Author Topic: Mahabharat & Ramayan - उत्तराखंड में महाभारत एव रामायण से जुड़े स्थान एव तथ्य  (Read 121447 times)

विनोद सिंह गढ़िया

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13 साल तक पांडवखोली के जंगलों में छिपे रहे पांडव


समुद्रतल से 8800 फीट की ऊंचाई पर स्थित पांडवखोली का पौराणिक महत्व है। कहा जाता है कि पांडवों ने अपने अज्ञातवास पांडवखोली के जंगलों में काटे। यही नहीं पांडवों की तलाश में कौरव सेना भी पहुंची इस लिए इसे कौरवछीना भी कहा जाता था। लेकिन अब कुकुछीना के नाम से जाना जाता है।
रानीखेत से पांडवखोली की दूरी 56 किमी है द्वाराहाट से आगे कुकुछीना से साढ़े तीन किमी की खड़ी चढ़ाई पार करनी पड़ती है। पांडवखोली से कुमाऊं और गढ़वाल के ऊंचे स्थल दिखाई देते हैं। हिमालय का विहंगम दृश्य बरबस अपनी ओर आकर्षित करता है। इस स्थल का ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व रहा है। कहा जाता है कि जब पांडवों को अज्ञातवास हुआ था, तब पांडव अपनी पत्नी द्रौपदी के साथ यहीं रहे थे। यहां स्थित बुग्यालनुमा स्थल को भीम की गुदड़ी कहा जाता है। बाद में ब्रह्मलीन महंत बलवंत गिरि महाराज की नजर इस स्थल पर पड़ी तो उन्होंने इसके विकास के लिए प्रयास किए। भव्य मंदिर का निर्माण कराया। अब यहां आश्रम भी बन चुका है। प्रत्येक दिसंबर माह में बाबा की पुण्यतिथि पर विशाल भंडारा होता है।


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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चम्पावत स्थित मानेश्वर मंदिर ---
 यह स्थान टनकपुर-पिथौरागढ़ राष्ट्रीय राज मार्ग पर चम्पावत से 7 किमी पर लोहाघाट की ओर स्थित है।
 कूर्म नगरी की श्यामराज चोटी के समानान्तर स्थापित मानेश्वर शिव शक्तिपीठ में मानसरोवर की जल धारा है। अर्जुन ने गांडीव धनुष से बाण चलाकर धारा की उत्पत्ति की जो शिव के आदर में यहां शिवलिंग स्थापित किया। मान्यताओं के अनुसार शक्तिपीठ की कई चमत्कारी शक्तियां सदियों से लोगों के लिए आश्चर्य और श्रद्धा का केंद्र हैं। यहां हर साल एकादशी मेले में हजारों लोग पूजा-अर्चना करने आते हैं।
 स्कंद पुराण के मानस खंड में भी इस शिव शक्तिपीठ का उल्लेख है।
 'मानसेयेति विख्यातो मध्ये कूर्माचलस्य हि।
 पर्वतो मुनि शार्दूला विद्याधर निषेवित:।।
 शिखरे तस्य वै विप्रा मानसेशो हर: स्मृत:।
 सतु मुक्तिप्रदो विप्रा: सैव मुक्ति प्रद: स्मृत:।।'
 अर्थात कुर्माचल के मध्य में मानसेय पर्वत है। विद्याधरों से सेवित इस शिखर पर मानसेश्वर शिव धाम है। जो भोगप्रद व मोक्ष्य दायक है। भक्तों को शिव लोक का मार्ग बताते हैं। यहां से मानसरोवर की सीमा शुरू होती है। इस जल से स्नान करने पर मोक्ष मिलता है।

