Author Topic: Devprayag - देवप्रयाग: ३३ कोटि देवताओं का आवास  (Read 22978 times)

पंकज सिंह महर

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मंदिर के ठीक पीछे पत्थरों पर खुदे कुछ लेख एक से पांचवीं सदी के होने का विश्वास है। ये ब्राह्मी लिपि में हैं तथा माना जाता है कि इसमें उन 19 लोगों के नाम है, जिन्होंने संगम में जल समाधि ले ली थी क्योंकि ऐसा माना जाता था कि ऐसा करने से उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होगी। पास ही चट्टान पर दांतेदार वृत्ताकार की श्रृंखला है जो पत्थर युग से ही पितृपूजा के प्रतीक हैं। दक्षिण भारत में इसे पांडु कुंडी कहते हैं। इसके ठीक ऊपर पत्थरों पर खुदी छोटी गुफाओं में वामन गुहा एवं गोपाल गुहा है जहां सिद्ध साधु रहते हैं।
     देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर आचार्य श्री सोमनाथजी भट्ट कहते हैं, “यह केवल इसके बद्रीनाथ जाने वाले मार्ग पर प्रथम प्रमुख प्रयाग होने के कारण ही नहीं है जो देवप्रयाग को पवित्रता प्रदान करता है, पर इस कारण भी है कि यहां धार्मिक नदियों में सर्वाधिक धार्मिक नदी भागीरथी-गंगा है, जिसे अपने पूर्वजों के पाप धोने के लिये राजा भागीरथ की कठिन तपस्या एवं निर्बाध प्रयासों के बाद पृथ्वी पर लाया गया था। देवप्रयाग की एक यात्रा का महत्त्व गया (बिहार) की 14 बार तीर्थयात्राओं के समान है। मंदिर का संचालन रघुनाथजी मंदिर समिति द्वारा होता है जिसमें पांच या छ: स्थानीय गणमान्य एवं धार्मिक विशेषज्ञ होते हैं जो टिहरी के राजा द्वारा गठित होता है। मंदिर के अंदर तस्वीरें खीचने की सख्त मनाही है।
       

           मंदिर का संचालन रघुनाथजी मंदिर समिति द्वारा होता है जिसमें पांच या छ: स्थानीय गणमान्य एवं धार्मिक विशेषज्ञ होते हैं जो टिहरी के राजा द्वारा गठित होता है। मंदिर के अंदर तस्वीरें खीचने की सख्त मनाही है।

श्री सोमनाथजी भट्ट (दक्षिण भारत के महाराष्ट्री ब्राह्मण), जो स्वयं को आदी शंकराचार्य के शिष्यों के वंशज मानते हैं, वे बताते हैं कि किसी भी विष्णु मंदिर में लोगों की दिनचर्या सवेरे उठना, कार्य करना और दोपहर में विश्राम करना, की तरह ही मंदिरों में भी पूजा-अर्चना की जाती है। आदि गुरू द्वारा स्थापित पूजा पद्धति का पालन आज भी होता है तथा देवों की आराधना एवं परिधान सप्ताह के प्रत्येक दिन विशिष्ट होते हैं। सोमवार को सफेद, मंगलवार को लाल, बुधवार को हरा, बृहस्पतिवार को पीला, फिर शुक्रवार को सफेद, शनिवार को काला एवं रविवार को लाल परिधान होता है। पौष (दिसम्बर से जनवरी) महीने में महापूजा होती है जबकि बैसाखी का प्रधान मेला अप्रैल में होता है।

