Author Topic: Nanda Raj Jat 2014 update -हिमालयी कुम्भ नंदा राज जात 18 अगस्त से 06 सितम्बर 14  (Read 10931 times)





एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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देहरादून, [दिनेश कुकरेती]। कहां नहीं है नंदा। वह तो घट-घट में विराजमान है, पर देवी नहीं, बहिन, बेटी व बहू के रूप में। जिस प्रकार अल्मोड़ा के चंद राज परिवार की राजकुमारी नंदा की मृत्यु पर नंदा देवी मंदिर स्थापना की अनुश्रुति है, उसी प्रकार गढ़वाल में एक जागर (स्तुति) के अनुसार चांदपुरगढ़ नरेश भानुप्रताप की दूसरी पुत्री का नाम नंदा बताया गया है। इस नंदा का विवाह शिव से हुआ था और उसकी बड़ी बहिन का विवाह धारानगरी के कुंवर कनकपाल से। यही इसीलिए नंदा एक ऐसी लोक देवी है, जो उत्तराखंड के दोनों मंडलों गढ़वाल एवं कुमाऊं में समान रूप से पूज्य है। हालांकि इसके पीछे अनेक जनश्रुतियां एवं ऐतिहासिक प्रमाण दिए जाते रहे हैं। लेकिन, सच यही है कि नंदा यहां के लोक जीवन में एक नारी के प्रति अतुलनीय सम्मान, आस्था एवं श्रद्धा की प्रतीक है।

लोक साहित्यकार बीना बेंजवाल की गढ़वाली में लिखी एक सुंदर कविता है, 'न गढ़पति रैन, न तौंक राजपाट, गढ़ भि कख बचिन, होण से खंद्वार, पर नंदा त एक चेतना च, अर चेतना कि सदनि चलदि रंदि जात' (गढ़पति रहे न उनका राजपाट। गढ़ भी उजाड़ होने से कहां बच पाए। पर नंदा तो एक चेतना है और चेतना की यात्रा कभी रुकती नहीं)। और..सच भी यही है, तभी तो पर्वतों की घाटियां, गांव-गदेरे, बुग्याल, पहाड़, नदी, पाखे न जाने कितनी नंदाओं की याद ताजा रखे हुए हैं। न जाने नंदा कहां किस रूप में प्रकट हो उपस्थित हो जाए, कहा नहीं जा सकता। हां, इतना जरूर है कि जिस भूगोल में पली-बढ़ी, वहां जात की परंपरा भी उसी भूगोल के अनुरूप है। कुमाऊं में नंदा चंद राजाओं की कुलदेवी मानी जाती है। प्रचलित जनश्रुति के अनुसार एक भैंसे ने जब नंदा का पीछा किया तो वह केले के पत्ते की ओट में जा छिपी। परंतु, एक बकरी ने वह कदली पत्र खा लिया। भैंसे ने नंदा को देख लिया और वहीं मार गिराया। इसलिए एक दौर में नंदा पूजन के अवसर पर बलि की परंपरा रही है। लेकिन, वर्तमान में अल्मोड़ा में इस मौके पर चंद राजवंश का एक व्यक्ति डोली पर चढ़कर आता है और तलवार से भैंसे की गर्दन को छूकर समारोह की परंपरा को निभाता है।

उद्योत चंद (1678-1698) के दाननामे में उल्लेख है कि कुमाऊं की नंदा जात में कलूं (स्थानीय मटर), विरुड़ (गुरुंश, गहथ, उड़द, गेहूं आदि) भिगोकर गौरा-नंदा को चढ़ाते हैं और कुंवारी कन्याएं झंगोरा (सावां) के पौधों से गमरा बनाकर सिर पर रख गौरा के जन्म से ससुराल जाने तक के विदाई गीत गाती हैं। नंदा राजजात के अलावा स्थानीय जात्रा को हिल (हिरन) जात्रा कहते हैं। लोक साहित्यकार बीना बेंजवाल के अनुसार अष्टमी के इस मेले को आठूं गीत लगता है और गौर-महेशर नाचते-ठुमकते विदा किए जाते हैं। वह बताती हैं कि 1925 की राजजात के बाद 2000 की राजजात में कुमाऊं से अल्मोड़ा की नंदा का राजछत्र, डंगोली-कोटमाई की कटार और नैना देवी नैनीताल की छंतोली सम्मिलित हुई थीं। इस बार भी कुमाऊं की डोली-छंतौलियों का नंदकेसरी में मुख्य जात से मिलन होगा।