 
कहा जाता है कि जब पांडव पुत्र माता कुंती के साथ अज्ञातवास के दौरान इस क्षेत्र में भ्रमण आए तो आमलकी एकादशी पर राजा पांडु की श्राद्ध तिथि थी। माता कुंती का प्रण था कि वह श्राद्ध मानसरोवर के ही जल से करेगी। कुंती ने यह बात युधिष्ठिर को बताई तो उन्होंने अर्जुन से माता का प्रण पूरा करने को कहा। अर्जुन ने गांडीव धनुष से बाण मार कर यहां जल धारा पैदा की। इस जल से पांडु का श्राद्ध करने के बाद उन्होंने भगवान शिव का आभार प्रकट करने के लिए इस स्थान पर शिवलिंग की स्थापना कर उसका पूजन किया।
 जिस स्थान पर बाण मारा वहां जल की धारा निकली। उसे गुप्त नौली के नाम से जाना जाता है। और उसका जल यहां निर्मित एक बावड़ी में एकत्र होता है। इस जल से स्नान करने पर पुण्य लाभ के साथ ही कई रोग व विकार दूर होते हैं। शिवलिंग की पूजा से मनवांछित फल मिलता है। निसंतान दंपत्तियों की झोली इस दरबार में भर जाती है।
 पांडु पुत्रों द्वारा शिवलिंग की स्थापना के बाद आमलिका एकादशी को इस शक्तिपीठ की वर्षगांठ के रूप में मनाया जाता है। इस दिन यहां दूर-दूर से आए लोग विशेष पूजा-अर्चना करते हैं। चम्पावत-लोहाघाट के मध्य स्थापित इस धाम में खड़ी होली गायन का भी विशेष महत्व है। लोग वेदांती और भक्तिमय होलियों का गायन कर माहौल को भक्तिमय बना देते हैं। इस मौके पर यहां मेले का भी आयोजन होता है। जिसमें होली के अलावा बच्चों के लिए भी सूब सामान मिलते हैं।
 कैलास मानसरोवर यात्रा का भी रहा है पड़ाव
 चम्पावत : मानेश्वर धाम कैलास मानसरोवर यात्रा का भी मुख्य पड़ाव रहा है। 1962 से पूर्व जब यह यात्रा पैदल होती थी तो टनकपुर में शारदा नदी में स्नान के बाद यात्रियों का पहला पड़ाव चम्पावत ही था। यहां नगर में स्थापित बालेश्वर शिव धाम में पूजा के बाद यात्री मानेश्वर पहुंचते थे। दूसरे रोज लोहाघाट के ऋखेश्वर में पूजा अर्चना कर रामेश्वर में पूजा होती थी। अब यह यात्रा हल्द्वानी से होती है।
 राजा निर्भय चंद ने दिया भव्य स्वरूप
 चम्पावत : मानेश्वर में स्थापित शिवधाम को चंदवंशीय राजा निर्भय चंद ने भव्य स्वरूप दिया। उन्होंने आठवीं सदी में मंदिर का निर्माण कराने के साथ ही अखंड धूना स्थल भी बनाया। साथ ही गुप्त नौले के जल को एकत्र करने के लिए पक्की बावड़ी बनवाई। यहां धर्मशालाओं के साथ ही सौंदर्यीकरण के भी काम हुए। महंत रमनपुरी महराज मंदिर की व्यवस्थाएं देख रहे हैं।
 भक्तों को मिलती है आत्मिक शांति
 चम्पावत : यह स्थल धार्मिक, एतिहासिक और नैसर्गिगता की त्रिवेणी है। यहां आने वाले भक्त को जहां आत्मिक शांति मिलती है, वहीं उसकी मनवांछित कामना भी पूरी होती है। बेहद शांत और नयनाभिराम पहाड़ियों से घिरे इस धाम के सामने जहां चम्पाघाटी का नजारा लोगों को अभिभूत करता है। वहीं कुर्म भगवान की तपस्थली क्रांतेश्वर पर्वत इसके ठीक सामने स्थित है।

(Info by Bhupesh joshi)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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पांडवों ने किया था मानेश्वर में पिता का श्राद्ध

