Author Topic: Jageshwar Temple - जागेश्वर मंदिर  (Read 78530 times)

पंकज सिंह महर

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Re: जागेश्वर मंदिर: JAGESHWAR TEMPLE
« Reply #40 on: September 05, 2008, 02:00:59 PM »


पंकज सिंह महर

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Re: जागेश्वर मंदिर: JAGESHWAR TEMPLE
« Reply #41 on: November 25, 2008, 01:40:13 PM »
1743 में जब रोहिलों ने उत्तराखण्ड पर आक्रमण किया तो अल्मोड़ा नगर में भी उनका अधिकार हो गया उन्होंने सभी मन्दिरों को लूटा और वहां पर स्थापित मूर्तियों को नष्ट कर दिया। कहा जाता है कि जब ये जागेश्वर मंदिर को लूट्ने और दूषित करने के इरादे से मंदिर की ओर बड़े तो अंगरयालों ( बड़ी मधुमक्खी) के समूह ने उन पर धावा बोल दिया और उन्हें मंदिर में प्रवेश ही नहीं करने दिया।

पंकज सिंह महर

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Re: जागेश्वर मंदिर: JAGESHWAR TEMPLE
« Reply #42 on: November 26, 2008, 04:02:55 PM »
अल्मोड़ा से 36 किमी दूर समुद्रतल से 1870 मीटर की ऊंचाई पर देवदार के घने वृक्षों के बीच घाटी में बसी है देवताओं की महानगरी जागेश्वर। यहां 124 मंदिरों का समूह है, जिनमें 4-5 प्रमुख मंदिरों में ही विधिवत पूजन होता है।
जागेश्वर को 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। इसके मुख्यद्वार से प्रवेश करने के बाद महामृत्युंजय मंदिर ध्यान आकृष्ट करता है।
इस मंदिर की कथा प्रेम की पराकाष्ठा को व्यक्त करने वाली एक दिलचस्प कथा है।
कहते हैं कि दक्ष प्रजापति के यज्ञ नष्ट करने के बाद, सती के शव को लेकर शिव विक्षिप्त से सारी सृष्टि में घूमने लगे। इस पर देव-मुनियों को चिंता में देख विष्णु ने अपने चक्र से सती के शव के खंड-खंड कर दिए। ये 52 खंड जहां-जहां गिरे, वहीं शक्तिपीठ बन गए। शव के नष्ट होने के बाद भी भगवान शिव, यज्ञ की भस्म को सती का हिस्सा मानकर उसे अपने शरीर पर मलकर वनों में हजारों वर्षों तक तप करते रहे।
इन्हीं वनों में वशिष्ठ आदि सप्तऋषि अपनी कुटिया बनाकर पत्नियों के साथ तप कर रहे थे। एक दिन ऋषि पत्नियां समिधा व कंदमूल इकट्‌ठा करने जंगल में गई हुई थीं। जैसे ही उन्होंने सुंदर सुगठित नील वर्ण के शिव को देखा, वे अपनी सुध-बुध खो बैठीं और मूर्च्छित हो गईं।
जब सप्तऋषियों ने अपनी पत्नियों को कुटिया में नहीं देखा, तो वे उन्हें ढूंढ़ने निकले। शिव को समाधि में लीन व अपनी पत्नियों को मूच्छ्रित अवस्था में देख वे क्रोध से जलने लगे। उन्होंने उन्हें श्राप दिया कि तुम्हारा लिंग तुम्हारे शरीर से अलग होकर पृथ्वी पर गिर जाए।
शिव ने अपने नेत्र खोले और बोले कि तुमने बिना मेरा दोष जाने मुझे श्राप दिया, माना कि संदेहजनक स्थिति में देखकर तुम सबने मुझे श्राप दिया, इस कारण मैं तुम्हारा मान रखूंगा, किंतु तुम सातों भी आकाश में तारों के साथ अनंत काल तक लटके रहोगे। श्राप के कारण शिव का लिंग पृथ्वी पर गिर पड़ा और जलता हुआ घूमने लगा। उसके ताप से पृथ्वी जलने लगी। ऋषियों ने जब यह देखा, तो वे घबराकर ब्रह्मा के पास गए। ब्रह्मा ने कहा, ‘शिव के रुद्र रूप की उपासना करिए, तभी कोई हल निकलेगा।’ ऋषियों ने रुद्र की उपासना की। देवों, यक्षों, किन्नरों ने ऋषियों के साथ महादेव की अर्चना की और लिंग को योगीश या योगेश्वर नाम दिया। यहीं से शिवलिंग के पूजन की परंपरा का प्रारंभ हुआ। यही योगेश्वर नाम जोगेश्वर में बदल गया। वह प्रथम शिवलिंग इस महामृत्युंजय मंदिर में स्थापित है। स्कंद पुराण के मानस खंड व रेवा खंड में इस स्थल का वर्णन है। पुरातात्विक दृष्टि से महामृत्युंजय मंदिर ही इस 124 मंदिरों के समूह में सर्वाधिक प्राचीन 8वीं शताब्दी का है। यहां के 124 मंदिरों के समूह में विधिवत पूजन महामृत्युंजय, केदारनाथ, पुष्टिमाता व जागेश्वर मंदिर में ही होता है। मंदिर समूह से 5 किमी ऊपर जटागंगा है, इसी से शिव का अभिषेक किया जाता है।
कहते हैं कि यहां जो मांगो मिल जाता था अर्थात यदि किसी का अनिष्ट मांगो, तो वह भी भोलेनाथ बिना सोचे-समझे दे देते थे। 15वीं शताब्दी में शंकराचार्य ने यहां मंत्रों द्वारा महामृत्युंजय सहित पाताल भुवनेश्वर एवं गंगोलीहाट स्थित काली मंदिर को कीलित किया, तब से यहां शुभ इच्छाएं पूरी होती हैं।
श्रावण, शिवरात्रि, बैशाखी व कार्तिक पूर्णिमा को यह स्थल श्रद्धालुओं के स्वरों से गूंज उठता है। अल्मोड़ा से 36 किमी की दूरी पर स्थित है जागेश्वर धाम। अल्मोड़ा से जागेश्वर धाम का रास्ता बहुत ही सीधा और आसान है। इनके बीच चितई, बाड़ेछिना, पनवानौला और आरतौला जगहें पड़ती हैं। बस, अपनी कार या फिर प्राइवेट वाहनों से जागेश्वर तक पहुंचा जा सकता है।

