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Kaviltha, Birth place of Kalidas-कविल्ठा महाकवि कालीदास का जन्म स्थान

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
Dosto,


We are sharing here information about Mahakavi Kavi Kalidas birth place which is situated 3 kilometer from the Kalimath (Rudraprag) and place is Kaviltha.

महाकवि कालीदास का जन्म स्थान कविल्ठा गढवाल था महाकवि कालीदास का जन्म स्थान
महाकवि कालीदास का जन्म स्थान कविल्ठा(कालीमठ) माना गया है, कविल्ठा कालीमठ जाने के लिये मार्ग ऋषिकेश से पहले रुद्रप्रयाग और फिर रुद्रप्रयाग से केदारनाथ जाने वाले मार्ग के लिये बस पकड़नी होती है। केदारनाथ के रास्ते में ही यह स्थान पड़ता है। महाकवि कालीदास का जन्म देश के किस भाग में हुआ इसका भले ही कोई प्रमाणिक अभिलेख उपलब्ध न हो परन्तु महाकवि द्वारा रचित साहित्य को साक्ष्य के रुप में माना जाय तो नि:सन्देह रुप से कहा जा सकता है कि कवि इस हिमालयी भू–भाग में भली–भांति रचे–बसे थे। संस्कृत विद्वानों ने अब स्वीकार भी कर दिया है कि महाकवि कालीदास का जन्म महासिद्धपीठ कालीमठ के निकट कविल्ठा ग्राम में हुआ था। ‘महाकवि कालीदास की जन्मभूमि हिमालय गढ़वाल’ के लेखक स्व. आचार्य धर्मानन्द जमलोकी ने कवि की प्रमुख तीन रचनाओं कुमार सम्भवम्‚ मेघदूत तथा रघुवंश महाकाव्य का विस्तृत उल्लेख करते हुए सिद्ध किया है कि महाकवि की जन्मभूमि यहीं है। कुमार सम्भवम् का प्रथम श्लोक–

 अस्त्युत्तरस्या दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज:।
 पूर्वापरौ तोयनिधीबगाहय स्थित: पृथिव्या इव मानदण्ड:।।

 हिमालय के इस क्षेत्र का वर्णन करते हुए यहां के वन‚ पर्वत‚ नदी‚ प्रपातों यहां की जड़ी–बूटियों‚ वृक्षों‚ यज्ञ‚ किन्नरों का जिस सूक्ष्मता से वर्णन किया वह महज कल्पना पर आधारित नहीं हो सकता। इसी रचना में वैवाहिक रीति–रिवाजों जैसे लड़के वाले की लड़की ढूंढ में लड़की के घर जाकर प्रस्ताव रखना‚ तथा विवाह पूर्व मंगलस्नान‚ वस्त्राभूषण आदि अनुष्ठानों का जैसा वर्णन किया गया वह सब यहां की रीति–रिवाज में आज भी विद्यमान हैं। महाकवि की कालजयी गीतिकाव्य मेघदूत में जिस भांति प्रवास पीड़ा झेल रहे यज्ञ ने सावन के उमड़ते मेघ को अपना दूत बना उसे मार्ग बताते हुए अपनी नवविवाहिता को प्रणय संदेश दिया। इससे माना जा सकता है कि जीविकोपार्जन हेतु महाकवि ने अपनी जन्मभूमि से पलायन किया होगा। पलायन की यह परम्परा आज भी यथावत है। इस रचना में हरिद्वार कनखन से लेकर हिमालय की ऊंची गिरिकन्दराओं‚ यहां की नारी सौन्दर्य का जो रमणीय चित्रण किया उससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि कवि का अपनी जन्मभूमि से आत्मीय लगाव था। महाकवि की रचना रघुवंश महाकाव्य में पार्वती–परमेश्वर की वन्दना से प्रारम्भ होकर प्राय: हिमालय की गिरिकन्दराओं के इर्द–गिर्द का वर्णन देखने में आता है। ऋषि कण्व आश्रम में पालित शकुन्तला का जीवन प्राय: पहाड़ के जंगल–प्रान्तों के परिवृत्त रहा। मेनका पुत्री शकुन्तला का जन्म महर्षि विश्वामित्र के आश्रम में हुआ था।

(By Asha Prasad Semwal -: http://himalayauk.org)

