Author Topic: Devprayag - देवप्रयाग: ३३ कोटि देवताओं का आवास  (Read 22172 times)

पंकज सिंह महर

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साथियो,
        देवप्रयाग हमारे उत्तराखण्ड के पंच प्रयागों में एक है, इसके बारे में कहा जाता है कि जब भागीरथ ने भागीरथी (गंगा) को पृथ्वी पर उतरने को राजी कर लिया तो 33 कोटि देवता भी गंगा के साथ स्वर्ग से उतरे। उन्होंने अपना आवास देवप्रयाग में बनाया जो गंगा की जन्म भूमि है। भागीरथी और अलकनंदा के संगम के बाद यही से पवित्र  नदी गंगा का उद्भव हुआ है। यहीं से यह नदी गंगा के नाम से जानी जाती है, इससे पहले इसके अलग-अलग नाम हैं।
      आइये जानते हैं इस ऎतिहासिक और पौराणिक स्थान के बारे में।



पंकज सिंह महर

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देवप्रयाग एक प्राचीन एवं भारत का सर्वाधिक धार्मिक शहर है। पुराने समय में जब चारधाम की यात्रा पैदल करनी पड़ती थी उस समय देवप्रयाग, बद्रीनाथ के मार्ग पर स्थित था तथा अब भी देवप्रयाग में पुराने तीर्थयात्रियों की पगडंडी को देखा जा सकता है। यहीं तीर्थयात्री विश्राम करते थे तथा भागीरथी और अलकनंदा के संगम पर पावन स्नान करते थे क्योंकि यही से पवित्र  नदी गंगा का उद्भव हुआ है। अपनी पवित्रता के कारण देवप्रयाग ऐसी जगह है जहां अनगिनत साधुओं, संतों, ऋषि-मुनियों ने तपस्या कर ज्ञान पाया।
      पवित्र रघुनाथ मंदिर के ठीक पीछे चट्टानों पर खुदे कुछ शिलालेखों को वर्तमान एक से पांचवीं सदी का होना माना जाता है। ये ब्राह्मी लिपि में हैं और माना जाता है कि इसमें उन 19 लोगों के नाम खुदे हैं जिन्होंने संगम पर जल-समाधि ले ली क्योंकि माना जाता था कि ऐसा करने पर उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होगी।




पंकज सिंह महर

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देवप्रयाग का सबसे बड़े संप्रदाय, तिलंग भट्ट ब्राह्मणों का आगमन दक्षिण भारत से हुआ और देवप्रयाग उनका शीतकालीन घर है। वे वर्तमान आठवीं सदी में आदी शंकराचार्य के साथ यहां आये थे। कहा जाता है कि वे बद्रीनाथ के परंपरागत तीर्थ पुरोहित हैं और गर्मियों के महीने में बद्रीनाथ में ही रहते है जब मंदिर का कपाट खुल जाता है।
चीनी यात्री ह्वेन्सांग ने अपने लेखों में देवप्रयाग को ब्रह्मपुरी माना है। इस प्रकार वर्तमान सातवीं सदी में इसे ब्रह्म तीर्थ तथा श्रीखंड नगर के विभिन्न नामों से जाना जाता था। दक्षिण भारत के प्राचीन ग्रंथ अरावल ग्रंथ में इसे कंडवेणुकटि नगरम माना गया है।
     लगभग वर्तमान 1000 से 1803 ईस्वी तक शेष गढ़वाल की तरह ही देवप्रयाग भी पाल वंश द्वारा शासित था जो बाद में पंवार वंश के शाह कहलाया। वर्ष 1803 में क्षेत्र की एक तिहाई आबादी को मृत्यु से ग्रसित करने वाले विध्वंशक भूकम्प से लाभ उठाते हुए गोरखों ने गढ़वाल की ओर कूच किया। उस समय प्रद्युम्न शाह वहां के राजा थे। युद्ध में प्रद्युम्न शाह मारे गये और गोरखों ने गढ़वाल पर कब्जा कर लिया। वर्ष 1815 में प्रद्युम्न शाह के उत्तराधिकारी सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों की सहायता से अपना राज्य वापस छीन लिया। अंग्रेजों ने रवाईन और देहरादून को छोड़कर अलकनंदा से पश्चिम गढ़वाल का संपूर्ण क्षेत्र मार्च 4, 1815 को सुदर्शन शाह को दे दिया। उसके बाद उसने अपनी राजधानी टिहरी बनायी क्योंकि पुरानी राजधानी श्रीनगर जिस भूमि पर बसी थी, वह ब्रिटीश गढ़वाल में चली गयी।