साभार-अमर उजाला

Mukesh Joshi

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Re: जागेश्वर मंदिर: JAGESHWAR TEMPLE
« Reply #43 on: December 24, 2008, 04:46:41 PM »
जागेश्वर धाम के प्राचीन मंदिर हैं अध्यात्म का संगम
 
देहरादून। उत्तराखंड के अल्मोडा से 35किलोमीटर दूर स्थित केंद्र जागेश्वर धाम के प्राचीन मंदिर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर इस क्षेत्र को सदियों से आध्यात्मिक जीवंतताप्रदान कर रहे हैं। यहां लगभग 250मंदिर हैं जिनमें से एक ही स्थान पर छोटे-बडे 224मंदिर स्थित हैं।

उत्तर भारत में गुप्त साम्राज्य के दौरान हिमालय की पहाडियोंके कुमाऊं क्षेत्र में कत्यूरीराजा थे। जागेश्वर मंदिरों का निर्माण भी उसी काल में हुआ। इसी कारण मंदिरों में गुप्त साम्राज्य की झलक भी दिखलाई पडती है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार इन मंदिरों के निर्माण की अवधि को तीन कालों में बांटा गया है। कत्यरीकाल, उत्तर कत्यूरीकाल एवं चंद्र काल। बर्फानी आंचल पर बसे हुए कुमाऊं के इन साहसी राजाओं ने अपनी अनूठी कृतियों से देवदार के घने जंगल के मध्य बसे जागेश्वर में ही नहीं वरन् पूरे अल्मोडा जिले में चार सौ से अधिक मंदिरों का निर्माण किया जिसमें से जागेश्वर में ही लगभग 250छोटे-बडे मंदिर हैं। मंदिरों का निर्माण लकडी तथा सीमेंट की जगह पत्थर की बडी-बडी स्लैबों से किया गया है। दरवाजों की चौखटें देवी देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकृत हैं। मंदिरों के निर्माण में तांबे की चादरों और देवदार की लकडी का भी प्रयोग किया गया है।