चंपावत। श्रावण मास में जिले के सभी देवालयों में पूजा-अर्चना के साथ विशेष धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन किया जा रहा है। चंपावत जिले में भगवान शिव के कई मंदिर स्थित हैं। इनमें मानेश्वर महादेव का धाम काफी महत्व है। यहां स्थित नौले में श्रावण मास सहित खास पर्वों में स्नान कर श्रद्धालु पुण्य कमाते हैं। मनोकामना की पूर्ति में सहायक माने जाने वाले इस मंदिर का ताल्लुक महाभारत काल से है। इस स्थान में अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने अपने पिता पांडु का श्राद्ध किया था।  गुप्त नौले का जल कैलाश मानसरोवर के जल की तरह पवित्र माना जाता है।
मानेश्वर महादेव मंदिर की गाथा महाभारत कालीन युग से जुड़ी है। कहते हैं कि वनवास काल के बाद एक वर्ष के अज्ञातवास में पांडव कुछ समय यहां रुके थे। इसी दौरान कुंती ने पांडवों से पिता के श्राद्ध के लिए मानसरोवर के जल की इच्छा प्रकट की थी। तब अर्जुन ने गांडीव से पहाड़ी में बाण चलाकर जलधारा उत्पन्न की थी। इसी जल से पांडवों ने पिता का तर्पण किया था। बताते हैं कि उसी बाण से एक नौला बना था, जिसे गुप्त नौला कहा जाता है और जो सदाबहार जल से भरा रहता है।
इस जल में स्नान करने से पुण्य अर्जित होता है। भगवान शिव की कृपा से जल मानसरोवर से आया था। इसलिए कृतज्ञता स्वरूप पांडवों ने मानेश्वर में शिवलिंग स्थापित किया। मानेश्वर के शिवालय का जिक्र मानसखंड के स्कंदपुराण के 65वें अध्याय में भी किया गया है, जिसमें उसे मोक्षदायक और भक्तों को शिवलोक का मार्ग बताने वाला कहा गया है। मानेश्वर में स्नान कर शिव पूजन करने से मुक्ति का विशेष लाभ होता है।


amar ujala

Pawan Pathak

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यह चम्पावत जिले के तल्ला पालविलौन  क्षेत्र के  ब्यानधुरा मंदिर  के बारे में है|

Source- epaper.jagran.com/ePaperArticle/05-may-2015-edition-Pithoragarg-page_9-12030-3571-140.html

Pawan Pathak

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रघुवंशी राजा भरत की तपस्थली भाटकोट यानी भरतकोट की आभा शीघ्र दुनियाभर में चमकेगी।

संजीवनी का द्रोण पर्वत लेकर जा रहे हनुमान को यहीं से भरत ने तीर मार कर उतारा था। त्रेता युग के महत्वपूर्ण व वर्तमान में गुमनाम रहे इस स्थल को अब पर्यटन मानचित्र पर लाने की कवायद शुरू हो गई है। वाल्मीकि ने अपने ग्रंथ रामायण में इस क्षेत्र को कारुपथ नाम दिया है। इतिहासकार भी इसकी पुष्टि करते हैं। पौराणिक शास्त्रों के मुताबिक भगवान राम के वनगमन के बाद राजा भरत ने इसी स्थल पर तपस्या की थी।
लोक मान्यता भी है कि जब हनुमान संजीवनी का द्रोण पर्वत लेकर जा रहे थे, भरत ने अपने बाण के प्रहार से यहीं उतारा था। फिर जानकारी हासिल करने के बाद इसी स्थल से लंका भी भेजा। पौराणिक द्वारिका यानी द्वाराहाट व ताकुला ब्लॉक के केंद्र स्थित भाटकोट की यह पहाड़ी समुद्र तल से 9999 फुट ऊंची है। खास बात यह कि अत्रि मुनि, गार्गी व द्रोण ऋषि तथा सुखदेव आदि संतों ने भी यहां वर्षो तप किया था। यहां मौजूद एक से डेढ़ दर्जन त्रिशूल शिव आराधना का प्रमाण भी देते हैं। चोटी पर प्राकृतिक शिवलिंग भी है, जिसे कालांतर में शिव मंदिर का रूप दे दिया गया। जनश्रुतियों के मुताबिक कत्यूर काल में शासकों ने भरतकोट को तपस्थली के अनुरूप उसके मौलिक स्वरूप में बरकरार रखा। बाद में चंदवंशी राजाओं ने भी इस सांस्कृतिक व धार्मिक धरोहर को संजोए रखा। यही वजह है कत्यूर व चंद वंश के दौर के वीर खंभ कुमाऊं में यहां नहीं मिलते। अब इस धरोहर को धार्मिक पर्यटन से जोड़ने के लिए कवायद शुरू हो गई है। क्षेत्रीय प्रबंधक पर्यटन (कुमाऊं) डीके शर्मा के अनुसार टूरिज्म के नक्शे में इसे सम्मानजनक स्थान देने के लिए बकायदा पर्यटन विभाग का विशेषज्ञ दल स्थलीय निरीक्षण कर संभावनाएं तलाशेगा।