पंकज सिंह महर

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पंवार वंश के राजाओं का देवप्रयाग से निकटता का संबंध था तथा वे ही रघुनाथ मंदिर को चलाने एवं रख-रखाव के लिए उत्तरदायी थे। उन्होंने 26 गांव मंदिर को दान कर दिये और उसी की आय से मंदिर चलाया जाता था। 12वीं सदी के संरक्षित ताम्र पात्रानुसार पंवार वंश के 37वें वंशज, अभय पाल ने इन गांवों का दान मंदिर को दिया था साथ ही तिलंग भट्टों को बद्रीनाथ का तीर्थ पुरोहित का कार्य करने का अधिकार भी दिया, जिस पेशे में वे आज भी नियोजित हैं।
      वर्ष 1785 में पंवार राजा जैकृत सिंह ने देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर में अपनी जान दे दी। माना जाता है कि राजा की चार रानियां यहां सती हो गयी जिनके नाम पर रानी सती मंदिर समर्पित है तथा उन्होंने पंवार वंश को शापित किया। फलानुसार आज भी वंश की कोई संतान मंदिर की ओर देखती भी नहीं तथा पुराने जमाने में भी जब राजा देवप्रयाग आते थे तो मंदिर को पूरी तरह ढ़ंककर छिपा दिया जाता था जिससे उनकी दृष्टि मंदिर पर भूल से भी न पड़े और शाप मुखर न हो जाय।
       वर्ष 1882 में ‘दी हिमालयन गजेटियर’ में लिखते हुए ई टी एटकिंस बताता है कि देवप्रयाग गांव एक छोटी सपाट जगह, खड़ी चट्टान के नीचे जलस्तर से 100 फीट की ऊंचाई पर स्थित था जिसके पीछे 800 फीट ऊंचे उठते पर्वत का एक कगार था। जल के स्तर से ऊपर पहुंचने के लिए चट्टानों की कटी एक बड़ी सीढ़ी है, जिस पर मवेशी भी चढ़ सकें। वह और भी बताता है कि रस्सी के दो झुले पुल क्रमश: भागीरथी एवं अलकनंदा नदियों के उस पार जाने के लिये उपलब्ध हैं।

पंकज सिंह महर

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देवप्रयाग का पौराणिक इतिहास

भारत और नेपाल के 108 सर्वाधिक दिव्य एवं धार्मिक स्थानों में से एक माना जाने वाला देवप्रयाग पौराणिकता की विरासत का धनी है एवं इस पवित्र स्थल से कई देवी-देवता संबद्ध है। प्रथम तो यह कि भारत की सर्वाधिक धार्मिक नदी गंगा का उद्बव यहीं भागीरथी नदी एवं अलतनंदा नदी के संगम पर हुआ है और यह तथ्य देवप्रयाग को वह पवित्रता प्रदान करता है, जिसका दावा कोई अन्य स्थान नहीं कर सकता। इसी कारण देवप्रयाग भागीरथी नदी के पांच संगमों में सबसे अधिक धार्मिक माना जाता है। स्कंद पुराण के केदारखंड में देवप्रयाग पर 11 अध्याय हैं।
     यह भी कहा जाता है कि देवप्रयाग त्रिमूर्ति, भगवान ब्रह्मा, भगवान शिव तथा भगवान विष्णु से खासकर उनके वाराह, वामन, नरसिंह, परशुराम तथा राम के सत्युगी अवतारों में संबद्ध था।
     माना जाता है कि ब्रह्मांड की रचना करने से पहले ब्रह्मांड ने 10,000 वर्षो तक भगवान विष्णु की आराधना कर उनसे सुदर्शन चक्र प्राप्त किया। इसीलिये देवप्रयाग को ब्रह्मतीर्थ एवं सुदर्शन क्षेत्र भी कहा जाता है। संगम के निकट ब्रह्मकुंड को वह स्थान माना जाता है जहां ब्रह्मा ने तप किया था। देव शर्मा नामक एक ब्राह्मण के 11,000 वर्षों तक तपस्या करने के बाद भगवान विष्णु यहां प्रकट हुए। उन्होंने देव शर्मा से कहा कि वे त्रेता युग में देवप्रयाग लौटेंगे तथा भगवान राम बनकर उन्होंने इसे पूरा किया। माना जाता है कि श्रीराम ने ही देव शर्मा के नाम पर इसे देवप्रयाग का नाम दिया। रावण के वध के पाप से त्राण पाने के लिये भगवान राम देवप्रयाग आये। देवप्रयाग को भगवान शिव का पसंदीदा स्थान माना जाता है क्योंकि गंगा यहीं उद्भवित होती है। देवप्रयाग के चार कोनों के बीच वे उपस्थित हैं। पूर्व में धानेश्वर मंदिर, दक्षिण में तांडेश्वर मंदिर, पश्चिम में तांतेश्वर मंदिर तथा उत्तर में बालेश्वर मंदिर तथा केंद्र में आदि विश्वेश्वर मंदिर है। कहा जाता है कि जो कोई भी इन पांचों मंदिरों में जाता है, वह पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो जाता है। ऐसा भी कहा जाता है कि एक शिवलिंग गंगा के जल के नीचे भी है, पर इसे कुछ प्रबुद्ध लोग ही देख सकते हैं।