जागेश्वर को पुराणों में हाटकेश्वरऔर भू-राजस्व लेखा में पट्टी पारूणके नाम से जाना जाता है। पतित पावन जटागंगाके तट पर समुद्रतल से लगभग पांच हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित पवित्र जागेश्वर की नैसर्गिक सुंदरता अतुलनीय है। कुदरत ने इस स्थल पर अपने अनमोल खजाने से खूबसूरती जी भर कर लुटाई है। लोक विश्वास और लिंग पुराण के अनुसार जागेश्वर संसार के पालनहारभगवान विष्णु द्वारा स्थापित बारह ज्योतिर्लिगोंमें से एक है।

पुराणों के अनुसार शिवजी तथा सप्तऋषियोंने यहां तपस्या की थी। कहा जाता है कि प्राचीन समय में जागेश्वर मंदिर में मांगी गई मन्नतें उसी रूप में स्वीकार हो जाती थीं जिसका भारी दुरुपयोग हो रहा था। आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य जागेश्वर आए और उन्होंने महामृत्युंजयमें स्थापित शिवलिंगको कीलित करके इस दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था की। शंकराचार्य जी द्वारा कीलित किए जाने के बाद से अब यहां दूसरों के लिए बुरी कामना करने वालों की मनोकामनाएंपूरी नहीं होती केवल यज्ञ एवं अनुष्ठान से मंगलकारी मनोकामनाएंही पूरी हो सकती हैं।
 

