Tourism in Uttarakhand > Religious Places Of Uttarakhand - देव भूमि उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध देव मन्दिर एवं धार्मिक कहानियां

Devbhumi Uttarakhand - ऎसे ही नही कहते है उत्तराखंड को देव भूमि

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
Devbhumi Uttarakhand Manora Devipoojan Nritya

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

You will find temple of God and Goddess in Step to Step in Uttarakhand.

Devbhoomi,Uttarakhand:
देवभूमि का कण-कण शिवमय

उत्तराखंड भगवान शिव एवं माता पार्वती की स्थली। देवभूमि के पहाड़, पत्थर, नदियां सभी पवित्र हैं और श्रद्धालुओं को भोग एवं मोक्ष देने वाले शंकर यहां के कण-कण में विराजमान हैं। फिर शिव का अर्थ भी तो कल्याणकारी है और शिव ही शंकर हैं। 'शं' का अर्थ कल्याण और 'कर' अर्थात करने वाला। जाहिर है देवभूमि भगवान शिव के प्रति आस्थावान है। अवसर महाशिवरात्रि का है तो हर कोई इस महत्वपूर्ण अनुष्ठान में अपनी आहुति डालना चाहता है। इस बार तो देवभूमि में महाकुंभ चल रहा है, ऐसे में इस पर्व का महात्म्य और भी बढ़ जाता है।

भगवान शिव को संहार शक्ति और तमोगुण का अधिष्ठाता कहा गया है, लेकिन पुराणों में विष्णु और शिव को अभिन्न माना गया है। विष्णु का वर्ण शिव में दिखाई देता है, जबकि शिव की नीलिमा भगवान विष्णु में दृष्टिगोचर होती है। भारतीय परंपरा में फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को महाशिवरात्रि के नाम से जाना जाता है और यह भगवान शिव की आराधना का प्रमुख दिन है। व्यास आचार्य शिव प्रसाद ममगांई के अनुसार जगत की तीन सर्वाेच्च शक्तियों में अनन्यतम हैं भगवान शिव।

भगवान शिव का पूजन रात्रि में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ही क्यों होता है, वह इसलिए कि शिव प्रलय के देवता कहे गए हैं और इस दृष्टि से वे तमोगुण के अधिष्ठाता हैं। जाहिर है कि तमोमयी रात्रि से उनका स्नेह स्वाभाविक है। रात्रि संहार काल की प्रतिनिधि है और उसका आगमन होते ही सर्वप्रथम प्रकाश का संहार, जीवों की दैनिक कर्म चेष्टाओं का संहार और अंत में निंदा चेतनता का संहार होकर संपूर्ण विश्व संहारिणी रात्रि की गोद में अचेतन होकर गिर जाता है। ऐसी दशा में प्राकृतिक दृष्टि से शिव का रात्रि प्रिय होना सहज ही हो जाता है।

 यही कारण भी है कि शंकर की आराधना न केवल इस रात्रि में ही, लेकिन प्रदोष समय में की जाती है। महाशिवरात्रि का कृष्ण पक्ष में आना भी साभिप्राय है। यही नहीं, स्वामी दिव्येश्वरानंद के मुताबिक भगवान शिव की जटाओं में विराजमान गंगा पावनता की द्योतक है और जटाएं 'सहस्रार' की ओर संकेत करती हैं, जहां अमृत का निवास है। सिर पर चंद्रमा सौभाग्य का प्रतीक है।

 शिवजी के नेत्रों में ओज है तो हाथ में त्रिशूल, जो कला की दृष्टि से अस्त्र और रक्षा के लिए शस्त्र है। डमरू प्रकृति में लयात्मक रूप से आने वाले परिवर्तन का संकेतक है। बैल धर्म का प्रतीक है। जीवन की इतिश्री का नाम ही श्मशान है। यहां न जन्म है, न मृत्यु। भस्म का अर्थ जीवन के सत्य को समझ लेना है। इसीलिए शिव अपने शरीर पर भस्मीभूत लगाते हैं।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:


जब रासलीला की चाह में शिव बने गोपी

गोपेश्वर (चमोली)। रुद्र हिमालय में स्थित गोपेश्वर को प्राचीन एवं पवित्रतम तीर्थ माना जाता है। पुराणों के अनुसार इंद्रियों के नियंता और पशुओं के पति भगवान शिव को यहां गोपेश्वर या गोपीनाथ भी कहा जाता है और इन्हीं के नाम पर चमोली जिले के इस कस्बे को गोपेश्वर नाम मिला।

शिव का नाम गोपीनाथ पड़ने के पीछे एक रोचक कहानी है। लोकमान्यता है कि सृष्टि रचनाकाल में जब गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण राधा के साथ महारासलीला में निमग्न थे, तो उन्हें देख भगवान शिव में भी गौरी के साथ रासलीला करने की इच्छा जाग्रत हुई, परन्तु भगवान त्रिपुरारी, स्वयं त्रैलोक्यनाथ कृष्ण नहीं बन सकते थे और उनकी अद्र्धागिनी गौरी भी राधा नहीं बन सकती थी। इसलिए भगवान शिव स्वयं गोपी बन गए और गौरी ने गोप का रूप धारण किया और दोनों रासलीला में मग्न हो गए, लेकिन अंतर्यामी भगवान श्रीकृष्ण को उन्हें पहचानने में देर नहीं लगी और उन्होंने मुस्कराते हुए भगवान शिव को गोपीनाथ की उपाधि प्रदान की। गोपीनाथ का मंदिर स्थित होने के कारण गोपेश्वर को यह नाम दिया गया।

इसकी एक और वजह मानी जाती है। कहते हैं कि राजा सगर की सात हजार गायें थीं। उसके ग्वाले आसपास के क्षेत्र में इन गायों को चराते थे। उनमें से एक गाय हमेशा जंगल में स्थित एक शिवलिंग को अपने दूध से नहलाती थी। ग्वाले ने जब यह बात राजा को बताई, तो उन्होंने स्वयं मौके पर पहुंचकर यह नजारा देखा। चूंके उस समय ग्वालों को गोप कहा जाता था, इसलिए राजा ने उस शिवलिंग अथवा भगवान शिव को गोपेश्वर नाम से पुकारा और गोपीनाथ मंदिर की स्थापना की गई। मान्यता के मुताबिक गोपीनाथ मंदिर के कारण ही गोपेश्वर का भी नाम रखा गया।

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6346848.html

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