Source- http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/30-nov-2015-edition-Pithoragarh-page_1-25759-16292-140.html
Source-http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/30-nov-2015-edition-Pithoragarh-page_13-25763-3446-140.html

Pawan Pathak

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द्रोणागिरी यानी दूनागिरी की सभी पर्वतमालाएं औषधीय वनस्पतियों के लिए विख्यात हैं।
दीप सिंह बोरा, रानीखेत
कलांतर में यहां पांडवों ने शरण ली तो इसे पाण्डव खोली कहा जाने लगा। इस क्षेत्र में आज भी दुर्लभ जड़ी बूटियां हैं। शरीर को वज्र बनाने की औषधि यहीं पाई जाती है। दांत और हड्डियों को मजबूती देने वाली इस औषधि को वज्रदंती कहा जाता है। मगर अवैज्ञानिक दोहन से इस औषधि का वजूद खतरे में हैं। इस पर्वतमाला पर जड़ी बूटियों के भंडार की अहमियत न तो भावी पीढ़ी समझ सकी न ही सरकारें व उसके नुमाइंदे इन पर्वत श्रृंखलाओं में मौजूद औषधीय वनस्पति को सहेजे रखने के लिए ठोस नीति ही बना सके। नतीजतन अवैज्ञानिक दोहन से जहां अनगिनत जड़ी बूटियां विलुप्त हो गई हैं, वहीं पांडवखोली में पग-पग पर मिलने वाली बजर वनस्पति यानी वज्रदंती की बेहिसाब पौध पर संकट मंडराने लगा है। स्कंद पुराण में है दूनागिरी का उल्लेख: स्कंद पुराण के मानसखंड में द्रोणागिरी की ब्रrा व लोध्र (लोध) पर्वतमालाओं को औषधीय वनों का खजाना कहा गया है। ऋषि द्रोण, गर्ग, सुकदेव, महावतार बाबा समेत तमाम ऋषि मनिषियों की तपोस्थली रही इन पर्वतमालाओं में अज्ञातवास के दौरान पांडवों का यहां शरण लेने के पीछे भी औषधीय वनों की बहुलता तथा शक्ति से भरपूर वनस्पतियों की प्रचुरता को भी बड़ी वजह मानी जाती है।
वज्रदंती ही नहीं अन्य औषधियां भी खतरे में :
आधुनिक काल का पहिया घूमने के साथ ही स्थानीय वाशिंदों की अज्ञानता, अवैज्ञानिक दोहन, कथित जानकारों का गलत तरीके से औषधीय वनस्पतियों की जड़ों तक खदान आदि तमाम कारणों से अब औषधीय वन का वजूद खतरे में पड़ने लगा है। सतावरी , चिरायता जैसी औषधियां विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई हैं। कुछ वर्ष पूर्व तक पांडवखोली स्थित भीम की गुदड़ी (कई मीटर लंबा मैदान) वज्रदंती की पौध से भरा था। लेकिन दोहन की मार इस पर पड़ी है।
 Source   -http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/22-dec-2015-edition-Pithoragarh-page_3-27088-3375-140.html

