Author Topic: Kailash Mansarovar - कैलाश मानसरोवर यात्रा:उत्तराखण्ड की प्रसिद्ध धार्मिक यात्रा  (Read 102633 times)


Gourav Pandey

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धारचूला से नेपाल के लिए पुल

यहा से जाना होता है कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए


Pawan Pathak

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काफल खाएंगे और झूमेंगे भी कैलास यात्री
पहाड़ी व्यंजनों का भी लुत्फ उठाएंगे

कैलाश पाठक
हल्द्वानी। इस बार कैलास यात्री काफल (छोटे आकार का एक तरह का जंगली फल) का स्वाद लेने के साथ ही कुमाऊं में प्रसिद्ध लोकगीत और लोकनृत्य के बारे में भी विस्तृत जानकारी लेंगे। कुमाऊं मंडल विकास निगम ने कैलास यात्रियों की आवभगत, खानपान, मनोरंजन और आराम आदि में किसी तरह की कमी नहीं रहे, इसके लिए पूरी कार्ययोजना तैयार की है।
यात्रियों के ठहरने वाले प्रत्येक पड़ाव के प्रबंधकों को खास तौर पर निर्देश दिए गए हैं कि उनकी आवभगत कुछ इस अंदाज में की जाए ताकि लगे कि यात्री देवभूमि में आए हैं, जहां की परंपरा अतिथि देवो भव: की रही है।
कैलास मानसरोवर यात्रियों को इस बार कुमाऊं के प्रसिद्ध और स्वादिष्ट फल काफल का स्वाद चखाया जाएगा। उन्हें स्थानीय फलों किलमोड़ा, किमू, माल्टा, आड़ूू और हिसालू आदि के साथ ही इन फलों से शरीर को मिलने वाले तत्वों की जानकारी दी जाएगी।
काफल के लिए कुमाऊं में प्रसिद्ध लोकगीत और लोकनृत्य ‘बेड़ू पाको बारौं मासा नरैंण, काफल पाको चैता मेरी छैला’ की प्रस्तुति के बाद इस फल के संबंध में विस्तृत जानकारी दी जाएगी। इतना ही नहीं कुमाऊं के पारंपरिक उत्पादों, उनके गुणों, उनकी उपयोगिता, बनाए जाने का मौसम और बनाने का तरीका भी यात्री पड़ावों में बताया जाएगा।
हमारी कोशिश होगी कि कैलास यात्रा पर जाने वाले पूरे देश के यात्री यहां की संस्कृति, लोक परंपरा, लोकगीत, लोक नृत्य, झोड़ा, चांचरी, वाद्य यंत्रों के संबंध में पूरी जानकारी रख सकें और उत्तराखंड की विशेष पहचान उन्हें मिल सके, ताकि देश-विदेश के पर्यटक एक बार यहां का दीदार करने की इच्छा जागृत कर सकें। यह सब पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा है।
- धीराज गर्ब्याल, प्रबंध निदेशक, कुमाऊं मंडल विकास निगम
डीडीहाट (पिथौरागढ़)। कैलास मानसरोवर यात्रियों को दोपहर के भोजन में भट की चुड़कानी और गहत के डुबके परोसे जाएंगे। यात्री दल के सदस्यों को कुमाऊं मंडल विकास निगम के पर्यटक आवासगृह में प्रवेश करते ही बुरांश का जूस पिलाया जाएगा। इस बार हर यात्री दल को डीडीहाट के पर्यटक आवासगृह में ही दोपहर भोजन करना है।
पर्यटक आवासगृह के प्रबंधकों और स्टाफ ने यात्रियों के दोपहर भोजन का मीनू तैयार कर लिया है। चुड़कानी बनाने के लिए काले भट और डुबके बनाने के लिए गहत का पर्याप्त इंतजाम किया गया है। ये दोनों पहाड़ की प्रसिद्ध दालें हैं। दोपहर के भोजन में दाल, चावल के साथ झोली भी परोसी जाएगी। झोली में घी और मेथी का तड़का लगाया जाएगा। पर्यटक आवासगृह के प्रबंधक आनंद आर्या ने बताया कि रात के समय जिन पड़ावों में यात्री रुकेंगे, वहां पर उपलब्ध स्थानीय हरी और आलू-प्याज की सब्जी तैयार की जाएगी। रायता अनिवार्य रूप से बनेगा। दही का इंतजाम स्थानीय पशुपालकों से किया जाएगा।