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देवप्रयाग में शिवलिंग


देवप्रयाग का घाट

पंकज सिंह महर

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देवप्रयाग का ऎतिहासिक रघुनाथ मंदिर

भगवान विष्णु के पांच अवतारों का भी देवप्रयाग से संबंध है। जिस स्थान पर वे वाराह के रूप में प्रकट हुए उसे वाराह शिला कहते है और माना जाता है कि मात्र इसके स्पर्श से ही मुक्ति प्राप्त होती है। वह स्थान जहां राजा बलि ने इन्द्र की पूजा की थी एवं जहां वामन रूप में भगवान विष्णु प्रकट हुए थे, उसे वामन गुफा कहते हैं। नरसिंहाचल, देवप्रयाग के बहुत निकट है तथा नरसिंह के रूप में भगवान विष्णु इस पर्वत के शिखर पर रहते हैं। इस पर्वत का आधार स्थल परशुराम की तपोस्थली थी, जिन्होंने अपने पितृहन्ता राजा सहस्रबाहु को मारने से पहले यहां तप किया था। इसे वह स्थान भी माना जाता है जहां भगवान राम ने प्रायश्चित एवं तप किया था। इसके निकट एक अन्य जगह है शिव तीर्थ, वह स्थान जहां भगवान राम की बहन शांता ने श्रृंगी मुनि से विवाह करने के लिये तपस्या की थी। भगवान शिव के वरदान स्वरूप शांता एक जलाशय में परिवर्तित हो गई तथा आज भी श्रृंगी मुनि के आश्रम के पास दशरथांचल की चोटी से प्रवाहित होती है। श्रृंगी मुनि के यज्ञ के फलस्वरूप ही भगवान राम के पिता दशरथ को पुत्र प्राप्त हुए थे। भगवान राम के गुरू भी इस स्थान पर रहे थे जिसे पवित्र वशिष्ठ गुफा कहते हैं। कहा जाता है कि पुत्र प्राप्ति की इच्छा रखने वाले युगलों को एक महीने तक यहां आराधना करना चाहिये।। गंगा नदी के उत्तर एक पर्वत को राजा दशरथ की तपोस्थली माना जाता है।

पंकज सिंह महर

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      देवप्रयाग जिस पहाड़ी पर अवस्थित है उसे गृद्धाचल कहते हैं। यह स्थान गिद्ध वंश के जटायु की तपोभूमि थी। पहाड़ी के आधार स्थल वह स्थान है जहां भगवाम राम ने एक सुंदर स्त्री किन्नर को मुक्त किया था, जो ब्रह्मा द्वारा शापित एक मकड़ी रूप में थी। इसी स्थान के निकट वह जगह भी है जहां उड़ीसा के राजा इन्द्रध्युम ने भगवान विष्णु की आराधना की थी। बाद में जगन्नाथ पुरी में मंदिर की स्थापना का श्रेय उसे ही जाता है।
     माना जाता है कि मोक्ष के लिये देवप्रयाग के संगम में स्नान करना सर्वाधिक लाभदायक होता है। देवप्रयाग को पूर्वजों के पिंडदान के लिये भी अग्रणी माना जाता है।