परंपरा के अनुसार कुमाऊं की जात अल्मोड़ा से प्रस्थान कर रात्रि विश्राम के लिए सोमेश्वर घाटी के माला नामक स्थल पर पहुंचती है। दूसरे दिन वह गरुड़ घाटी में प्रवेश कर बैजनाथ परिक्षेत्र के कोट स्थल में प्रसिद्ध भ्रामरी देवी मंदिर में विश्राम करती है। सूर्यवंशी कत्यूरी शासकों द्वारा स्थापित यह मंदिर मां शक्ति की भ्रामरी व नंदा रूपों की उपासना का केंद्र रहा है। यहां देवी की कटार प्रतीक रूप में राजजात में सम्मिलित होती है। जबकि, अल्मोड़ा से देवी का छत्र कुमाऊं की नंदा का प्रतीक होता है। नंदकेसरी में इन प्रतीकों का मुख्य जात से मिलन ऐसा अलौकिक दृश्य साकार करता है, जिसमें भला कौन नहीं डूबना चाहेगा।
http://www.jagran.com/spiritual/sant-saadhak-nanda-devi-jat-yatra-11567428.html

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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 जागरण संवाददाता। नंदा राजजात महज धार्मिक यात्रा नहीं, संस्कृति का प्रतिबिंब भी है। यह ऐसी यात्रा है, जो उत्तराखंडी लोक से ही परिचित नहीं कराती, उसके वैशिष्ट्य को भी उजागर करती है। नंदा के जागरों में गढ़वाल की सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना के साथ ही लोकजीवन की आकांक्षाओं, अपेक्षाओं, कठिनाइयों आदि का यथातथ्य चित्रण हुआ है। नंदा कभी भावों और संवेदनाओं में सहेलियों के साथ अठखेली करती है तो कभी हिमालय जैसी ससुराल की कठिनाइयों का रुदन करती है। वह मां-बाप को साधिकार ताना भी देती है। इसीलिए नंदा के जागरों में मायके की बेटी का रुदन देखने को मिलता है। वे खुदेड़ गीत जैसे लगते हैं।

लोक मान्यता है कि हिमवंत और मैणा की सात पुत्रियों में सबसे छोटी नंदा का विवाह कैलासवासी शिव से किया गया था। बारह वर्ष तक जब पिता हिमवंत ने नंदा की कोई सुध नहीं ली तो उसने माता-पिता को पुकारा। इस दौरान उसके कुछ अश्रु धरती पर गिर पड़े, जिससे पिता के देश में उथल-पुथल मच गई। वह चिंतित होकर महर्षि नारद के पास पहुंचे। नारद ने उन्हें सलाह दी कि शारदा (हेमंत) ऋतु में सौगात लेकर नंदा को मनाने जाएं। इन्हीं स्मृतियों को जीवित रखने के लिए तब से वार्षिक जात नंदा कुरुड़ का आयोजन किया जाता है। बारह वर्ष में निकलने वाली वाली नंदा राजजात 'कुरुड़ जात' के निमंत्रण पर ही आयोजित की जाती है।

राजजात की विशेषता यह है कि वह गढ़वाल की राज परंपराओं के अनुसार होती है। गढ़वाल राज तो नहीं रहा, लेकिन परंपरा वही है। जात नौटी गांव से ही मुख्य छतौली व चौसिंग्या खाडू के साथ विधिवत प्रस्थान करती है। कांसुवा के कुंवर ही राजजात का शुभारंभ करते हैं और अन्य देवियों की छतौलियां एवं प्रतीक चिह्न इसमें शामिल होते हैं। ये सभी देवियां कुरुड़ बधाण की नंदा के आमंत्रण पर बारहवें वर्ष कैलाश प्रस्थान करती हैं। नंदा गढ़वाल-कुमाऊं में एक आराध्य देवी ही नहीं, अपितु रक्षक के रूप में भी पूजी जाती हैं। इसके बावजूद उनकी लोक स्वीकार्यता बहिन, बेटी व बहू के रूप में ही है।

