नरसिंह मंदिर (Joshi Math)
राजतरंगिणी के अनुसार 8वीं सदी में कश्मीर के राजा ललितादित्य मुक्तापीड़ द्वारा अपनी दिग्विजय यात्रा के दौरान प्राचीन नरसिंह मंदिर का निर्माण उग्र नरसिंह की पूजा के लिये हुआ जो विष्णु का नरसिंहावतार है। जिनका परंतु इसकी स्थापना से संबद्ध अन्य मत भी हैं। कुछ कहते हैं कि इसकी स्थापना पांडवों ने की थी, जब वे स्वर्गरोहिणी की अंतिम यात्रा पर थे। दूसरे मत के अनुसार इसकी स्थापना आदि गुरू शंकराचार्य ने की क्योंकि वे नरसिंह को अपना ईष्ट मानते थे।
इस मंदिर की वास्तुकला में वह नागर शैली या कत्यूरी शैली का इस्तेमाल नहीं दिखता है जो गढ़वाल एवं कुमाऊं में आम बात है। यह एक आवासीय परिसर की तरह ही दिखता है जहां पत्थरों के दो-मंजिले भवन हैं, जिनके ऊपर परंपरागत गढ़वाली शैली में एक आंगन के चारों ओर स्लेटों की छतें हैं। यहां के पुजारी मदन मोहन डिमरी के अनुसार संभवत: इसी जगह शंकराचार्य के शिष्य रहा करते थे तथा भवन का निर्माण ट्रोटकाचार्य ने किया जो ज्योतिर्मठ के प्रथम शंकराचार्य थे। परिसर का प्रवेश द्वार यद्यपि थोड़ा नीचे है, पर लकड़ी के दरवाजों पर प्रभावी नक्काशी है जिसे चमकीले लाल एवं पीले रंगों से रंगा गया है।
परिसर के भीतर एक भवन में एक कलात्मक स्वरूप प्राचीन नरसिंह रूपी शालीग्राम को रखा गया है। ईटी. एटकिंस वर्ष 1882 के दी हिमालयन गजेटियर में इस मंदिर का उज्ज्वल वर्णन किया है। एक अत्युत्तम कारीगरी के नमूने की तरह विष्णु की प्रस्तर प्रतिमा गढ़ित है। यह लगभग 7 फीट ऊंची है जो चार महिला आकृतियों द्वारा उठाया हुआ है। पंख सहित एक पीतल की एक अन्य प्रतिमा भी है जो ब्राह्मणों का जनेऊ धारण किये हुए है, जिसे कुछ लोग बैक्ट्रीयाई ग्रीक कारगरी होना मानते हैं। 2 फीट ऊंची गणेश की प्रतिमा अच्छी तरह गढ़ी एवं चमकीली है। मंदिर में लक्ष्मी, भगवान राम, लक्ष्मण, जानकी, कुबेर, गरूड़ और श्री बद्रीनाथ की मूर्तियां भी हैं।
नरसिंह मूर्त्ति के लिए आम विश्वास है कि प्रत्येक दिन इसकी एक कलाई पतली होती जाती है और जिस दिन पूरी गायब होगी, वह दिन बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण होगा। नर एवं नारायण पर्वत जो बद्रीनाथ के प्रहरी हैं, कभी एक-दूसरे से टकराकर बद्रीनाथ मंदिर का मार्ग हमेशा के लिये अवरूद्ध कर देंगे।
इसके बाद इनकी पूजा भविष्य बद्री में सुभाय गांव में होगी जो तपोवन से 5 किलोमीटर दूर होगा और तपोवन जोशीमठ से 18 किलोमीटर दूर है। यहां एक विष्णु मंदिर है। कहा जाता है कि अगस्त मुनि ने यहां तप किया था और तब से ही भगवान बद्री यहां रहते हैं। वास्तव में प्रतिमा की कलाई को देख पाना संभव नहीं होता, क्योंकि नरसिंह की मूर्ति सुंदर परिधानों से सजी होती है जो भक्तों द्वारा चढ़ाये जाते हैं, परंतु पुजारी के अनुसार यह एक बाल की चौड़ाई के समान पतली है।
वह भवन जहां आदि गुरू शंकराचार्य की धार्मिक गद्दी स्थित है, वह भी नरसिंह मंदिर परिसर का एक भाग है। प्राचीन भवन वह स्थान है जहां जाड़ों में मंदिर का कपाट बंद हो जाने पर, बद्री विशाल के प्रतीक रावल की गद्दी को बड़े धूम-धाम एवं समारोह पूर्वक यहां रखा जाता है, जब तक कि गर्मी में कपाट फिर से नहीं खुल जाता। यहां इसे भगवान विष्णु का प्रतिनिधि मानकर श्रद्धापूर्वक इसकी देखभाल की जाती है।
बीते दिनों, टिहरी के राजा द्वारा प्रदत्त नाम, बद्रीनाथ का रावल बड़ा शक्तिशाली होता था। उसे कर संग्रह करने, न्याय करने तथा अपराधियों को सजा देने तक का अधिकार होता था। यह अधिकार उसे एक स्वर्ण कंगन पहनने तथा उसकी गद्दी के कारण मिला था। किसी समय टिहरी के राजा एवं रावल में झगड़ा हो गया तथा कंगन को नदी में फेंक दिया गया। राजा ने उसका अभिषेक भी नहीं किया और गद्दी पर बैठने का उसका अधिकार एवं अन्य शक्तियां भी चली गयीं तथा आज गद्दी को भगवान विष्णु का प्रतीक मानकर रावल उसकी रक्षा करता है।
यह भवन ही जाड़े में बद्रीनाथ के रावल का निवास भी होता है। परंतु वह यहां कभी-कभी ही ठहरता है तथा इन दिनों दक्षिण की यात्रा पर होता है।
नरसिंह मंदिर पर भक्तों द्वारा विशेष पूजा भी की जा सकती है। इनमें विशेष पूजा (351 रूपये), अभिषेक पूजा (251 रूपये), सहस्त्रकमल (75 रूपये) तथा नित्य भोग (351 रूपये) शामिल हैं। मंदिर परिसर में फोटो खींचने की सख्त मनाही है एवं मंदिर की देखभाल बद्रीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति का प्रशासन संभालती है।