पन्द्रहवां पड़ाव- शिला समुद्र
पातर नचौणियां से तेज चढ़ाई पार कर यात्रा कैलवा विनायक पहुंचती है, यहां पर गणेश जी की भव्य पाषाण मूर्ति है। यहां से नन्दा घुंघटी व त्रिशूली पर्वत के दर्शन होते हैं, कैलवा विनायक में द्यौसिंह देवी की अगवानी करते हैं, यहां से उसका क्षेत्र आरम्भ होता है। बताया जाता है कि यहां पर कैलवा नाम का गण था, जिसे देवी ने वरदान दिया था कि राजजात में तुमको रवाजा (च्यूड़े) आदि चढ़ाये जायेंगे। कैलवा विनायक से आगे यात्रा बगुवाबासा पहुंचती है, भगवती के वाहन शेर का निवास होने के कारण इस जगह का नाम बगुवाबासा पड़ा। यहां पर स्वामी प्रणवानन्द जी की बनवाई एक धर्मशाला है, जिसे अब बल्लभा स्वेलड़ा (बल्लभा का प्रसूतिगृह) कहा जाता है, यहीं पर कन्नौज के राजा जसधवल की पत्नी को राजजात के दौरान प्रसव हुआ थाम जो शापित हुआ।
यहां से आगे यात्रा रुपकुंड पहुंचती है, यहां पर आज भी सैकड़ों अस्थिपंजर पड़े हैं, यह अस्थिपंजर किसके है, अलग-अलग इतिहासकारों के अलग मत हैं। लेकिन हमारी लोकश्रुति है कि कन्नौज के राजा जसधवल ने जब अपनी सेना से साथ चौदहवीं शताब्दी में परम्परा के विरुद्ध राजजात की, तो यहां पर उसकी सेना सहित अंत हो गया और यह उन्हीं के कंकाल हैं। १६२०० फिट की ऊंचाई पर बसे रुपकुंड से आगे ज्यूंरागली धार तक पूरे यात्रा मार्ग का सबसे कठिन भाग है। शिलासमुद्र पहुंचने के लिये इस चोटी को पार करना जरुरी होता है, लाटू देवता ने यहां पर राजजात यात्रियों को पार कराने वाला टैक्स देने का प्रावधान बनाया था, जो आज भी लागू है। ग्लेशियर शिलाओं, समुद्रनुमा बीरान स्थान शिलासमुद्र पर जात रात्रि विश्राम करती है। यहां पर सूर्योदय से पहले नन्दा घुंघटी पर्वत पर तीन दीपक और धूप की लौ दिखाई देती है।