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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उत्तराखंड के मांणा गांव यहां मौजूद है महाभारत काल का सबसे बड़ा गवाह
उत्तराखंड के मांणा गांव में महाभारत काल की सबसे बड़ा गवाह मौजूद है। यहां महाभारत ग्रंथ के रचयिता मुनि व्यास का निवास स्‍थान है। इस जगह को व्यास पोथी के नाम से जाना जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार व्यास जी ने गणेश जी को अपनी बातों में उलझा दिया और गणेश जी को पूरी महाभारत कथा मांणा गांव में ‌स्थित व्यास गुफा में बैठकर लिखनी पड़ी थी। यह पवित्र स्थान देवभूमि उत्तराखंड में बद्रीनाथ धाम से करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर भारतीय सीमा के अंतिम गांव माणा में स्थित है। कहा जाता है कि इसी गुफा में रहकर वेदव्यास जी ने सभी पुराणों की रचना की थी। व्यास गुफा को बाहर से देखकर ऐसा लगता है मानो कई ग्रंथ एक दूसरे के ऊपर रखे हुए हैं। इसलिए इसे व्यास पोथी भी कहते हैं। बद्रीनाथ के दर्शनों के बाद जो यात्री गणेश गुफा और व्यास गुफा की यात्रा करना चाहते हैं वह तीन किलोमीटर की पैदल यात्रा भी कर सकते हैं। रास्ते में साथ चलते अलकनंदा नदी को देखना मन को आनंदित करता है। जो यात्री पैदल नहीं चलना चाहते हैं वह बद्रीनाथ से माणा गांव तक के लिए सवारी ले सकते हैं। यहां कार और जीप की सुविधा हमेशा उपलब्ध रहती है। (source amar ujala)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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महाभारत काल में पांडव इस चट्टान के आकार के पकोड़े से अपनी भूख मिटाते थे। पौराणिक मान्यताओं के अनुसान अज्ञातवास के दौरान पांडव उत्तराखंड के लैंसडौन से गुजरे थे। उत्तराखंड के लैंसडौन स्थित भीम पकोड़ा पत्थर को देखने के लिए पर्यटकों में उत्सुकता बनी रहती है। कहा जाता है कि पांडवों के अज्ञातवास के दौरान केदारनाथ के लिए प्रस्थान करने के लिए वे यहां से गुजरे थे। पांडवों ने यहां भोजन किया बड़े-बड़े भूकम्पों के आने के बाद भी इन पत्थरों की स्थिति यथावत बनी है। इनको देखने के लिए पर्यटक विशेष रूप से भीम पकोड़ा की ओर जाते हैं।बड़े-बड़े भूकम्पों के आने के बाद भी इन पत्थरों की स्थिति यथावत बनी है। इनको देखने के लिए पर्यटक विशेष रूप से भीम पकोड़ा की ओर जाते हैं। (amar ujala)

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अगस्त्यमुनि के पास एक छोटा सा गाँवनुमा बाजार है सौड़ी। सौड़ी जितना छोटा है उतना ही उसका महत्व बड़ा। ऐतिहासिक रूप में कहूँ तो बहुत कम लोगो को शायद पता हो कि सौड़ी का एक नाम विनोवापुरी भी है। पहाड़ में सर्वोदयी आन्दोलन में सौड़ी मन्दाकिनी घाटी का वह सितारा था जिसे आचार्य विनोवाभावे के सर्वोदयी कार्यकर्ताओ ने विनोवापुरी नाम देकर ऐतिहासिक बना दिया। तब इसी सौड़ी से सर्वोदयी आन्दोलन पहाड़ में फैला और पहाड़ में व्यापक रूप से विनोवाभावे के विचार जागृति की धूरी बनने लगी।

