अलकनंदा एवं भागीरथी के संगम से धार्मिक नदी गंगा बनी, जिनकी पवित्रता का वर्णन कई प्राचीन हिन्दु पुरालेखों में है। स्कंद पुराण के केदारखंड में 11 अध्याय देवप्रयाग पर लिखे गये हैं। इसे सतयुग का तीर्थ माना जाता है क्योंकि उस युग में देव शर्मा नामक एक ब्राह्मण ने 11,000 वर्षों तक तप किया था। भगवान विष्णु उसके सामने प्रकट हुए तथा उसे एक वर दिया कि जब विष्णु देवप्रयाग लौटकर आयेंगे तो देव शर्मा को प्रसिद्ध बना देंगे। इसके अनुसार भगवान विष्णु त्रेता युग में भगवान राम के रूप में देवप्रयाग आये तथा देव शर्मा के नाम पर देवप्रयाग का नामकरण किया। इसके पहले देवप्रयाग का नाम ब्रह्मतीर्थ या श्रीखंड नगर होता था।
संगम घाट पर जाने के लिये चौड़ी सीढ़ियां बनी है। यहां दो कुंड हैं ब्रह्मकुंड एवं सूर्य कुंड जिसका उपयोग अनंतकाल से तीर्थयात्री एवं भक्तगण संगम पर पवित्र स्नान करते रहे हैं। संगम पर दो छोटी गुफाएं भी हैं, वशिष्ठ गुफा जिसका नाम यहां तप करने वाले गुरू वशिष्ठ के नाम पर है एवं सूर्य गुफा। अब वे भ्रमणकारी साधुओं के आवास हैं, जो थोड़े समय के लिये यहां आते हैं।
ऐसा कहा जाता है कि यहां किया जाने वाला पितृदान गया के पितृदान से 14 गुणा अधिक प्रभावकारी होता है। भगवान राम ने अपने पिता दशरथ के लिये इसी संगम पर पितृदान किया था। यहां पितृदान की पूजा सभी सही तरीकों एवं कर्मकांडों से सम्पन्न होती है जहां मूलरूप से पूजा के लिये चावल एवं दूध का इस्तेमाल होता है। पूजा पूर्वजों के प्रतीक एवं पिंड गेंद (चावल से बना) द्वारा होती है। कहा जाता है कि वे सभी पूर्वज जिनका अब तक पुर्नजन्म नहीं हुआ रहता है वे सब वायु में विद्यमान रहते हैं तथा देवप्रयाग में उनकी पितृपूजा करने से उन्हें प्रेतयोनि से मुक्ति मिलती है इसलिये कि देवप्रयाग एक धार्मिक स्थान है, जो मुक्ति प्रदान करता है।