M S Mehta

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
महाकवि कालीदास का जन्म कालीमठ के निकट ‘कविल्ठा’ माने जाने के पीछे यह भी एक तथ्य है कि कवि काली उपासक थे। बचपन में उनका अनपढ़‚ मूर्ख होना तथा पण्डितों द्वारा छलपूर्वक महाविदुषी विद्योत्तमा से स्वयंवर रचना‚ पति की मूर्खता पता चलने पर विद्यात्तमा का कालीदास का तिरस्कार करना‚ ग्लानि से भर कालीदास का मां काली की शरण में जाना तथा मां के आशीर्वाद से मूर्ख कालीदास से महापण्डित कालीदास के रुप में पत्नि के पास आना यह सब कविल्ठा‚ कालीमठ के भूदृष्य को देख समझा जा सकता है। संस्कृत विद्वान आचार्य अचुत्यानन्द घिल्डियाल ने तो यहां तक सिद्ध करने का प्रयास किया है कि राजा शरदानन्द की राजधानी गुप्तकाशी में थी। उन्हीं की पुत्री महाविदुषी विद्योत्तमा थी। कालीदास के साथ शास्त्रार्थ गुप्तकाशी में ही हुआ था। संस्कृत विद्वानों ने अब तो अपने शोधपत्रों में‚ कालीदास की जन्मभूमि गढ़वाल के केदारघाटी में कविल्ठा में हुआ‚ यह सिद्ध करने का प्रयास किया है। कविल्ठा में वर्ष १९८६–८७ से प्रतिवर्ष आषाढ़ प्रथम दिवस से त्रिदिवसीय महाकवि जन्म महोत्सव का आयोजन किया जाता है। जिसमें देश भर से संस्कृत विद्वान यहां एकत्र हो अपने शोध आलेखों का वाचन करते हैं। कविल्ठा कालीमठ जाने के लिये मार्ग ऋषिकेश से पहले रुद्रप्रयाग और फिर रुद्रप्रयाग से केदारनाथ जाने वाले मार्ग के लिये बस पकड़नी होती है। केदारनाथ के रास्ते में ही यह स्थान पड़ता है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
महाकवि कालिदास

सस्क्रत के सुमेरु कवि कालिदास हमारे देश के राष्ट्रीय कवि है. वे भारतीय सभ्यता के सम्वाहक है, सन्स्क्रत साहित्य मे महाकवि कालिदास को कवियो की गणना मे प्रथम स्थान दिया गया है. रुद्रप्रयाग जिले के ऊखीमठ तहसील मे एक गाव है, कविल्ठा और यह गाव ही महाकवि कालिदास की जन्म स्थली है.  "महाकवि कालिदास" नामक पुस्तक मे प० सदानन्द जमखोला ने लिखा है कि "महाकवि कालिदास गढ़वाल की मन्दाकिनी घाटी के कविल्ठा के मूल निवासी थे"  बाल्क्र्ष्ण शाष्त्री ने अपनी पुस्तक "कालिदास" मे उन स्थानो क वर्णन किया है, जिसका उल्लेख महाकवि कालिदास ने मेघदूत और कुमार सम्भव मे किया है. कालिदास साहित्य के व्याख्या डा० भगवत शरण उपाध्याय के अनुसार कालिदास का जन्म अलका मे हुआ था और यह स्थान अलकनन्दा व मन्दाकिनी के बीच फूलो की घाटी के आस-पास ही हो सकता है. उनका भी मत है कि महाकवि कालिदास का जन्म हिमालय के कविल्ठा मे ही हुआ है और उन्होने मालवा को अपना कर्म स्थान बनाया.
       विद्वानो का कहना है कि कविल्ठा का अर्थ कविग्राम या कवि स्थल है. महाकवि कालिदास पर शोध करने वालो का मत है कि कुमार सम्भव की रचना की प्र्ष्ठ भूमि कविल्ठा ही है. महाकवि कालिदास की द्र्ष्टि मे हिमालय देवतात्मा प्रक्रति के वैभव से परिपूर्ण रत्नो की खान, वन सम्पदा, नदियो का उद्गम स्थान, देवताओ की भूमि है. कुमार सम्भव मे स्वर्ण प्रयाग (सोन प्रयाग) का वर्णन है तथा बिना तेल के दीपक सा प्रकाश करने वाली औषधि का वर्णन है जो मड्ना मदमहेश्वर के बुग्यालो मे पाई जाती है. अतः यह सारे तथ्य प्रमाणित करते है कि महाकवि कालिदास उत्तराखण्डी थे.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

 महाकवि कालिदास ने 'कुमार संभव' तथा 'रघुवंश'  इन दोनों महाकाव्यों तथा 'ऋतुसंहार' इन दो गीत कावियो तथा माल विकागीन्मित्र विक्रमोवर्शीय एवं 'अभिज्ञानशकुलान्तलम' इन तीन नाटको की रचना की ! महाकवि कालिदास ज्योतिष कर्मकांड और महूर्तशाश्त्र  के भी ज्ञाता थे उनका ज्योतिविर्धाभरण ग्रन्थ इसका प्रमाण है!

