भगवान विष्णु को समर्पित बद्रीनाथ का पवित्र मंदिर ही इस छोटे शहर बद्रीनाथ के अस्तित्व का एक मात्र कारण है। प्राचीन काल में संकटपूर्ण तथा दुर्गम यात्रा को झेलते हुए आने वाले तीर्थयात्रियों की आकांक्षा पूरी करने के लिए ही बद्रीनाथ शहर बना जिसका इतिहास मंदिर के साथ ही जुड़ा हुआ है।
कहा जाता है कि बद्रीनाथ का अस्तित्व पिछले 6,500 वर्षों से है। फिर भी इसके प्रारंभिक इतिहास की जानकारी 2,500 वर्षों से अधिक की नहीं है। कुछ इतिहास की पुस्तकों में इस तथ्य का वर्णन है कि इस मठ को बौद्धों ने आर्य वंश के शासक अशोक महान के शासनकाल में हासिल कर लिया था। आधुनिक मंदिर का निर्माण वर्तमान 8वीं सदी में आदि शंकराचार्य द्वारा किया गया, जिसका पुनर्निर्माण गढ़वाली राजाओं द्वारा वर्तमान 15वीं सदी में किया गया तथा इसका स्वर्ण कलश आकार का शिखर वर्तमान 19वीं सदी में रानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा बनवाया गया।
ई.टी. एटकिंस (दी हिमालयन गजेटियर, वोल्यूम 111, भाग 1 वर्ष 1982) तथा एच.जी. वाल्टन (ब्रिटीश गढ़वालः ए गजेटियर वोल्यूम xxxvi वर्ष 1910) दोनों ने ही बद्रीनाथ मठ का समान वर्णन किया है, जिसमें वाल्टन का वर्णन नि संदेह एटकिंस के वर्णन पर ही आधारित है। दोनों ही बताते हैं कि मूल भवन का निर्माण 8वीं सदी में ही शंकराचार्य द्वारा किया गया। वर्तमान मंदिर का यह अत्याधुनिक स्वरूप है, पहले स्थित मंदिरों को ऊपरी पहाड़ से बर्फ, मिट्टी के ढेरों के नीचें खिसककर गिरने से मलवों ने ध्वस्त कर दिया। इसकी सपाट पत्थरों की दीवारों को सुर्खी चूना के गिलावों (मसालों) से जोड़ा गया है, जिसके ऊपर सीमेंट की एक पतली परत है जो इसकी सफाई को बढ़ाकर इसे पुरावेशषों से अलग करते हैं। छत के लिए देवदार लकड़ी का इस्तेमाल हुआ है। मंदिर के नीचे थोड़ी दूर पर एक तपत कुंड हैं, जो 16.5 फीट लंबा 14.25 फीट चौड़ा एक जलाशय है जहां लकड़ी के खंभे पर तख्तों की छत भी है। उसके उपभूमिगत संवाहन द्वारा गर्म झरने का पानी इसमें आता है। जल से सल्फरयुक्त धुआं या भाप इससे निकलता रहता है जो इतना गर्म रहता है कि इसे तबतक नहीं छूआ जा सकता जबतक कि इसके साथ ठंडा जल मिलाकर इसके तापमान को कम न कर लिया जाय। 26 मई को 1 बजे रात में इसका तापमान 1200 फारेनहाइट था। इस प्रकार बिना लिंगभेद के यहां स्नान किया जाता है। प्रक्षालन के बाद मूर्त्ति की पूजा करना तथा सहाय ब्राह्मणों को उदारतापूर्वक दिये दान-दक्षिणा को पुराने दुष्कर्मों को धोने में समर्थ माना जाता है। इतना विश्वस्त कि हर वर्ष इस मठ में करीब पचास हजार तीर्थयात्री आते है तथा 12 वर्षीय कुंभ मेले के दौरान यह संख्या काफी अधिक होती है।
