ करोड़, चौतीस लाख और केदारनाथ पहुंचे साढ़े पांच लाख यात्रियों से करीब पौने पांच करोड़ रुपये की आय हुई है। समिति के मुख्य कार्याधिकारी प्रवेश चंद्र डंडरियाल ने कहा कि श्रद्धालुओं को मिल रही नि:शुल्क सुविधाएं जारी रहेंगी।

 यात्रियों को रैन बसेरा, प्रसाद, भंडारा, सूचना-मार्गदर्शन, प्राथमिक स्वास्थ्य, एंबुलेंस आदि की नि:शुल्क सुविधाएं दी जा रही हैं। मीडिया प्रभारी हरीश चंद्र गौड़ और अभियंता अनिल ध्यानी ने बताया कि देहरादून के कारगी चौक में समिति के विश्राम गृह, कार्यालय और संग्रहालय का निर्माण कार्य अंतिम चरण में है। खुड़बुड़ा में समिति की मिले भवन और भूमि का सौंदर्यीकरण शुरू हो गया है।

Source dainik jagran



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जय बद्री विशाल

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