मंदिर के खुलने और बंद होने का समारोह
मंदिर वर्ष में 6 महीने, अप्रैल-मई से अक्तूबर-नवंबर के बीच तक खुला रहता है, पर उसके खुलने का दिन बसंत पंचमी के दिन (फरवरी-मार्च में) तय किया जाता है जो ज्योतिष गणना के आधार पर होता है। बंद होते एवं खुलते समय मंदिर में पूजा होती है। जाड़े में उत्सवार (भगवान की कांस्य मूर्ति) को, भगवान के जाड़े के गृह, पांडूकेश्वर तक श्रद्दापूर्वक ले जाया जाता है। बद्रीनाथ के रावल परंपरागत इसके साथ जाते हैं और पांडूकेश्वर में एक रात रहते हैं। बद्रीनाथ के प्रधान मंदिर के खुलने के दिन इन प्रतिमाओं को पूजा एवं दर्शन के लिए वापस लाया जाता है।
पंडितों, ज्योतिषियों के बीच तथा टिहरी गढ़वाल के पूर्व महाराजा के परामर्श से बसंत पंचमी को नरेन्द्र नगर में एक संक्षिप्त उत्सव होता है जहां अप्रैल के अंतिम सप्ताह तथा मई के प्रथम सप्ताह के बीच मंदिर खोले जाने का दिन तय किया जाता है। इससे पहले नरेन्द्र नगर में तिल का तेल बनाया जाता है जिसका लेप साल भर भगवान की मूर्ति को होता है। प्रथम समारोह उस अखंड ज्योति का दर्शन होता है जो एक प्राचीन लैंप में वर्षभर मंदिर बंद हो जाने पर भी जलती रहती है। पूजा दर्शन मंडप में होती है, जहां कुछ ही लोग रह सकते हैं, जबकि बाकी भक्त सभा मंडप में दिव्य दर्शन के लिए खड़े रहते हैं, जब तप्तकुंड में स्नान के बाद पूजा होती है।
मुख्य कार्यकारी पदाधिकारी, रावल तथा धर्माधिकारी मिलकर विजयादशमी उत्सव पर बंद होने का दिन तय करते हैं। बंद होने के दिन, माणा के मोलपा परिवार की अविवाहित लड़कियों द्वारा बुनी घृत चोली, भगवान को चढ़ाई जाती है। यह कर्मकांड का एक भाग होता है, जिसमें भक्त भक्तिभाव से हिस्सा लेते हैं। मंत्रों के उच्चारण के बीच चोली को मूर्त्ति पर जाड़े के महीनों के विश्राम की मुद्रा में रखा जाता है। इसके बाद लोगों को भोग दिया जाता है। मंदिर खुलने के दिन चोली को निकालकर इसके धागे एवं रेशों को यात्रियों के बीच महाप्रसाद के रूप में बांट दिया जाता है।
जब जाड़े के लिए मंदिर का कपाट बंद हो जाता है तब रावल तथा उसके कर्मचारी नीचे जोशीमठ चले जाते हैं।