पंकज सिंह महर

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देवप्रयाग निश्चय ही अशक्त लोगों के लिये शहर नहीं है। संगम के ऊपर निर्मित मूल शहर में दो प्रमुख बाजार हैं, बीच बाजार तथा बाह बाजार जहां पैदल ही जाया जा सकता है। प्रत्येक जगह पहुंचने के लिये वहां सीढ़ियां हैं तथा ये सीढ़ियां आपको संगम के ऊपर एवं नीचे ले जाती हैं। पुराने शहर की संकीर्ण गलियों के किनारे-किनारे स्थित कुछ दूकानें एवं भवनों का अपना ही रहस्य है। इन गलियों और संकीर्ण रास्ते तथा सीढ़ियां कुछ अन्य आवासीय क्षेत्रों तक जाती है। इस प्रकार जब शहर का भ्रमण आप समाप्त करते हैं तो आपकी सांसें फूल जाती है। भागीरथी के दूसरी ओर के बस पड़ाव बाजार एवं शांति बाजार तक गाड़ी से जाया जा सकता है।
     भागीरथी पर एक और अलकनंदा पर एक झूला पुल, आपको शहर के विभिन्न भागों में जाने की पहुंच देते हैं। भागीरथी पर यह झूला पुल स्थानीय लोगों द्वारा वर्ष 1927 में पुराने रस्सी पुल की जगह बनाया गया, तथा अलकनंदा पर का दूसरा पुल वर्ष 1895 में नैनीताल के प्रधान द्वारा मरम्मत करवाया गया जैसा कि वहां अभिलेख में खुदा है। देवप्रयाग एक ऐसा शहर है जिसने आधुनिक युग के बावजूद अपनी पुरानी दुनिया को कायम रखा है प्राचीन कालीन शहर की कल्पना जब बद्रीनाथ की ओर जाते पैदल तीर्थयात्री यहां रूकते, पवित्र गंगा में स्नान करते या फिर कई साधुओं, मुनियों एवं ऋषियों को भागीरथी एवं गंगा के तट पर आराधना करते हुए देखने की कल्पना करना सहज है।








पंकज सिंह महर

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रघुनाथजी मंदिर

ढ़ोका गोरखा द्वारा निर्मित रघुनाथजी मंदिर सिंह द्वार तक प्रत्येक सीढ़ी पर भगवान राम नाम का जाप करते हुए 101 सीढ़ियां चढ़कर पहुंचा जा सकता है।

परंपरागत रूप से इस मंदिर में पूजा, भागीरथी के ब्रह्म कुंड तथा अलकनंदा के वशिष्ठ कुंड में स्नान करने के बाद की जाती है।
    रघुनाथजी मंदिर का निर्माण लगभग 10,000 हजार वर्षों पहले होने का दावा किया जाता है। बड़े पत्थरों से बना सीमेंट रहित इसका निर्माण शहर के ऊपरी भाग में एक चबूतरे पर हुआ है जहां एक अनियमित पिरामिड़ के ऊपर एक सफेद गुंबद के साथ एक स्वर्णिम बॉल तथा मीनार है। कत्यूरी शैली में निर्मित यह मंदिर 80 फीट ऊंचा तथा उन मंदिरों में से एक है जिसे 8वीं सदी में आदी शंकराचार्य ने निर्माण कराया था। इसका ढ़ांचा बद्रीनाथ और केदारनाथ की तरह ही है। परंतु इस मंदिर की पवित्रता तथा मूर्ति की पूजा बहुत पहले से ही होती रही है।
      भगवान राम के रूप में भगवान विष्णु की यहां पूजा होती है। काले पत्थर से निर्मित 7 फीट ऊंची मूर्ति गर्भ गृह में स्थापित है जिसकी चार भुजायें हैं। यद्यपि पूजा करते समय दो बाहों को ढ़क दिया जाता है। इस अर्थ में यह अलौकिक है कि अन्य मंदिरों की तरह किसी चट्टान या दीवार पर टिका न होकर यह गर्भ गृह के केंद्र में स्थित है। मंडप एवं महामंडप में तिरूपतिबाला, नरसिंह, गोपाल, आदिबदरी, राम, महिषासुरमर्दिनी एवं वामन-बलि भी स्थापित हैं। परिसर की परिक्रमा के पथ पर आदी शंकराचार्य, गरूड़, हनुमान, अन्नपूर्णा देवी तथा भगवान शिव के छोटे-छोटे मंदिर हैं। परिसर में राजस्थानी शैली की एक छतरी भी है जहां समारोहों में प्रार्थना की जाती है।
     वर्ष 1803 में मंदिर एवं शहर एक भूकंप से ध्वस्त हो गया तथा मंदिर को ग्वालियर के कांग्रेसी नेता स्वर्गीय माधवराव सिंधिया के पितामह दौलतराव सिंधिया द्वारा मरम्मती कार्य करवाया गया।

 

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