आज का तीर्थयात्री बदल गया है। वह ईश्वर दर्शन के साथ स्थानीय समाज, प्रकृति व सुविधाओं को भी बारीकी से देखता है। आस्था के साथ-साथ ये भी उसके जरूरत के मुद्दे हैं। यह बात भी कुछ हद तक सही है कि पहाड़ों को जोड़ने का हमारे पास अभी तक सबसे बेहतर माध्यम सड़के हैं। लेकिन जिस ढंग, समझ व तरीकों से ये सड़कें बनाई जा रही हैं वह चिंतनीय है।
कब सड़क का पुस्ता गिर जाये तथा कब सिर पर किसी दूसरी सड़क का पत्थर गिर जाय, कुछ भी कहा नहीं जा सकता। पहाड़ के सौन्दर्य पर ये सड़कें दाग जैसी दिखती हैं। पिछले कुछ महीनों में गंगोत्री, यमनोत्री व बदरीनाथ रोड पर कई तीर्थ यात्रियों से मिलना हुआ। ज्यादातर से बातचीत के बाद लगा कि वे आये खुशी के साथ थे, परन्तु जाते समय कटु अनुभवों के साथ जा रहे हैं। गंदगी, अव्यवस्था, सड़कों के खतरे आदि मुद्दे पर लोग सुधार की बातें करते हैं।
खैर बात करें बूढ़ाकेदार की। बूढ़ाकेदार बाबा अपने भक्तों से मिलने को बेताब हैं। भिलंगना घाटी के सैकड़ों परिवारों के लिए यह रोजगार की सम्भावना से भरा है। ऐसा लगता है कि बूढ़े बाबा केदार अपने भक्तों को पुकार रहे हों। कैसे यह पुकार सार्थक हो ? इसके लिये बूढ़ाकेदार तक तीर्थयात्रियों के लिये बुनियादी व्यवस्थाओं (सड़क, आवास, प्राकृतिक सौन्दर्य संरक्षण आदि) काम करना होगा।
यह बात स्थानीय प्रतिनिधियों को भी समझनी चाहिये और जोर-शोर से उठानी चाहिये। हमारे जनप्रतिनिधियों के मनों में इन ऐतिहासिक धरोहरों के प्रति गौरव का भाव तथा इनके संरक्षण करने की इच्छाशक्ति हो तो बूढ़ाकेदार जैसे ऐतिहासक स्थान स्थानीय आजीविका को बढ़ाने व पलायन को रोकने का एक महत्वपूर्ण जरिया भी बन सकता है।