केदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित हैं। शिखर के पूर्व की ओर अलकनंदा के सुरम्य तट पर बदरीनारायण अवस्थित हैं और पश्चिम में मंदाकिनी के किनारे श्री केदारनाथ विराजमान हैं। अलकनंदा और मंदाकिनी-ये दोनों नदियां रुद्रप्रयाग में मिल जाती हैं और देवप्रयाग में इनकी संयुक्त धारा गंगोतरी से निकल कर आयी हुई भागीरथी गंगा का
आलिंगन करती है। इस प्रकार जब गंगा स्नान करते हैं, तब सीधा संबंध श्री बदरी और केदार के चरणों से हो जाता है। बदरीनाथ के यात्राी प्रायः केदारनाथ हो कर जाते हैं और जिस रास्ते से जाते हैं, उसी रास्ते से वापस न लौट कर रामनगर की ओर से लौटते हैं। यात्रा मार्ग में यात्रियों के सुविधार्थ बीच-बीच में चट्टियां बनी हुई हैं। यहां गरमी में भी सर्दी बहुत पड़ती है। कहीं-कहीं तो नदी जल तक जम जाता है।
श्री केदारेश्र्वर ३ दिशा में बर्फ से ढके रहते हैं और शीत काल में तो वहां रहना असंभव सा ही है। कार्तिकी पूर्णिमा के होते-होते पंडे लोग केदार जी की पंचमुखी मूर्ति ले कर नीचे ÷ऊखी मठ' में, जहां, रावल जी रहते हैं, चले आते हैं और फिर ६ मास के बाद मेष संक्राति लगने पर बर्फ को काट कर, रास्ता बना कर, पुनः जा कर मंदिर के पट खोलते हैं।
मंदिर मंदाकिनी के घाट पर पहाड़ी ढंग का बना हुआ है। भीतर घोर अंधकार रहता है और दीपक के सहारे ही शंकर जी के दर्शन होते हैं। दीपक में यात्री लोग घी डालते रहते हैं। शिव लिंग अनगढ़ टीले के समान है।
सम्मुख की ओर यात्री जल-पुष्पादि चढ़ाते हैं और दूसरी ओर भगवान् के शरीर में घी लगाते हैं तथा उनसे बांह भर कर मिलते हैं। यह मूर्ति चार हाथ लंबी और डेढ़ हाथ मोटी है। मंदिर के जगमोहन में द्रौपदी सहित पंच पांडवों की विशाल मूर्तियां हैं। मंदिर के पीछे कई कुंड हैं, जिनमें आचमन तथा तर्पण किया जाता है।
केदारनाथ के निकट ÷भैरव झांप' पर्वत है। पहले यहां कोई-कोई लोग बर्फ में गल कर, अथवा ऊपर से कूद कर शरीरपात करते थे। पर १८२९ से सती एवं भृगुपतन की प्रथाओं की भांति सरकार ने इस प्रथा को भी बंद करा दिया।