टपकेश्वर: जहां तन के साथ मन भी हो गदगद
कुदरत का करिश्मा कहिए या भोलेबाबा की महिमा, यहां रम जाने को मन करता है। चारों तरफ अप्रतिम हरियाली का संसार है। यहां आने वाले भक्त प्रकृति की शरण में आकर ईश्वर की अनुभूति को पूरी तरह महसूस करते हैं। टपकेश्वर मंदिर से जुड़ा पुराना विश्वास भक्त और भगवान के बीच के प्रेम को और भी बढ़ाता है।
टप-टप टपकती पानी की बूंदें शिवलिंग का जलाभिषेक कर रही हैं। कहते हैं, कभी इन पानी की बूंदों के स्थान पर दूध टपका करता था। शिवलिंग के ठीक ऊपर एक चमकता चांदी का छत्र है, जो चारों ओर से शिवलिंग को घेरे हुए है। दिन सोमवार का हो तो शिवभक्तों की संख्या अधिक हो जाती है। भक्तों की छोटी-सी थाली में भी बेल, भांग, धतूरा, धूप, अगरबत्ती, कलावा, केला, फूल आदि के साथ नारियल होते हैं। यहां शिवलिंग का दर्शन करके भक्ति में भावमग्न हुए कई भक्त एकटक उसे निहारते रहते हैं। भक्तिलीन होकर भक्तों के आंखों से निर्झर जलधारा बह निकलती है। नव दंपती से लेकर बच्चे, बूढ़े और युवा सभी बाबा के दर्शन को आतुर दिखते हैं। फर्श पर घी-तेल बिखरे होने से कुछ फिसलन भी है, मगर इसकी परवाह किसे है, भक्त तो सिर्फ शिवलिंग की एक झलक पाना चाहते हैं। हम इस वक्त देहरादून, उत्तराखंड में स्थित टपकेश्वर महादेव मंदिर में हैं। यह एक स्वयंभू लिंग है। यह मंदिर प्राकृतिक गुफाओं के भीतर है। गुफा में चट्टानों ने जगह-जगह थन का रूप ले रखा है। मंदिर परिसर से पहले जब आप मुख्य द्वार पर पहुंचते हैं तो आपके बाईं ओर राधाकृष्ण मंदिर है। सामने मंदिर के लिए रास्ता व दाईं ओर हर सिद्ध दुर्गामाता मंदिर है। मंदिर के मुख्य द्वार में एक खास बात यह भी है कि वहां पीपल और बरगद एक साथ जुड़े हुए हैं, जिनकी शाखाएं द्वार के ठीक ऊपर आई हुई हैं। इन वृक्षों की जड़ पर शनि देव का मंदिर है। मान्यता यह है कि यहां नि:संतान महिलाएं पूजा-अर्चना करें तो उनकी मनोकामना पूर्ण होती है। करीब 80 सीढियां उतरने के बाद आपके बाईं ओर श्री टपकेश्वर महादेव का प्रवेश द्वार तो बाईं ओर टौंस नदी की ओर उतरती सीढियां नजर आएंगी। दरअसल यह मंदिर इसी नदी के किनारे स्थित है। कुछ आगे बढ़ने के बाद गणेश मूर्ति को देखते हुए शिवलिंग के दर्शन होते हैं। दरअसल शिवलिंग का सिर्फ ऊपरी हिस्सा ही दिखाई देता है, बाकी ढका हुआ है। करीब 3 फुट की ऊंचाई पर एक सफेद वस्त्र पहने पुजारी है, जो भक्तों के भाल पर चंदन का तिलक लगा रहे हैं। यहां के महंत भरत गिरि ने बताया कि पूर्वकाल में इन्हीं गुफाओं में देवता और षियों ने तपस्या की। गुरु द्रोणाचार्य ने तो यहां 12 वर्ष तपस्या कर महादेव को प्रसन्न किया और उन्हीं से धनुर्विद्या भी ग्रहण की। भगवान भोलेनाथ ने अस्त्र-शस्त्र भी दिए। द्रोणाचार्य परिवार समेत यहीं रहा करते थे। यहां द्रोणचार्य को पुत्र के रूप में अश्वत्थामा की भी प्राप्ति हुई। दूध की इच्छा होते हुए भी अश्वत्थामा इससे वंचित रहे, क्योंकि माता कृपी उन्हें दूध पिलाने में असमर्थ थीं। अश्वत्थामा ने शिव की कठोर तपस्या की। यकायक पूर्णमासी के दिन गुफा ने ही थन का रूप ले लिया। शिव की कृपा से गुफा में दुग्धधारा बहने लगी। कहा जाता है कि दुग्ध धारा यूं बहती रहती, लेकिन कलियुग आते-आते यह धारा पानी में बदल गई। मुख्य मंदिर से निकल कर एक छोटे से पुल से नदी पार कर आप वैष्णो देवी की गुफा के मुख्य द्वार पर पहुंचते हैं। गुफा में प्रसाद दे रहे पुजारी पं. विपिन जोशी का कहना है कि यह एक प्राकृतिक गुफा है और यहां श्रद्धालु दूर-दूर से आते हैं। श्रीनगर गुफा से प्रवेश पर रोक रहती है तो यहां आने वाले कहते हैं कि उन्हें इस गुफा से भी वही अनुभूति होती है। इस मंदिर से कुछ नीचे उतर कर मां संतोषी का भव्य मंदिर है। यहां के पुजारी भवानी गिरि का कहना है कि एक दिन मां ने स्वप्न में उन्हें इस स्थान पर मंदिर बनाने की आज्ञा दी, लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण मैं सिर्फ सोचता रहा कि कैसे बनेगा मां का मंदिर। एक दिन मधु अग्रवाल नाम की महिला यहां आईं और मुझसे कहने लगीं कि यहां मां का मंदिर नहीं, इसलिए मैं यह मूर्ति लाई हूं। और उसके बाद इस मूर्ति को स्थापित कर दिया गया। मंदिर में ही सप्तमुखी हनुमान की प्रतिमा है और साईंबाबा, कालीमाता, कालभैरव आदि की मूर्तियों से मंदिर अधिक भव्य दिखाई देता है।
मंदिर से जुड़े कुछ खास तथ्य यह स्थान अश्वत्थामा की जन्मस्थली भी है।
देवताओं को महादेव ने यहां देवेश्वर के रूप में दर्शन दिए।
गुरु द्रोण ने यहां 12 वर्ष तक भोले शंकर की तपस्या की।
यहीं भगवान शंकर ने भूमार्ग से प्रकट होकर दूधेश्वर के रूप में दर्शन दिए।
गुफा के किनारे बह रही टौंस नदी को पूर्वकाल में देवधारा भी कहा जाता था।
मंदिर में आयोजित प्रमुख पर्व
महाशिवरात्रि इस पर्व पर यहां पांच दिन का मेला लगता है। मेले में हस्तलिपि का सामान, खिलौने, झूले और मनोरंजन का सामान उपलब्ध होता है। इन दिनों मंदिर की भव्यता देखते ही बनती है। चारो ओर ॐ नम: शिवाय, बोल बम और जय श्री टपकेश्वर महादेव के जयघोष से वातावरण शिवमय हो जाता है।
श्रावण मास दूर-दूर से शिवभक्त कांवड़ लेकर यहां पहुंचते हैं। वे विशेष पूजा, रुद्राभिषेक व महामृत्युंजय जाप आदि करते हैं।
http://www.livehindustan.com