आरती का समय: मंदिर का कार्यक्रम प्रात: 4 बजे शुरू होता है जब मूर्ति को स्नान कराकर प्रार्थना होती है, फिर अभिषेक पूजा जो 6 बजे समाप्त हो जाती है, जिसके बाद मंदिर का कपाट खुल जाता है। प्रथम आरती सुबह 6.30 बजे होती है और फिर दोपहर 12 बजे दिन में जिसके बाद मूर्ति को भोजन कराकर दोपहर के विश्राम से पहले 12.30 बजे विश्राम आरती होती है। मंदिर सायं चार बजे तक बंद रहता है जब फिर भगवान को दोपहर के विश्राम से जगाया जाता है। संध्या की आरती 7.30 बजे होती है और अंत में 8.30 बजे रात को शयन आरती होती है जिसके बाद सजावट के परिधान उतारकर रात को भगवान को विश्राम करने दिया जाता है।
 

पंकज सिंह महर

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अलकनंदा एवं भागीरथी के संगम से धार्मिक नदी गंगा बनी, जिनकी पवित्रता का वर्णन कई प्राचीन हिन्दु पुरालेखों में है। स्कंद पुराण के केदारखंड में 11 अध्याय देवप्रयाग पर लिखे गये हैं। इसे सतयुग का तीर्थ माना जाता है क्योंकि उस युग में देव शर्मा नामक एक ब्राह्मण ने 11,000 वर्षों तक तप किया था। भगवान विष्णु उसके सामने प्रकट हुए तथा उसे एक वर दिया कि जब विष्णु देवप्रयाग लौटकर आयेंगे तो देव शर्मा को प्रसिद्ध बना देंगे। इसके अनुसार भगवान विष्णु त्रेता युग में भगवान राम के रूप में देवप्रयाग आये तथा देव शर्मा के नाम पर देवप्रयाग का नामकरण किया। इसके पहले देवप्रयाग का नाम ब्रह्मतीर्थ या श्रीखंड नगर होता था।
       संगम घाट पर जाने के लिये चौड़ी सीढ़ियां बनी है। यहां दो कुंड हैं ब्रह्मकुंड एवं सूर्य कुंड जिसका उपयोग अनंतकाल से तीर्थयात्री एवं भक्तगण संगम पर पवित्र स्नान करते रहे हैं। संगम पर दो छोटी गुफाएं भी हैं, वशिष्ठ गुफा जिसका नाम यहां तप करने वाले गुरू वशिष्ठ के नाम पर है एवं सूर्य गुफा। अब वे भ्रमणकारी साधुओं के आवास हैं, जो थोड़े समय के लिये यहां आते हैं।
      ऐसा कहा जाता है कि यहां किया जाने वाला पितृदान गया के पितृदान से 14 गुणा अधिक प्रभावकारी होता है। भगवान राम ने अपने पिता दशरथ के लिये इसी संगम पर पितृदान किया था। यहां पितृदान की पूजा सभी सही तरीकों एवं कर्मकांडों से सम्पन्न होती है जहां मूलरूप से पूजा के लिये चावल एवं दूध का इस्तेमाल होता है। पूजा पूर्वजों के प्रतीक एवं पिंड गेंद (चावल से बना) द्वारा होती है। कहा जाता है कि वे सभी पूर्वज जिनका अब तक पुर्नजन्म नहीं हुआ रहता है वे सब वायु में विद्यमान रहते हैं तथा देवप्रयाग में उनकी पितृपूजा करने से उन्हें प्रेतयोनि से मुक्ति मिलती है इसलिये कि देवप्रयाग एक धार्मिक स्थान है, जो मुक्ति प्रदान करता है।