पंकज सिंह महर

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जागेश्वर हे कुमाऊँचं जागृत देवस्थान. श्रावण महिन्यात इथं एक छोटीशी यात्रा भरते. इथे स्वयंभू शिवलिंग असल्यानं भक्त अपार श्रद्धा आहे. ‘जागेश्वर‘चा परिसर फार सुंदर आहे. रस्त्याच्या दोन्ही बाजूंना देवदारांची राई अगदी भरगच्च आहे. संपूर्ण उत्तरांचल राज्यालाच निसर्गानं भरभरून साैंदर्य दिलंय. उंचच उंच पर्वतरांगा आपल्या सह्याद्रीची आठवण करून देणार्‍या, पण निसर्गाचं रौद्ररूपही जागोजागी दिसतं.
देवदारांची राई रस्त्याच्या दोन्ही बाजूंना अगदी भरगच्च... पावसाची रिपरिप चालू होती आणि आमची बस चालली होती. ‘जागेश्वर‘ या अतिशय पवित्र मानल्या जाणार्‍या देवस्थानाच्या दिशेनं.
संपूर्ण उत्तरांचल राज्यालाच निसर्गानं भरभरून साैंदर्य दिलंय. उंचच उंच पर्वतरांगा आपल्या सह्याद्रीची आठवण करून देणार्‍या, पण निसर्गाचं रौद्ररूपही रस्त्याने जाताना जागोजागी दिसतं. दरडी कोसळून डोंगरकड्यांवर उमटणार्‍या ओरखड्यांच्या स्वरूपात सह्याद्री कुटुंबवत्सल पित्यासारखा भासतो, पण कुमाऊँचा डोंगराळ भाग राकट, मस्तवाल आणि आपल्याच ऐटीत गुंग असणार्‍या शिलेदारासारखा वाटतो. आपुलकीपेक्षा त्याचा दराराच जास्त लक्षात राहतो. वळणावळाच्या वाटेनं आमची बस नैनिताल ते जागेश्वर या रस्त्यावर मार्गक्रमण करीत होती.
जागेश्वर हे कुमाऊँचं जागृत देवस्थान. श्रावण महिन्यात इथं एक छोटीशी यात्रा भरते. इथे स्वयंभू शिवलिंग असल्यानं भक्त अपार श्रद्धा आहे. त्यातही श्रावणी सोमवार म्हणजे अधिकच पवित्र!
आमच्या बसमध्ये मी आणि माझी पत्नी (सुप्रिया) हे दोघेच ‘पर्यटक‘ म्हणावेत असे. बाकी सगळे जण ‘यात्रेकरू‘- त्यातले बहुतेक स्थानिक रहिवासीच होते. सगळ्यांनीच ‘पार्थिव पूजा‘ करण्यासाठीचं साहित्य सोबत घेतलं होतं. आम्ही दोघं जण मात्र निसर्गाच्या सान्निध्यात राहता येईल आणि स्थानिक परंपरा जाणून घेता येतील, म्हणून जागेश्वरच्या यात्रेला निघालो होतो.
जागेश्वर हे एकच एक मंदिर नाही. जाटगंगा नदीच्या खोर्‍यात बसलेला तो शेकडो लहान-मोठ्या मंदिरांचा समूह आहे. इसवी सनाच्या चौथ्या शतकापासून इथं मंदिरं बांधायला सुरुवात झाली, ती परंपरा सोळाव्या शतकापर्यंत सुरूच राहिली. ऐकेकाळी इथं चारशे मंदिर होती, असं सांगितलं जातं. आजमितीला त्यातली शंभर सव्वाशे मंदिरं वर्षानुवर्षं ऊन-पाऊस अंगावर झेलत शिल्लक राहिली आहेत.
या मंदिराच्या समूहाच्या प्रवेशद्वारापाशी दिसतो तो ‘झंडेश्वर मंदिर समूह‘. दहाव्या शतकात याचं बांधकाम झालं असावं, असा अंदाज आहे. एक सुंदर धातूची मूर्ती पूर्वी या मंदिरात होती; पण सध्या ती हलवून जागेश्वराच्या मुख्य मंदिरात हलवण्यात आली आहे. ही मूर्ती ‘पौना राजा‘ या स्थानिक प्रशासकाची आहे, असं सांगितलं जातं.
‘जागेश्वर‘ हे इथलं प्रमुख देवस्थान. शंकराची ‘नागेश‘ नावानं ओळखली जाणारी स्वयंभू पिंड असल्याने या मंदिराचं प्रस्थही मोठं. बारा ज्योतिर्लिंगापैकी हे एक देवस्थान आहे, अशी स्थानिक श्रद्धा आहे. वर्षातून दोनदा इथं जत्रा भरते. शिवरात्रीला आणि श्रावण महिन्यात! लोक इथं येऊन पार्थिव पूजा करतात. शुद्ध मृत्तिकेच्या किंवा वेगवेगळ्या धान्यांच्या पिठांपासून शिवलिंगं तयार केली जातात. १०८ लिंगं तयार करण्याचा रिवाज आहे. त्यांची यशाशक्ती पूजा केली जाते. दूध, तूप, मध आदी अनेक पदार्थाचा अभिषेक आणि होम-हवनही होतं. कागदोपत्री हे मंदिर भारतीय पुरातत्व खात्याच्या अखत्यारित असलं तरी त्याला स्थानिक पुजारी आणि पंड्यांनी पार विळखा घातलाय. अपत्यप्राप्ती होण्यासाठी इथे केलेली पूजा अपेक्षित फळ देते, अशी ख्याती असल्यानं श्रावणात इथं आजूबाजूच्या परिसरातून गाड्या भरभरून लोक येतात. त्यामुळे ‘पार्थिव पूजा‘ सांगणार्‍या पंड्यांची गर्दी खूपच झाली आहे. ‘संरक्षित वास्तू‘ असा सरकारी फलक असणार्‍या या मंदिराच्या भिंतीवर खिळे ठोकून प्लास्टिकच्या कागदाची छपरं जागोजागी उभारण्यात आली आहेत. मध्ययुगीन कालखंडातला हा मौल्यवान वारसा जपण्यापेक्षा आपल्या अंधश्रद्धेकडे झुकणार्‍या रूढी जपण्यातच बहुतेकांना धन्यता वाटते. कुठल्याही इतिहासप्रेमी पर्यटकाला हुरहूर वाटायला लावणारं असंच हे दृश्य!
