अस्त्युत्तरस्याम दिशी देवतात्मा .हिमालयो नाम नगाधिराज :,
पूर्वापरो तोयनिधि वगाह्या ,स्थित :पृथिव्याम एव मानदंड : ||
महाकवि कालिदास के कुमारसंभव के उपरोक्त श्लोक पर्वत राज हिमालय की अजर -अमर और विस्तृत प्राकृतिक ,बोधिक ,सामाजिक और सांस्करतिक विरासत की महता को समझने के लिये भले ही पर्याप्त हो परन्तु नगाधिराज हिमालय के विविध और बहुआयामी सांस्करतिक सोपानों का वास्तविक रसपान करने हेतु हिमालयी संस्कर्ति और जीवन शैली के सागर में ठीक वैसे ही गोता लगाना होगा जैसे की महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने लगाकर अनुभव किया था शायद उन्हे और " चातक " जैसे प्रकृति के हर चितेरे को हिमालय की हर श्रृंखला पर ,हर नदी घाटी पर और हर एक मठ -मंदिर पर जीवन और संस्कृति के विविध रंगों का रंग देखने को मिला हो | इस हिमालय की झलक ही ऐसी है ,ना जाने कितने लोग यहाँ आकर इसके देवत्व में लींन होकर घुमक्कड् और बैरागी हो गए तो ना जाने कितने लोगौं में यहाँ आकर फिर से जीने की शक्ति का संचार हुआ