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मानसरोवर यात्रा मार्ग पर तैनात होंगी महिला जवान
धरोहरों का दीदार करेंगे कैलास यात्री
जोरावर सिंह की तलवार भी मौजूद

अस्कोट। अस्कोट के राजमहल में वीर जोरावर सिंह की तलवार भी रखी हुई है। कहा जाता है कि 1724 में जोरावर सिंह मुनस्यारी के रास्ते तिब्बत की ज्ञानिमा मंडी पहुंच गया था और आतंक मचाने लगा। अस्कोट के तत्कालीन राजा अभय पाल द्वितीय अपनी 550 सैनिकों की टुकड़ी लेकर तिब्बत गए। पाल राजा की सेना देख जोरावर सिंह भाग गया। इसकी तलवार राजा ने जब्त कर ली। यह तलवार प्रदर्शनी में नहीं रखी जाती।
केबी पाल
अस्कोट (पिथौरागढ़)कैलास मानसरोवर की यात्रा पर जाने वाले यात्री इस बार भी अस्कोट के प्राचीन पाल राजवंश की कई पुरानी वस्तुओं का दीदार करेंगे। अस्कोट राजवंश के वर्तमान वारिश कुंवर भानुराज पाल 12 जून को आईटीबीपी सातवीं वाहिनी मुख्यालय मिर्थी में इन वस्तुओं की प्रदर्शनी लगाएंगे।
जिन वस्तुओं को प्रदर्शनी में रखा जाएगा उनमें अतरंज (शतरंज की तरह खेलने का सामान), महारानी का सोने से जड़ा ब्लाउज, मिट्टी के तेल से चलने वाली इस्त्री, प्राचीन सिक्के, खुकरी, तलवारें, केतली, खड्ग, सिगरेट का केस, श्रंगार दान, पांसे, राजवंश का पुस्तनामा, कैलास यात्रा प्राचीन रूट, खंजर, मैसूर के राजा का पत्र आदि शामिल हैं।
अस्कोट राजवंश की स्थापना 1279 में हुई थी। इसके प्रथम शासक अभय पाल देव थे। 1931 में मैसूर के महाराजा कृष्णराज भी अस्कोट आए थे। कहा जाता है कि 1928 से 1939 में राजा विक्रम पाल के समय कैलास यात्रियों को विशेष सुविधाएं दी जाती थी। तब अस्कोट के राजा अपने सैनिकों की टुकड़ी को यात्रियों की सुरक्षा के लिए भेजते थे। तब यात्रा पैदल होती थी। यात्री एक रात अस्कोट राजमहल में रुकते थे और अगले दिन मल्लिकार्जुन मंदिर में पूजा के बाद आगे बढ़ते थे।


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Pawan Pathak

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छोटा कैलास यात्रा का 25वें वर्ष में प्रवेश
जोरावर सिंह की समाधि देखेंगे यात्री

संजू पंत
डीडीहाट (पिथौरागढ़)।
कैलास मानसरोवर की यात्रा पर जाने वाले हर दल के सदस्यों की आईटीबीपी सातवीं वाहिनी मुख्यालय मिर्थी में तिब्बत के टोयो नामक स्थान पर स्थित इतिहासकार केएल शर्मा की पुस्तक में उल्लिखित वीर जोरावर सिंह की समाधि की विस्तृत जानकारी दी जाएगी। कहा जाता है कि जोरावर सिंह ने 1838 से 1840 के बीच तिब्बत पर आक्रमण किया था। वह अपनी सेना लेकर लद्दाख के रास्ते तिब्बत में घुसे थे। तिब्बत में तकलाकोट के पास टोयो नामक स्थान पर वह लड़ाई के दौरान शहीद हुए थे। वहीं उनकी समाधि बनी है। यात्रियों के तिब्बत में कैलास मानसरोवर की परिक्रमा पूरी करने के बाद जोरावर सिंह की समाधि के पास ले जाया जाता है। वह जोरावर सिंह को याद करते हैं। उसकी समाधि को देखते हैं।आईटीबीपी के सेनानी केदार सिंह रावत ने बताया कि कैलास मानसरोवर यात्रियों के शेड्यूल में जोरावर सिंह की समाधि के दर्शन भी शामिल हैं। इससे यात्रियों को ऐतिहासिक महत्व की भी जानकारी मिल जाती है।
ितब्बत के टोयो नामक स्थान पर है समाधि