साहित्यकार डॉ.दिनेश चंद्र पुरोहित के अनुसार गढ़वाल की लोकाभिव्यक्ति पर विचार करते हुए 'खुद' का उल्लेख न हो तो एक अधूरापन रह जाएगा। कदाचित यह कथन अतिरंजनापूर्ण नहीं होगा कि गढ़वाल के सांस्कृतिक परिवेश में 'खुद' का एकांतिक महत्वपूर्ण स्थान है और हिंदी समेत किसी भी अन्य लोकभाषा में इसका सटीक समानार्थी शब्द नहीं मिलता। डॉ.पुरोहित कहते हैं कि गढ़वाली 'खुद' शब्द स्मृत्यात्मक क्षुधा का द्योतक है, जिसमें प्रमुख रूप से नव विवाहिता की कोमलता, भावुकता, विवशता एवं ससुराल की कष्टजन्य पीड़ा के साथ मायके की मधुर स्मृतियां समाहित हैं। लगभग प्रत्येक पार्वती को इस विकट एवं करुण स्थिति का सामना करना पड़ता है। इन्हीं तमाम चुनौतियों से पार पाने का नाम है श्री नंदा देवी राजजात।

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 संवाद सहयोगी, गोपेश्वर: मां नंदा के जागरों के साथ बुधवार की साय चार बजे सिद्धपीठ कुरुड़ धाम से दशोली व कुरुड़-बधाण की डोलियां कैलाश रवाना हो गई। इस दौरान सैकड़ों महिलाएं बेटी नंदा को विदा करते वक्त अपने आंसू नहीं रोक पाई। महिलाएं व युवतियां मां नंदा को विदा करने के लिए कुरुड़ से एक किलोमीटर आगे तक गई। जहां मां नंदा को कैलाश के लिए विदा किया गया।

श्री नंदा देवी राजजात यात्रा में डोलियों की रवानगी से पहले कुरुड़ मंदिर में चले रहे तीन दिवसीय नंदा देवी मेले का समापन 3:30 बजे हुआ। मेले के दौरान विभिन्न सांस्कृतिक कला मंचों ने सांस्कृतिक कार्यक्रम भी पेश किए। बुधवार को प्रात: से ही सिद्धपीठ कुरुड़ में मां नंदा की डोलियों की पूजा अर्चना के लिए श्रद्धालुओं की लाइन लगनी शुरू हो गई थी। तकरीबन पांच हजार लोगों ने दिनभर मां नंदा की पूजा अर्चना की। इस दौरान कुरुड़ में मां नंदा के जयकारों के साथ ही जागरों की भी गूंज सुनाई दे रही थी। स्थानीय गांवों से आई महिलाओं के जागरों से कुरुड़ सिद्धपीठ नंदामय हो गया था। दोपहर में मां नंदा के अवतारी के साथ-साथ अन्य देवी देवताओं के पश्वा पर देवी-देवता अवतरित हुए। सभी देवी देवताओं ने नंदा देवी राजजात यात्रा की सफल कामना का आशीर्वाद दिया। दशोली की नंदा देवी डोली को लाने के लिए जहां लुंतरा के डोल्यार (डोली उठाने वाले ग्रामीण) पहुंचे थे वहीं कुरुड़ बधाण की डोली लाने के लिए चरबंग के ग्रामीण भी कुरुड़ मंदिर में पहुंचे थे। 3:30 बजे नंदा देवी मेले का समापन होने के बाद यात्रा रवानगी की तैयारी हुई। चार बजे सबसे पहले मंदिर प्रांगण में पूजा अर्चना के लिए रखी गई दशोली की डोली लुंतरा गांव के लिए रवाना हुई। उसके पीछे कुरुड़ बधाण की डोली को भी चरबंग गांव के लिए रवाना किया गया। दशोली की डोली के साथ एक चौसिंग्या खाडू भी रवाना किया गया। साथ ही दोनों डोलियों के साथ 14 से अधिक छंतोलियां भी रवाना हुई। इस अवसर पर पुजारी मंशाराम गौड़, मुंशीचंद्र गौड़, वीरेंद्र थोकदार, घाट के प्रमुख करण सिंह नेगी समेत कई लोग मौजूद थे।

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अल्मोड़ा : सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में हिमालयी क्षेत्र के महाकुंभ के रूप में विख्यात नंदा राजजात की तैयारियां जोरों पर हैं। इसी क्रम में बुधवार को श्रद्धालुओं ने नगर में कलश यात्रा निकाली, जबकि चंद वंशीय राजाओं के वंशज नैनीताल के पूर्व सांसद केसी सिंह बाबा ने देर सायं नंदा देवी मंदिर में विधि विधान के साथ पूजा-अर्चना की।