जागेश्वराच्या आवारातच ‘महामृत्युंजय मंदिर‘ आहे. या समूहातल्या या सर्वात जुन्या मंदिराचं बांधकाम आठव्या शतकात झालं असावं. मृत्युंजयाचं हे जगातलं बहुधा एकमेव मंदिर आहे. मृत्यूंपथाला लागलेल्या एखाद्या व्यक्तीसाठी इथं येऊन मृत्युंजय मंत्राचा जप केला तर आजारी व्यक्तीला जीवनदान मिळतं, अशी भावना आहे.
ओम त्र्यम्बकं यजामहे सुगान्धेम्‌ पुष्टि वर्द्धनम्‌ । उर्वारुकमिंव बन्धनान्‌ मृत्योर्मुक्षीय मामृतात ॥ ओम ॥ असा महामृत्यूंजय मंत्र सांगितला जातो.
आठव्या शतकात कत्युरी राजांनी या मंदिरांचं बांधकाम करायला सुरुवात केली. ‘मृत्युंजय‘ मंदिर याच काळातलं. नंतरच्या दोन शतकामध्ये जागेश्वर, नवदुर्ग, कालिका, पुष्टिदेवी आणि बालेश्वर मंदिरांचं बांधकाम झालं. त्यानंतर चंद घराण्याची सत्ता या प्रदेशावर होती. राजा ज्ञानचन्द (१३७४ ते १४१९) याच्या कारकीर्दीत या आवारात पाच लहान मंदिरं उभारण्यात आली. सूर्य देवता आणि नऊ ग्रहांची मंदिर तसंच नीलकंठेश्वराची रचनाही चंद घराण्याच्या काळातच झाली.
जागेश्वर परिसरात मंदिरं उभारण्याचं काम शेकडो वर्षं सुरू राहिलं, त्यात नवता आणि परंपरा या दोहोंचा प्रभाव दिसतो. शंकराचीच विविध रूपं अनेक नावांनी इथं साकार होत राहिली. ‘जागेश्वर‘ हे प्रमुख दैवत. महामृत्युंजय, दंडेश्वर, नीलकंठेश्वर, ताण्डवेश्वर, कुबेर आदी नावांनी त्याचा आविष्कार झाला आहे. शंकराच्या पिंडां चीही एकमुखी ते पंचमुखी अशी विविधता पाहायला मिळते. उत्तरेकडे आढळणार्‍या ‘नागर‘ शैलीत मंदिराचं बांधकाम झालंय. एकावर एक विटा ठेवून केल्यासारखं दगडी बांधकाम लक्ष वेधून घेतं. निमुळती होत जाणारी शिखर रचना आणि त्यावर पवित्र मानली जाणारी कलशाची आकृती आकर्षक तर दिसतेच, पण सभोवताली असणारे उंचच उंच देवदाराचे पुरातन वृक्ष आणि पार्श्वभूमीवर हिमाच्छादित शिखरं मनाला एक वेगळीच अनुभूती देतात.
शिवरात्र आणि श्रावणातल्या जत्रेच्या वेळी इथे जी काही थोडीशी गर्दी होत असेल तेवढीच. एरवी हे ठिकाण अतिशय शांत असतं. मंदिर उभारण्यासाठी जाटगंगा नदीच्या तीरावरील हे प्रसन्न ठिकाण शोधून काढणार्‍या कत्युरी घराण्याच्या त्या कुणा पुराण पुरुषाच्या साैंदर्यासक्त कलादृष्टीलाच आपण दाद द्यायला हवी. धार्मिक स्थळापेक्षाही नैसर्गिक साैंदर्याची लयलूट झालेलं एक पर्यटनस्थळ म्हणून याच्याकडे प्रवाशांना पाहता येईल. मंदिराच्या समोरच ‘कुमाऊ मंडल विकास निगम‘चं सुंदर हॉटेल आहे. शांतपणे निसर्गाचा आनंद घेणार्‍यांना ते फारच आवडेल. हिवाळ्यात इथे हिमवृष्टी होत असताना देवदारच्या झाडावर अडकून राहिलेलं पांढरशुभ्र हिम पाहताना आत्त्मिक आनंदच मिळणार! नैनितालपासून जागेश्वर शंभर किलोमीटर अंतरावर आहे. नैनितालची आणि सभोवतीची नेहमीची ठिकाणं व ‘लेक टूर‘ वगैरे करून झाल्यावर आणखी दोन दिवस काढून जागेश्वरच्या आध्यात्मिक शांतीचा आनंद घ्यावा आणि मगच सिमेंटच्या जंगलात परतावं.
जागेश्वर उत्तरांचल राज्याच्या अल्मोडा जिल्ह्यात नैनिताल- काठगोदाम रस्त्यावर आहे. जवळचं रेल्वे स्टेशन ‘काठगोदाम‘ सुमारे १३५ कि.मी. दूर आहे. महाराष्ट्रातून जाणार्‍या पर्यटकांना इथली सार्वजनिक वाहतूक व्यवस्था अपुरीच वाटणार. आदल्याच दिवशी आम्ही ‘मुक्तेश्वर‘ नावाच्या अशाच एका शांत आणि सुंदर गावाला गेलो. प्रवाशांचा ‘शिटा‘ नेणार्‍या शेअर जीपने दुपारी अडीचच्या सुमारास पोहोचलो तर मुक्तेश्वरमध्ये सगळेजण म्हणायला लागले की खूप उशीर झाला. आता तुम्हाला ‘नैनिताल‘ला परत जायला वाहन मिळणार नाही! जेमतेम दोन तासांच्या अंतरावर असणार्‍या नैनितालसारख्या महत्त्वाच्या ठिकाणापर्यंत पोहोचायला काही साधन नाही! तेही भर दुपारी अडीच वाजता!! उशीर झालाय, हे सत्य पचवणं आम्हां मुंबईकरांना अवघडच होतं. पण आमच्या सुदैवानं एक चुकार जीप नेमकी त्या दिवशी मुक्तेश्वरला आली आणि आम्हाला ‘भवाली‘पर्यंत जाता आलं. भवाली-नैनिताल हे अकरा किलोमीटरचं अंतर पुन्हा दुसर्‍या एक जीपने जाऊन आम्ही हॉटेलवर परतलो, पण तात्पर्य, या भागात परतीच्या प्रवासाची सोय करूनच निघावं लागतं. बससेवा फारशी उपयुक्त नाहीच. सरळ भाड्याने कार सोबत घ्यावी (अर्थात स्वतःची नसेल तर) आणि जागेश्वरला जावं. घाटातला आणि वळणावळणाचा रस्ता, त्यामुळे स्थानिक ड्रायव्हरची मदत घेणं योग्य ठरतं.
देवदाराच्या राईत लपलेलं हे नागेशाचं देवस्थान यात्रेकरू आणि निसर्गप्रेमी पर्यटक या दोघांसाठी एक वेगळा अनुभव देणारं आहे, हे निश्चित!
योगेश कोलते