अस्कोट राजघराने में सुरक्षित है जोरावर सिंह की तलवार
डीडीहाट। [/size]इतिहासकार केएल शर्मा ने जोरावर सिंह को सफेद बर्फ का शेर की संज्ञा दी थी। इस योद्धा ने तिब्बत पहुंचने के लिए 1600 किलोमीटर का पैदल सफर किया था। वह पंजाब से चलकर लद्दाख के रास्ते तिब्बत पहुंचे थे। वीर जोरावर सिंह की एक तलवार अस्कोट के राजघराने के पास सुरक्षित हैं।
कैलाश पाठक
हल्द्वानी। कैलास मानसरोवर यात्रियों को वापसी में कुमाऊं के प्रसिद्ध जागेश्वर धाम के दर्शन कराने के साथ ही भीमताल में पद्मश्री यशोधर मठपाल के कई पांडुलिपियों को समेटे ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व के संग्रहालय के दीदार भी कराए जाएंगे। कुमाऊं मंडल विकास निगम ने यात्रा का पूरा शेड्यूल तय कर लिया है।
कुमाऊं मंडल विकास निगम ने सभी यात्री पड़ावों पर खाद्य सामग्री के साथ ही अत्याधुनिक आरामदायक सोफा-बिस्तर इत्यादि पहुंचा दिए गए हैं। सभी पड़ावों की सूचना रेकी टीम द्वारा बराबर दी जा रही है। पिथौरागढ़ मुख्यालय में वायरलेस टीम 24 घंटे यात्रा की गतिविधियों की जानकारी केएमवीएन, जिला प्रशासन और विदेश मंत्रालय को देने के लिए चौकस कर दी गई है। बिजली, पानी, बीआरओ, लोनिवि, परिवहन समेत सभी विभागों के अधिकारियों को हर वक्त अलर्ट रहने के निर्देश जारी हो चुके हैं। इस बार कैलास यात्रियों को वापसी में जागेश्वर धाम के दर्शन कराने के साथ ही भीमताल में पद्मश्री यशोधर मठपाल के संग्रहालय का भी भ्रमण कराया जाएगा। पिछले साल तक यात्रियों को पाताल भुवनेश्वर गुफा के दर्शन भी कराए जाते थे, लेकिन यह स्थल यात्रा मार्ग से अलग हटकर होने के कारण इसमें अधिक समय लगता है, जिस वजह से इस यात्रा मार्ग के शेड्यूल में पाताल भुवनेश्वर को शामिल नहीं किया गया है।
पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व का है यह संग्रहालय
कई पांडुलिपियां भी संभालकर रखी गई हैं यहां
14 अगस्त 1991 में शुरू हुई थी यात्रा
दीपक उप्रेती
पिथौरागढ़। छोटा कैलास यात्रा 25वें वर्ष में प्रवेश कर रही है। यह यात्रा 14 अगस्त 1991 से शुरू हुई थी। तत्कालीन यूपी सरकार ने इसकी अनुमति देकर पर्यटन के नक्शे में एक नाम और जोड़ा था। तब से छोटा कैलास की यात्रा निरंतर संचालित हो रही है। कुमाऊं मंडल विकास निगम यात्रा का संचालन करता है।
छोटा कैलास की यात्रा के संचालन में दारमा सेवा समिति ने अथक प्रयास किया था। समिति के संयोजक स्व. डुंगर सिंह ढकरियाल ने छोटा कैलास की यात्रा शुरू कराने के लिए अपने स्तर से बड़ी मेहनत की थी और यूपी सरकार को इसके लिए राजी किया। धारचूला की सुरम्य व्यास घाटी में कुटी गांव के नजदीक 18600 फीट की ऊंचाई पर छोटा कैलास पर्वत है। इसकी महत्ता कैलास मानसरोवर की तरह ही है, जो