इससे पूर्व अपराह्न तीन बजे केसी सिंह बाबा ने मंदिर परिसर से कलश यात्रा का शुभारंभ किया। कलश यात्रा लाला बाजार, कारखाना बाजार, कचहरी बाजार, जौहरी बाजार, थाना बाजार, पलटन बाजार होते हुए सिद्धनौला पहुंची। सिद्धनौला से कलश में शुद्ध जल लेकर कलश यात्रा रामप्रसाद टम्टा मार्ग से चौघानपाटा, माल रोड, शिखर तिराहा व मिलन चौक होते वापस नंदा देवी मंदिर पहुंची। यात्रा में काफी संख्या में नगर की धर्मप्रेमी जनता शरीक हुई। कलश यात्रा में शिशु मंदिर का बैंड भी शामिल था। इसके अलावा पारम्परिक वेशभूषा में छोलिया नर्तक भी यात्रा में साथ चल रहे थे। इस धार्मिक आयोजन में नंदा देवी मंदिर के पुरोहित पं. हरीश चंद्र जोशी, मंदिर समिति अध्यक्ष शिरीष पांडे, सचिव एलके पंत, मनोज वर्मा, धन सिंह मेहता, किशन गुरूरानी, नरेंद्र वर्मा, पप्पू चौहान, दिनेशचंद्र साह, दिनेश गोयल, अतुल अग्रवाल, जीवन गुप्ता, जीवन नाथ वर्मा आदि शामिल थे। देर सायं नंदा देवी मंदिर में कलश स्थापना के बाद अन्य धार्मिक अनुष्ठान हुए। जिनमें चंद वंशीय राजाओं के वंशज केसी सिंह बाबा शरीक हुए। उन्होंने नंदा देवी की पूजा-अर्चना कर सभी की सुख-समृद्धि की कामना की।

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अल्मोड़ा : कलश यात्रा में पारंपरिक कुमाऊंनी परिधानों से सजी महिलाएं भजन गाते चल रही थीं। महिला श्रद्धालुओं के भजन-कीर्तनों के चलते नगर का माहौल भक्तिमय हो उठा। महिलाओं ने नंदा-सुनंदा तू दैंण है जाए जैसे कुमाऊंनी गीत भी गाए। कलश यात्रा में राधिका जोशी, नर्मदा तिवारी, लता तिवारी, गंगा जोशी, लता बोरा, रीता दुर्गापाल, प्रीति बिष्ट, पुष्पा सती, राधा भंडारी, बीना नयाल, विद्या बिष्ट, किरन पंत आदि मौजूद थीं।

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श्रद्धालुओं को जलपान कराएगी पंजाबी महासभा

अल्मोड़ा : प्रसिद्ध नंदा राजजात यात्रा के शुभारंभ के मौके पर 24 अगस्त को पंजाबी महासभा द्वारा श्रद्धालुओं को जलपान कराया जाएगा। इस मौके पर श्रद्धालुओं को प्रसाद भी वितरित किया जाएगा। यह निर्णय पंजाबी महासभा की एक बैठक में लिया गया। बैठक में पंजाबी महासभा के बंशीलाल कक्कड़, ओमप्रकाश बोहरा, अशोक धवन, सुभाष मल्होत्रा, रावेल सिंह कपूर, पालिका सदस्य सिम्मी धवन, राजीव भसीन, राम निंरकारी, दीपक कपूर, तरुण धवन, जोगेंद्र निरंकारी, अशोक सहगल, आरके बोहरा, अनिल चावला आदि मौजूद थे। संचालन गिरीश धवन ने किया। बैठक में मौजूद पदाधिकारियों व सदस्यों ने नंदा राजजात यात्रा की सफलता की कामना भी की।

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मैन जाण स्वामी शंकर, जू कैलास विराज.