जागेश्वर का वर्णन मराठी भाषा में

हेम पन्त

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Source: http://www.expressbuzz.com/edition/story.aspx?Title=Stone+idols+of+Kumaon&artid=7Ryr2oc2U1Y=&SectionID=OptbZECmFoc=&MainSectionID=OptbZECmFoc=&SEO=Jageshwar,+Kumaon+hills,+travel&SectionName=dl2XZklJ2/w=

Debraj Mookerjee

If you have decided to visit the inviting Kum­aon hills, don’t forget Jageshwar. Nestled in a cul-de-sac, this little town comprises a cluster of almost 200 temples set against the backdrop of a breathtaking deodar forest that rises symmetrically across the face of a hill which climbs sharply at the point where the temple compound ends next to a stream.


Jageshwar is not just another temple town in Uttarakhand. Here, you don’t find the hor­des of Haridwar or the madness of Madurai. What makes this temple different from others is its anonymity. It is located barely 35 km from Almora on the Almora-Pithoragarh highway. The point to watch out for is Aartola village, from where you need to take a left turn. The road from here grips the edge of a little river valley, swings past what is known as the Dandeshavara cluster of temples, and three kilometres on, plonks you abreast the KMVN (Kumaon Vikas Mandal Nigam) tourist rest house, which overlooks the main temple complex located across the road.

The rest house is nowhere near stately,

but affordable with rates varying from Rs 800 for a double to Rs 1,000 for a family room. With an affable manager at hand, the overall experience of the place is quite reassuring; the chef turns out cheap puri subzi for breakfast. Oh yes, the menu (indeed the town) is stri­ctly vegetarian. True to its Shaivite tradition, the place is liberal when it comes to imbibing uplifting spirits.

If you schedule a two-night stay,  you would likely manage two memorable outings.

One day can be devoted to exploring the temples, finished off by attending the evening aarti. The other can be kept aside for some serious exploration along the deodar-lined river bed for a kilometre or so up to the Dandeshavara temple, besides those side trips up the hillside at points where your fancy takes over. A little packed lunch can make for magical togetherness amidst the rustling breeze and some serious solitude.