पंकज सिंह महर

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देवप्रयाद में गंगा आरती


पंकज सिंह महर

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देवप्रयाग का सबसे दर्शनीय स्थान है, यहां की वेधशाला। दशरथांचल की पहाड़ी पर सर्किट हाउस के ठीक ऊपर नक्षत्र वेधशाला स्थित है। इसका निर्माण वर्ष 1946 में आचार्य चक्रधर जोशी द्वारा (जो देवप्रयाग के सर्वाधिक प्रसिद्ध विद्वान थे) ज्योतिष के अध्ययन के लिये किया गया। आजकल इसका संचालन आचार्य के पुत्र एवं पत्रकार डॉ प्रभाकर जोशी द्वारा होता है। वेधशाला में दो दूरबीन लगे हैं। 6 ईंच व्यास के दो लेंसों से युक्त बड़ा दूरबीन जर्मनी से आयातित है तथा दूसरा तीन ईंच व्यास का ब्रिटेन से आयातित है। इनके अलावा यहां प्राचीन उपकरण भी हैं जो समय का माप कर ज्योतिष का अनुसंधान करने की सुविधा प्रदान करते हैं तथा इनमें ध्रुव यंत्र, जलघाटी यंत्र, द्ववादशांगुलाशंकु, सौर्य यंत्र एवं कई अन्य यंत्र शामिल हैं। यह वेधशाला आचार्य के पिता पंडित लक्ष्मीधर जोशी द्वारा वर्ष 1863 में स्थापित एक संस्थान का भाग है।
      इस भवन में भारत के सबसे बड़े पुस्तकालयों में से एक पुस्तकालय स्थित है। यहां 20,000 से भी अधिक पुस्तकें है, जिनमें कई पांडुलिपि में ही हैं। कई ज्योतिषशास्त्र पर है तथा संस्कृत, तमिल, तेलगु, गुजराती, मराठी, बंगाली एवं हिन्दी में हैं। पुस्तकालय में कुछ प्राचीन लेख, दुर्लभ प्राचीन पुस्तकें भी हैं, जिसमें एक पेज पर लिखित भगवत गीता शामिल है।


वेधशाला में यंत्र

पंकज सिंह महर

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वेधशाला में रखे पुरानी पांडुलिपियां



पंकज सिंह महर

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वेधशाला के संस्थापक

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रीवर राफ्टिंग

गंगा पेशेवर एवं प्रशिक्षु नदी बेड़ायन (रीवर राफ्टिंग) का आनंद भी देती है नदी पर बेड़ायन द्वारा भागीरथी एवं अलकनंदा के मिलनस्थल पर देवप्रयाग जल काफी उतार-चढ़ाव का होता है जो एक निपुण नाविक के लिये भी चुनौती पेश करता है।

देवप्रयाग से नीचे उतरकर गंगा एक स्थिर तालाब में जल की तरह हो जाती है। लगभग 70 किलोमीटर के प्रवाह तक यह नये खिलाड़ियों एवं प्रशिक्षुओं के लिये यह बिल्कुल ठीक है क्योंकि यहां नदी के प्रवाह में तृतीय श्रेणी की उत्तम धारा तथा दो चतुर्थ श्रेणी की धाराएं होती हैं जो 4 किलोमीटर शिवपुरी के नीचे ब्यासी की दीवार तथा गोल्फ कोर्स तक है। प्रत्येक में गहरा पर शांत जल होता है। बीच-बीच में बालू के किनारे भी होते है जहां बेड़ा चालक बगल से निकल जाते हैं।     

गंगा के सफेद जल पर बेड़ा चलाने योग्य दूरी कौडियाला से ऋषिकेश तक है जहां के 36 किलोमीटर दूरी पर 12 प्रमुख धाराएं हैं, जहां पर नौकायन सहज है।

अगर आपकी रूचि बेड़ायन में हो तो सम्पर्क करें: धानेश्वर रिसार्ट, बाह बाजार, देवप्रयाग, दूरभाष: 09411722061 या ईमेल करें: info@gangarafttrek.com. आप गढ़वाल मंडल विकास निगम के वेबसाईट (www.gmvnl.com/newgmvn/sports/) पर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
 
 

पंकज सिंह महर

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चंद्रबदनी देवी (देवप्रयाग से 22 किलोमीटर, कांडीखाल से 10 किलोमीटर पैदल।)