लोग कैलास मानसरोवर की यात्रा पर नहीं जा पाते वह छोटा कैलास की यात्रा कर पुण्य अर्जित करते हैं। कहा जाता है कि धर्मराज युधिष्ठिर स्वर्गारोहण के समय छोटा कैलास आए थे। मानसखंड और काकपुराण में इसका वर्णन मिलता है। छोटा कैलास के पास पार्वती सरोवर है। इसकी लंबाई 1500 मीटर और चौड़ाई 750 मीटर है। कहा जाता है कि पार्वती ने इस सरोवर में स्नान किया था। छोटा कैलास का चाहे व्यापक धार्मिक महत्व रहा है लेकिन पर्यटक स्थल के रूप में विकसित हुए इसको मात्र 24 वर्ष ही पूरे हुए हैं।
केएमवीएन हर साल छोटा कैलास की यात्रा पर दलों को भेजता है। इनकी व्यवस्था भी ठीक कैलास मानसरोवर यात्रियों की तरह ही की जाती है।
आनंद नेगी
बागेश्वर। कैलास मानसरोवर यात्रा का अतीत वैभवशाली रहा है। तब पूरी यात्रा पैदल होती थी और बागेश्वर से ही इसमें तीन महीने लगते थे। रास्ते में स्थानीय लोगोें और यात्रियों के बीच आत्मीय संवाद कायम होता था। आठवीं सदी के अंत में आदि शंकराचार्य भी कांडा से होते हुए कैलास मानसरोवर यात्रा पर गए थे। उन्होंने अनिष्ट से मुक्ति के लिए कांडा में काली मंदिर की स्थापना की थी। बाद में इस रास्ते से यात्रा पर आए दक्षिण के संतों ने चंडिका मंदिर में बलि प्रथा को बंद करवाया था।
कैलास मानसरोवर यात्रा का पौराणिक काल से ही महत्व रहा है। आठवीं सदी के अंत में आदि शंकराचार्य ने दक्षिण से आकर कैलास मानसरोवर की यात्रा की थी। वह 11 साल की उम्र में अपने शिष्यों के साथ मानसरोवर की यात्रा पर बागेश्वर, कांडा, चौकोड़ी से होते हुए लिपू लेख दर्रे के रास्ते गए थे। वह कांडा पड़ाव में रुके भी थे। लोक मान्यताओं के अनुसार तब कांडा क्षेत्र में काल का आतंक था, जो हर साल एक व्यक्ति को आवाज देता था, उसी दिन संबंधित व्यक्ति की मौत हो जाती है। लोगों ने कांडा पड़ाव में रुके शंकराचार्य को यह व्यथा सुनाई। कांडा का काली मंदिर शंकराचार्य द्वारा ही स्थापित है। शंकराचार्य मानसरोवर से गढ़वाल के रास्ते लौटे। उन्होंने वहां में बद्रिकाश्रम पीठ की स्थापना की। धपोलासेरा के भदोरा गांव निवासी 70 वर्षीय गांउली देवी बताती हैं, 1954 में उनके माता, पिता बैसाख के महीने में मानसरोवर यात्रा पर निकले थे। तीन महीने बाद आषाढ़ के महीने में लौटे थे। 88 वर्षीय रमेश उप्रेती ने बताया कि 55 साल पहले तक स्थानीय लोगों के साथ ही बाहरी लोग भी मानसरोवर यात्रा पर जाते थे। कांडा पड़ाव, सानी उडियार, नरगोली, बेड़ीनाग में पड़ाव होते थे। शिक्षक दीपक पाठक बताते हैं कि इस क्षेत्र में व्यापार को आने वाले हिमालयी क्षेत्र के लोग पूरी यात्रा में तीर्थयात्रियों के साथ रहकर मदद करते थे। परस्पर सहयोग के कारण ही यात्रा संपन्न होती थी।
पैदल यात्रा में बागेश्वर से लगते थे तीन महीने