एटकिंस तथा वाल्टन दोनों ने ही बताया है कि मंदिर की प्रतिमा काले पत्थरों से बनी है तथा लगभग तीन फीट ऊंची है। दिन में स्वर्ण जड़ित पोशाक पहनाये जाते हैं तथा इसकी पूजा में कई सोने एवं चांदी के जेवर भी चढ़ाये जाते हैं। मूर्त्ति के सिर के ऊपर एक छोटा स्वर्णिम छत्र तथा एक चमकीला आईना है। सामने सदैव जलती हुई कई बत्तियां है तथा जड़ीदार कपड़े से ढंका एक टेबुल रहता है। मूर्त्ति एक स्वर्ण किरीट धारण किये हुए हैं जिसके बीच में एक सामान्य आकार का हीरा जड़ा है। परिधान एवं जेवर सहित संपूर्ण सम्पदा कम से कम दस हजार (तत्कालीन) की है।
मंदिर में हजारों वर्षों से हो रहे धार्मिक कर्मकांडों को आज भी उसी प्रकार किया जाता है तथा वर्ष (1910) का वाल्टन का वर्णन आज भी सच है। नवंबर में किसी शुभ दिन को मंदिर बंद कर दिया जाता है तथा कुछ वर्तनों को अंदर ही छोड़ कर बाकी सारी चीजों को जाड़े के मुख्यालय जोशी मठ ले जाया जाता है। नियमतः नवंबर से मध्य-मई तक मंदिर बर्फ से ढंका रहता हैं। कुल 1,750 रूपये भूमिकर की मांग सहित अल्मोड़ा जिले का 45 संपूर्ण ग्राम तथा 26 गांवों का भाग मंदिर को दान स्वरूप प्राप्त है तथा इस जिले में 164 संपूर्ण ग्राम तथा लग्गे तथा 111 गांवों का भाग भी है जिसकी आय 5,426 रूपये (तत्कालीन) है।
“वर्ष 1846 में श्री लुशिंगटन द्वारा वर्णित उन पुराने दिनों का एक रिवाज उस समय के रावल के लिए है जिसके अनुसार वंशनुगत मंदिर अधिकारियों के सहयोग से उनके जीवनकाल में ही उस व्यक्ति को उत्तराधिकारी चुनने का प्रावधान था जो शास्त्रानुसार उस पद के योग्य हो। नये रावल को शासक वर्ग से सनद प्राप्त होता था। अंग्रेजों के आने के बाद रावलों का यह अधिकार कुमाऊं के आयुक्त द्वारा इस्तेमाल होता था। बाद के इन वर्षों में नागरिक अधिकारी प्रायः मंदिर-मामलों के प्रबंध में हस्तक्षेप करते, जो असंतोषजनक स्थिति तक पहुंच गया। इनकी स्थिति सशक्त करने के लिए कई योजनाएं लायी गयी। वर्ष 1893 में तत्कालीन रावल ने बूढ़े हो जाने पर मंदिर के कार्यभार त्याग दिया। इसके बाद कोई योग्य नायब या उत्तराधिकारी नहीं होने के कारण समय-समय पर दो या तीन प्रबंधकों की नियुक्ति की गयी जिन्होंने अपने अपने ढंग से उसे चलाया। अंत में वर्ष 1896 में स्थानीय सरकार के आदेश से एक संस्था की स्थापना नागरिक प्रक्रिया संहिता की धारा 539 अनुसार की गयी, फलस्वरूप, मंदिर के धर्मनिरपेक्ष मामलों के प्रबंधन के सारे अधिकार रावल को मिल गये, जिसका नियंत्रण टिहरी गढ़वाल के महामहिम राजा के अधीन होना था जो नायब रावल की नियुक्ति भी कर सकते थे, अगर रावल ने स्वयं ऐसा नहीं किया हो। रावल को अनिवार्य रूप से दक्षिण भारत का नंबूद्रि होना चाहिए था तथा अपनी जाति में पुजारी वर्ग का भी, जो अन्य विशिष्ट गुणों से भी विभूषित हो। (अन्य विशिष्ट गुणों से विभूषित अपनी जाति में पुजारी वर्ग का दक्षिण भारत का नंबूद्रि ब्राह्मण ही रावल का पद पा सकता था)।
एटकिंस बताता है कि तीर्थयात्रियों के उपयोग के लिए शहर में एक स्वास्थ्य केंद्र भी था जिसे सदाव्रत कोष तथा निजी सदाव्रत चौरिटी द्वारा स्थानीय तीर्थयात्रियों को राहत पहुंचाने के लिए चलाया जाता। ग्वालियर, कश्मीर तथा पलवल राज्यों एवं बद्रीनाथ के काली कंवली फकीरों द्वारा इसे पूरे रास्ते में चलाया जाता।