स्कंद पुराण के अनुसार राजा दक्ष की पुत्री सती का विवाह भगवान शिव से हुआ था। त्रेता युग में असुरों की पराजय के बाद दक्ष को सभी देवताओं का प्रजापति चुना गया इसलिये कंखाल में उसने एक यज्ञ आयोजित किया। चूंकि भगवान शिव ने उसके प्रजापति बनाये जाने का विरोध किया था इसलिये उसने भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया तथा भगवान शिव के घर कैलाश पर्वत की चोटी से सती ने सभी देवताओं को जाते देखा और उन्हें पता चला कि उन्हें आमंत्रित नहीं किया गया है। जब सती को अपने पति के प्रति इस अपमान की बात मालुम हुई तो वे यज्ञ स्थल पर गयी और हवन कुंड में अपना बलिदान कर दिया। जब तक भगवान शिव वहां पहुंचे वह सती हो चुकी थी। क्रोधित होकर भगवान शिव ने तांडव नृत्य किया तथा अपने गणों को मुक्त कर उन्हें दक्ष का सिर काट डालने एवं सभी देवों को डराने एवं मारपीट करने का आदेश दिया। देवों के समुदाय ने भगवान शिव से क्षमा याचना की तथा उनसे निवेदन किया कि वे दक्ष को यज्ञ पूरा करने की अनुमति दें। फिर भी चूंकि दक्ष मृत्यु को प्राप्त हो चुका था इसलिये एक बकरा का सिर काटकर दक्ष के शरीर पर लगा दिया गया ताकि वह अपना यज्ञ संपन्न कर लें।
      भगवान शिव ने सती के शव को हवन कुंड से बाहर निकालकर अपने कंधों पर रख लिया। वर्षों तक वे इसी प्रकार चिंतन एवं क्रोध में घूमते रहे। इस विकट परिस्थिति पर विचार करने के लिये देवताओं की एक सभा हुई क्योंकि वे जानते थे कि क्रोध में भगवान शिव विश्व को ध्वंश करने की क्षमता रखते हैं। अंत में यह तय हुआ कि भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र का प्रयोग करें। भगवान शिव को बिना बताये ही भगवान विष्णु ने सती के शरीर को 52 टुकड़ों में सुदर्शन चक्र से काट दिया। जहां कहीं भी भूमि पर सती के शरीर का कोई भाग भी गिरा वह सिद्धपीठ या शक्तिपीठ बन गया। उदाहरण के लिये नैना देवी वहां है जहां उनकी आंखें गिरी, ज्वालपा देवी में उनकी जीभ, सुरकुंडा देवी में उनकी गर्दन तथा चंद्रबदनी में उनके शरीर का निम्न भाग गिरा।
     
     चंद्रबदनी में देवी को देखा नहीं जा सकता क्योंकि देवी के सम्मान की रक्षा के लिये इसके सामने एक कपड़े का परदा लगा रहता है क्योंकि यहां उनके शरीर के जिस भाग की पूजा होती है। परदा होने का एक अन्य कारण यह है कि सदियों पहले मानव बलि लेने वाले श्री यंत्र को परदे से ढ़ककर रखा गया है ताकि मानव इसे देख न पाये।
मंदिर के बाहर कई प्राचीन मूर्तियां एवं लोहे के त्रिशूल हैं। यहां से सिरकंडा, केदारनाथ एवं बद्रीनाथ शिखरों का सुंदर दृश्य देखा जा सकता है। यहां के मंदिर छोटे पर बहुत ही पूजनीय है। अप्रैल में यह बड़े धार्मिक एवं सांस्कृतिक मेले का स्थल होता है।





       

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मलेठा (देवप्रयाग से 25 किलोमीटर दूर)

पहाड़ियों पर खुले एवं विस्तृत सिंचित खेत लगभग दुर्लभ सा ही है। सड़क पर दो स्थानों पर एक जलाशय में पहाड़ से भारी मात्रा में जल गिरता है। एक गर्म दोपहरी में ये दो बिन्दु अत्यावश्यक सुविधाएं जैसे साफ-सुथरा होना या अगर आप चाहे तों स्नान भी कर सकते हैं।