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
Biography of Kalidasa
  Kalidasa (AD ?450-600?) the greatest of the sanskrit dramatists, and the first great name in Sanskrit literature after Ashvaghoshha. In the intervening three centuries between Asvaghosha (who had a profound influence on the poet) and Kalidasa there was some literary effort, but nothing that could compare with the maturity and excellence of Kalidasa's poetry. Virtually no facts are known about his life, although colourful legends abound. Physically handsome, he was supposed to have been a very dull child, and grew up quite uneducated. Through the match-making efforts of a scheming minister he was married to a princess who was ashamed of his ignorance and coarseness. Kalidasa (Kall's slave), an ardent worshipper of Kali, called upon his goddess to help him, and was rewarded with sudden gifts of wit and sense. He became the most brilliant of the `nine gems' at the court of Vikramaditya of Ujjain.
 
There is strong reason to believe that Kalidasa was of foreign origin. His name is unusual, and even the legend suggests that it was adopted. The stigma attaching to the suffix `dasa' (slave) was very strong, and orthodox Hindus avoided its use. His devotion to the brahminical creed of his time may betray the zeal of a convert. Remarkably enough, Indian tradition has no reliable data concerning one of its greatest poets, whereas there is a fund of information both historical and traditional about hundreds of lesser literary luminaries. Kalidasa was well acquainted with contemporary sciences and arts, including politics and astronomy. His knowledge of scientific astronomy was manifestly gleaned from Greek sources, and altogether he appears to have been a product of the great synthesis of Indian and barbarian peoples and cultures that was taking place in north-western India in his day. Dr S. Radhakrishnan says, `Whichever date we adopt for him we are in the realm of reasonable conjecture and nothing more. Kalidasa speaks very little of himself, and we cannot therefore be sure of his authorship of many works attributed to him. We do not know any details of his life. Numerous legends have gathered round his name, which have no historical value. The apocryphal story that he ended his days in Ceylon, and died at the hands of a courtesan, and that the king of Ceylon in grief burned himself to death, is not accepted by his biographers. Listed below are the chief works attributed to Kalidasa.
 
Shaakuntal, with a theme borrowed from the Mahabharata, is a drama in seven acts, rich in creative fancy. It is a masterpiece of dramatic skill and poetic diction, expressing tender and passionate sentiments with gentleness and moderation, so lacking in most Indian literary works. It received enthusiastic praise from Goethe.
 
Malavikaagnimitra (Malavika and Agnimitra) tells the story of the love of Agnimitra of Vidisha, king of the Shungas, for the beautiful handmaiden of his chief queen. In the end she is discovered to be of royal birth and is accepted as one of his queens. The play contains an account of the raajasuuya sacrifice performed by Pushyamitra, and a rather tiresome exposition of a theory on music and acting. It is not a play of the first order.
 
Vikramorvashi (Urvashii won by Valour), a drama of the trotaka class relating how king Pururavas rescues the nymph Urvashii from the demons. Summoned by Indra he is obliged to part from her. The fourth act on the madness of Pururavas is unique. Apart from the extraordinary soliloquy of the demented lover in search of his beloved, it contains several verses in Prakrit. After many trials the lovers are reunited in a happy ending.
 
Meghaduuta (Cloud Messenger): the theme of this long lyrical poem is a message sent by an exiled yaksha in Central India to his wife in the Himalayas, his envoy being a megha or cloud. Its beautiful descriptions of nature and the delicate expressions of love in which passion is purified and desire ennobled, likewise won the admiration of Goethe.
 
Raghuvamsha (Raghu's genealogy), a mahaakavya, regarded by Indian critics as Kalidasa's best work, treats of the life of Rama, together with a record of his ancestors and descendants. There are many long descriptions, large parts of which are contrived and artificial. Only one king in this pious dynasty fails to come up to the ideal standard, namely, Agnivarna.
 
Rituu-samhaara, (Seasonal Cycle), a poem describing the six seasons of the year in all their changing aspects.
 
Kumaara-sambhava (Kumaara's Occasioning), usually translated `The Birth of the War-god', a mahaakavya relating how Parvati won the love of Siva in order to bring into the world Kumara (i.e. Karttikeya) the god of war to destroy the demon Taraka. The last few cantos are usually omitted from printed versions, being of an excessively erotic nature. This is especially true of Canto VIII where the embraces of the newly-wedded divine couple are dwelled upon in vivid detail.

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