Source-  http://epaper.amarujala.com/svww_zoomart.php Artname=20150610a_004115001&ileft=458&itop=122&zoomRatio=151&AN=20150610a_004115001

Pawan Pathak

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अद्भुत फूल देखते है कैलास मानसरोवर यात्रा मार्ग के  छियालेख में
धारचूला/पिथौरागढ़ (
कृष्णा गर्ब्याल)। कैलास मानसरोवर यात्रा मार्ग में बूंदी से छियालेख तक तीन किमी की कठिन चढ़ाई है। जैसे ही छियालेख पहुंचते हैं वहां 
विस्तृत घाटी में खिले रंग-बिरंगे फूल यात्रियों की थकान दूर कर देते हैं। मान्यता है कि भगवान राम ने कैलास मानसरोवर की यात्रा के 
समय छियालेख में सीता के लिए कुटी बनाई थी और कई प्रकार के पौधे लगाए थे। स्थानीय लोग तो यहां तक कहते हैं कि इन फूलों में 
संजीवनी बूटी भी मौजूद है। इसे स्थानीय बोली में ऐंपा मर्ती कहा जाता है। हालांकि यह बात अलग है कि अब इस प्रजाति के फूलों को 
पहचानने वाले नहीं हैं।
छियालेख में एक विस्तृत मैदान में जुलाई अंत से इन फूलों का खिलना शुरू हो जाता है और अक्टूबर तक यह अपनी छटा बिखेरते रहते 
हैं। अब तक किए गए अध्ययन से पता चलता है कि इनमें ज्यादातर जड़ी-बूटियों के ही फूल हैं। स्थानीय लोगों के मुताबिक इन फूलों के 
संरक्षण का कोई उपाय नहीं किया गया है। उस क्षेत्र में तैनात रहने वाली एसएसबी और आईटीबीपी के जवान ही इन फूलों की रक्षा करते 
हैं।

 
Source -http://epaper.amarujala.com/svww_zoomart.php?
Artname=20150831a_001115006&ileft=743&itop=34&zoomRatio=130&AN=20150831a_001115006


Pawan Pathak

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अद्भुत : आपस में जुड़ हैं दो पेड़ं की टहनियां
पांच सौ साल से होती है पूजा, मानसरोवर जाने वाले यात्री भी करते हैं दीदार
धारचूला (पिथौरागढ़)। पेड़ दो लेकिन दोनों की टहनियां आपस में जुड़ हुईं। कुदरत का यह करिश्मा सीमांत तहसील धारचूला के छिंदू गांव में दिखाई देता है। यहां चीड़ के दो पेड़ दो टहनियों से आपस में जुड़ हुए हैं। वनस्पति शास्त्रियों के लिए शोध का विषय इन वृक्षों की स्थानीय लोग पूजा करते हैं। इन्हें लला तिति (आमा- बुबू अर्थात दादी-दादा) के नाम से पुकारते हैं। कैलास मानसरोवर, छोटा कैलास के साथ ही ऊँ पर्वत के दर्शनों को जाने वाले लोग इन पेड़ं को देख आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रहते।
गर्व्यांग गांव से डेढ़ किलोमीटर आगे छिंदू गांव में स्थित इन पेड़ं की खासियत यह भी है कि इनके पत्ते भी नहीं सूखते। स्थानीय लोगों के अनुसार लगभग पांच सौ साल से ये पेड़ जस के तस हैं। किंवदंती है कि पांच सौ साल पहले छिंदू गांव के दो लोग तड़के कैलास मानसरोवर की यात्रा पर निकले।
मान्यता के अनुसार इन लोगों को ब्रह्म मुहूर्त में ही बिनकू (पहाड़ का टाप) पार करना होता था लेकिन ये लोग ऐसा नहीं कर सके। तब अनिष्ट की आशंका पर उन्होंने अपनी सुरक्षा के लिए देवता का आह्वान किया।
ऐसा करते वक्त दोनों एक-दूसरे के हाथ पकड़ हुए थे और उसी स्थिति में चीड़ के वृक्ष में तब्दील हो गए। गर्व्यांग के प्रधान अरुण सिंह बताते हैं तब से इन वृक्षों की आमा-बुबू के रूप में पूजा की जाती है। राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के प्राध्यापक डा. सीएस नेगी का कहना है कि ऐसे वृक्ष कौतूहल का विषय हैं। चीड़ का पेड़ एवरग्रीन होता है। उसमें पतझड़ नहीं होता। इन पेड़ं की लंबाई और उम्र भी बहुत ज्यादा होती है। उधर मुख्य वन संरक्षण पर्यावरण एआर सिंहा कहते हैं कि इस तरह के उदाहरण सामने आते रहते हैं। यह एक प्राकृतिक क्रिया का हिस्सा है।


