देवप्रयाग का पौराणिक इतिहास
भारत और नेपाल के 108 सर्वाधिक दिव्य एवं धार्मिक स्थानों में से एक माना जाने वाला देवप्रयाग पौराणिकता की विरासत का धनी है एवं इस पवित्र स्थल से कई देवी-देवता संबद्ध है। प्रथम तो यह कि भारत की सर्वाधिक धार्मिक नदी गंगा का उद्बव यहीं भागीरथी नदी एवं अलतनंदा नदी के संगम पर हुआ है और यह तथ्य देवप्रयाग को वह पवित्रता प्रदान करता है, जिसका दावा कोई अन्य स्थान नहीं कर सकता। इसी कारण देवप्रयाग भागीरथी नदी के पांच संगमों में सबसे अधिक धार्मिक माना जाता है। स्कंद पुराण के केदारखंड में देवप्रयाग पर 11 अध्याय हैं।
यह भी कहा जाता है कि देवप्रयाग त्रिमूर्ति, भगवान ब्रह्मा, भगवान शिव तथा भगवान विष्णु से खासकर उनके वाराह, वामन, नरसिंह, परशुराम तथा राम के सत्युगी अवतारों में संबद्ध था।
माना जाता है कि ब्रह्मांड की रचना करने से पहले ब्रह्मांड ने 10,000 वर्षो तक भगवान विष्णु की आराधना कर उनसे सुदर्शन चक्र प्राप्त किया। इसीलिये देवप्रयाग को ब्रह्मतीर्थ एवं सुदर्शन क्षेत्र भी कहा जाता है। संगम के निकट ब्रह्मकुंड को वह स्थान माना जाता है जहां ब्रह्मा ने तप किया था। देव शर्मा नामक एक ब्राह्मण के 11,000 वर्षों तक तपस्या करने के बाद भगवान विष्णु यहां प्रकट हुए। उन्होंने देव शर्मा से कहा कि वे त्रेता युग में देवप्रयाग लौटेंगे तथा भगवान राम बनकर उन्होंने इसे पूरा किया। माना जाता है कि श्रीराम ने ही देव शर्मा के नाम पर इसे देवप्रयाग का नाम दिया। रावण के वध के पाप से त्राण पाने के लिये भगवान राम देवप्रयाग आये। देवप्रयाग को भगवान शिव का पसंदीदा स्थान माना जाता है क्योंकि गंगा यहीं उद्भवित होती है। देवप्रयाग के चार कोनों के बीच वे उपस्थित हैं। पूर्व में धानेश्वर मंदिर, दक्षिण में तांडेश्वर मंदिर, पश्चिम में तांतेश्वर मंदिर तथा उत्तर में बालेश्वर मंदिर तथा केंद्र में आदि विश्वेश्वर मंदिर है। कहा जाता है कि जो कोई भी इन पांचों मंदिरों में जाता है, वह पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो जाता है। ऐसा भी कहा जाता है कि एक शिवलिंग गंगा के जल के नीचे भी है, पर इसे कुछ प्रबुद्ध लोग ही देख सकते हैं।