सामाजिक रूप से सौड़ी केदारयात्रा का एक छोटा पड़ाव या कहे चट्टी थी जहाँ यात्री आम के पेड़ो के नीचे सुस्ताते थे। इन आम के झुरमुटे में ही था सौड़ी के प्राचीन महादेव। सौड़ी के बीचो बीचो कुमार कार्तिकेय की तपस्थली कार्तिकस्वामी उपत्यीआ से एक गंगधारा निकलती है। जिसमें आज भी सौकड़ो की संख्या में घराट है। जहाँ रोजमर्रा की जरूरतो के बनिस्पत हर दिन कई लोग चड़ते और उतरते रहते। इन घराटो में जीवन और समाज की कितनी कहानीयाँ गुथी होगी आप कल्पना कर सकते है।

सत्तुढुँगा
सत्तुढुँगा

पौराणिक रूप से सौड़ी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना ऐतिहासिक और सामाजिक रूप में। सौड़ी मन्दाकिनी के छोर पर बसा है। सौड़ी के खेतो से उतरकर एक रास्ता मन्दाकिनी के उन छोरो तक जाता है। जहाँ एक विशालकाय पत्थर मंदाकिनी की धारा को जोशीले अंदाज में थपथपाता रहता है। स्थानीय निवासी इसी पत्थर को कहते है सतढुँगा। इस नाम को पाण्डवो से जोड़ा जाता है। कहा जाता है महाभारत युद्ध के पश्चात पाण्डव  मोक्ष के लिऐ स्वार्गारोहिणी की ओर इसी रास्ते से होकर आते है। कहते है जब वो यहाँ पहुँचे तो रात घिर आती है। थके हारे पाण्डव सत्तू खाकर अपनी भूख मिटाते है और सो जाते है। लेकिन विशालकाय भीम के लिऐ थोड़ा सा सत्तू पर्याप्त नही होता है। वो चुपचाप उठकर मन्दाकिनी के तट पर सत्तू पीसने चले जाते है। कहते है रात में मंद मंद बहती मंदाकिनी की मधुर आवाज उन्हे इतना मोहित कर देती है कि सत्तू का बड़ा ढेर कब तैयार हो गया उन्हे पता ही नही लगता है। भोर होती है तो पक्षियों का कलरव भीम की तंद्रा को भंग करता है।  भीम के सामने सत्तू का बड़ा ढेर खड़ा होता है, यह इतना अधिक था कि इसे पूरा का पूरा साथ नही ले जाया जा सकता था। फिर भीम इस सत्तू को मन्दाकिनी के जल से भीगोकर बड़ी ढेरी बना लेता है। कहते है सत्तू की यही ढेरी जमकर पत्थर बन जाती है। जाते समय भीम इस ढेरी को तोड़ने के लिऐ मुष्टिका प्रहार करता है लेकिन यह ढेरी टूटती नही बस एक छोटी सी दरार इस ढेरी के बीचो बीच पड़ जाती है। आज भी वह दरार इस विशाल पत्थर शिला के बीचो बीच है जिसमे से होकर इसके शिखर तक जाया जा सकता है। इसके शिखर पर आसानी से 30-40 आदमी बैठ सकते है। भीम और पाण्डवो से जुड़े होने के कारण मन्दाकिनी के दोनो किनारो पर बसे गाँवो के पाण्डव पश्वा ( पाण्डव नृत्य के समय के वाहक ) यहाँ स्नान करने आते है।

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पाडव नृत्य

लोकमान्यता के अनुसार गोत्र हत्या के बाद महादेव के दर्शनो के लिऐ पाण्डव केदार घाटी में पहुचते है। कण कण में शंकर की भावना को सहेजे घाटी के गाँवो की पवित्र सुन्दरता उन्हे मोहित कर देती है। तब घाटी के निवासियो को अपनी स्मृति के प्रतीक के रूप में बाण और निशानो को सौपते है और पुकारे जाने पर प्रकट होने का वचन देते है। कहते है वो उस घाटी में कई मठ मंदिरो, धारा नौलो का निर्माण भी करते है, जो आज भी मौजूद है। तभी से यहाँ के निवासी पाण्डव नृत्य का आयोजन कर पाण्डवो को यहाँ आमंत्रित करते है।

Source - https://dastakpahadki.in/

 

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