मलेठा के इस यथेष्ट जल से संबंधित एक कहावत है जो तत्कालीन पहाड़ी लोगों के जीवन तथा उनकी कृषि के लिये व्यंगोक्ति ही है। गढ़वाल से देश की सबसे बड़ी दो नदियां निकलती और ये गंगा एवं यमुना हैं एवं इनके साथ रास्ते में अलकनंदा में गिरने वाली पांच प्रमुख नदियां हैं। फिर भी इस क्षेत्र के वासी बिना अपने खेतों की सिंचाई के नदियों को केवल प्रवाहित होते देखते हैं स्थानीय स्तर पर एक कहावत है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी, काम नहीं आती। गढ़वाल में कृषि योग्य खेतों के 15 प्रतिशत से अधिक भूमि के लिये सिंचाई उपलब्ध नहीं है।

मलेठा की बात इससे भिन्न नहीं है। विशाल अलकनंदा पास ही प्रवाहित है, पर यहां के खेतों में इसका एक क्यूलक जल भी प्राप्त नहीं होता है। अगर मलेठा के खेत बड़ी मात्रा में सिंचित है या यहां सड़क पर प्रचुर जल उपलब्ध है तो यह पहाड़ी के पीछे के छोटे जलश्रोत से संभव है। और यहीं 17वीं सदी की कथा का असाधारण अभियांत्रिकी की सफलता छिपी है, जिसने पहाड़ी के पीछे झरनों के पानी को मलेठा के कभी झुलसते खेतों में ले आया है।

टिहरी के महीपत शाह के शासनकाल में माधो सिंह भंडारी सेनापति था। मलेठा संभवत: उसकी पत्नी का मायके था। यहां के लोगों की जीविका की घोर कठिनाईयों के प्रति वह चिंतित था जो खासकर कृषि की खराब हालत के कारण थी। लोग गंगा या अलकनंदा को प्रवाहित होते फटी आंखों से देखते जो बहुत दूर नहीं थी पर इसके जल को ऊपर पहुंचाया नहीं जा सकता था। परंतु खेतों के विपरित दूसरी तरफ पहाड़ी पर एक झरना था। इसी जल को मलेठा के खेतों तक लाने का निश्चय माधो सिंह ने किया। इसका अर्थ था पहाड़ी पर एक नाला खोदना। माना जाता है कि इस क्रम में माधो सिंह को अपने पुत्र का बलिदान भी करना पड़ा, जिसे भारी मन से सहन करते हुए भी उसने अपना संकल्प पूरा किया। उसी समय से उजाड़ खेतों में प्रचुर पैदावार होती है तथा आज जुलाई के निश्चित धान रोपाई के समय परंपरागत संगीतकार लोगों के साथ खेतों तक जाकर खेत जोतने या रोपाई से पहले माधो सिंह भंडारी के प्रशंसागीत गाते हैं।
यह नाला आज भी है और एक किलोमीटर दूर जाकर फिर पीछे घूमकर एक किलोमीटर और आगे (खेतों के ऊपर) टिहरी की ओर मुड़ती सड़क पर इसे देखा जा सकता है। टिहरी के प्रवेश पथ पर यह रास्ता एक छोटा स्मारक पार्क के साथ ही माधो सिंह की प्रतिमा और आगे नाले तक ले जाता है।

पंकज सिंह महर

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लच्छमोली (देवप्रयाग से 12 किलोमीटर दूर।)

लच्छमोली एक छोटी जगह है जहां पुरातात्विक तौर पर जुड़ा मंदिर है। आज मंदिर परिसर एक काफी बड़े आश्रम में परिवर्तित हो गया है जहां तीर्थयात्री अपना भोजन पकाते है या दोपहर या फिर रात का विश्राम करते हैं। एक साधारण भोजन हमेशा उपलब्ध रहता है। अन्य लोगों के लिये, सड़क के किनारे या दूर, मध्यम एवं उच्च श्रेणी के होटल एवं रिसार्ट भी बनते जा रहे हैं।

 

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