The presence of the deodar is not wholly incidental. Ruskin Bond has written somewhere that the name derives “from the Sanskrit deva-daru (divine tree)...sacred in that its timber has always been used in temples, for doors, windows, walls and even roofs”, especially in the north Indian hills.

Of the numerous stone temples in this group, the prime attraction is the Maha Mrityunjaya temple, apparently the oldest, built some 1,400 years ago. Other temples, like the ones dedicated to Surya, Navagraha and Neelkantheshvara belong to a later age when the Katyuri kings added to the existing structure age some 800 years later. Four hundred temples are thought to have existed here at some point, of which less than a half survive now.

Some temples are tiny and you might have to move into them sideways. There are some big structures, but let not the count of hundred lead you into expecting a gargantuan temple complex. Moreover, the temples of Jageshwar belong to the simple Nagara style (north Indian temple architecture). The stone icons are various and impressive and the backdrop breathtaking.

The Maha Mritunjaya temple is ‘somewhat’ unique (the local priests claim it’s one of its kind, but there are other Maha Mritunjaya temples, though arguably of less importance than the one here). People spend a lot of money getting incantations read to help breathe life into their near and dear ones who’re critically ill. Perhaps they do not realise the Maha Mritunjaya chant is a potent mantra meant to release mortals from the cycle of rebirth; unlike what popular belief suggests, it is not particularly efficacious in preventing death! The fact that Jageshwar is revered as one of twelve jyotir linga shrines across India adds to the sanctity of the Maha Mritunjaya temple. That the temple complex is associated with the Lakula tradition (named after Lakulisha Acharya who lived about 200 BC), which broached a severe ascetic form of worship, accompanied by sacrifice and yogic practices, adds to the mystery and wonder that every ancient Shiva temple evokes.

Once you’ve torn yourself away from worship, you can amble through the tiny bazaar, picking up for people back home bric-a-brac, especially little temple bells that ring with a mellifluous tinkle. That done, a short visit to the recently opened museum set up by the Archaeological Survey of India is not a bad idea. It almost straddles the KMVN complex, so demands little by way of a walk.

You need to remove your shoes, and leave your camera in its saddle — no photography allowed, since sarkari diktat rules. You can take photos inside the blue mosque in Istanbul, even as the faithful are crouched in devotion offering namaz, but you can’t click the amazing array of idols recovered from the temple complex at Jageshwar. That minor crib aside, the box of a museum gives you a fair indication of the range of deities worshipped at Jageshwar, besides depicting the myriad sculpting styles that have contributed to the idols carved over the ages.

And just by the way, the walk up the river valley is not wholly devoid of danger. If you’re going to take my advice about the picnic thing and trek up the boulder-laden track, don’t lose your nerve if you spot leopard pug marks on the sandy patches. There is a bit of wildlife around these parts, and while an ante­lope might spring a nice surprise for the family, a night walk might just end up in an undesired encounter.


— debraj.mookerjee@gmail.com


factfile

Jageshwar is 370 km from Delhi. Various route options: Delhi-Rampur via Ghaziabad, Gajrola, Moradabad (NH24), Rampur-­Kathgodam (NH87E), Kathgodam-Almora via Bhimtal (State Highway). From Almora to Pithoragarh (take left towards Jageshwar (2-3 km) at Aartola village, some  34 km from

Almora). The nearest railhead is Kathgodam, 118 km away and the nearest airport is

Pantnagar, 150 km away. Attraction: Bridh Jageswar, a hilltop trek away, offering

magnificent views. Log onto www.kmvn.org/index.aspx for more information.

पंकज सिंह महर

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Re: जागेश्वर मंदिर: JAGESHWAR TEMPLE
« Reply #46 on: August 19, 2009, 11:51:12 AM »
जागेश्वर महादेव (शिवलिंग)




पंकज सिंह महर

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Re: जागेश्वर मंदिर: JAGESHWAR TEMPLE
« Reply #47 on: August 19, 2009, 11:52:41 AM »
महामृत्युंजय महादेव (जागेश्वर परिसर)


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Re: Jageshwar Temple - जागेश्वर मंदिर
« Reply #48 on: December 02, 2009, 10:09:45 PM »

Photo of Jageshwar Temple. Gate


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Re: Jageshwar Temple - जागेश्वर मंदिर
« Reply #49 on: December 02, 2009, 10:10:54 PM »

Jageshwar Temples


 

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