चौदह बरसूं मां यूं यात्रा ह्वड़ी च, मैन जाणा स्वामी शंकर, जू कैलास विराज.....(14 वर्ष में यह यात्रा हो रही है, मुझे कैलास जाना है जहां स्वामी शंकर विराजमान हैं।) जैसे जागरों के साथ दशमद्वार के नौ गांवों के लोग मां नंदा की कैलास विदाई की तैयारी में जुटे रहे। तीन दिनों से दशमद्वार के हिंडोली गांव स्थित मां राजराजेश्वरी मंदिर में भक्त पूजा-अर्चना और त्वे खाकड़ी द्योलू, मुंगरी चढ़ोलू (तुझे ककड़ी दूंगी, मकई चढ़ाऊंगी) जैसे गीत गाकर नंदा को कैलास विदा करने के लिए मनाते हैं। इसके बाद राजराजेश्वरी तैयार होकर मंदिर से बाहर आती हैं। इसके बाद राजराजेश्वरी की डोली कैलास रवाना हो गई।
शुक्रवार को डोली कंडारा और शनिवार को नंदप्रयाग पहुंचेगी। पं. प्रेमबल्लभ पंत और गिरीश पंत के अनुसार दशोली गढ़ में पंवार वंशजों ने जब अपने राज्य की स्थापना की थी, तब उन्होंने यहां अपनी ईष्ट देवी राजराजेश्वरी की स्थापना भी की। राजराजेश्वरी नंदा का ही रूप हैं, जिसे शिव के पास कैलास भेजने की परंपरा राजवंशियों ने ही डाली थी। परंपरानुसार शुक्रवार को देवी को मिलने नौली से लाटू देवता आते हैं और कंडारा में दोनाें भाई-बहन (लाटू और राजराजेश्वरी) का मिलन होता है। यहां से लाटू के साथ देवी कैलास के लिए विदा होती हैं।

(amar ujalala)

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राजजातः 14 साल बाद भाई लाटू से म‌िली नंदा



नंदा राजजात यात्रा में 14 साल बाद आखिरकार वह क्षण आया, जब नंदा अपने भाई लाटू से मिल पाई। सुबह ठीक 9.35 बजे निर्जन पड़ाव की यात्रा के लिए निकली नंदा वाण गांव से करीब एक किमी ऊपर लाटू देवता के मंदिर में पहुंची, तो मंदिर का नजारा ही बदल गया।

कुरूड़ की नंदा के साथ-साथ लाता की डोली और सप्तकुंड की डोली सहित अन्य डोलियां और छंतोलियां मंदिर में पहुंची। पूजा-अर्चना के बीच लाटू मंदिर से बाहर निकले, तो पहले कटार भेंट कर उन्होंने नंदा की परीक्षा ली। नंदा इस परीक्षा में पास हुई तो उसके बाद वर्षों बाद मिले भाई-बहन का मिलन हो पाया।

लाटू सीधे-साधे देवता है और ज्यादा बोल नहीं पाते हैं। हावभाव में लाटू ने बहन नंदा के आगे की यात्रा के लिए पथ-प्रदर्शक होने का निमंत्रण स्वीकार किया।

ठीक 10.35 मिनट पर लाटू की अगुवाई में नंदा अब कैलास यात्रा के लिए रवाना हो गई। आगे के निर्जन पड़ाव है और लाटू की अगुवाई में ही अन्य डोलियां और देव छंतोलियां आगे बढ़ रही है। यात्रा देर शाम रणकधार होते हुए गैरोली पातल पहुंची है। यहां देवी खुले आसमान के नीचे विश्राम करेगी।



यात्रा के पहले निर्जन पड़ाव में मुख्यमंत्री हरीश रावत के दावों कलई खुलकर सामने आ गई। गैरोली पातल में देवी भगवती के जयकारे के बजाय उत्तराखंड सरकार के खिलाफ खूब नारेबाजी हुई। ज्यादा गुस्सा यात्रा समिति को है।

आरोप है कि सारी व्यवस्था अपने हाथ में लेने वाली सरकार ने निर्जन पड़ाव में भी कोई व्यवस्था नहीं की है। यात्रियों का कहना है कि वे रविवार को बेदनी पहुंच रहे मुख्यमंत्री हरीश रावत का विरोध करेंगे।

छोटी सी जगह गैरोली पातल में 100 से अधिक टेंट लगे हैं, लेकिन बरसात और नम मौसम के चलते ये टेंट यात्रियों को राहत देने वाले साबित नहीं हो रहे हैं। वन विभाग की चौकी में एक दुकान लगी है, जिसमें दुगने रेट पर यात्रियों को सामान दिया जा रहा है।

सरकार की तरफ पड़ाव पर नि:शुल्क भोजन व्यवस्था का दावा किया गया था, पर गैरोली पातल में ऐसी कोई व्यवस्था यात्रियों को नहीं मिली। खुद पड़ाव अधिकारी यह कहकर अपना पल्ला झाड़ते रहे कि उन्होंने तीन दिन से खाना नहीं खाया है।

मुसीबत यह है कि यात्रा का यह पहला निर्जन पड़ाव है और सारी छंतोलियों और डोलियों को यहीं पर रात्रि विश्राम करना है।

http://www.dehradun.amarujala.com/

 

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