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Pawan Pathak

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स्कंदपुराण में है कैलास मानसरोवर यात्रा पथ का जिक्र

कभी चंपावत से गुजरती थी यात्रा

चंपावत। कैलास मानसरोवर यात्रा कभी चंपावत से होकर गुजरती थी लेकिन वर्ष 1962 के बाद से इसका रूट बदल गया।
चंद राजाओं की राजधानी रहा चंपावत मानसरोवर यात्रा का अहम पड़ाव था। हालांकि वर्ष 2002 में विदेश मंत्रालय ने यात्रा की वापसी यहीं से तय की लेकिन एक वर्ष बाद ही वापसी का रूट भी हटा दिया गया। इतिहासकार एवं महाविद्यालय के रिटायर्ड प्राचार्य मदन चंद्र भट्ट का कहना है कि कैलास मानसरोवर यात्रा का चंपावत से गहरा संबंध रहा है। यात्री यहां बालेश्वर एवं मानेश्वर महादेव मंदिर में दर्शन करते थे। वे इसके लिए स्कंद पुराण के मानसखंड के ग्यारहवें अध्याय का हवाला भी देते हैं। जिसमें मानस यात्रा प्रवेश निर्गम में चंपावत का उल्लेख है। मानसरोवर का मुख्य मार्ग चंपावत के बालेश्वर व रामेश्वर के मंदिरों से होकर गुजरना बताया गया है।
चीन युद्ध से पूर्व तक इस यात्रा का रूट चंपावत से होकर गुजरता था। युद्ध के बाद दो दशक तक यात्रा बंद रही। वर्ष 1981 में यात्रा की दोबारा शुरुआत के बाद इसका जिम्मा कुमाऊं मंडल विकास निगम को सौंपा गया। साथ ही यात्रा मार्ग बदल कर अल्मोड़ा होते हुए कर दिया गया। मानसरोवर यात्रा में एक दर्जन से ज्यादा बार ड्यूटी कर चुके निगम के पिथौरागढ़ में साहसिक पर्यटन प्रभारी दिनेश गुरुरानी बताते हैं कि वर्ष 1958 तक इस यात्रा का रूट टनकपुर-चंपावत से गुजरता था। आयोजक रूट बदलने की वजह बरसात में रोड बंद होना बताते हैं। लेकिन अब बेहतर हो चुकी रोड के बाद उनकी यह दलील भी गले नहीं उतरती।
पर्यटन और कारोबार पर भी लग रही है चपत
चंपावत। यात्रा रूट यहां से न रखे जाने का इस क्षेत्र पर व्यापक असर पड़ा है। व्यापारिक गतिविधियों से वंचित इस जिले के कारोबार के साथ ही इससे यहां के महत्वपूर्ण स्थल पर्यटन मानचित्र में आने से से भी वंचित हैं। पर्यटन की अपार संभावनाओं वाले इस इलाके के विकास में अवरोध आने के अंदेशे से नागरिकों ने चिंता जताई और कई बार इस पौराणिक रूट को बनाए रखने की मांग भी की। यात्रा रूट मानसखंड के मुताबिक ना किए जाने को धार्मिक मान्यता का मखौल बताया है। हिंदू जागरण मंच के प्रदेश उपाध्यक्ष राजेंद्र भंडारी राजू का कहना है कि इस धार्मिक यात्रा के रूट को पौराणिक ग्रंथ मानसखंड के अनुरूप कराने के लिए हिंदूवादी संगठन सामूहिक पहल करेंगे।
वर्ष 1962 से पूर्व तक चंपावत से आगे बढ़ते थे यात्री



Source- http://earchive.amarujala.com/svww_zoomart.php?Artname=20100707a_002115008&ileft=-5&itop=1112&zoomRatio=181&AN=20100707a_002115008

 

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